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कहानी- ख़ामोशी (Short Story- Khamoshi)

“देखिएगा वो बिलकुल ठीक हो जाएंगी.” शेखर ने दिलासा देने की कोशिश की. अरविंद ने एक लंबी सांस ली और बोले, “एक बात कहूं आप दोनों से? चंद लम्हे तुम्हारी ज़िंदगी के, तुम्हारे पास ऐसे मुट्ठी में कैद हों रेत जैसे.. इससे पहले कि वक़्त फिसल जाए मुट्ठी से तुम्हारी, जी लो हर लम्हा आख़िरी वक़्त हो जैसे...!”

“शेखर, आज शनिवार है. शाम को कहीं घूमने चलें.“
"अरे यार घर में ही रहते हैं ना, हर वीकेंड पर कहीं जाना ज़रूरी है क्या?”
“चलते हैं ना... मैं भी ऑफिस से जल्दी आ जाऊंगी.”
“तुम अपने दोस्तों के साथ चली जाओ.”
“शेखर, उनके साथ तो जाती ही हूं, तुम्हें नहीं लगता हमें एक-दूसरे के साथ कुछ समय बिताना चाहिए. अपने रिश्ते को...”
“रति, फिल्मी बातें मत करो. हम पूरे समय साथ ही तो होते हैं. अब ऑफिस जाना छोड़कर तुम्हारा दिल बहलाऊं क्या?” “शेखर, कितने दिन हो गए हमने साथ बैठकर ढंग से बात ही नहीं की.”
“अरे, रोज़ तो बात करते हैं, अब क्या रह गया.”
“कुछ बातें फिर भी अनकही रह जाती हैं.”

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शेखर के साथ-साथ रति भी चौंक पड़ी थी सामने से आई इस आवाज़ से. अपनी लड़ाई में वे यह भी भूल गए थे कि वे अपने घर में नहीं, अपार्टमेंट के कॉरिडोर में खड़े थे.
“माफ़ कीजिएगा बीच में बोलने के लिए.”
“नहीं, वो हमें ही ध्यान रखना चाहिए था.” शेखर ने रति को घूरते हुए कहा.
“आइए न, अंदर बैठ कर बातें करते हैं.”
“जी नहीं, हमें ऑफिस के लिए पहले ही देर हो गई है.”
“ऐसी बात है, तो मैं रोकूंगा नहीं, पर एक शर्त है. आज शाम की कॉफी आपको हमारे साथ पीनी होगी. मेरी पत्नी लीना आपसे मिलकर ख़ुुश होगी. तो कहिए मिस्टर...”
“शेखर मजूमदार और ये है मेरी पत्नी रति.”
“अच्छा और मैं अरविंद पाठक.”
“तो फिर शाम की कॉफी डेट पक्की...” हा हा हा... हंसी का सम्मिलित स्वर... इस अपार्टमेंट मे आए हुए शेखर और रति को चार महीने हो गए थे. इससे पहले उनका किसी दूसरे पड़ोसी से ठीक से परिचय भी नहीं हो पाया था. जान-पहचान बढ़ाने के लिए दोनों ने यह आमंत्रण स्वीकार कर लिया था.
तय समय पर दोनों मिस्टर पाठक के घर पहुंच गए थे. दरवाज़े के बाहर अरविंद और लीना के नाम की नेमप्लेट लगी हुई थी. बेल बजाने पर एक 40-42 साल की महिला ने दरवाज़ा खोला. “जी वो मिस्टर अरविंद...”
“आइए, अंदर आ जाइए आप दोनों. विमलाजी आप इन्हें बैठाइए, मैं अभी आता हूं.” अंदर से अरविंदजी की आवाज़ सुनाई दी थी. थोड़ी देर बाद वो ख़ुद आ गए थे हाथों में कॉफी की ट्रे लिए हुए.
“गुड इवनिंग शेखर, गुड इवनिंग रति.”
