रेवा का दिल एक बार फिर उनके प्रति कृतज्ञता और आत्मीयता से भर उठा. ‘बड़े सर को उसकी भावनाओं का कितना ख़याल है! कैसे वे बिना कहे ही उसके दिल की हर बात समझ जाते हैं! क्या उन्होंने ये सब मात्र उसका दिल रखने के लिए किया था या सचमुच उनके दिल में उसके प्रति कुछ-कुछ है?’ अकेले में जब भी रेवा यह सोच दोहराती तो ठंड में भी पसीने से भीग जाती.
क-दूसरे को खोजती दो जोड़ी आंखें जब परस्पर टकराईं तो एकबारगी तो उनमें बिजली-सी चमक उठी, फिर वे एक-दूसरे से नज़रें चुराने लगीं. रेवा को अपने अंदर कुछ पिघलता-सा महसूस हुआ. इन नज़रों में क्या है जो हर जगह, हर व़क़्त उसकी आंखें इन्हें ही तलाशती रहती हैं. एक चुंबकीय आकर्षण से बंधी वह दिन-प्रतिदिन उनकी ओर खिंचती चली जा रही है. यह आकर्षण एकतरफ़ा भी तो नहीं है. वही कशिश, वही सम्मोहन उसने बड़े सर की नज़रों में भी महसूस किया है. कॉलेज के सभी साथी पुरुष प्राध्यापक रेवा के लिए ‘सर’ और प्रिंसिपल साहब ‘बड़े सर’ हैं. इस कॉलेज में आए रेवा को आठ महीने हो चले थे. पति नरेन का इस शहर में तबादला हो जाने के कारण उसने भी यहां इसी कॉलेज में ज्वाइन कर लिया था.
बड़े सर से सबसे पहले वह तब प्रभावित हुई, जब कॉलेज के वार्षिकोत्सव में उसने उनकी कविता सुनी. स्वयं रेवा एक अच्छी रचनाकार थी. कॉलेज की वार्षिक पत्रिका में जब उसका आलेख छपा तो बड़े सर ने अपने चैम्बर में बुलाकर उसे बधाई दी थी. उसी आलेख पर उनसे चर्चा करते हुए रेवा को उनकी गहन साहित्यिक अभिरुचि का पता चला था. विषय पर उनकी अच्छी पकड़ थी, तो तर्क-वितर्क क्षमता भी विलक्षण थी. चुंबक के दो समान ध्रुव परस्पर विकर्षित होते हैं, लेकिन यहां तो दोनों की समान अभिरुचियां उन्हें परस्पर चुंबक की तरह आकर्षित कर रही थीं.
बड़े सर की पत्नी सुप्रिया उसी कॉलेज में मनोविज्ञान की प्राध्यापिका और रेवा की ख़ास सहेली थी. रेवा सुप्रिया की पाक कला की क़ायल थी और अक्सर उससे कोई न कोई रेसिपी सीखने उसके घर पहुंच जाती थी. वहीं बड़े सर से किसी न किसी आलेख पर चर्चा भी छिड़ जाती. दो-तीन घंटों का समय कब गुज़र जाता, उन्हें पता ही नहीं चलता. होश तो तब आता, जब सुप्रिया चाय के संग तश्तरी में नई रेसिपी सजाकर ले आती, जिसे देखकर रेवा शर्मिंदगी से भरकर सकुचा उठती.
“ओह! बातों में पता ही नहीं चला, कितना व़क़्त गुज़र गया. आई तो तुमसे रेसिपी सीखने थी और...”
“कोई बात नहीं रेवा. मैं जानती हूं तुम्हारा पहला प्यार साहित्य है. और वैसे भी जब दो समान अभिरुचि वाले मिल बैठते हैं, तो उन्हें आस-पास का होश नहीं रहता. प्रेमचंद की कृति ‘शतरंज के खिलाड़ी’ के किरदार की तरह वे दीन-दुनिया से बेख़बर अपनी ही बिसात में खोए रहते हैं. क्यूं जी, ठीक कह रही हूं ना मैं?” पति की ओर देखते हुए सुप्रिया सहज भाव से मुस्कुरा देती, तो वे भी हंसते हुए उठ खड़े होते.
