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कहानी- इंद्रधनुष (Short Story- Indradhanush)

"मुझे फोन नहीं किया… मैसेज ही दे देते.”
“तुमने सरप्राइज़ दिया, तो सोचा, मैं भी दे दूं.”  उसकी बात सुनकर केतकी की आंखों में नमी उतर आई. किसी तरह खरखराते गले से पूछा, “नाराज़ हो?”
“हां, था तो… तुम्हारा मैसेज पढ़कर ग़ुस्सा भी आया और दुख भी हुआ. ग़ुस्सा और दुख कम हुआ, तो डर ने मन में जगह बना ली कि कहीं ये हमारे रिलेशनशिप के बिखराव की शुरुआत तो नहीं.”

जमशेदपुर न जाने के लिए केतकी ने अपने मन को समझाकर शांत कर लिया था, पर शमिता ने  आकर उसमें कंकड़ फेंक दिया. अशांत मन की हिलोर में वो सब दिखने लगा, जिसे वह अब तक नज़रअंदाज़ करती आई थी.
शमिता उसके बचपन की सहेली है. केतकी और शमिता दोनों के परिवार जमशेदपुर में हैं. उनके बीच पारिवारिक मित्रता भी है.
पिछले साल केतकी की शादी कोलकाता वासी दुष्यंत घोष से हुई. यह सुखद इत्तफ़ाक रहा कि शमिता ने भी छह महीने बाद कोलकाता में एक मल्टीनेशनल कंपनी ज्वाइन कर ली.
आज सुबह-सुबह वह घर आ धमकी और आते ही आवेश में बोली, “हद है यार! तुम्हारे पैरेंट्स की गोल्डन मैरिज एनिवर्सिरी है और तुम आराम से यहीं बैठी हो.”
शमिता का आना और जमशेदपुर साथ ले जाने की ज़िद के पीछे ज़रूर कविता दी का हाथ है. यह समझने में उसे पल भर न लगा. दरअसल, तीन दिन पहले ही केतकी की बड़ी बहन कविता का फोन आया था, “मैं और तेरे जीजाजी 20 जनवरी को जमशेदपुर आ रहे हैं. मम्मी-पापा की गोल्डन एनिवर्सरी के लिए कुछ सरप्राइज़ प्लान किया है. तुम और दुष्यंत भी पहुंच जाना.”
बड़ी बहन के आदेश पर उसने कुछ हिचकते हुए कहा, “ठीक है दीदी, दुष्यंत से पूछ कर बताती हूं.”
पर दुष्यंत के कुछ ऑफिस कमिटमेंट निकल आए और उसने जमशेदपुर जाने में असमर्थता ज़ाहिर कर दी.
“हद है यार! हम लोग दिल्ली से आ रहे हैं और तुम लोग कोलकाता से नहीं आ सकते… और तो और तेरी सहेली शमिता भी आ रही है.” कविता दी ने ताना मारा, पर वह चुप रही.
कैसे कहती कि जीजाजी तो उनके कहे में रहते हैं और शमिता का तो ख़ुद का घर जमशेदपुर में है. इसी बहाने वह घर हो आएगी. पर उसे दुष्यंत की हां या ना का ख़्याल रखना पड़ता है. रखना भी चाहिए. उसके ऑफिस कमिटमेंट्स के चलते भी वह उससे चलने की ज़िद करे, यह नासमझी कम से कम वह तो नहीं कर सकती. आख़िरकार एडजेस्टमेंट ही तो सुखद दाम्पत्य की नींव है. यह सब सोचते हुए कहां सोचा था कि कविता दी  शमिता को भेजकर उस पर जमशेदपुर आने का दबाव बनाएंगी.
शमिता तो है ही हठी. आते ही फ़रमान सुना दिया, “कुछ मत सोच, बस तैयार हो जा. मैंने कविता दी से वायदा किया है कि तुझे लेकर ही आऊंगी.”


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“अरे! क्यों किया मुझ पर मुसीबत लादने वाला वायदा…”
“अंकल-आंटी की मैरिज एनिवर्सरी में जाना तुझे मुसीबत लग रहा है.”
