सिर्फ़ मुझे भुगतना पड़ता तब भी निभ जाता, पर उस समय तो मै अचम्भित रह गई जब आदित्य को पता चला कि मेरे गर्भ में जुड़वा बेटियां पल रही है, ख़ुश होने की बजाय वह मुझे मजबूर करने लगा भ्रूण हत्या के लिए, पर मैंने भी मन में ठान लिया था कि भ्रूण हत्या नहीं होने दूंगी. फिर क्या था, इसी एक बात को लेकर दोनों मां-बेटे ने मेरी ऐसी दुर्गति बनाई कि जीना मुहाल हो गया. इन लोगों ने घर के लोगों के बीच मुझे इतना हेय बना दिया कि मैं अस्तित्व विहीन हो घर के टूटे सामान की तरह एक कोने में आ पड़ी.
अम्मा,
आज तुम मेरा यह पत्र देखकर हैरान तो बहुत होगी, इस इलेक्ट्रॉनिक्स युग में अब भला कौन पत्र लिखता है? पर सच कहूं, तो दिल की बातों का किसी के सामने उजागर करने का आज भी इससे अच्छा कोई दूसरा माध्यम हो ही नहीं सकता. एक-एक बात जो मैंने डायरी में लिख रखे थे इस पत्र में लिखकर भेज रही हूं. यह पत्र नहीं मेरा भोगा हुआ यथार्थ है.
आज मैं तुम्हें वह सब कुछ बताना चाहती हूं, जिसे विगत बारह बरसों से चाह कर भी तुम्हें बता नहीं पाई. यह सब शायद आज भी तुम्हें बता नहीं पाती, अगर परिस्थितियां पहले जैसी ही होतीं, पर समय आ गया है अम्मा कि मैं अपने अंतस में जमा उन सारी अन्तर्वेदना को कह दूं, जो परत दर परत शादी के बाद के बारह बरसों से मन में एकत्रित हुए हैं.
वैसे तो अम्मा बचपन से ही तुम मेरी मां से ज़्यादा मेरी सहेली रही हो. स्कूल से लेकर कॉलेज तक की हर छोटी-बड़ी बात मैंने तुम्हें ही बताई. हर सुख-दुख तुम्हारे साथ बांटें, कुछ भी तो नहीं छुपा था हम दोनों के बीच. शायद इसलिए ही आज तक हम दोनों के बीच 'आप' की औपचारिकता भी नहीं रही, फिर भी शादी के बाद के वर्षों में हम दोनों के बीच ढेर सारी बातें अधूरी और अनकही रही. इस दौरान बार-बार तुम मुझे लिखती रही कि 'अपने कुशल-मंगल के आगे भी कुछ अपने बारे में लिखा कर तुम्हारे संक्षिप्त चिट्ठियों से तंग आ गई हूं.'
ऐसी बात नहीं थी अम्मा… कि मैं अपने साथ होते दुर्व्यवहार को तुम्हें लिखना नहीं चाहती थी या लिखती नहीं थी. जब-जब मेरे दर्द सहने की सीमा समाप्त होने लगती, सहारे के लिए तुम्हें ही तो पत्र लिखती थी, पर बात इतनी सी थी कि उन पत्रों को तुम्हारे पास भेजने का साहस नहीं जुटा पाती थी. अब तुम्ही बताओ अम्मा, अगर साहस कर मैं लिख कर भेज भी देती कि-
'यहां कुछ भी कुशल नहीं है, मुझे तुम अपने पास बुला लो अम्मा… सिवाय अपने को दुखी करने के तुम क्या कर लेती? क्या मुझे बुलाकर अपने पास रख लेती और मुझे अपनी छत्रछाया में आश्रय देती? अपने ख़र्चों के लिए तो तुम दूसरों का मुंह देखती हो, मुझे और मेरी बेटियों की ज़रूरतें पूरी करने के लिए किसके सामने हाथ फैलाती?
भैया-भाभी कितने दिनों तक हमारा बोझ उठाते.
एक दूसरा पहलू यह भी था कि अपने संस्कारो में जकड़ी तुम अब अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर आ खड़ी हुई हो, इस समय क्या तुम बरदाश्त कर पाती कि तुम्हारी लड़की के काम से तुम्हारी जगहंसाई हो या कोई यह कहे कि तुम्हारी बेटी के लक्षण शुरू से अच्छे नहीं थे. इसलिए ही अम्मा… बेटियां ससुराल से अपनी मां को "सब कुशल मंगल है" लिखते-लिखते पंखे से लटक जाती हैं.