“तुम मुझे दीन-दुनिया की ख़बर न कराओ, तो मैं कभी भी वक़्त पर कॉलेज ही न पहुंच पाऊं. मैं तैयार होने जाता हूं.”
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“इन्हें तो क़िताबों और अख़बार की ऐसी आदत है कि बस, कुछ न पूछो. एक बार लेकर बैठेंगे तो पूरा किए बिना हिलेंगे तक नहीं. फिर इन्हें न खाने-पीने का होश है, न नहाने का.”
सुप्रिया की बातों से रेवा के मन से अपराधबोध के बादल छंटने लगते और वह सहज हो जाती. दो-तीन दिन भी यदि वह बड़े सर से नहीं मिलती तो चौथे दिन तो वे उसे पकड़ ही लेते.
“आजकल आप नज़र नहीं आतीं. किसी नई रचना के सृजन में तल्लीन हैं क्या?” फिर वहीं घर पर या चैंबर में घंटे-दो घंटे का वार्तालाप. बाहर निकलने पर रेवा स्वयं को प्रफुल्लित हवा में उड़ती महसूस करती, लेकिन दूसरे ही क्षण फिर अपराधबोध उसे घेर लेता. क्या उसे बड़े सर के संग समय व्यतीत करना मात्र इसलिए अच्छा लगता है कि उनकी रचनात्मक अभिरुचियां एक समान हैं? या वे एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होने लगे हैं? फिर अगले ही पल वह अपने विचारों को झटक देती.
‘भला चालीस की उम्र भी कोई उम्र है एक-दूसरे के प्रति आकर्षित होने की. इस उम्र में उनके क़दम अब भला क्या लड़खड़ाएंगे? अब तो उनकी उंगली थामकर चलना सीखे उनके बच्चे भी अपनी उंगली छुड़ाकर सधे क़दमों से अपनी मंज़िल की ओर अग्रसर हैं. नहीं, ऐसा कुछ नहीं है उनके बीच, जिसके लिए उन्हें कभी शर्मिंदा होना पड़े. बड़े सर की निगाहें तो उसकी आंखों पर ही टिकी रहती हैं. कभी वहां से ज़रा भी नीचे नहीं खिसकतीं. वे उसका मन टटोलती महसूस होती हैं, शरीर नहीं. वह क्या इतनी नादान है कि कामुक निगाहों और आत्मीय निगाहों में फ़र्क़ नहीं जानती? उन आंखों में एक गहरी आत्मीयता, एक अद्भुत जुड़ाव महसूस करती है वह. कोई रिश्ता, कोई शब्द उन भावनाओं को सही रूप में अभिव्यक्त नहीं कर सकता.
सच है, सूरज की रश्मियों को कोई मुट्ठी में कैद करना चाहे तो यह कैसे संभव है? मदमस्त हवा का झोंका मन में जो मीठी-सी सिहरन जगा जाता है, उसे बोलकर बता पाना भला कैसे संभव है? उसे तो स़िर्फ और स़िर्फ महसूस किया जा सकता है और वह भी दिल की अंतर्तम गहराइयों से. वे दोनों तो परस्पर चर्चा करते व़क़्त ये भी भूल जाते हैं कि उनमें से एक पुरुष है और एक स्त्री. लिंगभेद गौण हो जाता है, अस्तित्व में रह जाती है तो बस विषय परिचर्चा.
जब दोनों के दिलों में कोई मैल नहीं है, तो वह क्यूं बार-बार अपराधबोध से ग्रस्त हो जाती है? क्यों वह स्वयं को पति नरेन और सहेली सुप्रिया का गुनहगार समझती है? विचारों के मकड़जाल में उलझी रेवा दिग्भ्रमित हो जाती.