“अरे वो बात नहीं है शमिता. ऐसे अचानक कैसे चल दूं…”
वह खीजी तो शमिता इत्मीनान से बोली, “बहुत आसान है. पैकिंग करो… दुष्यंत को मैसेज करो और चल दो. पर उससे पहले मुझे एक कप अदरक वाली चाय पिला दो.”
चाय की मांग सुनकर वह अचकचाई, तो शमिता ने उसे घूरकर देखा, “क्या हुआ, अदरक नहीं है या चाय नहीं है?”
“अदरक तो है, पर चाय पीती नहीं हूं न. छोड़ दी. अब कॉफी…”
“… क्योंकि दुष्यंत को पसंद है.” शमिता ने  अधूरी पंक्ति पूरी करते हुए बैठक पर नज़रें घुमाईं और दूसरा सवाल दाग दिया, “तूने  डेकोर चेंज किया है क्या?”
“हां, दुष्यंत को लग रहा था कि टू मच ट्रेडीशनल हो रहा है, उसने थोड़ा वेस्टर्न लुक दे दिया है.”
“गुजराती थीम देने के लिए तूने कहां-कहां से टिप्स उठाए थे… कितनी क्रिएटीविटी दिखाई थी. वो सारी मेहनत तो गई पानी में… थोड़ा रुक जाती, तो कम से कम पहले वाली मेहनत वसूल हो जाती.”
“हां, पर दुष्यंत कम्फर्टेबल नहीं था…”
“तू तो कंफर्टेबल है न दुष्यंत के साथ…” उसने  गहरी नज़र से उसे देखा, पर वह जवाब देने के लिए रुकी नहीं और रसोईं में चली गई.
“कॉफी मत बनाना मेरे लिए… पास आकर बैठ, आज स़िर्फ गप्पों का लुत्फ़ उठाएंगे.”


गप्पों का लुत्फ़ तो न उठा, हां टीस ज़रूर मन में उठ गई.
जाते-जाते कह और गई कि वह बहुत बदल गई है, इतनी तेज़ी से होने वाले बदलाव को रोक दे.
पर उसे नहीं लगता है कि वह बदली है… और अगर बदली भी है, तो क्या हुआ. बदलाव तो जीवन का शाश्‍वत सत्य है. पुराने की विदाई और नए का आगमन तो जीवन को जीवंत रखता है.
अब ख़ुद को कितनी भी तसल्ली दे ले, पर सच तो ये है कि शमिता के जाने के बाद से वह अपने पुराने डेकोर को खोज रही है.
यह सच है कि स़िर्फ सोफे, डेकोरेशन और परदे ही नहीं. और भी बहुत कुछ था, जो बदल गया रत्ती-रत्ती. बेकल सी इधर-उधर भटकती नज़रें  कॉर्नर टेबल पर रखी दुष्यंत की फोटो पर टिक गई. ऐसा लग रहा था वह अभी बोल पड़ेगा, “देखो, केतकी, मैंने शादी से पहले ही कह दिया था कि मुझे हाउसवाइफ ही चाहिए. फिर तुमने कॉलेज में क्यों अप्लाई किया…? यार बैंगन का भुरता क्यों बना दिया…? उफ़ ये मजेंटा कलर कितना भड़कीला है…”
“यार तुम्हारे जीजाजी इतना हंसते क्यों हैं…? इतने लाउड क्यों हैं?” ऐसे बहुत सारे क्यों के साथ सामंजस्य बिठाते-बिठाते उसने इन दो सालों में अपने अस्तित्त्व का कतरा-कतरा एडजस्टमेंट के हवाले कर दिया.
उसे तो अब ये भी याद नहीं कि उसका पसंदीदा रंग कौन सा है या उसको कैसा खाना पसंद है. वह कहां जाना चाहती है… दुष्यंत उस पर इस तरह हावी हो गया है कि वह ख़ुद को नहीं ढूंढ़ पाती.
आंखों के सामने दो दिन पहले की रात घूम रही थी, जब दुष्यंत संजीदगी से लैपटॉप पर काम कर रहा था और वह उसके पास आकर उसके कंधे को हौले से दबाते हुए बोली थी, “सुनो, 18 नवंबर को मम्मी-पापा की मैरिज एनिवर्सरी है.”