अब मेरी ही बात ले लो अम्मा दफ़्तर में क्लर्क की नौकरी करने वाले मेरे पापा ने अपनी हैसियत के मुताबिक़ क्या कुछ नहीं दिया, पर मेरी सासू मां का कहना था कि उनके कमरे का एक कोना भी नहीं भरा. जब सास के मन में दहेज को लेकर ही कलुष पलने लगे, तो बहू की इज़्ज़त और स्वागत ससुराल में क्या होगी? इन सब बातों पर शादी के समय आप लोगों का ध्यान ही कहां था. हमेशा से अभाव में जीने वाले पापा तो मेरे ससुराल का वैभव देखकर अभिभूत थे. बेटी का यहां रिश्ता किसी तरह पक्का हो जाए, यही चिंता उन्हें लगी रहती.
मेरा बीए पास होना ही उनके लिए काफ़ी था. सोचते थे क्या होगा ज़्यादा पढ़ा के, कौन सा बेटी को नौकरी करनी है. इसके क़िस्मत में तो राजयोग है. राज करेगी. उस समय पापा इतने ज़्यादा प्रभावित थे मेरे ससुराल के वैभव से कि उन्होंने और कुछ भी पता लगाना ज़रूरी नहीं समझा था.
पर राजयोग भोगना इतना आसान था क्या अम्मा… वह भी ऐसी स्थिति में जब ससुरालवालों को अभिवांछित न मिला हो. ऐसी स्थिति में तो बहू का जीवन ही अवांछनीय बन जाता है. तुम सब तो बेटी के सुखों की कल्पना करके ही ख़ुश रहते थे, पर मुझे क्या कुछ भुगतान पड़ रहा था इसकी कल्पना भी आप लोग नहीं कर सकते थे.
अच्छा खाना-कपड़ा सब मिलता था पर एहसान जता कर, भीख की तरह. यहां कुछ भी अपना नहीं था.
यहां तक की मुझे अपना पति भी कभी अपना नहीं लगा. वह भी हमेशा मुझे एहसास दिलाता रहता कि अगर वह शादी नहीं करता तो मेरी शादी ही नहीं हो पाती. इतना ही नहीं तुम्हारे यह दामादजी अपने सारे रिश्ते तो बहुत ही सहज ढंग निभाते, पर जब भी मेरे मायके से कोई आता कभी सहज नहीं रह पाते. हमेशा मुझे और मेरे रिश्तेदारों को तुच्छ प्राणी होने का बोध कराते रहते. जहां तक सुख भोगने की बात थी अम्मा… तो यहां तो छोटे से छोटे सुख के लिए भी ताने सुनने पड़ते. एसी और फैन चलाना भी मुहाल था.
मेरे उस तथाकथित घर में मेरी इज़्ज़त का इसी से अंदाज़ा लगा सकती हो कि छोटी-छोटी ग़लतियों के लिए भी ऐसे ताने-उलाहने दिए जाते, जो तीर की तरह मेरे सीने में उतर मेरे दिल को तार-तार कर देता. मेरी सासू मां हमेशा कहतीं, "मेरी बुद्धि घास चरने गई थी, जो इसका यह रूप देख कर ब्याह लाई थी. किसी काम का इसे शऊर ही नहीं है."
तब वे यह भूल जातीं कि उनकी बुद्धि घास चरने चली गई थी कि उनका ख़ुद का बेटा ही मुझे अपने एक दोस्त की शादी में देखने के बाद ज़िद किए बैठा था कि वह मेरे यहां ही शादी करेगा. अपनी ज़िद के सामने उसने अपने घरवालों की एक न चलने दी थी. कुछ दिनों बाद जब उसे मुझसे ऊब होने लगी, तब माता के सारे वचन सत्य नज़र आने लगे. घरवालों की तो छोड़ो, घर के लोगों का मेरे प्रति व्यवहार देखकर, उस घर के मेड और सर्वेंट तक मेरी अवहेलना करते और उनकी अवज्ञा पूर्ण दृष्टि और बोली झेलना भी मेरी नियति बन गई थी.
