जिस व्यक्ति ने ‘विधवा’ शब्द की रचना की, उसने स्त्री के दुर्भाग्य का प्रथम परिच्छेद लिख दिया था. यह घोर अन्याय ही था कि क्रिया किसी की हो और विशेषण किसी और पर लगे. मरे पुरुष को मृतक कहना ही पर्याप्त न था, उसकी पत्नी पर विधवा का लेबल और लगाया गया...
आज तीसरा दिन था मां, बाबूजी और भइया को गए. मेरी आंखों की नींद उड़ चुकी थी. आंसू बह-बह कर शेष हो चुके थे. रत्ना एक पल के लिये भी आंखों से ओझल नहीं हो पा रही थी. मेरी प्यारी, ख़ूबसूरत छोटी बहन... कितनी अल्हड़ और कैसी नादान... सदा हंसने-हंसानेवाली रत्ना जब पिछले वर्ष ब्याह कर ससुराल गयी, तो घर क्या, पूरा गांव ही सूना हो गया था. लाख झटकने के बाद भी रत्ना की एक-एक बात चलचित्र की तरह मेरे सामने घूम रही थी. अतीत पूरी गहराई व गम्भीरता से उघड़ रहा था. कुछ रिश्ते होते हैं, जो समय के अन्तराल के बाद भी अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं. कुछ यादें होती हैं, जो जीवनपर्यन्त सुगंध की तरह तन-मन से लिपटी रहती हैं. शादी को चार वर्ष भी पूरे नहीं हो पाए थे कि मेरे पति दुर्घटना में चल बसे. जिस व्यक्ति ने ‘विधवा’ शब्द की रचना की, उसने स्त्री के दुर्भाग्य का प्रथम परिच्छेद लिख दिया था. यह घोर अन्याय ही था कि क्रिया किसी की हो और विशेषण किसी और पर लगे. मरे पुरुष को मृतक कहना ही पर्याप्त न था, उसकी पत्नी पर विधवा का लेबल और लगाया गया. एक साल ससुराल में कैसे कटा, इसकी भयावहता मेरे अतिरिक्त कौन समझ सकता है? यंत्रणा का अंत नहीं था. मन तो टूट ही गया था. उन लोगों की पाशविकता से तन भी मृतप्राय हो गया था. जब यह ‘बहू’ नाम धारी जीव उनके किसी काम का नहीं रहा, तो किसी समान की तरह उसे पितृगृह में पटक गए. पति को असमय खा जानेवाली तथा दोनों वक़्त में पसेरी अन्न खाने वाली इस कुलटा के लिए उनकी चारदीवारी में अब कहीं स्थान नहीं था.
अपने ही हाड़-मांस से बनी दुखियारी विधवा परित्यक्ता पुत्री को उस वक़्त मां-बाप ने गले से लगा लिया था. मगर एक दिन का पाहुना दूसरे दिन अनखावना और तीसरे दिन घिनावना वाली कहावत अभागी बेटी के साथ भी चरितार्थ होने लगी. सहने के अतिरिक्त चारा भी क्या था? धीरे-धीरे दो मुट्ठी धान के बदले पूरे घर के काम का बोझ मेरे निर्बल कंधों पर डाल कर सभी निश्चिंत हो गए. तब रत्ना ने, मेरी उस नन्हीं बहन ने कितना सहारा दिया था मुझे. मेरे बदले वह जब-तब मां से उलझ पड़ती. उस नादान किशोरी की बातों पर ध्यान देने का समय किसे था और ज़रूरत भी क्या थी? मैंने भी सभी छोटे-बड़े कार्यों को सहर्ष वहन करके अपना दुख भूलने तथा कहीं अपनी उपयोगिता साबित करने की खोखली चेष्टा की थी.