जवाब न मिलने पर बात दोहराई.


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“गोल्डन एनिवर्सरी है. कविता दीदी और जीजाजी ने कुछ सरप्राइज़ प्लान किए हैं. हम भी चलेंगे न?”
उसकी बात सुनकर दुष्यंत की की-बोर्ड पर  थिरकती उंगलियां रुकीं. उड़ती सी नज़र उस पर डालकर उंगलियां फिर थिरकने लगीं… “सॉरी, नहीं जा पाएंगे. क्लोज़िंग चल रही है. ऑफिस में बहुत काम है.”
“मैं चली जाऊं?”
“तुम कैसे जाओगी, मुझे भी तो दिक़़क्त होगी. फिर कभी चले जाएंगे. वैसे भी वहां भीड़भाड़ होगी… और तुम्हारे जीजाजी…” उसकी ओर देखे बिना ‘जीजाजी’ शब्द पर उसका हल्का सा  हंसना, हंसना भर नहीं था.
जब से जीजाजी ने उसे टोका है, “यार तुम कभी हंसा भी करो…” तब से वह उनसे कुछ चिढ़ा सा रहता है.
दुष्यंत और अनिल जीजाजी में कितना फ़र्क़ है. जहां अनिल जीजाजी रौनक़ लगाए रहते हैं, वहीं दुष्यंत की उपस्थिति में सब असहज और औपचारिक हो जाते हैं.
“केतकी, तुम बस दुष्यंत का ध्यान रखना. तुम  इधर बैठकर गप्पें मत मारो. दुष्यंत को देख लिया करो, किसी चीज़ की ज़रूरत तो नहीं… कुछ चाहिए तो नहीं…” आतंकित भाव से कहने वाली मम्मी जब अनिल जीजाजी को घर की ज़िम्मेदारी सौंपती है, तो उसका मन टीस उठता है.
सिक्के का दूसरा पहलू यह भी है कि दुष्यंत से पहली बार मिलनेवाला आगंतुक उसके व्यवहार से प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता है. वह भी तो उसके गांभीर्य और शिष्ट व्यवहार से बेहद प्रभावित हुई थी. तब शायद जानती नहीं थी कि  गंभीर और शालीन व्यक्ति संवेदनशील हों, ये ज़रूरी नहीं होता और जब ये दर्शन समझ में आया, तब तक देर हो चुकी थी.
दुष्यंत जब पहली बार उसे देखने आया था, तब मम्मी और कविता दी ने उसके सत्कार में डायनिंग टेबल व्यंजनों से भर दिया थी. खाना खाने सब लोग बैठे ही थे कि उसी समय दुष्यंत का मोबाइल बजा.
“एक्सक्यूज़ मी..” कहकर वह देर तक फोन पर बात करता रहा. सब इस इंतज़ार में थे कि वह फोन रखे और सब खाना खाएं. ख़ुद को महत्वपूर्ण जताने का उसका ये सोचा-समझा इरादा नहीं था, पर मम्मी- पापा समझ गए उसके आत्मकेंद्रित, आत्ममुग्ध व्यक्तित्व को. पर उसे तो स़िर्फ दुष्यंत दिखाई दिया. दुष्यंत के एक्स्क्यूज़ मी, सॉरी जैसे शिष्टाचार और काम के प्रति समर्पण के मिले-जुले प्रभाव ने उस पर जादू सा कर दिया.
अब उस जादू का तिलस्म तो बनाए रखना ही था. वो अलग बात है कि मम्मी-पापा, कविता दी पर तिलस्म प्रभाव न डालता था, तिस पर भी वह इस बात को ज़ाहिर न करते. पर शमिता का क्या…  उसने तो आज ही बातों से बातें निकाल कर मुंह पर कह दिया, “मैंने ऑब्ज़र्व किया है तेरा दुष्यंत बहुत सेल्फ सेंटर्ड और डॉमिनेटिंग है.”
“अब उसका स्वभाव ही ऐसा है, तो है.”
