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कहानी- नेहा (Short Story- Neha)

"अरे बच्चों पर विश्वास करना भी सीख. अगर हम उन पर विश्वास करेंगे, तो वे भी हमारा विश्वास तोड़ने से पहले दस बार सोचेंगे. उन्हें अपना रास्ता ख़ुद तय करने दे. साथ ही यह भी देखते रहें कि उनके द्वारा तय किया गया मार्ग ग़लत तो नहीं है."

नेहा अब सोलह साल की हो गई थी. हमारी शादी के काफ़ी समय बाद नेहा की किलकारी आंगन में गूंजी थी. हम दोनों अपना भरपूर प्यार नेहा पर लुटाते, मैं उसे अपनी आंखों से थोड़ी देर के लिए भी ओझल न होने देती. उसके स्कूल आने-जाने, सहेलियों के घर जाने का और खेलने का समय निश्चित था. उसके एक-एक मिनट का हिसाब मैं रखती. हालांकि यह मेरा प्यार था, लेकिन नेहा इससे परेशान सी हो जाती थी.
स्कूल से जाने में थोड़ी देर हुई नहीं कि में स्कूल में फोन कर देती या फिर उसकी सहेलियों के यहां फ़ोन घनघना देती थी. मेरे इस तरह के व्यवहार से नेहा की सहेलियां उसे अभी भी 'छोटी बच्ची' कहकर चिढ़ाती थीं.
एक दिन नेहा स्कूल से देर से लौटी, इस कारण मैं काफ़ी परेशान थी. मैंने उसे छोटे बच्चे की तरह सीने से लगा लिया और फिर काफ़ी देर तक रोती रही, "नेहा, तू मेरी इकलौती संतान है, तेरे बिना मैं जी नहीं सकूंगी, यदि कभी तुझे कुछ हो गया, तो मैं तो मर ही जाऊंगी." मैं भावनाओं में बहते हुए अपनी रौ मैं कहती चली गयी.

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नेहा ने मेरी बात को सुना-अनसुना करके हंसते हुए कहा, "मम्मी, जब मेरी शादी हो जाएगी तब क्या करोगी? और देखना मम्मी मैं भी सात समंदर पार का दूल्हा पसंद करूंगी." नेहा की नासमझी भरी इस बात पर मुझे भी हंसी आ गई. बनावटी ग़ुस्सा दिखाते हुए मैंने कहा, "बड़ी आई शादीवाली. तब की तब देखी जाएगी, पर अभी तो समय से घर आया कर."
अगले दिन नेहा ने घर आकर कहा, "मम्मी, हमारे स्कूल की सभी लड़किया पिकनिक के लिए जा रही है. सात दिन का टूर है और सिर्फ़ सात सौ रुपए भरने हैं. सच मम्मी, बड़ा मज़ा आएगा. मैंने भी अपना नाम लिखवा दिया है." उसकी बात से मेरे तो प्राण ही सूख गए. सात दिन के लिए नेहा मेरी आंखों से दूर हो जाएगी.
मैंने कहा, "आजकल दुर्घटनाएं बहुत होने लगी हैं, इसलिए तुम अभी मत जाओ. पापा से कहकर इस बार हम लोग शिमला घूमने चलेंगे."
नेहा ने बच्चों की तरह मचलते हुए कहा, "ओह मम्मी, जो मज़ा सहेलियों के साथ आएगा, वह तुम लोगों के साथ कहा आएगा. आधा रास्ता तो तुम लोगों के लड़ने में ही निकल जाएगा और मुझे मुंह बंद किए हाथ बांधे कभी आपका, तो कभी पापा का मुंह देखना पड़ेगा." किसी तरह बात आई-गई हो गई.
यह बात और है कि कभी अकेले में मैं आत्ममंथन करती, तो महसूस करती थी कि नेहा पर ज़्यादा बंदिशें लगाना अच्छी बात नहीं है. यह उसके विकास में बाधक हो सकती है, परंतु अपनी ममता के हाथों में पुनः विवश हो जाती.
इसी बीच मेरी सहेली का फोन आया कि उसकी बेटी स्वीटी कम्प्यूटर कोर्स के लिए कानपुर से दिल्ली आ रही है. मैंने आश्चर्य से उससे पूछा, "क्या स्वीटी अकेली आ रही
है? और वह यहां रह कर कोर्स करेगी?" तब मेरी
सहेली ने हंसते हुए कहा, "तो इसमें इतने आश्चर्य की क्या बात है? अरे, स्वीटी अब बड़ी हो गई है. अपनी ज़िम्मेदारी समझती है. अकेली रहकर कोर्स करने के साथ-साथ आत्मनिर्भर भी तो बनेगी वह." मैं, "फिर भी, फिर भी…" कहती रही और फोन कट गया.

