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कहानी- नानी तेरी मोरनी (Short Story- Nani Teri Morani)

“नानी, जब भगवान हर जगह उपस्थित है. सब देख-सुन रहा हेै, तो फिर हम अलग से मंदिर जाकर क्यों प्रार्थना करते हैं?” अनुप्रिया ने उत्सुकता से पूछा था.
“हूं, बात तो तुम्हारी सही है… अच्छा, ये जो तुम्हारा वाईफाई है, यह भी तो सब जगह मौजूद रहता है, पर उससे जुड़ने के लिए तुम्हें सही पासवर्ड डालना होता है न? तो बस भगवान से जुड़ने का पासवर्ड प्रार्थना है. प्रार्थना हम कहीं भी कर सकते हैं, पर मंदिर में बाहरी व्यवधान न होने से एकाग्रता बन जाती है और भगवान से नेटवर्क जल्दी जुड़ जाता है."

नेपथ्य में कहीं मोर की आवाज़ गूंजी, तो बालकनी में आरामकुर्सी पर लेटी, गुनगुनी धूप का आनन्द उठाती अनुप्रिया के कान खड़े हो गए. यहां महानगर में मोर? उसने इधर-उधर दूर तलक नज़रें दौड़ाईं.
गगनचुंबी इमारतों और कारों के काफिले के मध्य कोई परिंदा भी पर मारता नज़र नहीं आया. उफ़, वह भी कैसी पागल है! आवाज़ अंदर पीछे से आ रही है और वह बाहर नज़रें दौड़ा रही है. अनुप्रिया ने अंदर झांका, तो नई हाउसमेट को मोबाइल पर बतियाते पाया.
“अच्छा तो वह इसकी रिंगटोन थी!”
शंका का निवारण तो हो गया था. लेकिन साथ ही विगत का भी कुछ स्मरण हो आया. जिसे याद कर अनुप्रिया के होंठ अनायास ही एक सुप्रसिद्ध गीत
गुनगुना उठे- नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए… इसके साथ ही ज़ेहन में नानी की तस्वीर उभर आई. फिर तो पूरा बचपन ही सामने आ खड़ा हुआ. बचपन में अपने घर से ज़्यादा उसका समय अपनी स्कूल की सहेली सुरभि के घर व्यतीत होता था. दोनों की मांएं कामकाजी थीं.
लेकिन चूंकि सुरभि के घर उसकी नानी होती थी, इसलिए स्कूल से लौटते हुए अनुप्रिया सुरभि के साथ ही सीधे उसके घर चली जाती थी.
दोनों घर थे भी बिल्कुल आसपास. सुरभि की नानी ही दोनों के कपड़े बदलवाती, खाना खिलाती, होमवर्क करवाती और फिर दोनों उन्हीं के अगल-बगल सो जातीं. अनुप्रिया के अधिकांश कपड़े, किताब, कॉपियां सुरभि की नानी के कमरे में ही पड़े रहते. उसकी अपनी नानी तो उसके पैदा होने से पूर्व ही गुज़र गई थी. सुरभि की नानी का लाड़-दुलार, हिफ़ाज़त ही उसे ‘नानी’ नामक रिश्ते की महत्ता समझा पाया था. और ‘नानी’ शब्द की पुकार के साथ उसके मस्तिष्क में उन्हीं का चेहरा उभरता था. नानी थीं भी बड़ी प्यारी, हंसमुख, मिलनसार. बच्चों के संग बच्चा बन जाने वाली. तीनों मिलकर कभी बोर्ड गेम्स खेलतीं, कभी कार्टून्स देखतीं, तो कभी चटपटी भेलपूरी बनाकर खातीं. दोनों सखियां अपनी दुविधाएं नानी से आसानी से शेयर कर लेती थीं.
“नानी, जब भगवान हर जगह उपस्थित है. सब देख-सुन रहा हेै, तो फिर हम अलग से मंदिर जाकर क्यों प्रार्थना करते हैं?” अनुप्रिया ने उत्सुकता से पूछा था.
