लेकिन कार की ओर बढ़ते-बढ़ते अनायास ही वे मुड़े. सचिव के हाथ से एक पुष्प गुच्छ लिया, दमयंती के पास तक आए और पुष्प उसकी ओर बढ़ा दिया. थरथरा गई दमयंती. इतने सारे लोगों के सामने सिर्फ़ दमयंती को पुष्प गुच्छ प्रदान कर कहीं डॉ. वर्मा रहस्यमयी स्थिति तो पैदा नहीं कर रहे? पुष्प गुच्छ संभालते हुए दमयंती सभी के चेहरे का भाव देखना चाहती थी, पर अनायास ही आंखें डॉ. वर्मा की ओर उठ गईं, जहां से झांक रहा था एक कोमल, संवेदनापूर्ण, पवित्र स्नेह भाव.
कार्यक्रम की रूपरेखा तैयार करते-करते रात के ग्यारह बज गए. वैसे इस तरह के ढेरों कार्यक्रमों के आयोजन ने दमयंती को बेहद प्रवीण कर दिया था, पर आज कार्यक्रम की योजना बनाने में हृदय दमयंती का साथ नहीं दे पा रहा था. मस्तिष्क योजना तैयार करता और हृदय चोरी-चोरी धड़ककर विचारों को बाधित करता जाता. खीझ आ रही थी दमयंती को.
इतने बड़े बच्चों की मां का इस तरह एक अंजाने भय से कांप उठना, एक कोमल भाव को चेहरे पर अलंकृत कर अंदर-ही- अंदर रोमांचित होते रहना, उसे बड़ा अजीब-सा लग रहा था. पर हृदय अपने वश में कहां होता है? भावनाएं तो बहती रहती हैं. सिर को झटककर दमयंती स्वयं को मायाजाल से मुक्त करने का प्रयास करने लगी और सप्रयास तैयार किए गए कार्यक्रम की रूपरेखा का पुनः अवलोकन करने लगी.
संचालन किसके जिम्मे होगा? प्रस्तावित भाषण कितना लंबा होगा? पुष्प गुच्छ से मुख्य अतिथि व मंच पर विराजमान अन्य प्रतिष्ठित व्यक्तियों का स्वागत किस-किसके हाथों कराना होगा? दीप प्रज्ज्वलन के उपरांत सरस्वती वंदना कौन गाएगी और सांस्कृतिक कार्यक्रम के उपरांत कृतज्ञता ज्ञापन की ज़िम्मेदारी किसको देनी चाहिए..? पूरी रूपरेखा तैयार थी. बस मंच संचालन के पूर्व प्रेरणा से एक बार रिहर्सल के लिए कहना होगा.
वैसे तो प्रेरणा को मंच की आदत है, पर कार्यक्रम का संचालन वो पहली बार करने जा रही है. एक रिहर्सल से प्रिंसिपल मैडम आश्वस्त हो जाएंगी, दमयंती सालों से मंच संचालन करती आ रही है, पर इस बार उसके इनकार कर देने से प्रिंसिपल मैडम नर्वस हो रही थीं, इसीलिए दमयंती की इच्छा थी कि इस बार सब कुछ इतने अच्छे तरीक़े से हो कि मुख्य अतिथि तो प्रभावित हों ही, प्रिंसिपल मैडम का यह भ्रम भी टूट जाए कि अच्छा संचालन सिर्फ़ दमयंती ही कर सकती है. दमयंती ने कुछ काव्य पंक्तियां भी तैयार कर ली थीं, ताकि कार्यक्रम की रोचक शुरुआत हो सके.
पिछले तीन रोज़ से प्रिंसिपल मैडम से जब भी आमना-सामना होता, वे कुछ न कुछ तीखे वचन सुनाकर दमयंती को यह जता देतीं कि वो ख़फ़ा हैं. अचानक ही दमयंती के कार्यक्रम संचालन हेतु इंकार कर देने से वे आक्रोश से भर गई थीं. सारा कॉलेज सिर पर उठा लिया था. महीनों से चल रही सांस्कृतिक कार्यक्रम की प्रैक्टिस देखकर भी वो आश्वस्त नहीं हुई थीं कि इस बार कार्यक्रम सफल हो पाएगा. लाल-पीली होती हुई वो दमयंती पर बरस पड़ी थीं-
"ऐन मौक़े पर आख़िर कौन-सी समस्या आ गई है? कार्यक्रम की सफलता का संपूर्ण दायित्व क्या सिर्फ़ प्रिंसिपल का ही होता है?"