उसे नरेन से बेपनाह मुहब्बत है. स्वयं नरेन भी उस पर जान छिड़कता है. सोलह वर्ष संग व्यतीत करने के बाद भी दोनों परस्पर नवविवाहितों-सा आकर्षण महसूस करते हैं. इसका कारण उनकी आकर्षक देहयष्टि है या परस्पर समझ- रेवा को जानने की उत्कंठा भी नहीं थी. उसके लिए इतना ही पर्याप्त था कि सोलह वर्ष पूर्व जुड़ा गठबंधन प्रतिवर्ष मज़बूत होता चला जा रहा था. यद्यपि नरेन को लेखन कला में कोई रुचि नहीं थी, तथापि रेवा को वह इसके लिए हमेशा प्रोत्साहित ही करता था.
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सखी सुप्रिया को अपने विषय मनोविज्ञान से अत्यधिक प्यार था. रेवा अक्सर सोचती, यदि वह प्राध्यापक नहीं होती तो अवश्य ही एक प्रख्यात मनोवैज्ञानिक होती. पेशेवर तौर पर तो नहीं, पर शौक़िया सुप्रिया छोटे-मोटे मनोविज्ञान के केस निबटाया करती थी. रेवा को उसमें अपना सच्चा हमदर्द नज़र आता था. अपनी ख़ुशी या ग़म की छोटी से छोटी बात भी सुप्रिया से बांटने में रेवा को कोई हिचकिचाहट नहीं होती थी.
रविवार की एक ख़ुशनुमा सुबह थी. ठिठुराती सर्दी में निकली गुनगुनी धूप बहुत सुहा रही थी. फ़ोन पर बतियाते हुए दोनों सहेलियों ने पिकनिक पर जाने का कार्यक्रम बना लिया. कुछ ही किलोमीटर दूर एक घने पेड़ों से घिरी पुरानी हवेली थी. ख़ूबसूरत ऐतिहासिक स्थान था. दोनों परिवारों ने फटाफट खाने-पीने का सामान तैयार किया और निकल पड़े. पूरी हवेली का चक्कर लगा लेने के बाद चारों बच्चों ने उसमें लुका-छिपी खेलने का प्रस्ताव रखा, जिसमें चारों बड़ों को भी ज़बरदस्ती शामिल होना पड़ा. लेकिन खेल शुरू होने के बाद उन्हें भी इसमें आनंद आने लगा. बड़े सर की दांव देने की बारी थी. सभी छुप चुके थे. कोई आहट न पाकर खंभे के पीछे छुपी रेवा ने झांका तो बड़े सर ने उसे देख लिया. रेवा घबराकर पुन: खंभे के पीछे दुबक गई. उसे अफ़सोस हुआ कि क्यूं उसने झांका. उसे पता था वह पकड़ी गई है और बड़े सर अभी आकर उसे आउट कर देंगे. लेकिन उसके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब वे उसे नज़रअंदाज़ करते हुए आगे निकल गए. शायद उसकी घबराहट भांपकर उन्होंने ऐसा किया हो. सच, बड़े सर को उसका कितना ख़याल है, ये सोचकर ही रेवा रोमांचित हो उठी.
अब तक सबको भूख लग गई थी. एक जगह दरी बिछाकर उन्होंने खाना लगाना आरंभ किया. सुप्रिया तो पाक कला में प्रवीण थी ही, उसका लाया पुलाव खुलते ही सब टूट पड़े. रेवा ने बड़ी मेहनत से हरे-भरे कबाब बनाए थे. पर वे ज़्यादा मज़ेदार नहीं बन पाए थे. सबने एक-एक लेकर ही हाथ खींच लिया था. रेवा का दिल टूट गया. उसे लगा उसकी आंखें बरस ही पड़ेंगी, लेकिन तभी बड़े सर ने कबाब का डिब्बा अपनी ओर खींच लिया और ‘बहुत स्वादिष्ट बने हैं’ कहते हुए एक साथ चार कबाब निकालकर अपनी प्लेट में रख लिए.
