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कहानी- रेड कोट (Short Story- Red Coat)

सुबह-सुबह उसने आलमारी खोली, तो रेनबो कलेक्शन का बड़ा सा पैकेट देखकर पहले वह चौंकी फिर विस्मय से उसे उठाया. खोलकर झांक ही रही थी कि तभी सरसराहट महसूस हुई, नवीन के लबों की छुअन के साथ उसकी फुसफुसाहट महसूस की, “कुछ भी पहनो, पर साथ में इसे ज़रूर पहन लेना महज़ कोट नहीं, सपना है मेरा...” विस्मय और रोमांच के अतिरेक में वह नवीन से लिपट गई.

“तुम्हारा फोन बहुत देर से बज रहा था...”

नवीन के बाथरूम से बाहर निकलते ही मीनाक्षी बोली, तो वह गीले बालों को तौलिए से रगड़ता बोला, “अरे, तो तुम ही उठा लेती न...”

“बिना नाम के आ रहा था. न जाने किसका होगा, यही सोचकर नहीं उठाया...”

मीनाक्षी के कहते-कहते नवीन ने मोबाइल उठा लिया. फोन नंबर देखकर कॉल बैक किया, तो दूसरी तरफ़ से पुरुष स्वर सुनाई दिया, “रेनबो कलेक्शन.”

“हेलो, मैं नवीन मजूमदार बोल रहा हूं. इस नंबर से कॉल आई थी मेरे पास.”

“जी रुकिए, मैं पूछता हूं.”

तकरीबन 20 सेकंड में उधर से आवाज़ आई, “मिस्टर नवीन आपने कोई रेड कोट पसंद किया था?”

“जी... जी.. जी...” उत्तेजना  में वह जी कुछ ज़्यादा ही बार बोल गया.

दूसरी तरफ़ से आवाज़ आई, “आपने जो रेड कोट पसंद किया था, उसका एक्सेल साइज़  हमारे स्टॉक में आ गया है.”

“अरे वाह! आप रखिए, उसे मैं दो घंटे में आकर ले लूंगा और हां प्लीज़ उसे अलग निकाल कर रख दीजिए. मेरे लिए बहुत स्पेशल है.” बाकायदा मुस्कान आ गई चेहरे पर, मानो शॉपकीपर सामने ही खड़ा हो और वह कोट क्यों स्पेशल है, यह उसे पता हो.

“आप समझ रहे हैं न...” अपनी उत्तेजना भरसक छिपाते वह बोला, तो उधर से आवाज़ आई, “आप निश्‍चिंत रहिए, रात आठ बजे से पहले आकर ले लीजिएगा. आज के लिए हम उसे निकाल कर रख देते हैं.”

“जी थैंक्यू, थैंक्यू सो मच...” नवीन ने फोन रखा, तो उड़ती हुई नज़र ठिठकी हुई मीनाक्षी पर पड़ी. बड़े ध्यान से वह उसका चेहरा पढ़ रही है. यह आभास होते ही वह लापरवाही से कंधे उचकाते हुए बोला, “क्या देख रही हो तुम, ज़रा चाय पिला दो. बाहर जाना है.”

“हम्म, सब ठीक तो है न...” भेद लेने वाले भाव से उसने गहरी नज़र से उसे देखा, तो वह   इत्मीनान जताते हुए बोला, “हां... हां... सब ठीक है भई.”

“क्या था जिसे निकालकर रखने को बोल रहे थे?”

“अरे कुछ नहीं, पास बुक दे आया था अपडेट करने के लिए... वही लेने जाना है.”

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“पासबुक! कहां और किसके पास दे आए... और आज बैंक जाओगे! इतवार के दिन बैंक खुलने लगी क्या?”

“ओफ्फो! तुम भी जासूस की खाला हो. मैंने कब कहा कि बैंक जाना है. आसिफ भाई की दुकान में दे आया था. वो कल बैंक जा रहे थे तो मैंने कहा मेरी भी पासबुक लेते जाओ, अपडेट करवा लेना. पासबुक लेने आसिफ भाई की दुकान जाऊंगा.”

“अच्छा! तो आसिफ भाई का नंबर सेव नहीं है क्या?”

“मैंने कब कहा आसिफ भाई का फोन था. उनका फोन नहीं था. उनकी दुकान के किसी कर्मचारी का था. भई! अब मेरा इंटरव्यू लेना बंद करो.”

