"क्यों नहीं आएगी… इस घर की बेटी है वो. ये उसका भी घर है. जब चाहे जितने दिन के लिए चाहे वह रह सकती है. बराबरी का हक़ है उसका. तुम्हें हो क्या गया है, जो ऐसा अनाप-शनाप बोल रहे हो."
"इतना सब देने की क्या ज़रूरत है. बेकार फिज़ूलख़र्ची क्यों करना. और आ रही है, तो कहो कि टैक्सी करके आ जाए स्टेशन से." बहन के आने की बात सुनकर अश्विन भुनभुनाया.
"जब घर में दो-दो गाड़ियां हैं, तो टैक्सी करके क्यों आएगी मेरी बेटी और दामाद जी का कोई मान-सम्मान है कि नहीं. ससुराल में उसे कुछ सुनना न पड़े. मैं ख़ुद चला जाऊंगा उसे लेने, तुम्हे तकलीफ़ है तो रहने दो." पिता ग़ुस्से से बोले.
"और ये इतना सारा सामान का ख़र्चा क्यों? शादी में दे दिया न. अब और पैसा फूंकने से क्या मतलब." अश्विन ने बहन-बहनोई के लिए आए क़ीमती उपहारों की ओर देखकर ताना कसा.
"तुमसे तो नहीं मांग रहे हैं. मेरा पैसा है, मैं अपनी बेटी को चाहे जो दूं. तुम्हारा दिमाग़ ख़राब हो गया है क्या जो ऐसी बातें कर रहे हो." पिता ग़ुस्से में बोले.
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"चाहे जब चली आती है मुंह उठाए."
"क्यों नहीं आएगी… इस घर की बेटी है वो. ये उसका भी घर है. जब चाहे जितने दिन के लिए चाहे वह रह सकती है. बराबरी का हक़ है उसका. तुम्हें हो क्या गया है, जो ऐसा अनाप-शनाप बोल रहे हो."
"मुझे कुछ नही हुआ है पिताजी. आज मैं बस वही बोल रहा हूं, जो आप हमेशा बुआ के लिए बोलते थे. अपनी बेटी के लिए आज आपको बड़ा दर्द हो रहा है, लेकिन कभी दादाजी के दर्द के बारे में नहीं सोचा. कभी बुआ की ससुराल और फूफाजी के मान-सम्मान की बात नहीं सोची."
पिता आवाक रह गए.
"दादाजी ने कभी आपसे एक ढेला नहीं मांगा. वो ख़ुद आपसे ज़्यादा सक्षम थे. फिर भी आपको बुआ का आना, दादाजी का उन्हें कुछ देना नहीं सुहाया. बराबरी का हक़ तो आपकी बेटी से भी पहले बुआ का है इस घर पर." अश्विन अफ़सोस भरे स्वर में बोला.
पिता की गर्दन नीची हो गई.
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"आपके ख़ुदगर्ज स्वभाव के कारण बुआ ने यहां आना ही छोड़ दिया. दादाजी इसी ग़म में घुलकर मर गए. जा रहा हूं स्टेशन. मुझे ख़ुशी है कि मैं आपके जैसा ख़ुदगर्ज भाई नहीं हूं." कहते हुए अश्विन कार की चाबी उठाकर स्टेशन जाने के लिए निकल गया.
पिता आसूं पोंछते हुए अपनी बहन को फोन लगाने लगे.
दीवार पर लगी दादाजी की तसवीर जैसे मुस्कुरा रही थी.
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