हम दोनों बहनें जब हॉस्टल में रहती थीं, तो मां कैसे हमारे ख़तों से हमारे दुख-दर्द जान लिया करती थीं. क्या आज मोबाइल पर बच्चों के कॉल आने पर उनकी बोली से हम कुछ समझ पाते हैं? कहां हैं अब भावनाएं… संवेदनाएं?.. ‘हाय, बाय, गुड नाइट, आई एम ओके, डोंट टेक टेंशन, टेक इट ईज़ी, टेक केयर!’ जैसे वाक्य सब कुछ स्वयं में ही समेट लेते हैं और हमारे प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं.
प्यारी दिदिया,
प्रणाम!
तुम्हारा आशीष ही तो मेरे लिए हमेशा सुरक्षा कवच रहा है. मुझसे नाराज़ हो न? पांच वर्षों के बाद अमेरिका से कुछ दिनों के लिए आई और चाहकर भी तुमसे मिल नहीं पायी. तुम्हारी अस्वस्थता और मेरी व्यस्तता से हमारे मिलन में बाधा आई और मैं विकल होकर वापस लौट आने पर मजबूर हो गई. पर अपने साथ मायूसी की पोटली भी समेट लाई हूं. उस पोटली में ऐसा बहुत कुछ है, जो तुमसे बांटना चाहती हूं, क्योंकि तुम्हारे सिवा कोई उसे समझेगा ही नहीं.
अंशुमान तुरंत भूतकाल को भूलने की सलाह दे डालेंगे और मेरे अमेरिकन बच्चे मुझे ‘इमोशनल फूल’ की पदवी दे देंगे. तुम ही समझोगी मेरी पीड़ा, मैं जानती हूं. मां के बाद जो रिश्ता मन के सबसे निकट होता है, वो बहन ही तो है न?
मेरा ख़त पाकर आश्चर्य हो रहा होगा न! कैसी है तुम्हारी बहन? आज के इस तेज़ ऱफ़्तार वाले दौर में जहां पल भर में लोग मोबाइल से दुनिया-जहान की बातें कर लेते हैं, सात समंदर पार से भी… ऐसे में मैं काग़ज़ और क़लम का सहारा क्यों ले रही हूं? सच कहती हूं, बोलकर मन की पीड़ा का भार हल्का करने की अपेक्षा शब्दों को काग़ज़ पर उतारकर हृदय का भार हल्का कर लेना ़ज़्यादा सुकून देता है, ऐसा मुझे लगता है. तुमसे हज़ारों मील की दूरी पर बैठी हूं मैं, ऐसे में क्या फोन पर मुझे सुनकर मेरे मन को अच्छी तरह पढ़ पाओगी दिदिया?
हम दोनों बहनें जब हॉस्टल में रहती थीं, तो मां कैसे हमारे ख़तों से हमारे दुख-दर्द जान लिया करती थीं. क्या आज मोबाइल पर बच्चों के कॉल आने पर उनकी बोली से हम कुछ समझ पाते हैं? कहां हैं अब भावनाएं… संवेदनाएं?.. ‘हाय, बाय, गुड नाइट, आई एम ओके, डोंट टेक टेंशन, टेक इट ईज़ी, टेक केयर!’ जैसे वाक्य सब कुछ स्वयं में ही समेट लेते हैं और हमारे प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं. लिखे गए शब्द अमूल्य निधि होते हैं दिदिया! मन का दर्पण…
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जब से लौटी हूं, तभी से मन भारी-भारी-सा है. जिस घर में वर्षों गुज़ारे, गुड्डे-गुड़ियों का ब्याह रचाया… तुम संग लड़ी-रूठी… हंसी-खेली, भाइयों के साथ न जाने कितने मासूम और प्यारे बचपन के लम्हे गुज़ारे… लड़ाई-झग़ड़े किए… लगता ही नहीं वो घर अब अपना है. दीवारें तक पराई लगने लगी हैं.
वहां जाकर ही पता चला कि बड़े भैया से जीजाजी की किसी बात पर अनबन हो गई है. मार-पीट तक की नौबत आ गई थी और चार साल से बोलचाल, आना-जाना सब बंद है. सुनकर सन्न रह गई… माना जीजाजी और भैया की नहीं बनी… पर तुम दिदिया? तुम कैसे भैया से रूठ गईं? और कैसे भैया तुमसे चार साल बिना मिले… बिना बोले रह पाए? तुम दोनों की तरफ़ से रिश्तों की खाई पाटने का प्रयास क्यों नहीं किया गया? बचपन का मीठा रिश्ता क्यों उम्र के इस पड़ाव में टूटकर बिखर गया?