कहकर नवीन ने आंखों के सामने अख़बार तान लिया, पर अख़बार तो बहाना था दिल धकधक कर रहा था कि कहीं उसकी चोरी पकड़ी न जाए.

धुकधुकाहट के साथ अजब-सी उत्तेजना की लहर में एक सप्ताह पहले की वह शाम घूम गई जब वह मीनाक्षी के साथ क्वेस्ट मॉल के तीसरे फ्लोर में घूम रहा था.

इधर-उधर की दुकानों में विंडो शॉपिंग करने के बाद जब मीनाक्षी वॉशरूम गई. उस समय उसी फ्लोर पर उसकी नज़र सामने रेनबो कलेक्शन के शोरूम पर चली गई. बाहर लगी मेनीक्वीन ने रेड कोट पहना हुआ था. उस कोट को देखते ही उसका मन मचल गया और वह उस मेनीक्वीन की ओर खिंचा चला गया.

मेनीक्वीन ने जो पहना था, वह ख़ूबसूरत कट वाला रेड कोट हूबहू वैसा ही दिखता था जैसा उसने सालों पहले मसूरी के मॉल रोड में देखा था.

उसे मेनीक्वीन को घूरते देख एक 20-22 साल की सेल्स गर्ल ने पास आकर बड़े अदब से पूछा, “मे आई हेल्प यू सर.” उसने अटपटाते हुए पूछा, ‘ये कोट कितने का है?”

“सर, आप अंदर आइए, कोट की अच्छी रेंज आई है हमारे पास.”

“न-न... आप तो बस इसका प्राइस बता दीजिए जल्दी से...” उसे हड़बड़ी में देख सेल्सगर्ल बोली, “सर, ये कोट की हायर रेंज है... थर्टी थाउसेंड का है.”

“तीस हज़ार...” सुनकर टी-शर्ट पसंद करती दो लड़कियां चौंकीं. उन्होंने भी कौतूहल से झांककर  मेनीक्वीन की ओर देखा. आंखों में प्रशंसा के भाव भी आए. पर जल्द ही वह निर्विकार भाव लिए वहां से हट गईं और 20% डिस्काउंट वाले सेक्शन में अपने लिए पैंट्स और टी-शर्ट देखने लगीं.

नवीन रेड कोट को हाथ से छूकर बोले, “शानदार फैब्रिक.”

शीशे से बाहर नज़र गई, तो देखा मीनाक्षी वॉशरूम से बाहर आ चुकी थी और वह बेचैनी से इधर-उधर ताककर उसी की टोह ले रही थी.

“उनको ध्यान से देखिए, वो जो पीला शॉल ओढ़े हैं... ब्लैक कलर का सूट पहना है. कौन-सा साइज़ आएगा...”

नवीन के कहने पर सेल्सगर्ल शरारत से हंसते हुए बोली, “सर, मैडम को लार्ज आ जाएगा, पर सेफ साइड एक्सेल बेटर रहेगा.”

“एक साइज़ बताइए...”

“सर, सरप्राइज़ देना चाहते हैं, तो उनका शर्ट या कुर्ता ले आइए. हम परफेक्ट साइज़ दे देंगे, पर सर, लार्ज-एक्सेल में कलर ब्लैक है. रेड कलर में लार्ज-एक्सेल तो हमारे स्टॉक में अभी नहीं है.”

यह सुनकर जिस तरह से उसका चेहरा बुझा, उसने सेल्स गर्ल के चेहरे की रौनक़ बढ़ा दी.

दिन में बीसियों लोगों ने रेड कोट के दाम पूछे हैं, पर जिस तरह से नवीन ने वह रेड कोट ख़रीदने के लिए संजीदगी और तत्परता दिखाई थी, उसमें सेल्सगर्ल को सच्चाई नज़र आई.

महज़ कौतूहल के लिए दाम पूछने वाला वो नहीं लगा, इसलिए वह बोली, ”नेक्स्ट वीक इसका स्टॉक यदि आया, तो मैं आपको कॉल कर दूंगी.”

“यदि आया मत कहिए, आप प्लीज़ मंगवा लीजिए... मुझे यह रेड कोट चाहिए ही चाहिए.” एक ज़िद्दी बच्चे सा वह बोला, तो सेल्सगर्ल भरपूर मुस्कुरा पड़ी.