"मैडम दरअसल…" दमयंती ने स्पष्टीकरण देने का प्रयास
किया, लेकिन प्रिंसिपल ने उसे अवसर ही नहीं दिया, बिफरती हुई बोलीं, "यदि मुख्य अतिथि कोई सामान्य व्यक्ति होते, तो कोई बात नहीं थी. राज्य के शिक्षा मंत्री आ रहे हैं और तुम… मंत्री महोदय निश्चित ही इस कॉलेज की उन्नति के बारे में कुछ सोचेंगे, आख़िर वो इसी कॉलेज के पूर्व प्राध्यापक रह चुके हैं. उनके स्वागत में कोई कसर नहीं रहनी चाहिए."
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"मैडम… मैं ज़रा तनावग्रस्त हूं. घर की कुछ समस्या है. मैं नहीं कर पाऊंगी." दमयंती सफ़ेद झूठ बोल गई.
"ओह…" ध्यान से दमयंती के चेहरे को देखते हुए प्रिंसिपल मैडम कदाचित उस चेहरे पर तनाव तलाश रही थीं, जहां एक गुलाबी रंगत बड़ी ढीठता के साथ चमक रही थी. पर दमयंती के स्पष्ट इनकार के बावजूद प्रिंसिपल मैडम एक और प्रयास करते हुए बोलीं, "दमयंती, इस बार तुम किसी भी तरह संभाल लेतीं, तो अच्छा रहता. दरअसल, पहली बार इस कॉलेज में शिक्षा मंत्री आ रहे हैं. मैं तो अपनी तरफ़ से प्रयास करूंगी ही, पर मैं चाहती थी कि मंच संचालिका भी बड़ी सफ़ाई से कॉलेज की कुछ समस्याओं पर प्रकाश डालती जाए."
"जी… वो तो ठीक है. मैं आपको आश्वस्त करना चाहूंगी कि कार्यक्रम सफल ही होगा. आप जैसा चाहती हैं, बिल्कुल वैसा ही. मैं मंच संचालन के लिए प्रेरणा से कहूंगी. वो कर लेगी."
"ठीक है…" निराश होती हुई प्रिंसिपल मैडम बोलीं, "पर ध्यान रखना, यह सब तुम्हारी ज़िम्मेदारी है. कुछ गड़बड़ न हो."
"जी हां… बिल्कुल…" दमयंती ने प्रफुल्लित होते हुए कहा, तो फिर एक बार प्रिंसिपल मैडम ने गहरी नज़रों से दमयंती को देख लिया, जहां किसी तनाव, किसी ग़म का नामोनिशान न था. वो चकित थीं… पहली बार दमयंती को ऐसी ढीठता करते हुए जो देख रही थीं.
प्रिंसिपल के जाते ही दमयंती मुस्कुरा दी. चार रोज़ पहले उसे कहां पता था कि मुख्य अतिथि बनकर डॉ. शोभित वर्मा यहां आनेवाले हैं. बड़ी मुश्किल से प्रिंसिपल मैडम का डॉ. वर्मा से संपर्क हो पाया था. इसी शहर में डॉ. वर्मा का घर होने से उनका आना-जाना लगा ही रहता है, ख़ुशक़िस्मती से कॉलेज के फंक्शन के दौरान भी वो आ रहे थे और सहर्ष मुख्य अतिथि बनने को तैयार भी हो गए. दमयंती ने कार्यक्रम हेतु छपवाया गया निमंत्रण कार्ड उठाकर देखा. कार्ड पर सुनहरे अक्षरों में छपा था डॉ. शोभित वर्मा का नाम, दमयंती का हृदय धीरे से धड़क गया.
कितना सुखद संयोग है कि आज डॉ. शोभित वर्मा शिक्षा मंत्री हैं और उसी कॉलेज में प्रमुख अतिथि बनकर आ रहे हैं, जिस कॉलेज में वे कभी प्राध्यापक रह चुके हैं.
