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कहानी- बेटी होने का सुख (Short Story- Beti Hone Ka Sukh)

आज पहली बार उसने अपने बेटी होने पर गर्व महसूस किया. बेटी होना सार्थक लगा उसे. ज़िंदगी में पहली बार उसने स्वयं को मां के इतना निकट पाया कि वो उनकी अंतरात्मा की टीस सुन पा रही थी. उनके हृदय पर हुए आघातों के घावों को देख पा रही थी.

डोली में बैठी धीरजा के आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे. सभी सोच रहे थे- आजकल की लड़कियां भी क्या विदा होते समय इतना रोती हैं. आज का ज़माना तो बाय-बाय करके विदा हो जाने का है. फिर धीरजा को क्या हुआ है? बड़ी बहन कलिका तो उसे बार-बार यही समझा रही थी कि क्यों इतना परेशान हो रही है. अच्छा ही तो है, क्या मिला है उसे इस घर से. नरक ही तो भोग रही थी अब तक यहां. पति का घर स्वर्ग समान होगा और न हो, तो बनाने का प्रयास करना.
यही तो वह संसार होता है, जिसकी हर लड़की कामना करती है. जिसको पाने के लिए व्रत-उपवास करती है. कितने ही सपने संजोती है इस छोटे से संसार के. और फिर पति के घर आकर साधिकार उन्हें साकार रूप देने की कोशिश करती है. पर धीरजा के आंसुओं का सबब तो कुछ और ही था. कैसे बताए वह दीदी को कि यह वो संसार नहीं है, जिसकी उसने कामना की थी, यह
वह स्वर्ग भी नहीं है, जिसके लिए उसने व्रत-उपवास किए थे. यह वो हमदर्द नहीं है, जिसके कंधों पर सिर रखकर उसने अपने ग़मों को भूलने की ख़ुशी चाही थी. यह वह हमसफ़र भी नहीं है, जिसके साथ उसने ज़िंदगी का सफ़र तय करने की चाह की थी.
उसका वह संसार तो लुट गया है, उसका स्वर्ग सिसकियों तले दब गया है. नहीं, वह दीदी को ये सब नहीं बताएगी. उसके दुख की अभिव्यक्ति तो उसके आंसू कर रहे हैं, जिनकी मूक भाषा पढ़ने में कोई भी समर्थ नहीं है. कोने में चुपचाप खड़ा श्री शायद उसके मन की बात समझ रहा था, पर वह सामने कैसे आता? धीरजा ने ही तो मना किया था. धीरजा को तो मालूम भी नहीं था कि श्री खंभे की ओट से उसे देख रहा है. मां से तो कुछ भी कहने का प्रश्न ही नहीं उठता. उन्होंने तो उस समय भी कुछ नहीं सुना, जब दीपक के आने पर मात्र छह साल की बालिका से मां का आंचल छिन गया था. उसके हिस्से की लोरी मां ने दीपक के कानों में उंडेल दी थी.
दस साल की कलिका एकाएक बड़ी हो गई थी, तब वह उसे अपने गले से लगा धीरे-धीरे थपकी देकर अपने पास सुलाने लगी, और फिर एक-एक करके मां की सारी ज़िम्मेदारियां उसकी ओर बढ़ने लगीं, जो सुबह पांच बजे पानी भरने से आरंभ होती और झाडू-पोंछा, सुबह का नाश्ता, स्कूल, बर्तन साफ़ करना, शाम को खाने में मां का हाथ बंटाने जैसी तमाम टेढ़ी-मेढ़ी पथरीली राहों से गुज़रती हुई बिस्तर पर पहुंचकर ही ख़त्म होतीं. और हां, इस बीच उसे धीरजा को नहलाना, तैयार करना, नाश्ता कराना आदि कार्यों के साथ कितने ही बहाने बनाते हुए उसे मां की डांट से बचाना भी होता था. यह सब उसकी चौबीस घंटे की दिनचर्या का ही हिस्सा था.


