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कहानी- विहान‌ (Short Story- Vihaan)



“एक रिक्वेस्ट और थी, आप बुरा मत मानिएगा.” मैंने दिल कड़ा कर लिया, कुछ और भी बचा था अभी?
“जी बताइए.”
“हो सके तो… शादी से पहले आप वापस लौट जाइए, मैं नहीं चाहती कि हमारा कभी आमना-सामना हो…”
करंट जैसा लगा था मुझे. ऐसा भी क्या खटक रहा था मैं?

कार थोड़ी देर खड़-खड़ करती हुई अपने दम से ज़्यादा ज़ोर लगाती रही, फिर हार मानकर रुक ही गई. मैंने खिड़की से बाहर झांकते हुए ड्राइवर से पूछा, “अब क्या हुआ! हर थोड़ी देर में तुम्हारी कार को नाटक करने की आदत है क्या?”
ड्राइवर ने झल्लाहट दबाते हुए मुझे जवाब दिया,
“अब गाड़ी नखरे उठवा रही है, तो क्या करें साहब, उठाने तो पड़ेंगे ही.”
मैंने टाइम देखा, तीन तो यहीं बज गए थे. चार से पहले हवेली पहुंच नहीं पाऊंगा. दो-तीन घंटे तो कम से कम रुकना ही है वहां, यानी छह-सात बज जाएंगे… अब रात में क्या वापस होना, सुबह से पहले तो नहीं निकल पाऊंगा.
कल फिर इसी खड़खड़ रास्ते को झेलते हुए स्टेशन पहुंचना, सोचकर ही दिमाग़ थकने लगा था.
“साहब, कीचड़-मिट्टी का रास्ता है. लग रहा कुछ दिक़्क़त हो गई कार में. फोन किया है, मैकेनिक आएगा.. समझ लीजिए घंटे भर की ़फुर्सत.”
इससे ज़्यादा ख़राब क्या ही होगा! एक पल को मेरा दिमाग़ भन्नाया, फिर ख़ुद पर शर्म आई. मैं किसलिए जा रहा था हवेली? जिस बात के लिए जा रहा था, उस बात का तो एक रत्ती भी दुख मेरे मन के किसी कोने में था नहीं.
एक एक्सीडेंट में अपने मां-पापा को खोने के बाद मैं ताऊजी के घर ही रहा. ताईजी, जिनकी छाया में मैं बड़ा हुआ, वो तीन दिन पहले दुनिया छोड़कर चली गई थीं और उनकी मौत पर जाना एक बहाना था… मैं तो अनीता का हाल जानने जा रहा था.
मैंने कार की पिछली सीट पर लेटकर बैग का तकिया बना लिया. जब तक कार नहीं ठीक हो जाती, एक नींद तो ली ही जा सकती थी. आंख मूंदते ही ताऊजी के बेटे, प्रताप भइया का चेहरा खट से सामने आ गया. आंखें तुरंत खुलीं, फिर बंद भी होने लगीं. इस बार फिर प्रताप भइया दिखे, लेकिन इस बार अकेले नहीं, बगल में अनीता भी थी. पिछली बातें याद आने लगी थीं.

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क़रीब दो साल पहले जब मैं हवेली आया, तो भइया ने आते ही दबोच लिया था, “जी तो कर रहा, जान से मार दूं तुझे, शादी पक्की करने गए थे, तब क्यों नहीं आया?”
“भइया, ऑफिस वालों ने आने ही नहीं दिया. अब आया हूं ना हफ़्ते भर की छुट्टी पर, आलीशान शादी होगी. एक मिनट रुकिए, पहले भाभी की फोटो दिखाइए.”
भइया ने इधर-उधर देखते हुए अपना फोन निकाला, एक फोल्डर था भाभी की फोटो का. मैंने झांक कर देखा, “इतनी फोटो रखे हुए हो, मैंने व्हाट्सएप पर मांगा, तो क्यों नहीं भेजी.”
भइया ने फोटो गैलरी देखते हुए कहा, “देख सूरज, मुझे ये सब पसंद नहीं, तू जानता है. मैं तुझको भेजता, तू अपने दोस्तों को भेजता. फिर ये फोटो इधर से उधर घूमती.”
“ओहो, पज़ेसिव हो रहे हैं भाभी के लिए. अच्छा, अब तो दिखाइए.”
मैंने उनके हाथ से फोन छीन लिया, “अरे! ये क्या…” मेरा तो मुंह खुला रह गया.