“थोड़ा उसको बदल. पता नहीं क्यों, मुझे ऐसा लगता है जैसे उसके साथ तेरा एफर्टलेस रिलेशनशिप नहीं है. याद है जब कविता जीजी वाले जीजाजी आए थे, तब कैसे हम सब मजमा लगाकर रखते थे. वो भी हंसी-मज़ाक करते नहीं थकते… और वहीं जब दुष्यंत घर में आया था, तो एक अजीब सा सन्नाटा पसरा था… मुझे तो अंकल-आंटी पर दामादी सत्कार की तलवार हमेशा ही लटकी दिखाई दी, पता नहीं कब दुष्यंत बाबू बुरा मान जाएं.”
“ऐसा कुछ नहीं है. उसका चेहरा ही ऐसा है.”
“तो किसी हंसते हुए चेहरे से शादी करती न…” बेसाख्ता शमिता के मुंह से निकला, तो उसका चेहरा स्याह हो गया और मस्तिष्क पटल पर  ललित का चेहरा उभर आया.
दुष्यंत से मिलने के कुछ दिन बाद वह रिश्ते के लिए उससे भी मिली थी. ललित जब आया, तो उसके सरल-सहज व्यवहार पर मम्मी-पापा रीझ गए. चाय-नाश्ते के बीच हो रही बातचीत के बीच उसने अपना मोबाइल साइलेंट पर रख दिया.    इन बारीक़ियों को नोटिस करने की अनुभवी नज़र उसके मम्मी-पापा में थी, पर उसकी नज़र में सीधा-सादा, सांवला, दुबला-पतला
मुस्कुराती आंखों वाला ललित नहीं चढ़ पाया था.
“इंदौर वाली जीजी ने कहा है लड़का अच्छा है, आंख मूंदकर रिश्ता कर लो.” मम्मी ने हर तरह से उसे आश्‍वस्त किया, पर उसकी आंखों में जिस सजीले राजकुमार की छवि बसी थी, वो तो दुष्यंत से मेल खाता था. अच्छा पद, लग्ज़री गाड़ी, बढ़िया फ्लैट के मालिक दुष्यंत के आगे, तो ललित कुछ भी नहीं, बावजूद इसके वह मम्मी-पापा को पसंद आया, यह बात उसे खिजा जाती.
“शादी-ब्याह बराबर वालों के साथ ही निभती है. दुष्यंत के परिवार का स्टेटस हमसे कहीं ऊंचा है.” मम्मी ने कहा, तो वह बोली थी, “ये सब पुरानी धारणा है. लोग अपनी बेटियों के लिए राजकुमार से वर की अभिलाषा रखते हैं.
राजकुमार घर के द्वार पर खड़ा है और आप
कहती हो उस भिश्ती से शादी कर लो…” उसकी हंसी-हंसी में कही बात में छिपा उसका इशारा समझ मम्मी-पापा मौन हो गए और वह दुष्यंत की हो गई.
मोबाइल पर आए मैसेज की आवाज़ से विचारों की बनती-बिगड़ती कड़ियां टूट गईं. शमिता का मैसेज था- ‘अपना टिकिट बुक करवा रही हूं. तू एक बार और सोच ले. अंकल-आंटी ख़ुश हो जाएंगे.’

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दो पल नहीं लगे उसे मैसेज करने में- ‘सोच लिया, पैकिंग कर लेती हूं, मुझे भी पिक कर लेना.’
बदले में अंगूठे वाली इमोजी उभरी और दूसरे पल जमशेदपुर वाली बस का ऑनलाइन टिकट का स्क्रीन शॉट उभरा.
घड़ी की ओर नज़र डाली, तो देखा साढ़े दस बज रहे थे. दो घंटे बाद निकलना था. इतना बड़ा निर्णय बड़ा झटका देगा दुष्यंत को. क्या कहेगा वह? क्या करेगा वह… उस पर नाराज़ होगा. उसके इस कदम से स्तब्ध हो जाएगा…  बोलचाल बंद कर देगा, उसे ताने देगा… अगली बार उससे बिना पूछे ऐसा कदम न उठाने की चेतावनी देगा. कुछ तो ज़रूर ही करेगा. अब जो भी हो…
शमिता की यह बात भी संबल देती रही, “उसे रिएक्ट करने का मौक़ा तो दे… तू तो वो मम्मी  है, जो अपने बच्चे को रोने ही नहीं देती. कभी-कभी रोना सेहत के लिए अच्छा होता है. दुष्यंत रूठे, तो मना लेना. रूठने-मनाने से दांपत्य में आई एकरसता टूटती है.”