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दो पुत्रियों के बाद दो पुत्रों की जन्मदात्री का पारिवारिक दर्जा कुछ ज़्यादा ही ऊंचा हो गया था. इसीलिए उनका अधिकार क्षेत्र निरंतर बढ़ता जा रहा था और पिता उसी गति से असहाय होते जा रहे थे. इसीलिए जब वो समाज की दृष्टि में स्वयं को हीन बनाने वाली सुपुत्रियों पर अपना कार्यभार शनैःशनैः बढ़ाती रहीं, तो पिता के पास उसे अनदेखा कर स्वीकारने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा, न ही उन्होंने कुछ ऐसा महसूस किया. एकाएक पुत्रियों के प्रति अपने कर्त्तव्य से वो अनभिज्ञ-सी हो गई. ममता की शाखा एक ही ओर से फलती-फूलती रही. दूसरी ओर से उसके निरंतर सूखते रहने का उन्हें कोई दुख भी नहीं था.
बड़े होने के साथ-साथ ये सब कलिका की आदत में शामिल हो गया था.
धीरजा भी बढ़ती उम्र के साथ घर के वातावरण और मां के स्वभाव में आए परिवर्तन को समझने लगी थी. दीदी के नक्शे क़दम पर चलते हुए अब वो दीदी का हाथ बंटाने लगी थी, इस तरह दीदी को थोड़ा आराम मिल जाता. रात को दोनों अपनी आपबीती सुना हल्की हो लेतीं या फिर स्कूल-कॉलेज की किसी बात पर हंस लेतीं. मनोरंजन के नाम पर बस यही कुछ पल उनके अपने थे. यह ज़िम्मेदारी वह दीदी की शादी के बाद भी बख़ूबी निभा रही थी. पर कभी-कभी अपने मन की बात किसी से न कह पाने पर वह स्वयं को बहुत अकेला महसूस करती. मां से निरंतर बढ़ती दूरियों ने उसे काफ़ी कुछ ऐसे में स्वयं में सिमटने पर मजबूर कर दिया था.
इस बोझिल वातावरण से उसे बाहर निकालने और उसके तपते हृदय पर शीतल छींटे देने के लिए प्रकट हुआ श्री. निहायत ही मितभाषी, योग्य और सुशील. उसके पास बैठकर धीरजा को लगता कि उसने उसके मन की वो सारी बातें जान ली हैं, जिन्हें गुबार कहा जा सकता है और जिनके निकल जाने से वह अपने आपको हल्का, चुस्त और ख़ुश महसूस कर सकती है.
कॉलेज के सामने ही एल.आई.सी. के ऑफिस में वह काम करता था. आने का तो नहीं, पर घर जाने का वक़्त दोनों का एक ही था और मुलाक़ात का या यूं कहें कि नज़रें मिलाने का सिलसिला भी इसी रास्ते से शुरू हुआ था.
उनकी मूक भाषा में एक-दूसरे के लिए कुछ ऐसा अपनापन था कि वे अजनबी महसूस नहीं करते थे. यही अपनापन उनके क़रीब आने का सबब भी बना, बस की धक्का-मुक्की के बीच श्री का उसे बचाना या धीरजा को अपनी सीट दे देना या फिर धीरजा द्वारा उसके लिए सीट का रोक लेना… यहीं से आरंभ हुआ था दोनों में बातचीत का सिलसिला. इन्हीं रोज की थोड़ी-थोड़ी बातों से श्री उसके बारे में काफ़ी कुछ जान गया था और उसमें उसके प्रति प्यार के साथ-साथ कुछ सहानुभूति के बीज भी अंकुरित हो आए थे. शायद इसीलिए वो धीरजा का कुछ ज़्यादा ही ख़्याल रखने लगा था.
धीरजा का प्यार परवान चढ़ने लगा था, पर मन में कहीं शंका भी पनप रही थी. वो मां के सामने यह प्रस्ताव रखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी. नौकरीशुदा होने के बावजूद विवाह में हो रहे विलम्ब का कारण श्री नहीं जान पा रहा था. धीरजा ने धीरे से उससे इस समस्या का हल चाहा, पर मां ने तो जैसे उल्टी दिशा में ही चलने का निश्चय कर लिया था. दोनों के लाख मनाने पर भी वो नहीं मानीं, तो बस नहीं ही मानीं. पिता ने बेटी से बस इतना कहा, "मेरी इज़्ज़त तुम्हारे हाथ में है बेटी. तुम्हारी मां से तो मैं यह आग्रह भी नहीं कर सकता." और धीरजा ने अपना सिर झुका लिया था.
श्री के उसके साथ भाग चलने के प्रस्ताव को उसने पिता की इज़्ज़त के लिए हवन कुण्ड में डाल दिया. श्री से हुई अंतिम भेंट के वक़्त कितनी ही बार उसने अपने आंसुओं को पोंछा था. पिता की बेबसी के आगे उसकी अपनी चाहत गौण हो गई थी. श्री ने न चाहते हुए भी धीरजा के लिए उसकी बातें भारी मन से स्वीकार कर ली थीं. विवाह में उपस्थित होने का आग्रह करते हुए धीरजा ने उससे विनती की थी कि विदाई के समय वो वहां न रहे, तो विदाई का ग़म शायद कुछ हल्का हो जाएगा. पर उसका ग़म कहां हल्का हो पाया? श्री भी अपने आपको कहां रोक पाया? खंबे की आड़ ले वो अपने प्यार को बोझिल मन और अश्रुपूरित नयनों से विदा होते देखता भर रह गया.