तब दमयंती इस कॉलेज की अल्हड़, उत्साहित छात्रा थी. हर वक़्त हंसी-मजाक, धूम-धड़ाका, शोर-गुल यही सब पसंद था दमयंती को. कॉलेज के जीवन को पूरी तरह एंजॉय करने की आकांक्षी दमयंती तब ख़ुशी से झूम जाया करती, जब कॉलेज के ख़ूबसूरत नौजवानों को अपने इर्द-गिर्द मंडराता हुआ पाती. लड़कों को रिझाना दमयंत्ती का शौक था. लड़कों को मोहित कर, अपने ख़ूबसूरत होने के एहसास से झूम जाया करती दमयंती, ऐसा करना उसे अच्छा लगता था.
लेकिन दमयंती के हृदय को छूने का सामर्थ्य किसी में भी नहीं था. अपने इर्द-गिर्द मंडराते युवकों में से यदि कोई उसके लिए मर भी जाता तो उसे फ़र्क़ न पड़ता. उसे तो अपने लिए किसी अनोखे पुरुष का इंतज़ार था, जो आकर्षक भी हो, सलोना भी और जो दमयंती के सौंदर्य की जगह उसके गुणों पर फ़िदा हो, सौंदर्य कहां स्थाई होता है. वक़्त के थपेड़े सौंदर्य को भी नहीं बख़्शते, दमयंती अपने प्रेम में स्थायित्व चाहती थी, इसीलिए किसी सुलझे विचारोंवाले, धैर्यवान प्रियतम का इंतज़ार था उसे.
पहली नज़र में किसी पर मर मिटने का दावा दमयंती नहीं करती. वो सोच-समझकर, जांच-परख कर ही किसी को अपना हृदय देगी, उसने निर्णय किया था. लेकिन अभी तक उसकी नज़रों के सामने से ऐसे व्यक्तित्व वाला कोई गुज़रा ही नहीं था, अतः दमयंती प्रतीक्षारत थी.
तभी कॉलेज में हिंदी के नए प्राध्यापक शोभित वर्मा आए थे. उनके व्यक्तित्व में ऐसा कुछ नहीं था, जो आकर्षित कर जाए. उड़ती नज़रों से सभी की तरह दमयंती ने भी उन्हें देखा और नज़रें फेर लीं. नए प्राध्यापक के आने पर प्रायः छात्रों में यह उत्सुकता रहती है कि उनका क्लास कैसा रहेगा, पर प्राध्यापक शोभित वर्मा के लिए ऐसी कोई उत्सुकता भी नहीं थी दमयंती को.
परंतु जब डॉ. वर्मा ने पहले दिन क्लास शुरू किया, तो उनकी ओजस्वी वाणी ने हौले से छू लिया दमयंती के हृदय को. अनचाहे ही वो एक आकर्षण में बंधने लगी. जाने क्यों लगने लगा कि यह पीरियड कभी समाप्त न हो. महादेवी की कविताओं में छुपे उनके जीवन के सारांश को अभिव्यक्त करते डॉ. वर्मा जैसे दमयंती को अपने से लगे… बेहद अपने.
जैसा सोचते हैं, वैसा होता कहां है? दमयंती को न सोचने का वक़्त मिला, न परखने का. हृदय को बस में रखने का प्रयास भी असफल रहा. वो चकित रह गई, जीवन में प्रेम कदाचित हादसा ही होता है और… यही हादसा दमयंती के साथ हो गया. उसका हृदय उसका अपना नहीं रहा.
अल्हड़, मस्तमौला-सी ज़िंदगी जीनेवाली युवती को गंभीरता की बीमारी हो गई. अब न मस्ती करने को जी चाहता, न सजने-संवरने को, बस, प्रो. वर्मा का ही इंतज़ार रहने लगा उसे.
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क्लास में डॉ. वर्मा ने भी कदाचित दमयंती की वेदना को उसकी आंखों में बांच लिया था. तभी तो वो भी कई बार गूढ़ नज़रों से उसे निहार लेते और उनके चेहरे पर पसर जाती एक कोमल, स्नेहमयी मुस्कुराहट.
दमयंती उस मुस्कान की आभारी हो चली थी, जो दमयंती के स्नेहाभिव्यक्ति को एक मौन स्वीकृति प्रदान करती थी.