शंका-आशंकाएं परे धकेल उसने मोबाइल पर भेजा स्क्रीनशॉट देखा और गहरी सांस ली. फिर शमिता की बात को दोहराया… “धूप और बरसात से बचने के लिए समझौतों को सिर की छत बनाना सही नहीं. बनाना ही है, तो समझौतों को छाता बना लेना चाहिए. छाते के भीतर थोड़ी-बहुत धूप या बरसात की बूंदें तन को छू भी गईं तो क्या…”
समझौतों को छाता बनाने वाले प्रयोग के लिए केतकी ने ख़ुद को तैयार किया और दुष्यंत को धड़कते दिल से फोन लगाया, पर उसने फोन नहीं उठाया. वैसे अच्छा ही है. जो  फोन उठ जाता, तो शायद कई विवाद भी साथ उठते… पर विवाद के डर से उसे अंधेरे में रखना भी तो सही नहीं. यह  सोचकर फोन लगाती रही… अंत में उसने मैसेज लिखा और सेंड कर दिया.
‘शमिता घर आई थी. मम्मी-पापा की एनिवर्सरीपर जमशेदपुर जा रही है. मैं भी उसके साथ ही निकल रही हूं… अचानक प्रोग्राम बना है. परसों वापस आ जाऊंगी. खाना फ्रिज में रख जाऊंगी. गर्म करके खा लेना…’ सामान पैक करते समय कई बार मोबाइल उठाकर मैसेज चेक किया. ब्लू टिक नहीं लगा था कि पता चल सके मैसेज पढ़ लिया गया है.
शमिता ने अपनी कैब में उसे भी पिक कर लिया. बस स्टैंड जाते हुए वह रास्ते भर मैसेज चेक करती रही. उसकी मनोस्थिति समझकर शमिता ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया था. बस पर चढ़ते-चढ़ते शंकाएं-आशंकाएं छंटने लगीं.
कोलकाता से बाहर निकलने पर उसने मैसेज देखा, तो उस पर ब्लू टिक लग चुका था. पर जवाब में न कोई मैसेज आया और न ही फोन करके कोई प्रश्‍न पूछा गया.
बस में वह गुमसुम बैठी रही, पर ज़्यादा देर तक नहीं. हल्की-हल्की बारिश के बीच ढाबे के पास बस रुकी, तो कुल्हड़ वाली चाय का घूंट भरते ही अपना बहुत कुछ छूटा याद आ गया. कोई मैना किसी पिंजरे से निकलकर कभी इस डाली, तो कभी उस डाली में जैसे फुदकती है, कुछ इसी तर्ज पर उसका मन प्रफुल्लित हो उठा. अब वह अपने स्वाभाविक स्वरूप में आ गई थी. गप्पों में रास्ता कब कटा, पता ही नहीं चला.
घर आई तो मम्मी-पापा, कविता दीदी और जीजाजी उसे देखकर बहुत ख़ुश थे. जीजाजी की सीक्रेट तैयारी से मम्मी-पापा अब तक वाकिफ़ हो गए थे. नज़दीकी परिचितों के साथ मैरिज एनिवर्सरी की वह शाम यादगार बन गई थी.


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“दुष्यंत ऑफिस की क्लोजिंग में बिज़ी है, इसलिए उसने कहा तुम चली जाओ. मैं बाद में आ जाऊंगा.” ये झूठ इतनी बार कहना पड़ा कि वह सच लगने लगा था. देर रात शमिता अपने घर चली गई थी.
दूसरे दिन शाम को कविता दीदी और जीजाजी को वापस दिल्ली जाना था. पापा के साथ वह उन्हें छोड़ने गई. घर वापस आई, तो दुष्यंत को  देखकर हैरान रह गई.  
“ऑफिस का काम काफ़ी हद तक निपट गया, तो चला आया.” वह सहजता से बोला था, पर   केतकी उस ओढ़ी हुई सहजता से आश्‍वस्त नहीं थी. बढ़ी हुई धड़कनों के साथ दुष्यंत के चेहरे और हावभाव को पढ़ने का प्रयास करती रही… पर गंभीर चेहरे पर हमेशा की तरह कोई विशेष भाव नहीं थे.