रेवा का दिल एक बार फिर उनके प्रति कृतज्ञता और आत्मीयता से भर उठा. ‘बड़े सर को उसकी भावनाओं का कितना ख़याल है! कैसे वे बिना कहे ही उसके दिल की हर बात समझ जाते हैं! क्या उन्होंने ये सब मात्र उसका दिल रखने के लिए किया था या सचमुच उनके दिल में उसके प्रति कुछ-कुछ है?’ अकेले में जब भी रेवा यह सोच दोहराती तो ठंड में भी पसीने से भीग जाती.
यह उसे क्या होता जा रहा है? सहज सहानुभूतिवश व्यक्त की गई प्रतिक्रिया को वह क्यों इतनी गंभीरता से ले रही है? हो सकता है उनके दिल में कुछ हो और हो सकता है कि कुछ भी न हो. जब वह अपने दिल को ही नहीं समझ पा रही, तो दूसरे के दिल को कैसे समझ सकती है? लेकिन वह इतना अवश्य जानती है कि दोनों के ही दिलों में एक-दूसरे के प्रति कोई कामुक भावना नहीं है. बस, एक गहरा अपनापन है, एक ऐसा जुड़ाव जो एक हितैषी ही रख सकता है.
गत चार दिनों से रेवा सुप्रिया या बड़े सर से मिली नहीं थीं. नरेन भी पिछले दो-तीन दिनों से किसी प्रोजेक्ट में व्यस्त होने के कारण उसे समय नहीं दे पा रहे थे. रेवा अभी उनसे ज़्यादा बात भी नहीं करना चाहती थी. अंदर ही अंदर वह घुट रही थी. कभी सोचती, जो हो रहा है वह ग़लत है. वह नरेन और सुप्रिया को धोखा दे रही है. कभी लगता, ऐसा कुछ भी तो नहीं है. जब किसी को कुछ ग़लत नहीं लग रहा, तो वही क्यों उल्टा-सीधा सोचकर अपराधबोध से मरी जा रही है? कहीं उसी के दिल में तो कोई खोट नहीं है?
कभी लगता सुप्रिया के सम्मुख जाकर अपने मन की सारी परतें खोलकर रख दे और उससे इस घुटन का निवारण पूछे. फिर उसे ख़याल आता, सुप्रिया एक मनोवैज्ञानिक होने के साथ-साथ एक पत्नी भी तो है, बल्कि पत्नी पहले है और मनोवैज्ञानिक बाद में. यदि वह सुप्रिया की जगह होती तो क्या ये सब सुन और सह पाती?
लेकिन रेवा को मुंह खोलने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी. सुप्रिया जैसी मनोवैज्ञानिक की पारखी नज़रों से रेवा के मन की बेचैनी छुप न सकी. रेवा का सुप्रिया और उसके पति से नज़रें बचाकर निकल जाना, अकेले में बातचीत होने जैसी परिस्थितियों को टालना उसे रेवा की मनोस्थिति का कुछ-कुछ बोध करा रहे थे. और आख़िर एक दिन उसने पीरियड ख़त्म करके निकलती रेवा को पकड़ ही लिया.
“क्या बात है, आजकल नज़र नहीं आती?”
“व... वो मुझे जल्दी घर पहुंचना है.”
“रेवा, तुम मुझसे झूठ नहीं बोल सकती. आओ घर चलते हैं, कॉफी बनाकर पीते हैं. मेरा पेट कुछ गड़बड़ हो रहा है.” रेवा अब इंकार न कर सकी. कॉलेज कंपाउंड में ही तो सुप्रिया का घर था. कॉफी का प्याला थामे रेवा चुपचाप पी रही थी.
“रेवा, पिछले चार दिनों से तुम मुझसे मिली नहीं या यूं कहूं कि मुलाक़ात टालती रही.”