“कितनी सुंदर है ना तेरी भाभी?” भइया मुझे चौंका हुआ देख, गर्व से भरे जा रहे थे और मैं एक के बाद एक फोटो देखता जा रहा था.
“ये तो अनीता है! मेरठ से है ना? ओह माय गॉड!”
मेरा चेहरा जैसे ही खिला, भइया का उतर गया.
“ऐ भाई, पूरी बात बता. इतना कैसे जानता है इसको.”
“अनीता और मैं बारहवीं तक एक साथ पढ़े हैं भइया. पापा की पोस्टिंग वहीं तो थी तब, एक ही स्कूल, एक ही क्लास, घर भी पास थे हमारे.
मुझे विश्‍वास ही नहीं हो रहा था. इतनी पुरानी जान-पहचान का इस तरह सामने आना, इतने क़रीबी रिश्ते में बदल जाना. सच कहते हैं, दुनिया गोल है.”
“तब तो बेकार इतनी जांच-पड़ताल करवाई लड़की और घर-परिवार की, तेरे से ही पूछ लेते.”
भइया मज़ाक करने की कोशिश करते हुए हंस तो दिए, लेकिन वो हंसी उनके चेहरे पर फैल नहीं पाई. पता नहीं क्या हुआ उसके बाद, वो जब देखो, तब मुझसे अनीता के बारे में अजीब ढंग से पूछते रहते. उन सवालों में कौतूहल नहीं, बेचैनी झलकती थी.
“सब लड़कों से बात करती थी अनीता?”
“तुम सब लोग घूमने भी जाते थे साथ में?”
“अनीता तो बहुत सुंदर है, लड़के पटाने की कोशिश तो करते ही होंगे? कभी नाम उछला किसी के साथ?”
मुझे प्रताप भइया की ये बेचैनी डराने लगी थी. उनके अंदर एक घुटन सी महसूस होती थी. मुझे डर सताने लगा कि इस घुटन में इनका रिश्ता कैसे टिक पाएगा? एक घुटन मेरे अंदर भी फैली हुई थी. अनीता और मैं बचपन के स़िर्फ दोस्त नहीं थे, उससे ज़्यादा भी कुछ थे. ये बात हम दोनों को पता थी और स़ि़र्फ हम दोनों तक रह भी गई.

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“हेलो, आप सूरज बोल रहे हैं?” एक दिन सुबह ही किसी अनजान नंबर से मेरे पास फोन आया.
“जी, आप कौन?”
“मैं… अनीता… आपकी भाभी…” एकदम शांत आवाज़ आई, मैं संभल गया. नाम बताने के साथ, मुझे रिश्ता भी समझा दिया गया था.
“कैसी हो..? कैसी हैं आप?” मैंने अपनी भाषा ठीक की.
“मैं ठीक हूं. इन्होंने बताया कि आप इनके चचेरे भाई हैं, बस आपसे एक रिक्वेस्ट थी.”
मैं अनीता की इस औपचारिक बोली से खीज गया था, कौन कहेगा कि एक समय में हम इतने क़रीब रहे हैं कि…
“मैं ये कह रही थी कि आपके भइया थोड़ा पज़ेसिव हैं मेरे लिए… तो आप वो सब, मतलब स्कूल वगैरह की बातें क्यों करते रहते हैं, वो बहुत पुरानी बातें हैं…” अनीता बोलते हुए रुकी, फिर बोली, “इतना पुराना याद नहीं रखना चाहिए.”
मैं कुछ भी बोलने की हालत में नहीं था, बस मैंने इतना पूछा, “और कुछ?”
उधर सन्नाटा था, वो कुछ सोचकर बोली, “हमारी बात हुई, किसी से कहिएगा नहीं.”
“नहीं कहूंगा..और कुछ?” मैं रोबोट की तरह पूछता जा रहा था, हालांकि मैं पूछना तो ये भी चाहता था कि जब भइया से छुपकर बात हो रही थी, तो उसको मेरा फोन नंबर कैसे मिला था?
“एक रिक्वेस्ट और थी, आप बुरा मत मानिएगा.”
मैंने दिल कड़ा कर लिया, कुछ और भी बचा था अभी?
“जी बताइए.”
