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कहानी- भागीरथी (Short Story- Bhagirathi)

 

… मन के किसी कोने में नारीभय भी था. रुद्रवंती अभी 11 की है, पर जानवरों से ज़्यादा डर आदमियों का है. औरत जात होना काफ़ी है, उम्र और हाड़-मांस अपने आप रहता है. अब बिना सींग और बिना डरावने राक्षस होने लगे हैं, जो नारी जाति पर यूं झपटते हैं जैसे बंदर खाने के सामान पर झपटते हैं बिना किसी डर के.

 

 

 

“दादी मै भी चलूंगी तेरे साथ.“
“कहां चलेगी तू मेरे साथ?“
“जहां तू जा रही है.“
“तुझे कहां ले जाऊंगी उतनी दूर, स्कूल का क्या होगा?“
“मैं आ कर सब काम पूरा कर लूंगी.“
“ओ दुलहिन! समझा इसे क्या करेगी मेरे साथ. अच्छे कपड़े भी नही है इसके पास.“
“ईजा तो ले जा ना इसे. पता नहीं, फिर ये घड़ी आए ना आए. इसी बहाने देख लेगी शहर की चकमक.” रुद्रवंती की मां बोली.
“तू लाटी हो गई है. इतनी दूर ले जाता है कोई लड़की को?“
“ना ले जाता हो कोई, पर भंडारी जी बहुत अच्छे हैं. जब भी गांव आते हैं कुछ ना कुछ लाते ही हैं रुद्रा और खीमानंद के लिए.“
“वो तो है, उन्हें अपनी मिट्टी अभी भी लुभाती है. मेरी कला को हमेशा मान दिया है उनके परिवार ने.“
”फिर!“
“ठीक है ले जाऊंगी, ख़ुश.“
रुद्रवंती की दादी ‘गिदारिन‘ हैं. बड़े बेटे की शादी में गई थी भागीरथी, अब बेटी की शादी है. बड़े दिलवालों के लिए मीलों का क्या गिनना. यूं तो शहर में भी कमी नही गिदारो की. सब पढ़-लिख गए हैं, सो कामचलाऊ रीति-रिवाज़ शहर के लोग ही निभा लेते हैं किताबों से पढ़ कर. ब्राह्मण गिदार पुराने ज़माने की बातें हैं. मैरिज होम और वेडिंग प्लानर ने सबको एक जैसा बना दिया है. कोई नियम क़ानून विवाह के बेतहाशा ख़र्चे पर लगाम लगा पाए, ये तो समय के गर्भ में है. अब तो शादी की रजत और स्वर्ण जयंती में शादी के दबे हुए ख़्वाब पूरे जोश से सामने आते हैं. डीजे के आगे लोक संस्कृति भी आलों के साथ ख़त्म होती जा रही है. अकेली इस कला से गुज़ारा नही वरना रुद्रा पर बड़ी कृपा है वाग्देवी की.

 

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यूं तो 75 होली, सावन देख चुकी है भागीरथी पर खाने में ‘नमक-चीनी‘ उसी की कला की बदौलत है. रुद्रा के दादा जी को गुज़रे उतने ही साल हो गए जितने की रुद्रा है. एक टुकड़ा ज़मीन है, सो बेटा उसी को जोतता-बोता है. आज भी बहुत से ब्राह्मण सुदामा ही हैं.
भोर के साथ रुद्रवंती के सपने दिवाकर से चमकने लगे. बस के स्टेयरिंग और पहियों के साथ भागीरथी ने ख़ुद को जोड़ दिया. मन के किसी कोने में नारीभय भी था. रुद्रवंती अभी 11 की है, पर जानवरों से ज़्यादा डर आदमियों का है. औरत जात होना काफ़ी है, उम्र और हाड़-मांस अपने आप रहता है. अब बिना सींग और बिना डरावने राक्षस होने लगे हैं, जो नारी जाति पर यूं झपटते हैं जैसे बंदर खाने के सामान पर झपटते हैं बिना किसी डर के. गाहे-बगाहे एनजीओ वाली बहनों से सुना है भागीरथी ने ये सब. उसका गांव तो मान-मर्यादा वाला छोटा सा परिवार है.
रुद्रवंती का मन तो ख़ुशी के सपने लिए तेज़ी से दौड़ रहा था- वहां का घर, सामान, लोग, सब कुछ कैसा होगा! आज वह शहरी मैदानों में खेलेगी, इधर-उधर घूमेगी. बस स्टेंड पहुंच कर भागीरथी ने पीसीओ से फोन कर दिया, सो ड्राइवर गाड़ी ले कर आ गया था. सब कुछ टीवी और किताबों जैसा लग रहा था. रात होने पर भी लग रहा जैसे सूरज उसके बालों में टका हो. घर में घुसते ही रुद्रवंती की पलकें पुतलियों पर आने को राज़ी नहीं थीं. दादी का हाथ ज़ोर से हिलाते हुए बोली, “देख दादी देख! दीवारें कितनी रंगीन है!"
“हां देख रही हूं.“
“देख, देख… उस दीवार पर तो अपने गांव के पहाड़, गूल, नौले, गदेरे सब बने है!“ दादी को एक तरफ़ खींचते हुए रुद्रवंती बोली, “वो देख छत पर कांच का कितना बड़ा गुलदस्ता है, जो गिरा तो तू तो गई काम से.“ और खीं-खीं करके हंसने लगी.
“तभी आई तू ज़िद करके.“ दादी उसके सिर पर हाथ फेरते बोलीं.
“बिल्कुल, इस सुंदरता को ही तो देखना था.“
खाने में क्या-क्या खाया, नाम रुद्रा को नहीं पता. कमरे, स्नानघर, पूजाघर देखते-देखते बरामदे में ज़मीन पर ही सो गई. अगले दिन सुआल पथाई के दीया से शगुन आखर की शुरुआत हुई. रुद्रा देख रही थी कि इस शीशमहल के लिए दादी अपने हुनर की पोटली में से क्या निकालेगी. सब देखते रह गए उसकी इस उमर का जोश, वरना यहां तो 50 तक बीपी, डायबिटीज़ सब मेहरबान हो जाते हैं. एक दिन बाद बारात आने को है. अब एक-एक रस्म, रीति-रिवाज़ रच-रच के करने का बच्चों का खेल नहीं, सब यहीं के हिसाब से करना है. यहां का महिला संगीत! इतने में तो गांव में 10 शादियां हो जाएं.
“देख दादी, मेरा सलवार-कमीज बहू जी ने दिया.“
“यो तो भल लग री.“
“चप्पल नही देखी तूने, ये कंगन देख?“
“इतना क्यों कर रहीं हैं बहू जी आप?“ भागीरथी की आंखें छलक गईं.