दुखी विधवा के सुलगते घावों पर मां-बाप, पास-पड़ोस वाले जब-तब नमक छिड़कते रहते और मैं बेबस अपनी कोठरी में घुस कर आंखों में कुछ गिरने का बहाना करती. दिनभर आंसू बहा कर उनके घर का अमंगल करने के सिवा मैं कलमुंही और कर ही क्या सकती थी. दोनों वक़्त भरपेट खानेवाली मुझ अभागी को तकलीफ़ क्या हो सकती थी? काश! इसे समझने का किसी का तो मानस होता. रत्ना समझती थी, मगर वह क्या कर सकती थी.
कभी-कभी अपनी और मां की साड़ी के साथ मेरी सफेद साड़ी में कलफ़ लगा इस्तरी कर देती. मैं रत्ना को रोकती और तब मां मुझे कुछ न कह कर भी सुलगती नज़रों से घूरती और चीर कर रख देती. मैं अन्दर ही अन्दर सिमट कर रह जाती. किसी शुभ कार्य में मैं कभी सामने नहीं पड़ती. मां अपने हाव-भाव से बहुत कुछ कह कर वर्जनाओं की रस्सी से जकड़ जाती थी. रत्ना की विदाई पर मैं उससे लिपट कर रोना चाहती थी, उसके सिर पर अपने अशेष आशीषों से भरा हाथ रखना चाहती थी, मगर मुझे यह छूट नहीं थी. भूखी-प्यासी मैं पकवानों से भरे भंडार में बैठी उसके बिछोह से आकुल-व्याकुल हो रही थी.
ऐसे वक़्त में स़िर्फ एक ही अवलम्ब था मेरे पास. पिता के लम्बे-चौड़े मकान में दो कमरों को गांव का पुस्तकालय बनाया गया था. कभी समाप्त न होनेवाले घर के कामों को मैं मशीनी गति से निपटाती और आधी-आधी रात तक दीमक बनी पुस्तकों को चाटती रहती. यही मेरे सूने वीरान जीवन का बसंत था. ज़माने भर की प्रताड़ना, तिरस्कार, अवहेलना मैं निर्विकार रह कर सुन लेती और अपनी अधूरी पुस्तकों के पन्नों में उलझी रहती. मेरी सारी चेतना अन्तर्मुखी हो गयी थी. सत् साहित्य के आस्वादन ने जैसे मेरे दिलो-दिमाग़ के कपाट खोल दिये थे. अपने पर हो रहे अत्याचार के प्रति अब मेरा मन पके फोड़े-सा टीसें मारता. अन्दर की पीड़ा को अंत:स्थल में समाहित करने की मैं आदी हो चुकी थी अब तक. तभी जैसे कहर टूट पड़ा था. चार दिन पहले ही मेरी प्यारी बहन रत्ना के पति की सांप डसने से तत्काल मृत्यु हो गयी थी और... वह नादान-मासूम अपने पति के साथ चिता पर चढ़ गयी. इस घटना ने आसपास के समूचे इलाके को आंदोलित कर दिया था. मां, पिताजी और भइया रत्ना के ससुराल गये थे आसन्न प्रसवा भाभी को मेरे भरोसे छोड़ कर. पिताजी और मां के चेहरे अनोखे तेज़ से दमक रहे थे. वह पुत्री-दामाद के मरने की ख़बर नहीं थी. पिता के नाम को रोशन कर देने की शुभ सूचना थी.
चार दिन पूर्व जब बैठक में रत्ना के ससुराल के एक व्यक्ति ने यह सूचना दी तो मैं स्वयं को रोक नहीं पायी और दहाड़ मार कर रो उठी और तब मां ने कठोरता से मुंह पर रखे मेरे हाथों को झटक कर कहा था. “कलमुंही! यह क्या रोने का वक़्त है? तुझ सी बेहया नहीं थी वह... बड़ी आन वाली थी मेरी रत्ना... नाम अमर कर गयी हमारा.” ये सुन कर हतप्रभ रह गयी थी मैं. बच्चे की ज़रा-सी उंगली भी जल जाए तो मां मुंह से ममतामयी हवा दे-देकर ताप हरने की तत्परता में तड़प उठती है. यहां समूची जीती-जागती जल जानेवाली फूल-सी बेटी के दुख से जिसका कलेजा कांप नहीं उठा, कैसी मां थी वो? उलटे मुझे बेहया कह रही है. सच बेहया ही तो हूं मैं, जो इतने अपमान को सह कर भी जी रही हूं.