“हो सके तो… शादी से पहले आप वापस लौट जाइए. मैं नहीं चाहती कि हमारा कभी आमना-सामना हो…”
करंट जैसा लगा था मुझे. ऐसा भी क्या खटक रहा था मैं? हालांकि मैंने उसको आश्‍वस्त करके फोन रख दिया था, लेकिन कुछ था जो मुझे अजीब लग रहा था, बहुत बुरी तरह! शायद मुझे ये शादी ही अजीब लग रही थी. अनीता और भइया का कोई मेल नहीं था. वो एक बहुत पढ़ी-लिखी, खुले विचारों वाली लड़की थी और भइया फर्ज़ी डिग्री लादे हुए, संकुचित विचारधारा के माहौल में पले हुए, अमीर घर के बिगड़ैल लड़के. थोड़ी-बहुत जांच-पड़ताल की तो पता चला, किसी बिचौलिए रिश्तेदार ने आधी-अधूरी सूचना देकर रिश्ता तय करा दिया था. अनीता के पापा, प्रताप भइया के वैभव पर और अनीता उनकी हीरो जैसी शक्ल और कद-काठी पर मोहित होकर तैयार हो गई होगी, बाकी का काम फर्ज़ी डिग्रियों ने कर दिया होगा,
“पता है, अनीता जब देखो तब बस पढ़ाई-लिखाई की बात करती रहती है. अब उसको क्या बताऊं, मेरे तो सारे बीए, एमए घर बैठे हुए.” भइया जिस बात को सीना ठोंक कर बताते थे, वही बात मेरे दिल में धुक-धुक करने लगती थी.
“एक बार शादी होकर आएगी न, ख़ुद देख लेगी. इतनी तो गिनती उसने सीखी नहीं होगी कि हमारी दौलत गिन पाए. नौकर, पैसा, ज़मीन-जट्टा… बौरा जाएगी तेरी भाभी.” भइया ने भविष्यवाणी कर दी थी उस दिन!
अनीता सच में बौरा गई थी. शादी के ठीक चौथे दिन बाद जो वो मायके गई, तो वापस नहीं आई. मैं तो ऑफिस का बहाना बनाकर, ठीक शादी से एक दिन पहले दिल्ली वापस आ गया था. परिवार वालों से ख़बरें मिलती रहीं. अनीता किसी भी क़ीमत पर ससुराल वापस आने को तैयार नहीं थी. फिर क़रीब महीने बाद, एक दिन अचानक अनीता मायके से ससुराल वापस आ गई. भैया का हंसते हुए फोन आया था, “अरे बधाई हो, चाचा बनने वाला है तू.”
हवेली की ये गुत्थी कभी उलझती, कभी सुलझती! कभी ख़बर मिलती, अनीता ने फिर लड़ाई की, मर जाने की धमकी दी… फिर पता चलता सब ठीक हो गया. हवेली एक घर न रहकर, जैसे रिश्तों का अस्पताल हो चुकी थी. जहां सारे रिश्ते बीमार थे.
“बेवकूफ़ औरत है, ध्यान नहीं रखा अपना.”
भइया की आवाज़ दुख की बजाय ग़ुस्से से भरी हुई थी. बच्चा दुनिया में आने से पहले ही अलविदा बोल गया था. सबने अनीता को दोषी ठहराया था. बवाल एक बार फिर ज़ोर पर था. इन सबमें मेरी भूमिका एक मूक दर्शक से ज़्यादा नहीं थी. बस, मैं ये सब होते देख सकता था, कुछ कर नहीं सकता था. इसी बीच एक नई बात ने शोर मचाया. अनीता ने भइया से बात करना बंद कर दिया था. यहां तक कि उनके कमरे तक अलग हो गए थे.
“सारे नौकरों के बीच मेरा मज़ाक बनाकर रख दिया है इस लड़की ने. नौकर लोग इस तरह बात करते हैं, साहब का कमरा, बहूजी का कमरा… एक बार आ जा तू, ख़ुद देख ले आकर.”

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बात इतनी बिगड़ जाएगी, किसी ने सोचा नहीं था. मुझे भी अब ये सब नाटक जैसा लगने लगा था. मन करता था अनीता से जाकर बात करूं, फिर याद आती उसकी न मिलने वाली बात. एक बार फोन भी लगाया उसको, नंबर ही काम नहीं कर रहा था.
“हेलो… सूरज… मैं अनीता.” एक दिन अचानक किसी नए नंबर से अनीता का फोन आया. चौंकाने वाली दो बातें थीं, एक तो फोन आना, दूसरा ’भाभी’ का रिश्ता याद न दिलाते हुए, सिर्फ़ अनीता कहना.
“जी, बोलिए भाभी.” मैं अपने दायरे में ही रहा.