“हूं, बात तो तुम्हारी सही है… अच्छा, ये जो तुम्हारा वाईफाई है, यह भी तो सब जगह मौजूद रहता है, पर उससे जुड़ने के लिए तुम्हें सही पासवर्ड डालना होता है न? तो बस भगवान से जुड़ने का पासवर्ड प्रार्थना है. प्रार्थना हम कहीं भी कर सकते हैं, पर मंदिर में बाहरी व्यवधान न होने से एकाग्रता बन जाती है और भगवान से नेटवर्क जल्दी जुड़ जाता है." नई पीढ़ी की भाषा में सहज, सरल ढंग से समझाई गई बात अनुप्रिया के मस्तिष्क में बड़ी हो जाने पर भी ज्यों की त्यों अंकित रही.


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तब किशोरवय की ओर कदम बढ़ाती बेटी के लिए इससे सुरक्षित घोंसला अनुप्रिया की मां और कहां खोज पाती? दोनों सखियों में नानी की ख़ास बनने की स्पर्द्धा सी रहती. लेकिन नानी के प्यार की गागर में सागर जितना प्यार समाया था, जो अपनी दोनों नातिनों पर भरपूर लुटाने के बाद भी भरा का भरा रहता था. और दोनों को कभी किसी पक्षपात का
एहसास भी नहीं होने देता था.
अनुप्रिया को याद आ रहा था नानी के जन्मदिन पर उसे रिटर्न गिफ्ट के रूप में मिला बड़ा सा चॉकलेट! घर आकर उसने बड़े उत्साह से बैग से निकालकर मम्मी-पापा को दिखाया था.
“मुझे और सुरभि को बिल्कुल एक जैसा बड़ा चॉकलेट दिया हेै नानी ने अपने बर्थडे पर! हमने नापकर देखा था.” उसके बाल सुलभ उत्साह पर मम्मी-पापा हंस पड़े थे.
ऑफिस से थककर लौटने के बावजूद मम्मी ने तुरंत बड़ा सा केक बेक किया था और सब मिलकर नानी को जन्मदिन विश करके आए थे.
कितने सुनहरे और मधुर दिन थे वे! यादें थीं कि अनुप्रिया का पीछा ही नहीं छोड़ रही थीं. उसे कौन सा आज ऑफिस जाना है? चलो आज की छुट्टी भूली-बिसरी यादों के नाम! अनुप्रिया ने उठकर बड़ा सा मग कॉफी की बनाई और पुन: बालकनी में आ डटी. नई हाउसमेट कहीं निकल चुकी थी. अब तो बस वह थी और उसकी यादें.
अनुप्रिया ने कॉफी का एक लंबा घूंट भरा और यादों के लंंबे से गलियारे में चहलकदमी करने उतर पड़ी. बढ़ती उम्र के साथ-साथ दोनों सखियों के स्वभाव, शौक भी बदलने लगे थे. गुड़ियों का स्थान गजेट्स ने ले लिया था. वीडियो गेम्स, मोबाइला उन्हें लुभाने लगे थे. बनना-संवरना अच्छा लगने लगा था. उधर बढ़ती वय के साथ नानी का भी मानो बचपना लौट रहा था.
अद्भुत परिदृश्य था. घटत और बढ़त के इस सिलसिले ने दोनों पक्षों को रूचियों के एक समान संधिवय पर ला खड़ा किया था. नातिनों की तरह नानी भी हेयरकट करवाने और भौंहें संवारने लगी थी. पास्ता और पिज़्ज़ा के चटकारे लेने लगी थीं. बुढ़ापा सचमुच बचपन का पुनरागमन होता है. नानी की वीडियो गेम्स पर हाथ आज़माती उंंगलियां अब मोबाइल पर थिरकने को बेचैन होने लगी थी. बड़ी कक्षा में आ जाने के कारण अपना व्यक्तिगत मोबाइल होना दोनो सखियां अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझने लगी थीं.
लेकिन जागरूक माता-पिता अभी इसके लिए तैयार नहीं थे. आखिर दोनों ने नानी को इसके लिए पटाया. अपने जन्मदिन पर नानी की स्मार्ट फोन की
मांग ने सुरभि के मम्मी-पापा को चौंका दिया. उनके लिए बटन वाला मोबाइल लाने का विचार तो उनके मन में भी था. बाज़ार जाते, टहलने जाते या रात में घर पर भी ज़रूरत पड़ने पर नानी के लिए मोबाइल आवश्यक था. पर स्मार्टफोन?
