Close

कहानी- उतार फेंक दोस्ती के तमगे (Short Story- Utar Phenk Dosti Ke Tamge)


“मैं न कहती थी कि पति-पत्नी में कोई दोस्ती नहीं होती. पति को पति ही समझना चाहिए. थाली परोसो, बिस्तर बिछाओ और खुद बिछ जाओ बिस्तर की तरह. बड़ी बनती फिरती थी अपने पति की दोस्त.” मम्मी की झिड़कियां अब सटीक लगती हैं.


यामिनी अपनी नानीजी के ज़माने की बातें याद कर रही थी. सब बीते ज़माने की बातें हैं. अब कहां वो ज़माना? मैं नानीजी को देखा करती थी. नानाजी ज्यों ही आते, नानीजी बच्चों को डांट-डपटकर चुप करा देतीं. चिल्ल-पों सन्नाटे में बदल जाती. नानाजी हाथ-मुंह धोते, नानीजी तौलिया लेकर खड़ी होतीं… नानाजी रसोई में घुसते, नानीजी झट से चूल्हे की लकड़ी आगे कर उसे और भड़का देतीं… नानाजी पीढ़े पर बैठते और नानीजी झट से थाली आगे लगा देतीं… नानाजी भोजन करना शुरू करते, तो नानीजी हाथ से पंखा करती रहतीं. दोनों के बीच एक सन्नाटा पसरा रहता. नानाजी के चप-चप खाने की आवाज़ और जबड़े की हिलती हड्डियां ही वातावरण में स्पंदन पैदा करती थीं. हमें नानीजी अपने आस-पास भी फटकने नहीं देती थीं. बीच-बीच में नानीजी के ‘एक फुलका और ले लो… सब्ज़ी दूं… तरी तो लो…’ जैसे जुमलों के अलावा और कोई भी जुमला उस वातावरण की दहलीज़ लांघने के लिए निषिद्ध था. मैं यानी यामिनी उस समय औरत नहीं, बच्ची थी. न स्त्री, न पुुुरुष… सिर्फ़ बच्ची. इसलिए ये सब बातें वातावरण का हिस्सा लगती थीं. फिर नानाजी के सोने की तैयारी. तकिया, चादर, सब साफ़-सुथरे. कहीं कोई सिलवट नहीं. नानाजी अधलेटे से रेडियो सीलोन पर बीबीसी न्यूज़ सुनते और सुनते-सुनते निद्रा के आगोश में चले जाते. और नानीजी चौका-बर्तन समेटकर अगले दिन की तैयारी में कभी दही जमातीं, तो कभी छोले-राजमा भिगोती नज़र आतीं. हम बच्चे खुसर-फुसरकर अपनी कहानी पूरी करते, क्योंकि नानाजी सो जो गए होते.

यह भी पढ़े: पुरुष होने के भी हैं साइड इफेक्ट्स(7 Side effects of being men)