“मुझे इन सबके ख़िलाफ़ केस करना है, सपोर्ट करोगे?”
मेरे होश उड़ गए थे! अब ये क्या था? घर में भयंकर बवाल करके भी इसको चैन नहीं, अब केस भी होगा? और उसमें भी मेरा सपोर्ट? मैं हूं कौन?
“आप मुझसे कैसे सपोर्ट मांग सकती हैं, मेरी फैमिली के ख़िलाफ़?”
मेरे सवाल के जवाब में मुझे सुनाई दिया सन्नाटा और फिर रोने की आवाज़. अनीता एक शब्द भी नहीं बोल पा रही थी और जब बोलना शुरू किया, तो सन्नाटा मेरे ज़ेहन पर छाने लगा था. अनीता की बात मानें, तो वो नारकीय जीवन जी रही थी, शराब पीकर पत्नी को पीटना भइया के लिए आम बात थी. किसी भी आदमी से वो बात कर ले, तो भइया पर भूत सवार हो जाता था. शादी के तुरंत बाद ही भइया की कुछ हरकतें अनीता को नाग़वार गुज़री थीं, तभी वो मायके से आना नहीं चाहती थी.
“फिर तुम वापस क्यों आई? वहीं रहकर विरोध करती, तलाक़ लेती.” मैंने रूखे ढंग से पूछा, मैं उसकी बात आसानी से मान नहीं पा रहा था.
“मैं नहीं आना चाहती थी, तब तक पता चला कि प्रेग्नेंसी है. मुझे लगा शायद सब ठीक हो जाएगा अब.” वो रुककर बोली, “ठीक भी रहा कुछ दिन. फिर मेरा एक कज़न आया मुझसे मिलने, उसके जाने के बाद इनको लगा कि मेरे उसके बीच कुछ ग़लत रिश्ता है, इन्होंने बहुत मारा मुझे, मेरा सातवां महीना चल रहा था…”
वो फफक कर रो पड़ी थी. मैं कुछ भी कहने-सुनने की हालत में नहीं था, ये सब न सच लग रहा था, न झूठ!
“उसी वजह से… मतलब मारपीट की वजह से…”
मैंने झिझकते हुए पूछा, अनीता ने हामी भरी.
“हां, इनकी सनक की वजह से सब कुछ ख़त्म हो गया. मेरे मायके वाले तब भी कहते रहे, एडजस्ट करो, सब ठीक हो जाएगा… लेकिन कुछ ठीक नहीं होगा, मुझे पता है.”
मैंने उसकी बात सुनकर, थोड़ा-बहुत समझाकर फोन रख दिया था. मैं सुन चुका था, मानना अभी बाकी था. घर के अंदरूनी मामलों की सच्चाई जिनको पूरी तरह पता हो सकती थी, मैंने उनका दरवाज़ा खटखटाया. हवेली के पुराने नौकर बुधिया को फोन करके, उनका विश्‍वास जीतकर अंदर की बातें उगलवाईं. जो सच निकलकर आया, वो इतना कुरूप था कि सुनना मुश्किल था. अनीता उस सच को जी कैसे रही थी? उसने विरोध का नया तरीक़ा निकाला था, अलग कमरा चुन लिया था.
मुझे लग रहा था, इतिहास अपने आपको दोहरा रहा था, यही हालत ताईजी की थी. बात-बात पर ताईजी लताड़ दी जाती थीं, मैं छोटा था समझ नहीं पाता था… ताईजी के हाथ, गर्दन, चेहरे पर उभरे निशानों का मतलब मुझे बहुत बाद में समझ में आया. वही मारपीट की परंपरा भइया भी निभा रहे थे. भइया से कुछ कहा नहीं जा सकता था. अनीता का तलाक़ उसके मां-पापा होने नहीं दे रहे थे… अनीता मुझको अक्सर फोन करने लगी थी, “अब सहा नहीं जाता. लगता है मर जाऊं, एक घर में रहकर अलग-अलग रह रहे हैं, तब भी चैन नहीं है. कल फिर हाथ उठाया मुझ पर…”
भइया तो मेरी नज़रों से गिरते ही जा रहे थे, ताऊजी भी सम्मान पाने लायक नहीं रहे थे. ताईजी तो गूंगी गुड़िया ही थीं, उनके सामने घर में ये सब हो रहा था और वो चुप थीं?