क्या सांसों का रुक जाना ही मृत्यु है? मैं जो सौ-सौ मरण सुबह से शाम तक झेल रही हूं, वो तुम्हें नज़र नहीं आता मां... मरने के लिए थोड़ी-सी हिम्मत चाहिए, पर ऐसा जीवन जीने के लिए पहाड़-सा धीरज और वज्र-सा कलेजा चाहिए. किसे पता है कि एकबारगी पति के साथ जीवित जल जानेवाली मेरी मासूम बहन ने ऐसा कठोर निर्णय किस तरह ले लिया होगा? वो तो मुझे सदा कहती रहती, “जीजी, क्यों उदास रहती हो? जो हुआ उसमें आख़िर तुम्हारा क्या दोष था?”
उसने वर्षों अदृश्य चिता पर बैठी अभागी बहन की धुआं-धुआं होती ज़िन्दगी देखी थी. ससुरालवालों का अत्याचार व मायकेवालों का तिरस्कार भी देखा था. ‘विधवा’ शब्द और वैधव्य की भयावह कल्पना का एक मनोवैज्ञानिक भय उसके मन में गहरे जाकर बैठ गया था. बहन के जीवन की त्रासदी की मूक दर्शक बनी, तिल-तिल कर जलने से अच्छा एक बार में जल जाने में ही उसने अपनी बेहतरी समझी. पिछली बार आयी तो कह रही थी, “जीजी, हमारे समाज में औरतें ही औरतों की सबसे बड़ी दुश्मन हैं. अब देखो, तुम्हारी सास ने तुम्हारे साथ क्या किया... और तो और, हमारी मां का दिल भी कैसा पत्थर निकला... और मेरी सास की बात भी सुनो. एलबम में लगी तुम्हारी तस्वीर को निकाल फेंका. कहने लगी, यह अपशकुनी फोटो क्यों लगा रखा है?”
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विधवा बहन के अपशकुनी चित्र को उतार फेंकनेवाली वह सास अपनी विधवा पुत्रवधू को निश्चय ही मेरी तरह अपने घर से बाहर निकाल फेंकने में कभी विलम्ब न करती... इसी भय के मारे ही तो रत्ना ने...
“जीजी, पद्मा जीजी.. जल्दी आइये...” भाभी की कमज़ोर कराहें सुनकर चौंक पड़ी मैं. भाग कर उनके पास गई, तो देखा वे तड़प रही हैं. लगता है प्रसव पीड़ा शुरू हो गई थी. घबराहट के कारण मेरे हाथ-पांव फूल गए. मां तो अभी सप्ताह भर आनेवाली नहीं थी. रत्ना की तेहरवीं पर होनेवाले महाउत्सव के आगे बहू की चिन्ता भला कौन-सी यशस्वी सास रखती है. पड़ोस की दाई को बुला लायी मैं.
“पद्मा, बहू बहुत कमज़ोर है. तकलीफ़ भी बढ़ रही है. डॉक्टर को बुलाना होगा.”
“डॉक्टर को कौन लाएगा? अब क्या करूं? किसे भेजूं?” मैं चेतनाशून्य होने लगी. पास-पड़ोस तो क्या, गांव के प्रायः सभी पुरुष रत्ना के गांव गए हुए थे. अब क्या करती मैं? भाभी की दर्दभरी कराहें सुनी नहीं जा रही थीं.
“जीजी, अब क्या होगा जीजी?... मैं क्या करूं...?”