फिर मम्मी का ज़माना देखा. पापा आते दफ़्तर से. मम्मी पानी का ग्लास लेकर हाज़िर होती. मम्मी-पापा काफ़ी देर तक बतियाते. पापा कुछ दफ़्तर की सुनाते, कुछ मम्मी मोहल्ले की सूचना देती, फिर पापा खड़े-खड़े हाथ-मुंह धोते. तौलिया वॉश बेसिन पर ही टंगा होता. मम्मी किचन में पापा के लिए चाय बनाती. हम मम्मी-पापा के दो बच्चे उनके इर्द-गिर्द घूमते तो कभी पापा को गलबहियां डालते, कभी उनके गीले, धुले चेहरे को छूते. मम्मी हमारी हरकतों पर हंसती. फिर हम सब डायनिंग टेबल पर बैठकर चाय-पकौड़े खाते. कभी हम दोनों बहन-भाई लड़ते. मम्मी-पापा की बातचीत में खलल होता. पापा थोड़ा ग़ुस्से से देखते. हम चुप हो जाते. उसके बाद मम्मी-पापा शाम को घूमने निकल जाते या किसी मित्र-परिचित के घर मिलने-जुलने. लौटकर मम्मी किचन में खाना तैयार करती और पापा हमें पढ़ाने बैठ जाते. हम सब मिलकर आपस में बातचीत करते हुए भोजन करते. मम्मी, पापा की थाली पर बराबर नज़र रखती और एक-एक फुलका देती जाती, साथ ही हम बच्चों को भी. रात को पापा सबका बिस्तर लगाते और हम सब सो जाते.
मैं तब भी औरत नहीं थी, बच्ची ही थी. मम्मी और नानीजी का समय एक ही था, पर जीवन का अंदाज़ कुछ अलग. धीरे-धीरे मैं युवती बनी. मम्मी को भी देखती रही. मजाल है कि मम्मी बिना पापा को पूछे दो रुपए भी ख़र्च कर ले या बाज़ार तो क्या पड़ोस में भी बिना पूछे चली जाए. मम्मी ने पढ़ाई की प्रबल इच्छा को न जाने कितने बरसों तक दबाए रखा, पापा की सहमति के इंतज़ार तक. पढ़ाई की, पर मज़ाल है कि पापा के कमरे की लाइट रात को जल जाए. बुनाई का शौक था, पर पापा के सामने एक फंदा भी बुनने की हिम्मत न जुटा सकी कभी. सब कुछ पापा की अनुपस्थिति में शाम पांच बजे तक ही होता. पापा के आने की आहट के साथ ही सब ताम-झाम सिमटने लगता.
हम बच्चे बड़े हुए तो मम्मी ने पापा से नौकरी की इच्छा जताई. कड़ा विरोध उभरा, तो दुबारा कह नहीं पाई पापा को. पर विरोध वक़्त के साथ सहमति में बदल गया. मम्मी ने प्राइवेट स्कूल में नौकरी कर ली. मम्मी थोड़ी आत्मविश्‍वासी बनी, पर घर की सार-संभाल में कभी कोई कमी नहीं आई. घर का कामकाज पहले जैसा ही रहा.
मैं बच्ची से युवती बनी. कुछ पंख उगते रहे. हर दिन पंखों में इज़ाफ़ा हुआ. समय सतत् चलता रहा. मेरे हाथ पीले करने की तैयारी हुई, तो मेरा बेबाक़ विरोध मम्मी-पापा के सामने था. पढ़ाई मेरी प्राथमिकता रहेगी. उसमें कोई खलल बर्दाश्त नहीं होगा. चाहे आप हों या मेरा नया घर- ससुराल. मम्मी-पापा का आश्‍वासन था, “ऐसा ही होगा तुम्हारा ससुराल, वहां तुम्हें पढ़ने से कोई नहीं रोकेगा.”
सचमुच राजकुमार आया था मेरे जीवन में. अब मैं पत्नी थी, गृहिणी थी. वो मेरा राजकुमार, ऑफिस से आता था. मैं पढ़ती रहती थी. उसे पानी देती. कभी उसकी मां पकड़ा देती. नई बहू थी, इसलिए मां किचन में हमारे लिए चाय बनातीं. हम दोनों पीते. मैं चहकती… बातें करती दिनभर की… सास-ससुर और हम सब मिलकर डायनिंग टेबल पर खाना खाते. सब अपनी सब्ज़ी ख़ुद ही लेते. रोटी, सलाद, दही सब अपने आप ही परोसते. आधुनिक बुफे सिस्टम जो था.. ससुरजी भी बतियाते. रात ढले मैं अपने राजकुमार के सिरहाने बैठकर पढ़ती. वो मेरे बालों से खेलता. कभी पेन पकड़े हाथों को छूता, तो कभी अपनी उंगलियों से मेरी आंखों की पलकों को गिराकर कहता, “सो जाओ अब. थक जाओगी, कल पेपर देने भी जाना है.”
फिर बच्चे हुए. पढ़ाई, नौकरी सब कुछ गृहस्थ जीवन जैसा बनता चला गया. मैं किचन में बर्तन साफ़ करती, वो शेल्फ पर लगा देता. मैं पलंग की चादरें बदलती, वो डस्टिंग करता. मैं बच्चों के नैपी बदलती, तो वो दूसरा नैपी मेरे सामने लिए खड़ा होता. मैं नाश्ते के लिए परांठे सेंकती, वो चाय बनाता. मैं रोटी बनाती, तो वो हम दोनों के लिए टिफिन पैक करता. फिर मुझे मोटरसाइकिल के पीछे बैठाकर ऑफिस तक छोड़ता.