“साहब… साहब… कार ठीक हो गई है.” ड्राइवर मुझे तेज़ आवाज़ में जगा रहा था. जैसे-तैसे आंखें खोलकर मैं फ्लैशबैक से बाहर आया. कपड़े ठीक करके, मुंह धोकर मैंने हुलिया ठीक किया और आधे घंटे के अंदर ही हवेली जा पहुंचा.
हवेली, घर न लगकर भूतों का डेरा लग रही थी. पहली बार ऐसा हुआ था कि हवेली का फाटक खुलते ही ताईजी की बांहें मुझसे नहीं लिपटीं.
“बड़े दिन लगा दिए सूरज… ताईजी तुमको याद करती हुई चली गईं…” ताऊजी सोफे पर निढाल पड़े हुए थे, मुझे देखकर आंखों में नमी तैर गई, “कितने दिन की छुट्टी पर आए हो?”
“कल सुबह चला जाऊंगा ताऊजी… भइया कहां हैं?”
ताऊजी ‘पता नहीं’ के अंदाज़ में कंधे उचकाकर फिर से सोफे में धंस गए. मैं बैग वहीं रखकर, सीढ़ियां चढ़ता हुआ ऊपर आया. भइया के कमरे की ओर बढ़ा, तो वहां धुप्प अंधेरा था, आगे ताई जी के कमरे में रोशनी थी, “भइया…” मैंने आवाज़ देते हुए दरवाज़ा ढकेला.
भइया वहां नहीं थे! सामने थी ताईजी की फोटो, फूलमाला पहनी हुई और उनके बगल में बैठी, बुत बनी हुई अनीता. मुझे देखकर उसने सिर झुका लिया.
“भइया… भइया कहां हैं?” मैं हड़बड़ा गया था. इतने सालों बाद अनीता को देखना, वो भी इस हाल में! शरीर ऐसा, जैसे कंकाल को साड़ी पहना दी गई थी, चेहरे पर आंखें गड्ढों में धंसी हुई और रंगत ऐसी जैसे शरीर से पूरा खून निचोड़ लिया गया हो.
अनीता ने फोटो देखते हुए कहा, “मम्मी चली गईं… अब कोई भी नहीं है.”
मैं वहीं ड्योढ़ी पर बैठ गया था. थोड़ी देर बाद एक नौकर ने आकर बताया कि भइया चार दिनों के लिए दोस्तों के साथ घूमने गए हुए थे. सब कुछ स्पष्ट था, ताईजी को गए गिनती के दिन हुए थे और भइया का घूमना-फिरना शुरू हो चुका था. अनीता की हालत बता रही थी कि जिस तरह अधमरी हालत में उम्र बिताकर ताईजी ने दिन गिने, वही अंत अनीता का भी होना था. मैंने एक बार फिर अनीता को देखा… साथ बिताए दिन, महीने, साल एक साथ आकर खड़े हो गए.
“खाने के लिए नहीं पूछोगी?”
मैंने वहीं ड्योढ़ी पर बैठे हुए पूछा, वो चौंककर उठी. हमारी नज़रें मिलीं, हज़ारों सवाल उठे, चुप हो गए. बुधिया काका, मेरा खाना लगाकर मेरे कमरे में ले आए थे. धीरे-धीरे बोलते हुए उनकी आंखें टपकने लगीं, “सब हमारी ग़लती है साहब. हम ही गोली की बोतल लाकर दिए थे मालकिन को.”
“मतलब?” खाना खाते हुए मेरे हाथ रुक गए.
“सारी गोलियां खा के सो गईं मालकिन. बहुत दुखी थीं.” वो फूट-फूटकर रो पड़ा था. मेरे हाथ में पकड़ा निवाला थाली में छूट गया. ताई जी की मौत फूड प्वॉइज़निंग से हुई, यह झूठी बात थी? ताऊजी ने अब तक उनका जीना इतना मुश्किल किया हुआ था? यानी ‘सब ठीक हो जाएगा’ कहा जाना एक झूठ है, कभी कुछ ठीक नहीं होता. एक डर और मुझ पर हावी हो गया था. इतिहास अपने को् दोहरा रहा था, जब भइया ताऊजी के रास्ते पर चल रहे थे, तो क्या अनीता ताईजी के रास्ते पर नहीं जाएगी?
रात तक मैं छत पर टहलता रहा, कुछ-कुछ सोचता रहा, थोड़ी देर बाद मैंने अनीता के कमरे की ओर रुख किया.
“मेरी एक बात मानोगी?”
“बोलिए.”