“चलो, अब सब खाना खा लो. दुष्यंत भी थका है.” कहकर मम्मी खाना लगाने लगी. मम्मी-पापा दुष्यंत को अचानक आया देख बड़े ख़ुश लग रहे थे, पर वो आशंकित थी. मम्मी के चेहरे को देखकर नहीं लग रहा था कि दुष्यंत ने उन्हें  कुछ बताया है. वैसे बताने जैसा था भी क्या. दुष्यंत के पास व़क्त नहीं था, तो वह अकेले मायके चली आई. उसने मन को समझाया, पर जाने क्यों उसका मन उसके आश्‍वासन के बाद भी आश्‍वस्त नहीं हो रहा था.   
दुष्यंत की नाराज़गी के बाबत संभावित संवादों को मन ही मन गुनती-बुनती शंकाओं की उमड़न-घुमड़न लिए रात को केतकी कमरे में गई और चुपचाप बेड के एक किनारे बैठ गई. दुष्यंत कुछ देर उसके चेहरे को ताकता रहा और फिर, “क्या हुआ कुछ कहोगी नहीं…” कहते हुए धीरे से उसका हाथ पकड़ लिया. तो वह किसी तरह बोली, “अचानक आ गए. मैसेज ही दे देते… मम्मी से क्या कहा?”
“वही जो कहना चाहिए था.”
“क्या..?”
“यही कि ऑफिस का काम था, सो नहीं आ पाया. आज काम निपट गया, तो आ गया…”
“मुझे फोन नहीं किया… मैसेज ही दे देते.”
“तुमने सरप्राइज़ दिया, तो सोचा, मैं भी दे दूं.”  उसकी बात सुनकर केतकी की आंखों में नमी उतर आई. किसी तरह खरखराते गले से पूछा, “नाराज़ हो?”
“हां, था तो… तुम्हारा मैसेज पढ़कर ग़ुस्सा भी आया और दुख भी हुआ. ग़ुस्सा और दुख कम हुआ, तो डर ने मन में जगह बना ली कि कहीं ये हमारे रिलेशनशिप के बिखराव की शुरुआत तो नहीं.”


केतकी अमरबेल सी उससे लिपट गई. आंखों से अपराधबोध में घुला-मिला ग़ुस्सा बहने लगा, तो  बड़ी मुश्किल से बस इतना बोल पाई, “अकेले आना नहीं चाहती थी, पर तुमने मजबूर कर दिया…”
हिचकियां जब बंद हुईं, तो वह उसकी चिबुक उठाते हुए बोला, “तुम्हारा मैसेज देखने के बाद कई तरह के नेगेटिव ख़्याल आए, पर उन ख़्यालों  पर एक पॉज़िटिव ख़्याल भारी पड़ा कि घर तुम्हारे बगैर बिलकुल भी अच्छा नहीं लगता है. जाने-अनजाने तुम मेरे व्यवहार से ज़रूर आहत हुई हो. मेरी क्रिया की प्रतिक्रिया है तुम्हारा यहां इस तरह आना… इतना तो मैं समझ चुका हूं.” दुष्यंत ने बांहों में कस लिया.
उस रात की झमाझम बारिश में दोनों तरफ़ से  भावनाओं का ज्वार बहा. बहुत कुछ सुना-सुनाया और समझा गया.
उस रात की सुबह बहुत सुंदर थी. सुबह-सुबह उसने चाय की चुस्कियां लेते हुए शमिता को  मैसेज किया- ‘दुष्यंत आया है.’
‘मौसम कैसा है?’ उसने पूछा.
‘बिल्कुल साफ़ इंद्रधनुष भी निकला है.’ केतकी ने दुष्यंत को नज़र भर देखते हुए उसे जवाब सेंड किया.
दुष्यंत पापा के साथ बैठा किसी बात पर हंस रहा था. हालांकि उसकी हंसी पापा जैसी उन्मुक्त तो नहीं थी, पर जितनी भी थी, एक सुखद बदलाव  के लिए पर्याप्त थी.

मीनू त्रिपाठी

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