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अगले दिन सुबह स्वीटी आ गई. उसमें निर्भीकता थी. बातचीत करने में निडरता थी. उसके कार्य व्यवहार को देखते हुए नेहा उसके सामने बौनी लग रही थी. शाम को जब सब खाना खाने बैठे तब स्वीटी हंसते हुए बता रही थी, "अंकल, मैं जब कानपुर से दिल्ली के लिए रवाना हुई, तब मेरी आरक्षित सीट पर एक लड़का बैठ गया. मैंने उससे प्रार्थना की कि भइया ये मेरी सीट है, लेकिन वह सुनने को तैयार ही नहीं था. उसने सोचा, लड़की है, डरकर कहीं और बैठ जाएगी, तब मैंने उसका कॉलर पकड़ा और उसे उठाते हुए कहा, 'यहां से चलता बन नहीं तो ऐसा हुलिया बिगाहूंगी कि पहचान में भी नहीं आएगा.' तब तक टी.सी. और दूसरे लोग आ गए और मैं अपनी सीट पर बैठकर यहां आ गई." इसी के साथ स्वीटी हंसने लगी. मैंने पूछा, "लेकिन बेटी, तुम्हें डर नहीं लगा."
"ओह आंटी, ऐसे डरकर रहेंगे, तो घर से बाहर नहीं निकल पाएंगे." स्वीटी ने बड़ी निर्भीकता से कहा.
रात को स्वीटी नेहा के कमरे में ही ठहरी. उसने नेहा को अपनी निडरता के कई क़िस्से सुनाए, जिन्हें सुनकर नेहा को मज़ा भी आया और साथ ही वह मानसिक तौर पर मज़बूत भी होने लगी.
जो डर मैंने उसके दिलो-दिमाग में बिठा दिया था, उससे नेहा धीरे-धीरे मुक्त हो रही थी. अगले दिन स्वीटी के साथ नेहा भी इंटरव्यू के लिए गई तीन-चार दिन यूं ही गुज़र गए. इस बीच स्वीटी की मम्मी का कोई फोन नहीं आया. मैं सोचने लगी, कैसी कठोर दिल मां है. चार दिन हो गए, बेटी का हालचाल भी नहीं पूछा. न जाने वह स्वीटी के बिना कैसे रह रही होगी, मैने ही उसे फोन किया. स्वीटी के दिल्ली सकुशल पहुंचने की बात को उसने सहज ही लिया. फिर मुझे समझाते हुए बोली, “देख बच्चों को ज़्यादा पिछलग्गू नहीं बनाना चाहिए. उन्हें आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित करना चाहिए. और हां, अपने बच्चे तो सभी को प्यारे होते हैं, लेकिन प्यार को उनकी उन्नति के मार्ग में बाधक नहीं बनने देना चाहिए, ख़ासतौर पर लड़कियों के मामले में."
मैंने बड़ी मासूमियत से कहा, "वो तो ठीक है, लेकिन बच्चे यदि ग़लत राह पकड़ लें तो..?"
तब मेरी सहेली ने कहा, “कैसी बात करती है! अरे बच्चों पर विश्वास करना भी सीख. अगर हम उन पर विश्वास करेंगे, तो वे भी हमारा विश्वास तोड़ने से पहले दस बार सोचेंगे. उन्हें अपना रास्ता ख़ुद तय करने दे. साथ ही यह भी देखती रहें कि उनके द्वारा तय किया गया मार्ग ग़लत तो नहीं है. उसमें उन्हें आगे धोखा तो नहीं उठाना पड़ेगा."
फोन रखने के बाद मैं नेहा के बारे में सोचने लगी, 'क्या यह मेरे लिए संभव हो पाएगा? क्या नेहा को मैं अपने से दूर रख पाऊंगी? शाम को जब स्वीटी और नेहा आईं, तो नेहा बेहद ख़ुश थी. वह भी स्वीटी की तरह बनना चाहती थी. तब उसके मन में छिपी भावनाओं को समझ मैंने अपने मन पर पत्थर रख यह निश्चय किया कि अब कभी भी मैं नेहा के मार्ग में रोड़ा नहीं बनूंगी.

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नेहा ने एम. डी. कर लिया है और आज रिसर्च फाउंडेशन की तरफ़ से कॉन्फ्रेंस में भाग लेने के लिए कनाडा जा रही है. मैंने उसे सीने से लगा लिया. मेरे आंसू अविरल बहे जा रहे थे. नेहा एक क्षण के लिए डर गई कि कहीं मम्मी अपनी ममतावश उसे कनाडा जाने से रोक न दें. तब मैंने उसके गालों पर थपकी देते हुए कहा, “पगली, ये आंसू तुझे रोकने के लिए नहीं हैं. ये तो एक मां की ख़ुशी के आंसू हैं कि उसकी बेटी उन्नति के शिखर तक पहुंच गई है."

- संतोष श्रीवास्तव

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