यह भी पढ़े: क्या सिर्फ़ आर्थिक आत्मनिर्भरता से ही महिलाओं की स्थिति बेहतर होगी(Is Financial Independence Is Women’s Ultimate Empowerment)


मम्मी के घर जाना होता. मम्मी पूछती हमारा हालचाल. गाहे-बगाहे बातचीत में दिनचर्या झलक ही जाती. मां सुलग उठती. वो चाहे उनकी नारी सुलभ ईर्ष्या ही होती.
“अच्छे आदमी हैं आजकल के.”
“आजकल पति नहीं होते मम्मी, दोस्त होते हैं… दोस्त!” मैं गर्व से कह उठती. मैं मम्मी की पुरानी बातें टटोलती. एक सतही संबंध दिखाई देता मुझे. मम्मी से पूछती, “मम्मी, तुम्हारा दम नहीं घुटता? ऐसे ऊपरी रिश्ते निभाती हो, दिनभर तीमारदारी करती हो पति की और उनसे कोई अपेक्षा
नहीं रखती.”
मम्मी कहती, “पति तो पति होता है. कोई दोस्त-वोस्त नहीं. आजकल की लड़कियां तो दोस्त-दोस्त कहकर ख़्याल ही नहीं रखतीं.” मुझे तो वो कई बार कहतीं, “अच्छा पति है तेरा. तुझे रात को भी लाइट जलाकर पढ़ने देता है और बुनाई भी करने देता है. तेरे पापा तो, मजाल है कि जो रात को दूसरे कमरे से आती रोशनी की एक किरण भी बर्दाश्त कर लें.”
मैं गर्व से इतरा उठती, “तुम्हारा तो पति था, हमारा तो दोस्त है और दोस्ती में सब कुछ बर्दाश्त है.”
जीवन के कुछ और अनुभवों से गुज़रती हूं, तो पीछे मुड़कर नानीजी-नानाजी के संबंधों कोे याद करती हूं. स्त्री-पुरुष संबंधों की गहराई में जाती हूं, तो सोचती हूं कि वे कैसी औरतें होंगी, जो अपने पति के नीचे बिस्तर की तरह बिछ जाती होंगी. गोया एक वस्तु हों, जिसे पति के सामने प्रस्तुत करना ज़रूरी है. नहीं… नहीं… मैं ऐसा नहीं कर सकती. देह प्रस्तुत करने से पहले आत्मा का मिलन ज़रूरी है और आत्मा के मिलन से पहले दोस्ती का होना बेहद ज़रूरी है. भई, ये पुरानी औरतों में कहां?
मैंने नानीजी को नानाजी के कमरे में कभी सोते नहीं देखा. एक दिन मैं 40 वर्षीया औरत अपनी 85 साल की नानीजी से मज़ाक कर बैठी, “नानीजी, फिर बच्चे कैसे पैदा हुए?” नानीजी बोलीं, “आसमान से स्वाति नक्षत्र से बूंद गिरी थी, वो
ले ली.”
“वॉव! नानीजी आप भी बड़ी रोमांटिक हैं.” मैं हैरान थी नानीजी की कल्पना पर. मम्मी तो कई बार दर्द को सहेजते हुए कह चुकी है, “औरत-आदमी का संबंध तो स्वार्थ का होता है. तेरी नानीजी भी यही कहा करती थीं, पर मैं ऐसा नहीं समझती थी. आज तू पूछ रही है तो बता रही हूं कि औरत की तो देह भी अपनी नहीं होती. दिनभर पति लड़ता है और उसी पति के सामने रात को बिछना पड़ता है. छी:! कैसी ज़िंदगी थी औरत की उस समय!”
मैं मम्मी से कहती, “हम सुखी हैं कि हमारा पति दोस्त है… दोस्त!”