“नहीं ए... ऐसी...” रेवा ने कुछ कहना चाहा, लेकिन सुप्रिया ने उसे बोलने का अवसर ही नहीं दिया.
“तुमने अपनी शक्ल देखी है इन दिनों आईने में? सूखकर कांटा हो गई हो. जैसे अंदर ही अंदर कोई घुन लग गया हो... अच्छा कुछ क्षणों के लिए भूल जाओ कि तुम मेरी सहेली हो और... और यह भी भूल जाओ कि मैं... विपिन की पत्नी हूं. अब तुम मेरी मरीज़ हो और मैं तुम्हारी डॉक्टर. क्या अब तुम मुझे अपनी समस्या बता सकती हो?”
सुप्रिया सब कुछ जानती और समझती है, तभी तो कह रही है कि मैं कुछ क्षणों के लिए भूल जाऊं कि वह बड़े सर की पत्नी है. ‘ओह! सुप्रिया मेरा इतना कड़ा इम्तिहान मत लो.’ आंखें भींचकर रेवा बुदबुदा उठी और इस प्रयास में आंखों की कोरों में छिपा दर्द दो बूंद आंसुओं के रूप में ढुलक गया.
“तुम नहीं कह पाओगी, मैं जानती थी. मुझे ही तुम्हें समझाना होगा. देखो रेवा, तुम्हारे अंदर एक मनोग्रंथि पनप रही है. यह ग्रंथि एक दिन में नहीं बनती. समय का लंबा अंतराल और इस दौरान घटी घटनाएं इस मनोग्रंथि के पनपने में सहायक होती हैं. और चूंकि इसे पनपने में समय लगता है, इसलिए इसका निराकरण भी एक झटके में संभव नहीं है. इससे पूरी तरह छुटकारा पाने में भी समय लगता है. बेहतर यही है कि हम जल्द से जल्द इसके कारण को ढूंढ़ लें और उपचार आरंभ कर दें. पिछले कुछ समय से मैं तुम्हारे अंदर एक अपराधबोध पनपता देख रही हूं. तुम स्वयं को मेरी और अपने पति की अपराधिनी मानने लगी हो. और इसका कारण है- विपिन से तुम्हारे आत्मीय संबंध.”
रेवा दम साधे सुन रही थी. उसमें सुप्रिया की बातों का प्रतिकार करने का रंच मात्र भी साहस शेष न था.
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“देखो रेवा, एक स्त्री को अपने पति के संग सुखद वैवाहिक जीवन बिताने और उसे संतुष्ट करने के लिए कई भूमिकाएं निभानी पड़ती हैं. कभी मां की तरह उसे पुचकारना पड़ता है, कभी बहन की तरह धीरज बंधाना पड़ता है, तो कभी एक दोस्त की तरह उसकी रुचियों को शेयर करना होता है. यही सब कुछ एक पति को भी अपनी पत्नी के लिए करना होता है. विभिन्न अवसरों पर विभिन्न तरह की भूमिकाएं निभानी होती हैं. और सब भूमिकाएं तो पति-पत्नी फिर भी निभा लेते हैं. हां, समान रुचि और समान स्वभाव के अभाव में दोस्त की भूमिका निभाना थोड़ा मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है. इसलिए ऐसे मामलों में समझौता करना पड़ता है. कई स्त्री-पुरुष तो शादी के बाद जीवनसाथी की अपेक्षाओं के अनुरूप अपनी रुचि और स्वभाव ही बदल लेते हैं. कुछ इन्हें व्यर्थ की बकवास कहकर सिर झटक देते हैं. वे एक तरह से सच को झुठलाने का प्रयास करते हैं. लेकिन किसी समान अभिरुचि और स्वभाव वाले व्यक्ति से मिलने पर उनकी यह सुप्त लालसा जीवंत हो उठती है. उस अभिरुचि से संबंधित वार्ता, उससे जुड़ी हर गतिविधि और इसलिए उससे जुड़ा हर व्यक्ति भी उसके आकर्षण का केन्द्र बन जाता है. इसमें कुछ भी ग़लत नहीं है, क्योंकि यह अभिरुचि के साथ जुड़ा हुआ आकर्षण है और वहीं तक सीमित है.”