“गुड इवनिंग अरविंदजी.” शेखर और रति का सम्मिलित स्वर. “भई लीनाजी की तबियत थोड़ी ठीक नहीं है, तो वो आराम कर रही हैं. उठते ही आप दोनों से परिचय करा दूंगा.” शेखर और रति दोनों को यह बात अटपटी लगी कि मेहमान को घर बुलाकर गृहस्वामिनी स्वयं गायब थीं. अभी दोनों कॉफी पी ही रहे थे कि हंसी की एक तेज़ आवाज़ ने दोनों का ध्यान सामनेवाले कमरे की तरफ़ कर दिया था.
“ये कैसा अलार्म है?” रति अपना कौतूहल दबा नहीं पाई थी. “लीना की आवाज़ है. लीना ने अपनी आवाज़ रिकॉर्ड करके उसे ही अलार्म बना लिया था. पहली बार तो मैं भी चौंक पड़ा था.”        “ओह, काफ़ी हंसमुख हैं लीनाजी शायद.”
“लीना जैसा कोई हो ही नहीं सकता. उसकी हंसी बहुत तेज़ थी. जब वह हंसती, तो आस-पड़ोसवाले भी जान जाते थे. मैं अक्सर सोचा करता, ज़रा भी तमीज़ नहीं है इस औरत को. कहने को तो डबल एमए है, कॉलेज में लेक्चरर है, परंतु बुद्धि ढेले के बराबर नहीं. बातूनी तो इतनी कि मैं भी कभी-कभी खीज उठता था. हमारी शादी को बारह साल हो गए थे, परंतु इन बारह सालों में मैंने कभी भी उसे दुखी या उदास नहीं देखा था. बच्चा न हो पाने का मुझे कोई ख़ास दुख नहीं था, परंतु मां बन पाने की चाह अधूरी रह जाने के बाद भी लीना की आंखों में दर्द की एक रेखा भी मैंने नहीं देखी थी. जैसे दुखी होना उसे आता ही नहीं था.
हर रात उसके पास बातों का पिटारा होता था मेरे लिए.
“आरु, बातें करते हैं ना. सो गए क्या?”
“नहीं सुन रहा हूं, तुम बोलो.”
“अपना चेहरा तो मेरी तरफ़ करो...” जाने कितनी बातें थीं उसके पास, जो ख़त्म ही नहीं होती थीं. वह बोलती रहती और मैं न जाने कब सो जाता. कभी ठीक से सुना ही नहीं आख़िर वह कहती क्या थी.”
“आपकी शादी अरेंज्ड थी?” रति ने पूछ लिया था.
“जी नहीं, बाकायदा प्रेम किया था हमने, वो भी फिल्मीवाला. छुप-छुपकर मिलना, रोमांस फ़रमाना, माता-पिता के तुगलकी फ़रमान का सामना करना, फिर अंत में जैसे हिंदी फिल्मों में सब ठीक हो जाता है, उसी तर्ज पर हमारे माता-पिता भी मान गए. परंतु उन दिनों मुझे लीना का इतना बोलना कभी नहीं खला. उसकी इन्हीं अदाओं पर प्यार आता था. कहते हैं ना कि प्यार से अपना दिल जिसे कहते थे, वो तेरा तिल अब दाग़ नज़र आता है, शादी के दस सालों बाद, तो अपना महबूब भी सैयाद नज़र आता है, परंतु लीना की तरफ़ से कभी कोई बदलाव मैंने महसूस नहीं किया था. जितनी अच्छी तरह वह मुझे समझती थी, उस तरह तो मैं कभी स्वयं को भी नहीं समझ पाया था. कब मुझे चाय चाहिए होगी, कब मेरा पकौड़े खाने का दिल कर रहा होगा, कब मैं बॉस से झगड़ के आया हूं, कब मैं उदास हूं... यह सब वो मेरे बिन कहे समझ जाती थी, क्योंकि शायद हर स्त्री के अंदर कहीं न कहीं एक मां छुपी हुई होती है.         