“धीरज रखो भाभी, सब ठीक हो जाएगा मैं डॉक्टर लेकर आती हूं.”
“नहीं जीजी, मुझे छोड़ कर मत जाओ. मैं मर जाऊंगी.” वह सिसकने लगी
“हिम्मत रखो... कुछ नहीं होगा तुम्हें.” दाई को भाभी के पास बिठाकर बदहवास-सी मैं पास-पड़ोस में मदद की गुहार लगाने दौड़ पड़ी. कोई न दिखा तो ख़ुद ही टार्च लेकर डॉक्टर को लाने दौड़ी. डॉक्टर मेरी बदहवास हालत देखकर सब कुछ समझ गया और तत्परता से निकल पड़ा. घर के दरवा़ज़े पर बदहवास-सी खड़ी दाई को घेरे पड़ोस की औरतों को देख मेरा कलेजा बैठ गया. अनिष्ट की आशंका से मेरी रूह कांप उठी. दाई ने रोते हुए कहा, “अब कुछ नहीं बचा बेटी. बहू और बच्चा दोनों ही चल बसे.” धम्म से वहीं बैठ गई मैं. चार दिन से भूखी-प्यासी, रोती-कलपती मेरी धड़कनें अब मेरा साथ छोड़ने लगी थीं और मैं चेतना शून्य-सी वहीं लुढ़क पड़ी.
बीच-बीच में मुझे होश भी आता, तो न जाने क्या-क्या ऊलजुलूल बक कर पुनः होश खो बैठती... भाभी, तुम भी चली गई. अब तुम्हारे साथ भइया सता होगा सता...
“रत्ना देख, तूने मां की कोख रोशन कर दी. अब भइया भी पीछे नहीं रहेगा... सता होगा, पर मैं सदा से आभागी बेहया हूं, मैं बेहया..!” दाई मुझे सम्भालने-समझाने की निरर्थक चेष्टा कर रही थी. मां-बाबूजी, भइया आए, उन्हें यह मनहूस ख़बर मिली तो ठगे-से रह गए. मैंने हौले से आंखें खोलीं और हंस पड़ी व्यंग्य से... आक्रोश से.... अंतहीन दुख से, जो अपनी सम्पूर्ण सीमाएं तोड़ चुका था. मेरा अन्तर जल रहा था. रोम-रोम में आग धधक रही थी. मां ने मेरे अश्रुधुलित मुंह को अपने हाथ से कस कर बंद कर दिया, “पागल हो गयी है. बंद कर अपनी बकवास. तेरे पास छोड़ कर गई थी उसको... तो और क्या होता? तेरी तो छाया ही मनहूस है.” भौंचक्की रह गई मैं... क्या अब भाभी की मौत की ज़िम्मेदार भी मैं थी..? आसन्न प्रसवा कमज़ोर बहू को मुझ जैसी तथा अनुभवहीन के पास छोड़ जाना उनकी अमानवियता नहीं थी?
महीने भर के बाद ही भाई के विवाह के लिए पुनः रिश्ते आने लगे, तो मैं विचलित हो उठी. कहीं जाना नहीं पड़ा था. एक ही घर में विधाता ने समाज का वास्तविक खाका खींच कर धर दिया था. सती पुत्री के यशस्वी परिवार से रिश्ता जोड़ने को उतावले लोग कदाचित यह भूल गए कि अपनी बहू को ख़ुद इन्होंने अपनी लापरवाही से मार दिया और एक बेटी को जीवित रहते प्रताड़ना का दंश देकर मृत प्राय कर रखा है और दूसरी इसी भय के कारण मुक्ति पा गई थी. कैसा त्रिकोण था. कैसी त्रासदी थी..? सती होने के पीछे कितनी-कितनी अन्तर्वेदनाओं की गंगा बहती है, इसे कौन जान सकता है?
- निर्मला डोसी
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