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अम्मा, याद है पापा के सबसे क़रीबी मित्र और संभ्रान्त कायस्थ परिवार के कैलाशनाथजी के पुत्र मधुकर की, क्या कमी थी उसमें? पढ़ा-लिखा, अच्छे संस्कारोंवाला मधुकर स्टेट बैंक में पीओ था. तुम भी उन दिनों उसे कितना पसंद करती थी. उसी मधुकर की मां ने जब अपने बेटे के लिए मेरा हाथ मांगा था, ख़ुश होने की बजाय उनका दुस्साहस समझ कैसी विद्रूपता छा गई थी तुम्हारे चेहरे पर, बाद में तुमने उन्हें कितनी खरी-खोटी सुनाई थी.
जब इस प्रस्ताव की जानकारी पापा को मिली थी, सुनते ही ऐसा लगा था जैसे उनके पांव अंगारों पर ही पड़ गए हो, "हिम्मत कैसी हुई मधुकर की मा की मेरे घर रिश्ता मांगने आने की. ऊंचे पद प्राप्त कर लेने से उनका बेटा क्या हमारी बराबरी का हो गया है? क्या हम ब्राह्मणों जैसे संस्कार भी आ जाएंगे उन लोगों में. हम ठहरे कान्यकुब्ज ब्राह्मण, गरीब होने से क्या जात कुजात में लड़की ब्याह देंगे. ऐसी शादी करने के पहले मैं अपनी बेटी के गले में पत्थर बांध कर गंगा नदी में न डूबो दूंगा."
फिर पापा ने मुझे निर्दोष को भी कम प्रताड़ित नहीं किया था और जैसे ही आदित्य के घर से शादी का प्रस्ताव आया था, सिर्फ़ उसकी जाति और संपत्ति देखकर झटपट मेरी शादी उससे करवा दी थी. दूसरे किसी बात का पता लगाने में उन्होंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी. तुम लोगों के लिए शादी के पात्र कुपात्र से ज़्यादा महत्वपूर्ण उसकी जाति ही थी, तो ठीक है न अम्मा, आज मुझे मारने वाला, मेरे साथ-साथ मेरे सारे खानदान को गालियां देनेवाला किसी गैर जाति के नहीं अपनी ही जाति के लोग है.
तुम लोगों ने अपनी ही जाति में ब्याहने के ज़िद के कारण ही मुझे मान-सम्मान से रखनेवाले, संस्कारी विवेकशील ऊंचे पद पर कार्यरत मधुकर को ठुकरा कर सजातीय आदित्य को अहमियत दी, जो परले दर्जे का घमंडी, पत्नी और बेटी को तुच्छ प्राणी समझनेवाला विलासी इंसान निकला और तुम लोगों द्वारा भावनाओं में बह कर लिए गए फ़ैसले का दंड मुझे भुगतना पड़ा.
सिर्फ़ मुझे भुगतना पड़ता तब भी निभ जाता, पर उस समय तो मै अचम्भित रह गई जब आदित्य को पता चला कि मेरे गर्भ में जुड़वा बेटियां पल रही है, ख़ुश होने की बजाय वह मुझे मजबूर करने लगा भ्रूण हत्या के लिए, पर मैंने भी मन में ठान लिया था कि भ्रूण हत्या नहीं होने दूंगी. फिर क्या था, इसी एक बात को लेकर दोनों मां-बेटे ने मेरी ऐसी दुर्गति बनाई कि जीना मुहाल हो गया. इन लोगों ने घर के लोगों के बीच मुझे इतना हेय बना दिया कि मैं अस्तित्व विहीन हो घर के टूटे सामान की तरह एक कोने में आ पड़ी.
भाग्य या दुर्भाग्य से मिले इस कान्यकुब्ज ब्राह्मण कुल के उद्दंड और क्रोधी पुत्र के हाथों में हाथ थाम पापा ने तो गंगा नहा लिया और बोझ मुक्त होने के कुछ दिनों बाद ही स्वर्ग सिधार गए और छोड़ गए अपनी बेटी को उसके अविवेकशील, कुटिल पति और हर बात में व्यंग्य बाण चलाने सास, ननदों के साथ पापा के बाद तुम लोगों ने भी मेरी ज़्यादा खोज-ख़बर नहीं ली. तुम लोगों को तो आभास भी नहीं हुआ की कठोर अनुशासन में पली-बढ़ी तुम्हारी बेटी इस अनुशासनहीन परिवार में कैसी पीड़ा भुगत रही थी, जब उसका पति नित्य कोई ना कोई नौटंकी पसार उसके पिता की दरिद्रता और उसकी असमर्थता का एहसास दिलाता रहता है. उन दिनों अपने को समर्थ और आत्मनिर्भर बनाने के लिए छटपटाती घुटती आंसू बहाती तुम्हारी बेटी के आंसू पोंछने वाला भी कोई नहीं था.