हर पार्टी की जान हुआ करती थी लीना. कोई भी मुझे आमंत्रित करता, तो उसके पहले उसका अनुरोध होता...
“भई, अकेले मत आना, भाभी को ज़रूर लेकर आना.” लीना का कहीं भी जाकर उसी परिवार का हो जाना मुझे बहुत परेशान करता था. मैं उसे अक्सर कहा करता था, ‘तुम गेस्ट से कब होस्ट बन जाती हो, पता ही नहीं चलता.’ सबसे इतना घुल-मिल जाती थी.”
“खाना अच्छा बनाती हैं वो?” रति के इस सवाल पर मुस्कुरा दिए थे अरविंद.
“जी नहीं. लीना को तो खाना बनाना आता ही नहीं था. हां, मगर उसे खाना खिलाना आता था. इतने प्यार और इतने सलीके से वह खाना सर्व करती थी कि दो रोटी खानेवाला पांच खा जाता. मेरे दोस्त अक्सर कहा करते थे कि भाभीजी को दिल जीतना आता है. मेरा जवाब होता कि तेरी भाभी को बातें बनाना जो आता है. कभी-कभी तो मुझे लगता कि मैंने एक औरत से नहीं, टेप रिकॉर्डर से शादी कर ली हो.”
“पर अरविंदजी आप बार-बार ‘था’ का इस्तेमाल क्यों कर रहे हैं? लीनाजी तो...” इससे पहले कि अरविंद कुछ कहते विमला आ गई थी.
“साहब मैं चलती हूं. खाना बना दिया है और मैडम के कपड़े भी बदल दिए हैं.”
“विमलाजी, एक मिनट रुकिए. आपकी तनख़्वाह निकालकर रखी है. अभी लेकर आता हूं.” अरविंदजी के अंदर जाते ही शेखर ने विमला से पूछ लिया था, “ये लीनाजी का क्या चक्कर है? बार-बार ‘था’ बोल रहे थे, जबकि उनकी पत्नी तो अभी ‘ज़िंदा’ हैं.”
“मैडम होकर भी नहीं हैं.”
“क्या मतलब?” रति ने पूछा.
“आज से क़रीब चार साल पहले मैडम को पैरालिसिस का अटैक हुआ था. मैडम कोमा में चली गई थीं. दो-ढाई साल तो साहब ने अकेले ही मैडम को संभाला. फिर दोस्तों के समझाने पर डेढ़ साल पहले मुझे काम पर रखा. पर कमाल की बात तो ये है कि पता नहीं कैसे साहेब को बिना मैडम के बोले ही पता चल जाता है कि कब उन्हें बाथरूम जाना है, कब टीवी देखना है, कब भूख लगी है, कब कहानी सुननी है... साहब तो मैडम को तैयार भी ख़ुद ही करते हैं. वो तो आज आप लोग आ गए, इसलिए मैंने कर दिया.”
“टीवी... बाथरूम... इसका मतलब अब काफ़ी सुधार आ गया है उनकी हालत में.”
“तब से अब तक बस इतना सुधार आया है कि मैडम कोमा से तो बाहर आ गई हैं, लेकिन...”        
“लेकिन क्या?”
“लेकिन मेरे टेप रिकॉर्डर का म्यूट बटन दब गया शेखरजी. मेरी लीना की आवाज़ चली गई और साथ ही पेट के नीचे का हिस्सा भी निर्जीव हो गया है.” अरविंदजी आ गए थे. कुछ देर तक सभी चुपचाप बैठे रहे. विमला के जाने के बाद रति ने बात की शुरुआत की.
“माफ़ कीजिएगा अरविंदजी वो...”
“नहीं-नहीं, कोई बात नहीं...”