पांच दिन मायके में रही, जहां मम्मी और पापा की मौत का सन्नाटा हर कोने में व्याप्त है. जहां आंगन की एक छोटी-सी कोठरी में जीवन के अंतिम दिन काट रही बूढ़ी दादी की पीड़ा भी कोने-कोने से छलकती लगी. सच कहती हूं, हृदय वेदना के असह्य भार से फटने लगा. और आंगन के एक कोने में उस मर्तबान के कई टुकड़े देखे, जिसको मां किसी को भी छूने नहीं देती थीं. याद है न वो शीशे का नक्काशीदार मर्तबान? एक बार दादी ने अचार निकाल लिया था, तो कितना कोहराम मच गया था…
“साल भर का अचार इसमें सहेजकर रखती हूं मांजी! अगर मर्तबान हाथ से फिसलकर टूट जाता तो?” मां बार-बार मर्तबान को सहेजती असहज हो उठी थीं. आज दादी भी उस घर में उसी मर्तबान की तरह पड़ी हैं. तीनों भाइयों की अपनी अलग-अलग दुनिया है. बड़ा भाई एक छोर है, तो मंझला भाई दूसरा छोर और छोटे भाई-भाभी की दुनिया, उनका दायरा तो बहुत ही सीमित है, जिसमें वे और उनके बच्चों के सिवाय कोई नहीं है.
तीनों पोतों में से किसी के पास दादी के लिए समय नहीं है. बात-बात में ताने और झिड़कियां सहने पर विवश बूढ़ी दादी की दयनीय अवस्था देख मन दुखी हो गया. मन में प्रश्न उठता है यदि हमारे बच्चों ने भी हमें एक सूनी कोठरी और ऐसा ही एकाकीपन दे दिया तो? अपनी पसंद की एक भी चीज़ खाने के लिए हमें सब की चिरौरी करनी पड़े तो? यह सोच कांप उठती हूं मैं.
मैंने दादी से पूछा था, “सपना दीदी आपसे भी मिलने नहीं आतीं?”
उनका स्वर भारी हो उठा था, “कैसे आएगी भला? यहां, इस घर में उसका और उसके पति का इतना अपमान जो हुआ है. लोग प्रेम की डोर से खिंचे चले आते हैं नयना, नफ़रत की तो कोई डोर ही नहीं होती… बस दो खंडित छोर रह जाते हैं, जो कोसों दूर होते हैं.”
दादी की पीड़ा बहुत गहरी है. अपने बच्चों का बिखराव उन्हें दंश दे रहा है. बात-बात पर मम्मी-पापा को याद करती हैं. स्वयं को कोसती हुई रो पड़ती हैं. मुझसे दस वर्ष बड़ी हो तुम, मैं तुम्हें आदेश नहीं दे सकती, पर प्रार्थना करती हूं दिदिया, सारी बातें ताक पर रख कर एक बार दादी से मिल आओ. तुम्हीं में उनकी सांस अटकी है.
ये भी जानती हूं कि तुमने जीजाजी की मर्ज़ी के विरुद्ध जाकर भी इस रिश्ते को जोड़ने की कोशिश की थी. और भाभियां तुम्हें अपनी ननद नहीं, अपने पति के दुश्मन की पत्नी ही समझकर मुंह बनाती हैं. भाइयों की ओर से कोई सकारात्मक पहल भी कभी नहीं की गई… सब जान चुकी हूं. पर तुमसे नहीं, दूसरों से… तुम्हीं तो कहती थीं न! दुख बांटने से हल्का होता है मन, तो बांट लो न अपना दुख-दर्द अपनी छोटी बहन से. आज मन के कोने-कोने से यादों का पिटारा-सा खुलता जा रहा है.
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अपने घर की सबसे प्यारी जगह याद है न? कैसे भूल सकते हैं हम दोनों? भाइयों को तो याद भी नहीं होगा. बेटा और बेटी में यही तो फ़र्क़ है, बेटी बचपन की मीठी स्मृतियों को अमूल्य निधि की तरह दिल में सहेज लेती है. बेटे की स्मृति में बचपन की स्थिति कांच की गोलियों जैसी होती है, चिकनी, फिसलनभरी… मुट्ठी में ही नहीं समाती तो दिल में क्या रहेगी? छत की उस खुली मुंडेर को शायद ही कभी भूल पाऊंगी, जहां जीवन के कई खट्टे-मीठे पल बिताए. हंसी-रोई… शरमाई-मुस्कुराई. घर के प्रत्येक सदस्य का प्रिय स्थान था वो.