दमयंती अपनी भावनाओं को शब्द में पिरोकर अपनी बात डॉ. वर्मा तक पहुंचाना चाहती थी, लेकिन कैसे करती ऐसा? नारी सुलभ संकोच उसे रोक लेता. वो प्रेम-पत्र लिखती भी और फाड़ भी देती. वक़्त गुजरता रहा. डॉ. वर्मा के प्रति दमयंती का आकर्षण महकता चला गया. इस प्रेम का उत्पीड़न इतना गहरा था कि दमयंती की आंखें देर रात तक तकिए को गीला करती रहतीं.
कई बार दमयंती को डॉ. वर्मा पर रोष आता, जो प्रेम स्वीकारने में पहल नहीं कर पा रहे थे. स्नेह तो देखा था दमयंती ने उनकी आंखों में, कभी-कभार चेहरे पर पसर जानेवाली उदासी में और कई बार सारे बंधनों से मुक्त हो होंठों पर खिल जानेवाली उनकी जानलेवा मुस्कुराहट में.
तभी एक बार कॉलेज के वार्षिकोत्सव के दौरान उसकी नज़र डॉ. शोभित वर्मा पर पड़ी, जिनके साथ एक सांवली-सलोनी-सी युवती थी, जो निःसंदेह विवाहित थी. मांग में भरा सिंदूर व गले का मंगलसूत्र उसके विवाहित होने का सबूत था. लेकिन वो महिला डॉ. वर्मा के साथ क्यों? तड़प उठी दमयंती. कहीं वो डॉ. वर्मा की पत्नी तो नहीं? एक अजीब सी बेचैनी से भर उठी थी वह. पर यही सच था… वो डॉ. वर्मा की पत्नी ही थी.
दमयंती ने कई बार चाहा था कि अपने सहपाठियों से डॉ. वर्मा के बारे में कुछ पूछे, पर नहीं पूछ पाई. भय लगता था कि कहीं मन की बात चेहरे पर न झलक जाए, दमयंती अपनी भावनाओं को जलील नहीं होने देना चाहती थी.
पर अचानक यह पता चलते ही कि डॉ. वर्मा विवाहित हैं, दमयंती के इंतज़ार पर एक पूर्ण विराम लग गया. सच्चाई बहुत कड़वी थी, पर इस सच्चाई को पूरी कड़वाहट के साथ ही गले से उतारना दमयंती की नियति बन गई थी. अब भले ही प्रेम शब्दहीन रह गया हो… पर डॉ. वर्मा के चेहरे पर छलक उठे भावों को वो नज़रअंदाज़ नहीं कर पाई और यही वजह थी कि उसने इस प्रेम को हृदय से निकाल देने का कोई प्रयास भी नहीं किया.
एक स्नेहदीप बड़ी निष्ठा से हृदय में जलता रहे, तो हर्ज क्या है? इस प्रेम से व्यथित होने का कष्ट हो या रोमांचित होने का सुख, दोनों दमयंती की अपनी निजी बात थी. इससे इस संपूर्ण संसार में किसी का कोई लेना-देना नहीं था. दमयंती ने हृदय को समझा दिया. दमयंती के हृदय में जलते इस प्रेम की लौ को ज्योत मिलती डॉ. वर्मा के नयनों से, जिनमें स्नेह सागर सदैव उमड़ता रहता… निःस्वार्थ, निष्कलंक, पवित्र…
वक़्त गुज़रता रहा. दमयंती के कॉलेज की पढ़ाई अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि उसका विवाह तय हो गया. हर युवती की तरह दमयंती को भी विवाह की, अपने एक छोटे से घर की, नन्हें-मुन्ने बच्चों की ललक थी. डॉ. वर्मा के प्रति अपने स्नेहिल भाव को हृदय में सजाए दमयंती संजय की पत्नी बन गई. शादी के बाद कुछ साल दमयंती ने सिर्फ़ घरेलू ज़िम्मेदारी निभाई, मां बनी, फिर संजय के ही आग्रह पर उसने अधूरी पढ़ाई पूरी की. एम.ए. कर लिया, पी.एच.डी भी और अंततः उसी कॉलेज में प्राध्यापिका भी बन गई, जहां वो पढ़ती थी.