“पर अचानक ये हुआ कैसे?” शेखर ने पूछा.
“उस रात मैं ऑफिस से लेट घर पहुंचा था. लीना के छात्र-छात्राओं की भीड़ घर पर ही थी. वह उनके साथ बैठी हुई रसायनशास्त्र के किसी अध्याय पर चर्चा कर रही थी. जब तक मैं हाथ-मुंह धोकर आया, घर खाली हो चुका था. मुझे देखकर हंसते हुए बोली, “डिनर करोगे या करके आए हो?” जला-भुना तो मैं था ही, उसके इतना कहते ही चिल्ला पड़ा, ‘मेरे पास तुम्हारी तरह इतने चाहनेवाले तो हैं नहीं, जो साथ में डिनर ऑफर करें.’ मुझे लगा था अब तो पक्का लड़ेगी मुझसे, परंतु उसके चेहरे पर ग़ुस्से की एक लकीर तक नहीं उभरी और वो हंसते हुए बोली, “हां भई, तुम्हारी यह बात भी सही है. कड़वा करेला, ऊपर से नीम चढ़ा, खाने की हिम्मत तो स़िर्फ मुझमें ही है.”
“अच्छा तो मैं करेला हूं?”
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“हां... और तुम्हें तो पता है मुझे करेला कितना पसंद है.” न चाहते हुए भी मैं हंस पड़ा था.
“अच्छा चलो मैडम डिनर कर लेते हैं.”
“तुम कर लो, मैं तो कर चुकी.”
“कैसी बीवी हो तुम? दुनियाभर की औरतें अपने पति का खाने पर इंतज़ार करती हैं, उनके आने पर साथ में खाना खाती हैं.” “करती होंगी, पर लीना उनके जैसी नहीं है. वैसे भी एक पुण्य आत्मा ने कहा है कि खाने के लिए भूख का इंतज़ार करना चाहिए, पति का नहीं.”
“अच्छा कौन-सी पुण्य आत्मा, ज़रा मैं भी तो सुनूं?”
“वही, जिनके पति होने का सौभाग्य आपको प्राप्त हुआ है... हा हा हा.”
“हा हा हा...” एक साथ हंस पड़े थे हम दोनों. उस रात बिस्तर पर लेटकर जब मैं फेसबुक चेक कर रहा था, वह मेरे पास आई और कहने लगी...
“क्या कर रहे हो?”
“बातें अपने दोस्तों के साथ.”
“दूर बैठे दोस्तों से बात कर सकते हो, पास बैठी पत्नी से नहीं.” “क्या बात करूं तुमसे? कौन-सी बात बची है करने को? दिनभर तो बोल-बोलकर दिमाग़ ख़राब कर देती हो. इसने वो कहा, उसने ये किया. कितना स्टॉक है तुम्हारे पास बातों का, जो कभी ख़त्म ही नहीं होता.’
“हां करती हूं मैं, पर तुम ही बताओ कितनी बार अपना फोन साइड में रखकर मेरी आंखों में आंखें डालकर मेरी बात सुनते हो?”      
“क्या सुनूं मैं, अपनी मां की बुराइयां?” लीना की सभी अच्छाइयों पर उसका मां न बन पाना जैसे एक ग्रहण था, इसलिए मेरी मां एक भी मौक़ा नहीं छोड़ती थी लीना को नीचा दिखाने का. जैसे औरत की पहचान केवल मां बनना हो. जैसे मेरा खानदान धरती पर बची एक विलुप्त प्रजाति हो, जिसके समाप्त होने का ख़तरा बना हुआ हो. मेरे उस प्रश्‍न पर शायद थोड़ा विचलित हुई थी वो, परंतु तुरंत ही पलटवार करती हुई बोली, “क्या बाबू मुशाय, तुम तो जानते हो मैं पीठ पर वार करने में यकीन नहीं रखती, इसलिए जो भी कहना होगा, तुम्हारी मां के मुंह पर कहूंगी.’ उसकी इन्हीं बातों पर प्यार आ जाता था मुझे. फिर उसे अपनी बांहों में लेकर मैंने पूछा था... ‘तो फिर बताओ कौन-सी बात करनी है?’