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रुचिर के घर धीरजा का स्वागत बड़ी धूमधाम से हुआ. मां ने आरती उतारी, स्नेही ने हाथ पकड़ कर गृह-प्रवेश कराया. सारा दिन ऐसे ही हंसी-ठिठोली में बीत गया, पर उसकी आंखें रह-रहकर पति के रूप में श्री को खोजती रहीं. रात को सुहाग की सेज पर बैठी रुचिर का इंतज़ार करते उसे बहुत ही घबराहट हो रही थी. मन-मस्तिष्क जैसे किसी संघर्ष की आग में जल रहे थे, वो नई स्थिति से सामंजस्य बिठाने में अपने आपको असमर्थ पा रही थी. उसका त्याग क्या व्यर्थ जाएगा? उसकी तपस्या का क्या उसे कोई फल नहीं मिलेगा?
उसने अपनी मनःशक्ति को अपने आपमें समाहित किया और एक दृढ़ संकल्प लिया, 'मैं तन-मन-धन से रुचिर की होकर रहूंगी. उसके और उसके परिवार के लिए मैं सदैव कुछ भी करने के लिए तत्पर रहूंगी. अपनी पिछली ज़िंदगी याद कर, उसका मातम मना, अपनी और रुचिर की ज़िंदगी में ज़हर नहीं घोलूंगी. रुचिर ही अब मेरा सर्वस्व है…' कदमों की आहट ने उसे चेताया. उसने रुचिर‌ के समक्ष अपने आपको पूर्ण समर्पित कर दिया.
कर्त्तव्य और धीरज की चादर ओढ़कर उसने अपनी नई ज़िंदगी की पहली सुबह की किरणों का स्वागत किया. रुचिर को निश्चिंत भाव से गहरी नींद में सोता देख उसे बड़ा सुकून मिला. लगा कर्त्तव्य की पहली सीढ़ी उसने पार कर ली है.
कर्त्तव्य की अनेक सीढ़ियां सफलतापूर्वक पार करते हुए विवाहित जीवन के चौबीस साल कैसे बीत गए, उसे पता ही नहीं चला. अब तक वो अपनी बेटी को ब्याह चुकी थी. बेटा भी पढ़-लिखकर एक प्राइवेट फर्म में एक्ज़ीक्यूटिव के पद पर काम कर रहा था. कुल मिलाकर उसका जीवन सुखमय और संतोषजनक था. उसे किसी चीज़ की कमी न थी और न ही चिंता, इस बीच उसने न अपने माता-पिता को याद किया और न ही श्री को. वह रुचिर में या कहें कि रुचिर उसमें इस हद तक समाहित हो गया था कि उससे अलग वह अपना अस्तित्व देख ही नहीं पाती थी. ऐसा नहीं था कि उसे कभी उलझनों का सामना नहीं करना पड़ा. ऐसे में या तो वो अपनी दीदी से मार्गदर्शन लेती या फिर उन्हें कविता का रूप दे हल्की हो लेती.
पिता के पत्र से उसे मालूम हो गया था कि सागर सपरिवार दुबई जाकर बस गया है. दीपक पहले ही मुंबई में बस गया था और जब-तब रहने के मकान की समस्या को उजागर कर यह जता ही देता था कि मां-बाप का उसके साथ रहना लगभग नामुमकिन है.
कुछ समय बाद पिता के एक और ख़त ने उसे बताया कि अकेला घर उन्हें काट खाने को दौड़ता है और वे दोनों ही आजकल बीमार रहने लगे हैं. वह कुछ-कुछ समय के अंतराल से उन्हें देखने चली जाती, पर वहां रहकर उनकी सेवा करना उसके सामर्थ्य में नहीं था. उसकी आवश्यकता उसके परिवार को अधिक थी. उसके बूढ़े सास-ससुर भी तो उसी पर निर्भर थे.
रात साढ़े दस बजे उसके माता-पिता अपने थोड़े-बहुत सामान के साथ उसके ड्रॉइंगरूम में बैठे थे- थके-हारे, टूटे हुए से. उनके कंधे झुके हुए थे. पता नहीं, बेटी के प्रति अपने कर्त्तव्य पूरे न कर पाने की शर्मिंदगी से या बेटों द्वारा अपने कर्तव्य पूरे न किए जाने के बोझ से. सामान और उनकी हालत देखकर वह कुछ अंदाज़ा लगा रही थी, पर उनसे कुछ भी पूछकर वह उनको दुविधा में नहीं डालना चाहती थी. उसने थके-हारे मां-बाप को गरम-गरम दूध दिया और एक कमरे में सोने की व्यवस्था कर सुबह बात करने के लिए कह ऊपर चली गई.
धीरजा ने जब अपने कमरे में प्रवेश किया, तो रुचिर गहरी नींद में सो रहा था. ऐसे में उसने उसकी नींद में विघ्न डालना उचित नहीं समझा. सुबह बात करने का विचार कर वह सो गई. किसी बात से चिंतित हो उठना अथवा किसी बात को बहुत बड़ा करके बोलने की उसकी आदत नहीं थी, बल्कि बड़ी-बड़ी समस्याओं को छोटा समझकर अपने विवेकशील मन और मस्तिष्क से उन्हें ऐसे सुलझा लेना कि घर के अन्य सदस्यों को उसका एहसास तक न हो, उसका गुण बन गया था. इसलिए असमय मां-बाप के आने से उसे किसी प्रकार की चिंता नहीं हुई.
सुबह जब उसने रुचिर को बिस्तर पर चाय पकड़ाई और स्वयं वहीं बैठ गई तो रुचिर की प्रश्नसूचक नज़रें स्वतः ही धीरजा की ओर उठ गई, अन्यथा धीरजा के पास सुबह इतना वक़्त नहीं होता था कि पति के पास बैठकर दो बातें कर सके.
धीरजा धीरे से बोली, "रात को मां-बाबूजी आए थे. आप सो रहे थे, इसलिए मैंने जगाना उचित नहीं समझा. रात को ड्रॉइंगरूम के साथ वाले कमरे में ही उनके सोने की व्यवस्था कर दी थी." कहकर वह उसकी ओर देखती हुई चुप हो गई.
"कुछ कहना चाह रही हो?"