पापा सुबह की चाय वहीं आरामकुर्सी पर पीते थे. मम्मी और दादी दोपहर में पापड़, अचार व बड़ियां सुखातीं, बतियाती रहती थीं और हम दोनों बहनें वहीं बैठकर संध्याकाल में ठंडी हवा का आनंद लेतीं. किस-किस विषय पर बात नहीं कर लेती थीं. कितना लड़ते थे हम पांचों भाई-बहन सर्दियों की सुबह में वहां बैठकर पढ़ने के लिए. सुनहरी धूप की गर्माहट से वो कोना भर उठता था.
उस मुंडेर से जुड़ी एक मर्मात्मक संवेदनशील स्मृति और भी तो है न दिदिया! जब एक सुबह कोने में बैठकर अपने लंबे बालों को सुखाती तुम्हारी कुर्सी का पाया अचानक फिसल गया था और तुम सीधे आंगन में जा गिरी थीं. घर में कोहराम मच गया था. तुम्हारा ख़ून में डूबा निस्तेज चेहरा फिर से आंखों में कौंध गया है. उस दिन मन्नी भैया का फूट-फूटकर रोना आपके प्रति उनके गहरे लगाव को दर्शा रहा था.
“डॉक्टर मेरा सारा ख़ून लेकर भी मेरी दिदिया को बचा लीजिए.” उनकी वो कातर पुकार मानो ईश्वर ने सुन ली थी, तभी तो तुम दोनों का ख़ून मैच हो गया था. ख़ून का ऐसा प्रगाढ़ रिश्ता… एक-दूसरे के लिए इतना दर्द, कैसे भूल गए तुम दोनों? नहीं…! मैं तुम्हें उलाहना नहीं दे रही, मुझे ग़लत मत समझना. तुम्हीं ने तो मुझे रिश्तों का मर्म समझाया था न? मेरे जैसी नकचढ़ी लड़की भी आज तुम्हारे ही कारण ससुराल में सुखी है.
पिछले कुछ ही वर्षों में वो घर, हमारा प्यारा मायका कितना पराया हो गया! एक ही मकान के तीन खंड हो गए हैं… तीनों भाइयों के अलग-अलग हिस्से… और हमारी वो प्रिय जगह, वो छत की खुली हवादार गर्म रोशनी से भरी मुंडेर, अब हमारे सपनों में ही सीमित… शेष रह गई है. तीनों तरफ़ से कमरे बन जाने के कारण उस मुंडेर का हर कोना गहन अंधकार से भर उठा है. वहां अब एक बाथरूम है, बड़ा-सा, हर सुविधा से सम्पूर्ण. पर उसकी तह में आज भी हमारी खिलखिलाहटें… हमारा लड़कपन… हमारी छुपा-छुपी का खेल… हमारी गुड़ियों का विवाह… और ममत्व लिए न जाने कितनी यादें दबी पड़ी हैं. हमने अनजाने में बहुत कुछ खो दिया है, ऐसा लगा.
सच दिदिया! उस मुंडेर पर अब धूप नहीं आती. चलो माना समय के साथ सब कुछ बदल जाता है. पर कई एहसास ऐसे होते हैं, जो कभी परिवर्तित नहीं हो सकते. क्या प्रेमल ममत्व और बचपन की अनुभूतियां कभी मिट सकती हैं? क्या-क्या कहूं… कहने को तो बहुत कुछ है, पर कुछ बातें केवल महसूस की जाती हैं. तुम भी मेरे साथ महसूस कर रही हो न, रिश्ते कितने बेमानी होते जा रहे हैं?
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कहते हैं, प्रयास की सार्थकता तभी है, जब प्रयास दोनों ओर से किया जाए. फिर भी हम दोनों बहनें अपनी ओर से प्रयास करके फिर से इस टूटे रिश्ते को जोड़ने का अंतिम प्रयत्न तो कर ही सकती हैं न? सर्दी की छुट्टियों में अगले साल एक सप्ताह के लिए भारत आ रही हूं. इस बार तुम्हें साथ लेकर ही मायके जाऊंगी. सभी भाई-बहन को एक साथ देखकर दादी की बूढ़ी आंखों में जो ख़ुशी आंसू बनकर छलकेगी न, वो अनिर्वचनीय होगी.. है न दिदिया? हम पांचों जब एक साथ बैठेंगे तो हो सकता है मन की परतों में दबा बचपन फिर स्नेह लेकर उभर आए. मेरे आने की प्रतीक्षा करना. ये प्रतीक्षा तुम्हारी आंतरिक वेदना के लिए कुछ तो मरहम का काम करेगी… शेष फिर…
तुम्हारी छोटी बहन,
नयना
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