जब-जब ख़्याल आता आगे पढ़़ने और आत्मनिर्भर बनने के लिए आप लोगों की सहायता लूं, मुझे मंगला बुआ याद आ जाती. तुम्हे याद है न अम्मा, सरल स्वभाव की सीधी-साधी मंगला बुआ. तुम्हें भला याद कैसे नहीं होगी? तुम्हारी ननद से ज़्यादा तुम्हारी सहेली जैसी थी. पन्द्रह दिनों के लिए ससुराल से आई थी अपनी बेटी के साथ. कितना रोई और कितना गिड़गिड़ाई थी फिर भी दादाजी और पापा के सामने उनकी एक न चली थी.
"मुझे अब वहां मत भेजिए, मेरी पढ़ाई पूरी करवा किसी काम में लगवा दीजिए. मैं और मेरी बेटी आप लोगों पर बोझ नहीं बनेंगी. मैं कोई न कोई काम करके उसे पाल लूंगी."
उनकी आंखों की वेदना ने उस छोटी उम्र में भी मेरे चित को व्याकुल कर दिया था, पर दादाजी की आंखों से निकलते आग्नेय लपटों ने मंगला बुआ को कैसे सहमा दिया था. तुम्हे याद है न उनकी मिन्नतों को दादाजी ने उनका दुस्साहस समझ कैसी चेतावनी दी थी?
"मंगला, तुम कभी इस भ्रम में मत रहना कि हम अपनी ब्याही बेटी को अपने घर बिठा बिरादरी में अपनी नाक कटवाएंगे. हमें इस घर की दूसरी बेटियां भी ब्याहनी है, इसलिए अपने घर लौट जा और वही सामंजस्य बैठा जीना सीख. ब्राह्मण परिवार की लड़कियां डोली में बैठ ससुराल जाती है और अर्थी में ही वहां से निकलती है."
दादाजी को कटुयुक्तियों ने मंगला बुआ को अच्छी तरह जता दिया था कि ब्याही बेटियों के लिए मायके में कोई जगह नहीं होती है.
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इस घटना के बाद फिर न मंगला बुआ कभी आई, न ही किसी तरह की सहायता के लिए मिन्नतें कीं. हां, एक दिन यह समाचार ज़रूर आया कि मंगला बुआ ने अपने साथ-साथ अपनी बेटी को भी ज़हर खिला इस दुनिया के झंझटों से मुक्त हो गई थी और आप सब के लिए छोड़ गई थी एक चिट्ठी कि अगर उनकी बेटी मौत से बच जाती है, तो उनके बाद उनकी बेटी को न ससुरालवालों को सौंपा जाए, न मायकेवालों को.. उसे किसी अनाथालय में डाल दिया जाए, पर उनकी बेटी तो उनसे भी एक घंटा पहले दम तोड़ चुकी थी.
मंगला बुआ का परिणाम याद कर अपनी दोनों बेटियों को साथ लेकर मुझे मायके आने का साहस नहीं हुआ, पर यहां भी पति और ससुरालवालों के दिए गए दंश से दंशित मन को चैन नहीं था. उसे और भी व्यथित करने के लिए हर छुट्टियों में मेरी दोनों ननद अपने पूरे परिवार के साथ पहुंच जाती. मेरी दोनो ननद उसी गाड़ी में आती जिसे मेरी सासू माँ ने उन्हे दहेज में दिए थे. फिर मत पूछो अम्मा… उन गाड़ियों को दिखा-दिखा कर मुझे कितने ही ताने दिए जाते. मेरे दोनों ननदोई भी कुछ कम नहीं है अम्मा. जब देखो दोनों अपने सास-ससुर के ऐसे गुण गाते रहते है जैसे परमेश्वर हो और इतनी सेवा में जुटे रहते हैं कि श्रवण कुमार भी उनके सामने मात खा जाए.
एक तो मेरी सासू मां ने दहेज देकर उनके मुंह बंद कर रखें थे, उस पर से मेरी दोनों ननदे कमासुत हैं. दोनों कॉलेज में लेक्चरर हैं. आजकल बीवी की नौकरी भी तो एक तरह का दहेज ही है न अम्मा! इसलिए दुहरे दहेज से दबे मेरे दोनों संगदिल ननदोई को भी सारे खोट मेरे अन्दर ही दिखाई देती. खोद-खोद कर ऐसी ग़लतियां निकालते, जो मेरी सासू मां के कुटिल दिमाग़ में भी कभी नहीं समाता था.