“तो क्या हर स्त्री और पुरुष के साथ ऐसा होता है?”
‘नहीं, कोई ज़रूरी नहीं. मनोविज्ञान ऐसा क्षेत्र है, जहां विज्ञान की तरह कोई स्थापित नियम नहीं होते, क्योंकि यदि हम कोई नियम बनाना भी चाहें, तो उसके एक नहीं, ढेरों अपवाद मिल जाते हैं, और वो इसलिए कि हमारा विषयवस्तु है मानव मन, जिस पर हर प्रायोगिक परीक्षण अलग-अलग परिणाम देता है. तुम्हें साहित्य और लेखन में रुचि है. तुम ख़ुशक़िस्मत हो कि तुम्हें नरेन जी जैसा पति मिला, जिन्होंने तुम्हारी रचनात्मक प्रवृत्तियों को हमेशा बढ़ावा दिया. विपिन को भी साहित्य और लेखन में रुचि है. वे भी तुम्हारी तरह अंतर्मुखी और गंभीर हैं. इसलिए तुम्हें परस्पर वार्तालाप करना, समय गुज़ारना अच्छा लगता है. इन्हें स्वस्थ आत्मीय संबंध समझो और अपने अंदर किसी अपराधबोध को न पनपने दो.
हां, इतना ख़याल ज़रूर रखना होगा कि ये दोस्ताना संबंध कोई ऐसा रूप न अख़्तियार कर ले कि तुम लोगों को शर्मिंदा होना पड़े, क्योंकि आत्मीय संबंध और शारीरिक आकर्षण के बीच बहुत पतली सीमारेखा है. मुझे विश्वास है, तुम और विपिन दोनों ही इतने समझदार हो कि इस सीमारेखा को कभी नहीं लांघोगे.”
“सुप्रिया... प्रिया... कहां हो तुम?” सुप्रिया को खोजते, हड़बड़ाए से विपिन ने आकर सुप्रिया की दोनों बांहें पकड़ लीं.
“क्या हो गया था तुम्हें? रजनी ने बताया कि तुम्हारी तबियत ठीक नहीं है और तुम घर चली गई हो.”
“अरे बाबा, कुछ नहीं हुआ मुझे. तुम व्यर्थ परेशान हो रहे हो. सवेरे नाश्ते में मैंने रात का रखा समोसा गरम करके खा लिया था. शायद उसका मसाला गड़बड़ था, जिससे दो-तीन उल्टी हो गई. इसलिए मैं रेवा के संग घर आ गई.”
“रेवा, ओह! आप भी हैं. मुझे ध्यान ही नहीं रहा.”
“बैठो, कॉफी ले लो.”
“नहीं, बस चलता हूं. मीटिंग के लिए इंतज़ार हो रहा होगा मेरा. सुनकर एकाएक रहा नहीं गया... अच्छा तुम आराम करो, शाम को एक बार डॉक्टर को दिखा आएंगे.” कहकर एक बार भी रेवा की ओर देखे बिना विपिन तेज़-तेज़ क़दमों से लौट गए.
सैकड़ों की भीड़ में उसे खोज लेने वाली आंखें आज सुप्रिया की चिंता में उसे देखकर भी न देख सकीं. यही तो है पति का पत्नी के प्रति प्यार और पत्नी का पति के प्रति अटूट विश्वास. रेवा को विचारों में खोया देख सुप्रिया ने उसे बैठने का आग्रह किया.
“बस, मैं भी अब चलती हूं. नरेन और बच्चे आते होंगे.” सुप्रिया के घर से निकलते व़क़्त रेवा स्वयं को फूल-सा हल्का महसूस कर रही थी. वह अपराधबोध से मुक्त जो हो चुकी थी.
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