संजय एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी में सेल्स मैनेजर थे. उन्मुक्त विचारोंवाले, सरल व्यक्तित्व के स्वामी संजय ने दमयंती के जीवन को अभावों से कोसों दूर रखने का सदैव प्रयास किया. दो संतानों की खिलखिलाहट और संजय की निष्ठा और प्रेम ने दमयंती को अपेक्षा से अधिक मानसिक संतुष्टि दी थी, लेकिन उसके मन में बसी डॉ. वर्मा की याद कभी धूमिल नहीं हो पाई… हृदय में बसा स्नेह अनायास ही श्रद्धा में परिवर्तित हो गया. डॉ. वर्मा तो असाधारण व्यक्ति थे. उनकी सफलताओं की ख़बर दमयंती को अख़बारों से मिलती रहती. कई बार दूरदर्शन पर भी डॉ. वर्मा के दर्शन हो जाते.
कोई भय नहीं था उसे कि वो उसे पहचान लेंगे. जाने कितने लोगों से संपर्क रहा है डॉ. वर्मा का. कितने ही छात्र-छात्राओं को पढ़ाया है उन्होंने, उन सबको याद रखना क्या संभव होगा? और फिर दमयंती भी तो काफ़ी बदल गई है. डॉ. वर्मा पहचानें या न पहचानें, पर दमयंती तो उन्हें जानती है? मंच संचालन करते हुए वो अपने शब्दों को लड़खड़ाने से रोक पाएगी, स्वयं पर ऐसा विश्वास उसे नहीं था. इस कार्यक्रम की अहमियत दमयंती भी जानती थी, इसीलिए तो स्वयं को मंच से दूर रखना चाहा था उसने.
सुबह न भूख लगी, न प्यास. रत्ती भर भी घर के दायित्वों के निर्वाह की इच्छा नहीं हुई, बस… मन में एक अजीब-सी खलबली मची थी. सालों बाद अपने श्रद्धेय से सामना करने की उत्सुकता थी शायद.
दो बच्चों की मां बनते ही दमयंती के शरीर में सहज परिवर्तन आ गया था. स्लिम ट्रिम काया बेडौल होती चली गई. इतनी बेडौल कि कई बार संजय उसे मोटी कहकर भी चिढ़ाते थे.
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घर व कॉलेज की ज़िम्मेदारी, बच्चों की देखरेख, अपने पठन-लेखन की रुचि आदि के उपरांत दमयंती इतना समय कभी न निकाल पाती कि अपने शरीर की तरफ़ भी ध्यान दे सके. परसों डॉ. वर्मा आएंगे, यह सोचकर भी अपने प्रेम को लेकर कोई अपराधबोध भी नहीं था दमयंती में. प्रेम तो ईश्वर की कृति है- सुंदर पावन कृति, बशर्ते कि उसमें स्वार्थ न हो, चाह न हो.
कार्यक्रम की पूर्व तैयारियां ज़ोरों पर थीं. मंच संचालिका से एक बार रिहर्सल करवा लेने के बाद भी दमयंती आश्वस्त नहीं थी. कुछ कविताओं की पंक्तियां उसे देते हुए दमयंती ने कहा था, "स्वागत के लिए इन पंक्तियों को रट लेना. कार्यक्रम में निखार आ जाएगा व माहौल भी अच्छा बनेगा. प्रेरणा, सब कुछ ध्यान से करना, कहीं कुछ ग़लत न हो जाए."
"तुम बहुत परेशान लग रही हो दमयंती. आख़िर बात क्या है?"
"कुछ नहीं… जिस काम के लिए मैंने मना कर दिया था, चाहती हूं उसे तुम अच्छी तरह से पूरा करो."
"ऐसा ही होगा दमयंती. तुम आश्वस्त रहो." प्रेरणा ने अपने दोनों हाथों को दमयंती के कंधों पर रखते हुए कहा, तो दमयंती सचमुच आश्वस्त होने का प्रयास करने लगी.
निर्धारित समय पर डॉ. वर्मा का आगमन हुआ. उनके आने के पूर्व पुलिस विभाग द्वारा जांच कर ली गई थी. दमयंती प्रिंसिपल मैडम के साथ दरवाज़े पर ही थी बगैर किसी उधेड़बुन के. पर दर्शन की एक सहज, सुलभ आकांक्षा ने आंखों को बेचैन कर रखा था.