यह भी पढ़े: ख़ुद अपना ही सम्मान क्यों नहीं करतीं महिलाएं (Women Should Respect Herself)


ज़िंदगी चल रही है. धीरे-धीरे सोशल दायरा बढ़ गया है. बच्चे बड़े हो गए हैं. नौकरी में पद कुछ ऊंचा हुआ है और कुछ साहित्य में उपलब्धियां बढ़ी हैं. समाज में कुछ नाम भी हुआ है. मैं ख़ुश हूं. दोस्त भी ख़ुश हुआ है, पर समाज को उसकी ख़ुशी बर्दाश्त नहीं हुई है. इतने बरसों तक की मेरी और उसकी दोस्ती में खलल डाला गया है. उसे पंचों ने बुलाया और समझाया, “तूने अपनी औरत को पढ़ाया-लिखाया, नौकरी पर भेजा, पर उसका उच्च पद ठीक नहीं. नौकरी तो पैसे के लिए होती है, पद के लिए नहीं. और फिर औरत का अख़बारों में छपना शोभा नहीं देता. साहित्य से तो घर बिगड़ता है. औरत का काम है- घर को देखना, बच्चों को संभालना… काहे दो-दो नौकरानियां रखे हो? जिसे ब्याह कर लाए हो, वो क्या करेगी? उसी से झाड़ू-पोंछा लगवाओ, बर्तन मंजवाओ, औरत का अफसर होना शोभा नहीं देता. अरे! आदमी तऱक़्क़ी करे, तो अच्छा लगता है.
तू बन अफसर, हमें कोई ग़म नहीं. औरत अफसरी के नाम पर ऑफिस से देरी से आए, ये क्या अच्छी बात है? अरे, आदमी घर आते हैं देरी से, ऑफिस से ना सही, किसी पान की दुकान से ही सही या चाय के स्टॉल से या यार-दोस्त के नुक्कड़ से ही सही. औरत को तो बांधकर रख…”
और भी न जाने ऐसे कितने जुमले हैं, जो समाज ने चीख-चिल्लाकर कहे हैं मेरे ख़िलाफ़. आख़िर पति मर्द ही है ना, सो भड़क गया है. सीख ले ली है उनकी. मेरी दोस्ती को समाज की इस आग ने धुएं की तरह उड़ा दिया है और मैं गर्म पड़ी हुई राख को देख रही हूं.
मम्मी से कहां छुप सकता था ये सब. मम्मी कहती है, “मैं न कहती थी कि पति-पत्नी में कोई दोस्ती नहीं होती. पति को पति ही समझना चाहिए. थाली परोसो, बिस्तर बिछाओ और ख़ुद बिछ जाओ बिस्तर की तरह. बड़ी बनती फिरती थी अपने पति की दोस्त.” मम्मी की झिड़कियां अब सटीक लगती हैं.
एक दिन तो मम्मी चिल्लाकर बोली, “उतार फेंक अब अपनी दोस्ती के तमगे. बन जा औरत केवल औरत.” आंसुओं की नदी के बीच सब कुछ बहा दिया है- दोस्ती, प्यार, इज़्ज़त व समाज, अब केवल बचा है सूखा रास्ता. बंजर एकदम बंजर.
अब मेरा दोस्त मर चुका है. अब मेरा पति आता है ऑफिस से. पानी देती हूं. रोटी बनाती हूं. परोस देती हूं एक सन्नाटे के बीच. बैठ जाती हूं उसके पास. पूछ लेती हूं, “और लोगे… तरी लो…” नानीजी के ज़माने की तरह, पर हाथ से पंखा नहीं कर पाती, वो बीज नहीं हैं अभी मुझमें. पति इस स्थिति को नकारता नहीं है. पूछता भी नहीं है कि तुमने खाया? सिर पर कपड़ा क्यों बांधा है? तबियत ठीक नहीं है क्या? इसका कयास मैं यही लगाती हूं कि वो दोस्ती वाला ज़माना नकली था. असली मर्द तो औरत से यही चाहता है. थाली परोसो, बिस्तर बिछाओ और ख़ुद बिछ जाओ. इससे ऊपर वो औरत को उठते देखना नहीं चाहता. औरत की उपलब्धियां उसे शूल की तरह चुभती प्रतीत होती हैं. मैं देखती हूं उसमें मौलिक पुरुष उग आया है… नानाजी के ज़माने की तरह. अश्रुधार से कंठ तक भीग गई हूं मैं…

संगीता सेठी

अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES


अभी सबस्क्राइब करें मेरी सहेली का एक साल का डिजिटल एडिशन सिर्फ़ ₹599 और पाएं ₹1000 का कलरएसेंस कॉस्मेटिक्स का गिफ्ट वाउचर.

Share this article