“श्योर सर, आप अपना नंबर लिखवा दीजिए.” सेल्सगर्ल के कहने पर नवीन ने नंबर लिखवाया.

आज उसी नंबर पर रेनबो कलेक्शन से कॉल आने पर नवीन बहुत ख़ुश था. रेड कोट आज उसके हाथों में होगा.

कितना इंतज़ार किया इसके लिए. पूरे 32 साल. ठीक ऐसा ही कोट देखा था मसूरी के मॉल रोड में... नवीन की आंखों के सामने अतीत के वो पल घूम गए.

अपनी मंगनी के बाद अपनी बड़ी बहन के परिवार के साथ मसूरी गया था. वहीं घूमते हुए एक दुकान में मेनीक्वीन को कोट पहने देखा. गले में फर, परफेक्ट शेप बड़ी सी बेल्ट और बड़े-बड़े शानदार बटन लगे उस रेड कोट को देख उसके कदम वहीं रुक गए.

वह रेड कोट उसके मन में उतरता जा रहा था.

नई-नई मंगनी हुई थी, सो कल्पना में कितनी बार उस रेड कोट को मीनाक्षी को पहनाया और सराहा था.

“ए नवीन, क्या देख रहा है?”

दीदी के टोकने पर उसने ख़ुद को रेड कोट के आकर्षण से मुक्त किया और चल पड़ा, पर रेड कोट ने उसका पीछा नहीं छोड़ा. दिलोदिमाग़ मे वह  कोट छा गया था. स़िर्फ कोट ही नहीं, कोट पहने मीनाक्षी उसकी कल्पना में छा गई थी. बिल्कुल मेमसाब दिखती थी. वो फर उसकी नाजुक गर्दन को छूता हुआ कमाल ही लग रहा था.

मॉल रोड में इधर-उधर घूमने के बाद वह एक बार फिर पीछे लौटा और दुकान के बाहर खड़ा हो गया था, फिर बड़े संकोच से दुकानदार से  पूछा, “कितने का है यह कोट?”

“क्यों रे नवीन, मेरे लिए ले रहा है क्या? ये साइज़ कुछ छोटा है. एक्सेल निकलवाओ.”

पीछे से दीदी ने आकर उसे छेड़ा, तो वह झेंप गया.

“अच्छा लगेगा मीनाक्षी पर. ले ले. कितने का है ये कोट?” दीदी ने पूछा, तो सेल्समैन बोला, “दो हज़ार.”

“दो हज़ार!” दीदी आश्‍चर्य से दोहरी हो गई. वह ख़ुद भी कुछ सिटपिटा गया.

जिस समय उसकी तनख्वाह तीन हजार थी, उस समय कोट का दाम दो हज़ार सुनकर उसका मन बुझ सा गया.

“रहने दे नवीन, इतने में तो सोने का मंगलसूत्र आ जाएगा. वैसे भी शादी के बाद सोने की चीज़ देना अच्छा रहता है. कोट-वोट देना अच्छा नहीं लगेगा. बाद में उसकी पसंद का ख़रीद देना.”

दीदी की तसल्ली पर उसने मन को समझा लिया और कोई चारा भी नहीं था.

“दो हज़ार... बाप रे! पर कोट अच्छा था. अच्छा ही नहीं, बहुत-बहुत अच्छा था.” पूरे मसूरी प्रवास में कोट न ख़रीद पाने का मलाल सालता रहा और वह मन को समझाता रहा.

फिर भी फर वाला कोट न ख़रीद पाने की कसक मन में दबी रही. मंगेतर के लिए न सही, बीवी के लिए ज़रूर लूंगा. उसने मन ही मन ख़ुद से वायदा किया.

शादी के बाद से अब तक न जाने कितने महंगे गिफ्ट दे डाले, बस न दे पाया तो वैसा रेड कोट.

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“मीनाक्षी, तुम विंटर्स के लिए एक कोट लो. एक बढ़िया कोट, एलीगेंट सा...” ये कहने की हिम्मत सिक्थ पे कमीशन के समय आई, जब तनख़्वाह बढ़ गई थी, पर तब तो ‘क्या करूंगी ख़रीदकर, तीन महीने की तो ठंड होती है. कितने महंगे भी होते हैं कोट...’ वह कहती, तो कभी ‘फ़िलहाल तो अंशुल और ईशा के लिए ब्लेज़र ख़रीदने हैं. हर तीन साल में कलर चेंज कर देते हैं मुए स्कूल वाले...’