कॉलेज में उनके प्रवेश करते ही छात्राओं द्वारा पुष्प बरसाकर उनका स्वागत किया गया और ऐसा करते ही एक स्मित मुस्कान उनके होंठों पर फैल गई. दमयंती भी मुस्कुरा दी. कोई ख़ास अंतर नहीं आया था डॉ. वर्मा में. बस बाल कुछ ज़्यादा ही सफ़ेद हो गए थे और तोंद भी निकल आई थी. दमयंती देखती रही. आज भी वही सज्जनता स्पष्ट झलक रही थी उनके चेहरे पर,
प्रेरणा ने अपने दायित्व का निर्वाह अच्छी तरह से किया, शुरू में ही मंच संचालन सुरुचिपूर्ण पाकर प्रिंसिपल मैडम का चेहरा भी खिल गया.
डॉ. वर्मा ने जब अपनी ओजस्वी वाणी में बोलना शुरू किया, तो हॉल में एक सन्नाटा छा गया. दमयंती का हृदय भाव विभोर होता जा रहा था. सधी हुई वाणी, प्रखर बुद्धि का परिचायक उपयुक्त शब्द चयन और विलक्षण प्रतिभा के द्योतक उनके विचार… कितना अद्भुत सामंजस्य था, सब कुछ नपा-तुला… न कम, न ज़्यादा.
सालों बाद पुनः डॉ. वर्मा को सुन मानो धन्य हो गई दमयंती. एक छोटी-सी आकांक्षा जागी मन में, "काश… वो पहचान लेते." एक उत्सुकता जागी मन में यह जानने की कि यदि पहचान लेंगे, तो कैसी प्रतिक्रिया होगी? जिनके लिए हृदय में अपार श्रद्धा हो, पूज्यनीय भाव हो, क्या उनसे इतनी-सी उम्मीद रखना ग़लत है? नहीं… दमयंती के ही हृदय ने जवाब दिया. वो डॉ. वर्मा के क़रीब तक जाने का अवसर तलाशने लगी.
और… यह अवसर बड़ी आसानी से बगैर प्रयास किए दमयंती को तब प्राप्त हो गया, जब उन्हें मेहमानकक्ष में बिठाकर जलपान पेश करने की ज़िम्मेदारी अचानक ही प्रिंसिपल मैडम ने दमयंती को सौंप दी. डॉ. वर्मा कुछ भी खाने-पीने को तैयार न थे. व्यस्तता का कारण बताकर वो सिर्फ़ एक बोतल ठंडा पीकर बाहर निकलने को तत्पर हो गए.
प्रिंसिपल मैडम व अन्य प्रोफ़ेसरों के साथ दमयंती भी उनको विदा करने गेट तक आई. सुरक्षा कर्मियों से घिरे डॉ. वर्मा बड़ी तेजी से गेट पर पहुंचे थे. सभी उनकी कार के पास एकत्रित थे, उन्होंने सबको अभिवादन कहा. लेकिन कार की ओर बढ़ते-बढ़ते अनायास ही वे मुड़े. सचिव के हाथ से एक पुष्प गुच्छ लिया, दमयंती के पास तक आए और पुष्प उसकी ओर बढ़ा दिया. थरथरा गई दमयंती. इतने सारे लोगों के सामने सिर्फ़ दमयंती को पुष्प गुच्छ प्रदान कर कहीं डॉ. वर्मा रहस्यमयी स्थिति तो पैदा नहीं कर रहे? पुष्प गुच्छ संभालते हुए दमयंती सभी के चेहरे का भाव देखना चाहती थी, पर अनायास ही आंखें डॉ. वर्मा की ओर उठ गईं, जहां से झांक रहा था एक कोमल, संवेदनापूर्ण, पवित्र स्नेह भाव.
गदगद हो उठी दमयंती, दमयंती के हृदय की पवित्र भावना को बड़ी कोमलता से स्वीकार कर सालों बाद ही सही, पर डॉ. वर्मा ने एक प्यारा प्रतिदान तो दे ही दिया था. डॉ. वर्मा जा चुके थे. दमयंती ने देखा, सभी के चेहरे पर एक प्रश्नचिह्न था, पर स्पष्टीकरण देने की कोई आवश्यकता नहीं समझी दमयंती ने. प्रश्न चिह्न तो समय के साथ-साथ चेहरे से मिट जाएंगे, पर सच बताया तो बेवजह शंका के घेरे में आ जाएगी वो.
मन के रिश्ते की बात मन से ही होती है, जुबां से नहीं. बड़ी सहजता से दमयंती ने होंठों को भींच लिया.
- निर्मला सुरेन्द्रन
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