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"हां, सोच रही हूं दीदी आसाम में हैं. सागर दुबई में और दीपक मुंबई में, उसका घर भी छोटा है. मां-बाबूजी वहां समा नहीं पाएंगे. उन्हें सिमरन वाला कमरा दे दें. अपना बुढ़ापा वो भी हम लोगों के बीच हंसी-ख़ुशी बिता लें…" कहकर उसने रुचिर की ओर सहमति की आशा से देखा. रुचिर बगल वाली मेज पर कप रखते हुए बोला, "धीर, मुझे मालूम है, तुम जो भी निर्णय लेती हो, निःस्वार्थ भाव से लेती हो. तुम्हारे निर्णयों से हमेशा ही हम सबका भला हुआ है. मुझे तुम्हारे द्वारा लिए गए निर्णयों पर आपत्ति करने का कोई कारण नज़र नहीं आता. जैसा उचित समझो, वैसा करो. जब-जब तुम अपने सामाजिक दायित्वों को पूरा करने की दिशा में कदम उठाती हो, मुझे बहुत ख़ुशी होती है. लगता है, तुम मेरे दायित्व पूरे कर रही हो. इसीलिए शायद मैं सब ओर से इतना निश्चित हो गया हूं कि किसी चीज़ का ख़्याल ही नहीं रहता. सच मानो तो तुम्हें पाकर मेरा सिर गर्व से ऊंचा हो गया है, यह कहने की बात नहीं है, इसलिए यह बात मैं तुम पर प्रकट भी नहीं करता, पर हृदय में सदा ऐसा ही अनुभव करता हूं."
धीरजा ने संतोष की सांस ली. आज पहली बार उसने अपने बेटी होने पर गर्व महसूस किया. बेटी होना सार्थक लगा उसे. ज़िंदगी में पहली बार उसने स्वयं को मां के इतना निकट पाया कि वो उनकी अंतरात्मा की टीस सुन पा रही थी. उनके हृदय पर हुए आघातों के घावों को देख पा रही थी. अगली सुबह से वह उन घावों की मरहम पट्टी करने में जी-जान से जुट गई.

- अंशु 'रवि'

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