मीनाक्षी का केंद्रबिंदु बच्चे और घर-गृहस्थी थी, तो वह भी नून-तेल-लकड़ी के फेर में कोई ख़ासा ज़ोर न दे पाता कि नहीं, कोट ख़रीदना ही है.

वैसे बिना रेड कोट के भी उसकी मीनाक्षी उसे ख़ूबसूरत लगती थी. बावजूद इसके वह जब भी किसी औरत को कोट में देखता, मसूरी वाला रेड कोट याद आ जाता और तब लगता ऐसा एक कोट उसकी मीनाक्षी के पास भी होना चाहिए.

वह गाहे-बगाहे बोल भी उठता कि वॉर्डरोब में ढेरों कपड़े हैं, पर कोट नहीं... पर मीनाक्षी ने कभी कोट ख़रीदा ही नहीं.

समय के साथ-साथ जाड़ों के हर ऑफ सीज़न पर हाई नेक स्वेटर, कार्डिगन, गरम शॉल आदि के ढेर लगते चले गए, तब उसे भी महसूस हुआ कि एक कोट भी होना चाहिए.

वह ऑफ सीजन में कोट की तलाश करती, पर उसका पसंद किया कोई कोट नवीन को नहीं सुहाता... कभी उनका कपड़ा अच्छा नहीं लगता, तो कभी शेप. मीनाक्षी पहनती तो वह मुंह बना देता. कल्पनाओं में रेड कोट पहने मीनाक्षी की बात ही और थी.

ऑफ सीज़न के सेल में लगे कोट बुरे थे ऐसा भी नहीं था... पर वह मीनाक्षी के लिए नहीं बने थे.

लब्बोलुआब यह कि कोई भी कोट उसकी कल्पना में रचे-बसे रेड कोट के पास भी नहीं फटक पाता.

“यार कुछ भी लेकर आलमारी मत भरो. मज़ा नहीं आया, थोड़ा रुक जाओ... शायद कुछ अच्छा दिखे, तब ख़रीद लेना.” कुछ ऐसा ही वह बोल पड़ता और मीनाक्षी झुंझलाती, “तुम्हीं बोलते हो कोट होना चाहिए और जब लेने चलती हूं, तब टोक देते हो क्यों..?”

“क्योंकि तुम बेस्ट डिज़र्व करती हो.” वह पूरी संजीदगी से कहता और मीनाक्षी सेल में ख़ुद के लिए छांटा हुआ हाथ में पकड़ा कोट वहीं छोड़ देती.

मीनाक्षी बेस्ट डिज़र्व करती है, यह मानसिकता बीतते समय और बढ़ती आमदनी के साथ स्वत: आती चली गई.

“तुम कुछ भी न ख़रीदा करो. जो भी ख़रीदो सेलेक्टड हो. हमने दूसरों के लिए अभी तक बहुत किया. अब अपने लिए करने का व़क्त आया है, तो बेस्ट करेंगे... वैसे भी तुम मेरे लिए ख़ास हो. तुम्हारे लिए ख़ास ही चाहिए.”

“पता नहीं तुम्हें वह ख़ास कब नज़र आएगा. रहने दो वैसे भी ऊनी कपड़े बहुत हैं. सर्दियों में वही निकल जाएं काफ़ी हैं.”

नवीन कह नहीं पाता कि कोट तो बस एक ही ख़ास दिखा है, वह भी मॉल रोड मसूरी में...

“क्या सोच रहे हो तुम, चाय फिर गर्म करवाने का इरादा है क्या.” मीनाक्षी के टोकने पर उसके इर्द-गिर्द बुनते विचार झटक कर बिखर गए.

भेद खुल न जाए, इस भय से उसने झट से वह चाय उठा ली, जो  ठंडी हो चुकी थी. उसे एक घूंट में पीकर उसने मीनाक्षी को ध्यान से देखा.एक्सेल, हां एक्सेल ही आएगा इसे. वह आश्‍वत था.

मीनाक्षी बोल रही थी, “सुनो, अंशुल और वर्तिका की शादी की पहली सालगिरह है, क्या देना है उन्हें? सोच रही हूं कुछ गोल्ड का ले लूं या फिर कुछ ऐसा दें, जो दोनों के काम आए. सुन रहे हो क्या बोल रही हूं...”