“तुरंत अपना सामान बांधो और निकलो यहां से…”
अनीता को तब तक कुछ समझ नहीं आ रहा था, जब तक बुधिया काका का बताया सच मैंने उसके सामने लाकर नहीं रख दिया!
“ताईजी की तरह ही जी रही हो तुम, उन्हीं की तरह दुनिया से जाना भी चाहती हो? सोच लो तुमको क्या करना है, मैं सुबह निकल रहा हूं. मैं हूं तुम्हारे साथ.”

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अनीता की आंखों में मैंने देखकर आख़िरी चार शब्द कहे और वापस लौट आया. पूरी रात ठीक से नींद नहीं आई, सुबह हल्की सी झपकी लगी, तो शोर-शराबे से आंख खुली. ताऊजी बुरी तरह चीख रहे थे, “प्रताप को फोन लगाओ. बोलो, जहां है तुरंत आए. ये देखो कालिख पोत गई.”
वो एक काग़ज़ हाथ में पकड़े हुए कांप रहे थे. मैंने उनको एक जगह बिठाया और आंखें मलते हुए वो काग़ज़ पढ़ना शुरू किया-
प्रताप,
मैं जा रही हूं. सब कुछ छोड़कर, आपको, आपकी सनक और आपकी दौलत को छोड़कर. मुझे ढूंढ़िएगा नहीं, तलाक़ के काग़ज़ जल्दी मिलेंगे आपको.
अनीता
मैं सन्न रह गया था. इस कदम की, इस हिम्मत की उम्मीद मुझे उससे नहीं थी. जब यही करना था, तो इतने साल किस बात का इंतज़ार कर रही थी? बुधिया काका ने मेरा कंधा थपथपाकर मुझे कमरे में आने को कहा, “ये चिट्ठी आपके लिए दे गई हैं बहूजी.”
एक बंद लिफ़ाफ़ा थमाकर काका, तेजी से बाहर निकल गए. मैंने कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद किया और वो चिट्ठी पढ़नी शुरू की-
सूरज,
मैं जा रही हूं, अकेले… अपनी बची-खुची हिम्मत बटोरकर. तुम्हारे सवाल ने मुझे सोने नहीं दिया, जवाब ये है कि न मुझे मम्मी की तरह जीना है, न उनकी तरह दुनिया से जाना है. मम्मी मुझे वो रास्ता दिखा गई हैं, जो मुझे बहुत पहले चुन लेना चाहिए था.
तुम सोच रहे होगे कि ये हिम्मत मुझमें पहले क्यों नहीं आई! उत्प्रेरक समझते हो न, कैटलिस्ट… किसी धीमी प्रक्रिया को तेज़ कर देता है, तुम्हारा सपोर्ट, तुम्हारे कहे वो चार शब्द ’मैं हूं तुम्हारे साथ’ ये मेरे लिए उत्प्रेरक का ही काम कर गए. आज मेरे लिए नई सुबह है… ये सुबह तुम लाए हो, अपने नाम विहान को सार्थक करते हुए, विहान का मतलब भी तो सुबह ही होता है न!.. फ़िलहाल तो अपनी मंज़िल की ओर ख़ुद बढूंगी, जहां कमज़ोर पड़ी, तो तुम्हारी तरफ़ मुड़कर देखूंगी, मिलोगे न वहां?
अनीता


मैंने चिट्ठी मोड़कर अपने सूटकेस में छुपाई. अपना सामान पैक किया. मेरा भी निकलने का टाइम हो रहा था. बाहर शोरगुल बढ़ गया था. प्रताप भइया वापस आ गए थे. मैंने चिट्ठी सूटकेस से निकालकर छोटे-छोटे टुकड़ों में फाड़कर पानी से निगल ली. अपने फोन से अनीता का नंबर डिलीट किया, सारी चैटिंग, कॉल डिटेल्स, सब कुछ. कमरे से बाहर निकलते ही छानबीन मेरी भी होगी, मुझे पता था… चिट्ठी फाड़ने का दुख था, ज़िंदगी का पहला प्रेम-पत्र था. फोन नंबर डिलीट करके दुख नहीं हुआ, मुझे यक़ीन था, अब तक अनीता अपना फोन नंबर बदल चुकी होगी. और मुझे ये भी यकीन था कि कुछ दिनों बाद, एक अनजान नंबर से फोन ज़रूर आएगा और मुझे ये आवाज़ ज़रूर सुनाई देगी, “हेलो.. मैं अनीता…”

Lucky Rajiv
लकी राजीव

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