 

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“तो क्या हुआ अम्मा, ये भी तो बच्ची है. देखो तो कितनी ख़ुश है.“ भंडारी जी की पत्नी ने कहा।
“मैं तो पहचान भी ना पाई. नज़र ना लगे आज ही जानी हूं कि मेरे घर भी जादू की परी जन्मी है.“
रुद्रवंती दादी की गोद में सिर रखकर बोली, "मैंने सोच लिया है कि पढ़ाई-लिखाई के साथ तेरी इस कला को इन्हीं शहरों में लाऊंगी. ये कलाएं अपने पहाड़-गांव का नाम दूर-दूर तक फैलाएंगी.“ और खिलखिलाकर बाहर की ओर दौड़ गई.
रास्ते में भंडारी जी का छोटा बेटा शिवाय अपने दोस्तों के साथ आ रहा था. रुद्रा उड़ती तितली सी उससे जा टकराई. उसने रुद्रवंती को संभाला और पूरे अधिकार से बोला, “क्या रे रुद्रा, कहां दौड़ी जा रही है गांव साबुत जाना है कि नहीं?“
रुद्रा दो-तीन दिनों में सबसे घुलमिल गई थी, सो बोली, “दद्दा देख लो पूरी जाऊंगी, तुमने बचा लिया ना मुझे.“
“हां-हां ठीक है, पर मेन गेट से बाहर मत जाना.“ शिवाय अपने काम में लग गया पर उसके दोस्त रुद्रवंती के पैरों के निशानों पर नज़र गड़ाएं रहे.
बारात, पूजा-पाठ, खाना-पीना सब होने के बाद फेरों के समय अचानक भागीरथी को लगा कि रुद्रा दिखाई नहीं दे रही कहीं. कहां गई होगी? इधर-उधर देखा घर के सब लोगों से पूछा. सब यही कह रहे थे कि अभी तो यहीं थी.
उधर शिवाय अपने दोस्तों को ढूंढ़ने में था. जब उसे रुद्रवंती के गुम होने का पता चला, तो याद आया कि उसने ही तो रुद्रा को अपने दोस्तों के साथ अन्दर भेजा था, पर अब दोनों का मोबाइल स्विच ऑफ आ रहा था. गाड़ियां भी वहीं खड़ी थीं. मैरिज होम की हद शिवाय जानता था, सो खोजते-खोजते देखा कि कच्ची कली को ‘नरगिद्द‘ नोचने-मसलने की फिराक़ में हैं. शिवाय ने दोनों को ज़ोर का धक्का दिया और रुद्रा चीखते हुए शिवाय से चिपक गई.
'कोमल मन दरकने से बच गया.' मन ही मन शिवाय ने सोचा, 'इन दोस्तों से तो शादी के बाद निबटूंगा.'
भागीरथी तो बेहाल थी कि क्या मुंह दिखाएगी बहू-बेटे को. तभी शिवाय के साथ रुद्रवंती को देख कर प्राण हरे हो गए. सोचा चलो शहर की चकाचौंध इस बार तो लानत-मलानत से बच गई.
अगले दिन बहू जी ने ढेरों उपहार देकर शिवाय के साथ गाड़ी से विदा किया. उन्होंने रुद्रवंती के साथ घटना की संभावना से उपजे डर और तनाव के लिए माफ़ी मांगी.
भागीरथी बोली, “ना बहू जी आप माफ़ी क्यो मांगती हैं. जब तक शिवाय रूपी कृष्ण हैं दुनिया में, तब तक रुद्रवंती जैसी द्रौपदी का चीरहरण नहीं होगा, और न ही कोई दरिंदे, दिल्ली में जो, क्या नाम ?.. हां ‘निर्भया‘ के साथ हुआ वैसा कुछ करेंगे. जो जीती रही, तो शिवाय की शादी में बिना बुलाए रुद्रवंती के साथ आकर शगुन आखर मैं ही गाऊंगी."

लोकेष्णा मिश्रा

 

 

 

 

 

 

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