“हूं.”

नवीन बोले तो मीनाक्षी कहने लगी, “नहीं, सुन नहीं रहे हो, आधे मन से सुन रहे हो. दिमाग़ कहीं और है तुम्हारा...”

“हां कहीं और है दिमाग़... बेटे-बहू से पहले अपनी शादी की सालगिरह आएगी. उसके कुछ प्लान बनाएं या नहीं.”

“क्या प्लान बनाएंगे बुढ़ापे में, बोलो...”

“अरे, ये क्या बात हुई! तय किया था कि बच्चों की शादी के बाद बाहर घूमने जाया करेंगे... और बाहर घूमने के लिए शादी की सालगिरह से अच्छा ओकेज़न क्या है बोलो.”

“हूं... वो तो है, पर इस बार नहीं. हमारी शादी के चार दिन बाद तो अंशुल-वर्तिका की शादी की सालगिरह है, इसलिए घूमने कहां जाएंगे. और हां, आज बाज़ार चलें क्या? कुछ आइडिया लगेगा... वर्तिका के लिए क्या लें.”

“ले लेना मीनाक्षी, अभी मुझे मत उलझाओ... काम याद आया है उसे निपटाने दो.”

कहते हुए वह बेडरूम में गए. फुर्ती से कबर्ड खोलकर हैंगर खंगाले और एक कुर्ता, जो मीनाक्षी अक्सर पहनती है, उसे हड़बड़ी में खींच निकाला और सतर्कता से झटपट बैग में डाला और  मीनाक्षी की सीधी नज़र से बचते हुए बाहर निकल  गए. कार निकाली और सीधा क्वेस्ट मॉल रुके.

रेनबो कलेक्शन शोरूम में सेल्सगर्ल उन्हें देखकर मुस्कुरा पड़ी. कुर्ते का साइज़ चेक कर बोली, “सर, आप एक्सेल ले लीजिए... वैसे सर, एक बात बोलूं, ये कोट काफ़ी एक्सपेंसिव है... आप अगर एक महीने बाद इसे लें, तो ये 20% डिस्काउंट पर मिल सकता है.”

सेल्सगर्ल के कहने पर नवीन बोले, “नो नो  थैंक्स, वैसे भी मुझे कोट ख़रीदने में काफी देरी हो गई है. अब और इंतज़ार नहीं कर सकता.”

सेल्सगर्ल मुस्कुराई, “ठीक डिसिजन है आपका... वैसे भी आपको तो रेड ही चाहिए. डिस्काउंट सीज़न में कलर और साइज़ की गारंटी नहीं रहती...” कहकर वह बिल बनवाने लगी.

रेड कोट के बड़े से पैकेट को गाड़ी में ही छोड़कर नवीन घर में आए, तो देखा मीनाक्षी फोन पर अपनी बहू से बतिया रही थी.

उसका पूरा ध्यान गप्पों में था, सो वह मौक़ा देखकर कोट का पैकेट ले आया और अपने डाक्यूमेंट्स वाले कबर्ड में रखकर उसे लॉक कर दिया.

शादी की सालगिरह को एक हफ़्ता बचा था. और इस पूरे हफ़्ते उसे मीनाक्षी से बचाना था, पर कभी-कभी मन में आता कि उसे पहले ही दे दे पर ख़ुद नियंत्रण कर लेता. हफ़्ते भर में न जाने कितनी बार कबर्ड खोलकर उस रेड कोट में हाथ फेरता और यूं फेरता मानो आने वाली सुहागरात में कोट में नई नवेली मीनाक्षी का स्पर्श सुख ले रहा हो.

इसी उन्माद में शादी की सालगिरह पास आती चली गई और फिर लगभग आ ही गई. एक  दिन पहले हमेशा की तरह मीनाक्षी कंफ्यूज़ दिखी कि कल क्या पहनूं.

“कल तुम कुछ वेस्टर्न पहनो...” नवीन ने कहा, तो उसने आंखें तरेरीं, “एनिवर्सरी के दिन वेस्टर्न... कितना बेहूदा आइडिया है तुम्हारा... मैं ये हरी साड़ी पहन रही हूं.” कहकर उसने बूटेदार हरी सिल्क की साड़ी हैंगर पर टांग दी.