मेरे बड़े ननदोई की तो मत पूछो अम्मा, उनके बच्चे तो दादा-दादी को पहचानते तक नहीं थे. कभी अपने माता-पिता से मिलने जाना होता, तो ख़ुद ही एक-दो दिनों के लिए मिलने चले जाते, पर बीवी की इच्छा के विरुद्ध कभी बच्चों को अपने साथ ले जाने का साहस नहीं कर पाते. इस बात को बड़े गर्व से मोहल्ले की औरतों के बीच मेरी सासू मां सुनाती, "मेरा मुन्नू-टुन्नू तो अपने दादा-दादी को पहचानता भी नहीं है, उन लोगों के पास जाने के नाम से ही रोने लगता है और जाए भी तो कैसे उन्हें एसी के बगैर नींद ही नहीं आती और उस निपट देहात में तो ढंग का पंखा भी नहीं है."
अब मेरी सासू मां को कौन समझाए कि यह तो उनके समधन-समधी का दुर्भाग्य है कि बेटा को कार में चढ़ने लायक और एसी में सोने लायक बनाने के बावजूद ऐसी बदहाली में जी रहे हैं. जो लोग ख़ुद के मां-बाप के अधिकार को कभी नहीं समझ सके मेरे अधिकार और सम्मान को क्या समझते. मैं बहुत सोचती पर अम्मा… कोई ठौर नज़र नहीं आता जहां मैं अपनी दोनों बेटियों को लेकर आत्मसम्मान के साथ जी पाती. काफ़ी सोचने-विचारने के बाद पड़ोस में रहनेवाली उमा, जो अब तक मेरी अंतरंग सहेली बन गई थी के साथ मिलकर मैंने एक बुटीक खोलने का फ़ैसला किया. एक दिन आदित्य को अच्छे मूड में देखकर मैंने उनसे बुटीक खोलने की इजाजत मांगी, तो थोड़ा इंकार करने के बाद आदित्य ने बुटीक खोलने की अनुमति दे दी. पर किसी तरह की आर्थिक मदद करने से साफ़ इनकार कर दिया.
अपने गहनों को बेचकर और पास में जतन से बचाए गए कुछ रुपयो से ही मैंने अपने बुटीक खोलने की शुरुआत कर दी. उमा ने भी यथा संभव अपने पैसे लगाए. शीघ्र ही पड़ोस में किराए पर दो कमरा लेकर मैंने और उमा ने सम्मिलित पूंजी से एक बुटीक की शुरुआत कर दी.
कुछ दिनों बाद हम लोगों ने गुड़िया, बैग, फूल वगैरह सिखाने का काम भी शुरू कर दिया. वर्षों पहले शौक से सीखा हुआ हुनर अपना रंग दिखाने लगा. मेरे हाथों में भी तुम्हारे हाथों सी सफाई है अम्मा. मेरे और उमा के जी तोड़ मेहनत से तीन-चार महीने में ही हमारा काम अच्छे से चल निकाला. इस सफलता से हमारा हौसला दोगुना बढ़ा दिया.
मेरे इस बुटीक का हमेशा मज़ाक उड़ाने और व्यंग्य बाण चलाने वाली मेरी मेरी सासू मां ने जब इसे सफल होते देखा, पूरी तरह जल-भुन गई और खुलकर मेरे बुटीक खोलने का विरोध करने लगी. आदित्य के घर आते ही उसके कान भरने शुरू कर देती. मैं भी अब हर स्थिति से जूझने के लिए अपने को मानसिक रूप से तैयार कर ली थी. एक दिन जब छोटी सी बात बढ़कर एक बड़े झगड़े का रूप ले लिया और हमेशा की तरह आदित्य ने मुझे अपनी बेटियों के साथ घर से बाहर धकेल दिया, उसी क्षण मेरे मन ने कहा नहीं अब और नहीं. मेरा भी कोई वजूद है. मुझे भी जीने का इंसानी हक़ है. जिस रिश्ते से मुझे और मेरी बेटियों का कोई हक़ नहीं मिला उसे बनाए रखने का अब कोई औचित्य नहीं था.