“कुछ मेरी सुनो, कुछ अपनी सुनाओ.”
“कमाल है, तुम किसी और की सुन भी सकती हो?”
“अरविंद, अच्छा बताओ...” उसके बाद पता नहीं लीना क्या-क्या मुझे बताती रही. आज याद करता हूं, तो कुछ भी याद नहीं आता, क्योंकि मैंने कुछ भी सुना ही नहीं था. मैं तो क्रिकेट देखने में व्यस्त हो गया था. पता नहीं कब तक बोलती रही थी वो. अचानक ही एक चीख से मेरा ध्यान लीना की तरफ़ गया था.
“अरविंद...”
“क्या है लीना? ऐसे क्यों चीखीं तुम? कब सीखोगी तमीज़?” हड़बड़ाहट में मेरे हाथों से टीवी का रिमोट भी गिर गया था.
“एक ही घर में अजनबी बन गए हैं हम दोनों. तुम कहते हो मैं इतना बोलती हूं. क्या तुम सुन पाते हो मुझे? क्या तुम तक पहुंच पाती है मेरी आवाज़?”
ग़ुस्से में पागल हो गया था मैं. ‘क्या सुनूं? अपने घर मे शांति के लिए तरस गया हूं मैं. तुम्हारी दिनभर की फालतू बकवास से थक गया हूं मैं. थोड़ी देर के लिए ख़ामोश नहीं हो सकतीं तुम?” “हम्म... ज़िंदगी उतनी बड़ी नहीं है, जितनी तुम्हें लगती है अरु. आज तुम्हें मेरी आवाज़ बुरी लग रही है. कल कहीं ख़ामोशी न चुभने लगे.”
इसके बाद लीना सो गई थी. नींद में ही स्ट्रोक आया उसे और मेरी ज़िंदगी में ख़ामोशी भर गया.”
कमरे में एक चुप्पी पसर गई थी.
“अरविंदजी, डॉक्टर क्या कहते हैं?” रति ने पूछा.
“इलाज कर रहे हैं. अगले महीने लीना को अमेरिका ले जा रहा हूं.”
“देखिएगा वो बिलकुल ठीक हो जाएंगी.” शेखर ने दिलासा देने की कोशिश की. अरविंद ने एक लंबी सांस ली और बोले, “एक बात कहूं आप दोनों से? चंद लम्हे तुम्हारी ज़िंदगी के, तुम्हारे पास ऐसे मुट्ठी में कैद हों रेत जैसे.. इससे पहले कि वक़्त फिसल जाए मुट्ठी से तुम्हारी, जी लो हर लम्हा आख़िरी वक़्त हो जैसे...!” ‘आ... आ...’ अंदर कमरे से आ रही इस आवाज़ को सुनकर अरविंदजी अचानक खड़े हो गए थे. “बस इतना ही कहना था आप दोनों से. अब आप दोनों को मुझे माफ़ करना होगा, लीना को टीवी देखने का मन कर रहा है, तो मुझे उसके पास जाना होगा.”
दोनों को दरवाज़े तक छोड़ने अरविंदजी आए, तो अचानक शेखर रुक गया और पलटकर उसने अरविंदजी से पूछ लिया, “अरविंदजी, आपको कैसे पता चला कि लीनाजी को टीवी देखना है?” चेहरे पर फीकी हंसी आ गई थी उनके...
“कोई कमाल की बात नहीं है शेखर. बस ज़िंदगीभर जिस लीना की आवाज़ यह दिल नहीं सुन पाया था, उसकी ख़ामोशी को भी अब सुनने लगा है.”        

पल्लवी पुंडिर

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