सुबह-सुबह उसने आलमारी खोली, तो रेनबो कलेक्शन का बड़ा-सा पैकेट देखकर पहले वह चौंकी फिर विस्मय से उसे उठाया. खोलकर झांक ही रही थी कि तभी सरसराहट महसूस हुई, नवीन के लबों की छुअन के साथ उसकी फुसफुसाहट महसूस की, “कुछ भी पहनो, पर साथ में इसे ज़रूर पहन लेना. महज़ कोट नहीं, सपना है मेरा...”

विस्मय और रोमांच के अतिरेक में वह नवीन से लिपट गई.

“हैप्पी एनिवर्सरी अब जरा पैकेट तो खोलो.”

कौतुक भाव लिए पैकेट खोला. रेड कोट देखते ही प्रथम दृष्टया हुलस गई, “हाय! बहुत सुंदर है.” फिर थोड़ा उलट-पलटकर देखा और कहा, “रेड कलर, थोड़ा चटक है. ब्लैक नहीं था क्या?”

“तुम पर अच्छा लगेगा, पहनकर दिखाओ.”

“रेड कोट इस उम्र में!” वह कुछ और कहती, उससे पहले नवीन ने उसके होंठों पर हाथ धरते हुए उसे पहनने का इशारा किया.

कोट को पहनते ही वह उस पर मोहित हो गई, “वाओ परफेक्ट फिटिंग, तुम ये लाए कब! भनक भी न लगने दी.” कहते कहते पूछ बैठी, “वैसे और कौन-कौन से कलर्स थे.”

“एक ही कलर था रेड.”

“कितने का है. महंगा लगता है, छह-सात हज़ार से कम क्या होगा.”

“अरे वाह! तुमने तो बिल्कुल सही दाम आंके. मुझे तो पांच का ही मिला. डिस्काउंट में था.” कहते हुए पीछे लगे टैग को चुपके से तोड़कर  नवीन ने जेब में घुसा दिया.

रेड कोट में मीनाक्षी वाक़ई बहुत सुंदर लग रही थी.

“बता देते तो मैं भी चलती... वैसे एक बात कहूं ऐसा चटक रंग वर्तिका पर ख़ूब फबेगा. सोच रही हूं इसे बदलकर इसका छोटा साइज़ ले लें. उसे दे देंगे.”

“न बिल्कुल नहीं, ये तुम ही पहनोगी... और बहू को कोट देना ठीक भी नहीं लगता. शादी की पहली सालगिरह है, कुछ सोने का ले लेना...”

“हां, ये भी ठीक है. वैसे ये कोट लग बड़ा शानदार रहा है.” वह आत्ममुग्ध हो षोडसी सी इतराई और मॉडलिंग करते हुए दो-चार कदम चलकर बोली, “थैंक्स, कब से सोच रही थी ऐसा कोट लूं. तुम कहां से ले आए. बड़ी अच्छी पसंद है तुम्हारी.” वह मगन थी.

“हम्म वो तो है.”

“बस, उम्र के हिसाब से थोड़ा रंग...” रंग पर सुई अटकती उससे पहले ही वह उसकी आंखों में झांकता हुआ बोला, “आज तुम बिल्कुल शादी के बाद वाली मीनाक्षी लग रही हो... नई-नई सी कमसिन सी...”

अनायास मीनाक्षी शरमा गई और अदा से बोली, “मेरे लिए कोट लिया और मुझे ही नहीं ले गए न... सब  समझती हूं तुम्हारी चालाकियां. सोचते होंगे कि कहीं और न जेब हल्की करवा लूं, पर तुम्हारी पसंद की भी दाद देती हूं...” मीनाक्षी की आरंभिक दुविधा गायब थी. खिला चेहरा बता रहा था कि कोट उसे बहुत पसंद आया है.

नवीन चुप रहे, पर मन बोल उठा, ‘तुम जाती तो मेरा सपना कभी पूरा नहीं होता... तीस हज़ार सुनकर ही इस सुंदर सलोने रेड कोट का रिजेक्शन पक्का था. और फिर तुम्हारे हिस्से तो यक़ीनन कुछ न कुछ ज़रूर आता, पर मेरे हिस्से आता रेड कोट न ले पाने का अफ़सोस...

मीनू त्रिपाठी

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