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मेरे अंदर जाने कहां से इतनी हिम्मत आ गई, हमेशा की तरह से गिड़गिड़ा कर उस घर मे रहने की बजाय, मैने आत्मसम्मान के साथ आत्मनिर्भर जीवन जीने का रास्ता चुना. उसी बदहवासी में अम्मा, मैने अपने गिने-चुने सामान और अपने पैसे समेट अपनी दोनों बेटियों, रूची और शुची को साथ लेकर घर छोड़, उमा के पास आ गई. दूसरे दिन सुबह से ही मैं एक मकान के तलाश में जुट गई. ईश्वर की कृपा से मुझे उसी दिन एक कमरे का फ्लैट मिल गया. तुरंत मै उसमें प्रवेश कर गई.
एक हफ़्ता गुज़र जाने पर भी मेरे पति और मेरे ससुराल वालों ने हम लोगो की कोई खोज-ख़बर नहीं ली. दो-चार दिनों की बदहवासी के बाद जीवन फिर से सामान्य होने लगी. हर तरफ़ से अपना ध्यान हटा मैंने अपना सारा ध्यान और दिमाग़ अपने कामों में लगा दिया. बुटीक के विस्तार के साथ-साथ मैंने और उमा ने एक किराना दुकान भी खोल लिया. मुहल्ले के लोगों को जब अच्छे सामान सस्ते दामों पर मिलने लगे, तो ज़्यादातर लोगों ने हमारे यहां से ही सामान लेना शुरू कर दिया. काम के चल निकलते ही हम लोगों ने मदद के लिए कई और लोगों को भी नियुक्त कर लिया. अब सर्वत्र मेरी प्रशंसा होने लगी.
अब तो अम्मा मेरी रूचि-शुची शहर के महंगे स्कूल में पढ़ रही है. मैंने दो कमरो का अपना एक फ्लैट भी ख़रीद लिया है, जिसकी छत के नीचे मैं पूरी तरह महफूज़ हूं.
आज घर छोड़ने के पांच वर्षों बाद… जब की मैंने अपने और आदित्य के संबंधों का तर्पण कर नए सिरे से अपनी ज़िंदगी की शुरुआत की है. धन-संपत्ति के साथ-साथ समाज में अपनी एक अलग पहचान बना ली है और समाज का मान-सम्मान पाया है.
ज़िंदगी के इस मोड़ पर अब फिर से आदित्य मेरे जीवन में प्रवेश करना चाहता है एवं वापस लौट आने का संदेश भिजवाता रहता है. मैं जानती हूं तुम मेरा यह पत्र पढ़ कर मुझे फिर सलाह दोगी की सुबह का भूला अगर शाम को घर आ जाए, तो उसे भूला नहीं कहते, पर आज तुम ही से पूछती हूं अम्मा… तब आदित्य ने हमारी सुध क्यों नहीं ली, जब हमें उसकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी. तब उसे हमारी याद क्यों नहीं आई, जब अकेले में अपनी दोनों बेटियों के साथ समाज के लोगों द्वारा लगाए गए तरह-तरह के लांछनों-तानों और अवहेलना की पीड़ा सहकर अपने अस्तित्व को बचाने की कोशिश कर रही थी. तब तो वह विरोधियों के खेमे में बैठा मेरा मज़ाक उड़ाता रहता था.
तुम्हें जानकर दुख होगा अम्मा… पर मैं क्या करूं कभी मुझे आदित्य ने इतने दुख दिए थे कि एक भी कोमल तार नहीं बचा जिसके सहारे मैं लौटने की सोच सकूं. अब तो मेरे सामने बस एक ही लक्ष्य है अपनी बेटियों का भविष्य संवारना और उन्हें आत्मनिर्भर बनाना.
अच्छा अम्मा अब मैं पत्र समाप्त करती हूं मेरी अन्तर्वेदना ने इसे काफ़ी लंबा बना दिया है. अंत में तुमसे यही अनुरोध है अम्मा… कि मेरा कुशल-मंगल जानने के लिए सिर्फ़ पत्र मत लिखना. अगर तुमको लगे कि मेरा फ़ैसला सही है, तो तुम ख़ुद आकर मुझे और मेरी बेटियों को आशीर्वाद दो. अपना प्यार और सहारा दो और मेरे पास रहो, जिसके लिए मेरा अंतस वर्षो से तरस रहा है. अम्मा, भैया-भाभी और बच्चों को भी संग में लाना. अब यहां उनका कोई अपमान नहीं करेगा.
तुम सब के प्यार और आशीर्वाद की प्रतीक्षा में.
तुम्हारी बेटी
सुनंदा
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