“मां आप स्मार्टफोन हैंडल नहीं कर पाएगीं. आपको पता ही नहीं लगेगा और उससे कहीं की कहीं कॉल लग जाएगी. इतने फंक्शन्स होते हैं उसमें, आप भ्रमित हो जाएगीं.” मालती ने अपनी मां को समझाना चाहा. नानी ने नातिनों के मायूस लटके चेहरे देखे, तो फिर से कमर कस ली.
“क्यों? मैं क्या तूझे बेवकूग़ नज़र आती हूं? अचूक निशाना रहा है मेरा! शूटिंग में गोल्ड मेडलिस्ट रह चुकी हूं मैं!” नानी ने गले की चैन में पिरोया अपना गोल्ड मेडल लहराया था.
“स्मार्टफोन हैंडल करने के लिए पर्याप्त स्मार्ट हूं मैं!”
आख़िरकार नानी का स्मार्टफोन आ ही गया, जिसकी उनसे ज़्यादा ख़ुशी सुरभि और अनुप्रिया को हुई. विविध पोशाकों में, विभिन्न मुद्राओं में दोनों ने नानी की ढेरों तस्वीरें निकालीं. मोर को रोटी खिलाती नानी का तो पूरा वीडियो ही बना डाला. नानी नियम से बगीचे में आने वाले मोरों को रोटी का चूरा कर खिलाती थी.
मोर उनसे इतना हिलमिल गए थे कि एक निश्‍चित समय पर उनके बरामदे में चढ़ आते थे और पुकारने लगते थे. तत्पश्‍चात् नानी की हथेली पर से ही
निश्शंक रोटी खाकर चले जाते थे. हाथ आज़माने के लिए दोनों सखियों ने वीडियो की पृष्ठभूमि में नानी तेरी मोरनी को मोर ले गए… गाना भी डाल दिया था. नानी को यह वीडियो इतना पसंद आया था कि दिन में दो तीन बार देखे व दिखाए बिना उन्हें चैन नहीं पड़ता था.
अनुप्रिया का कॉफी का मग खाली हो चुका था. लेकिन यादों का पिटारा अभी तक भरा हुआ था. नानी उसे प्रिया कहकर पुकारा करती थी. बाद में यही उसका निकनेम बन गया. बड़ी कक्षा में पहुंच चुकी अनुप्रिया अब छुट्टी के बाद सीधे घर आने लगी थी. वहां से कोचिंग, फिर लौटकर सेल्फ स्टडी. नानी के प्रति उसके दिल में प्यार पूर्ववत था. किंतु समयाभाव के कारण मिलना, बतियाना कम से कमतर होता चला गया था. अब वह कॉलेज में आ गई थी. अनुप्रिया को याद है नानी के 76वें जन्मदिन पर वह उन्हें विश करने गई, तो नानी ने सुरभि के साथ-साथ उसे भी रिटर्न गिफ्ट के तौर पर एक लिफ़ाफ़ा पकड़ा दिया था.
“अब मैं अकेले बाजार जाने की स्थिति में नहीं हूं. वैैसे भी दोनों बड़ी हो चुकी हो. अपनी-अपनी पसंद का इससे कुछ भी ले लेना.” हमेशा अधिकारभाव से रिटर्न गिफ्ट लेने वाली अनुप्रिया उस दिन संकोच से घिर आई थी.


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“नहीं मैं आपसे इतना सब नहीं ले सकती.”
कहते हुए वह लिफ़ाफ़ा वहीं छोड़ आई थी. अब महानगर में नौकरी कर रही, अपने पैरों पर खड़ी हो चुकी अनुप्रिया को उस दिन की अपनी कमअक्ली पर आज बेहद अफ़सोस हो रहा था. कैसे उसने उस दिन एक ही पल में नानी को एकदम पराया कर दिया था. उनकी हतप्रभ, मूक और बेबस आंखों की भाषा वह आज समझ पा रही थी. प्रौढ़ावस्था से वृद्धावस्था की ओर अग्रसर होता अनुभवजन्य इंसान संसार की असारता से अघाकर आध्यात्मिकता की ओर झुकने लगता है. परिष्कृत होकर वह निश्छल, निष्पाप, भावुक, कोमल दूसरे शब्दों में बच्चा बनता चला जाता है. वहीं युवावस्था को प्राप्त इंसान अब तक पूर्णत: भौतिकवादी बन चुकने के कारण कृत्रिम, अवसरवादी और भावनाशून्य होता चला जाता है. मूल में स्वभाव का शायद यही अंतर जहां वृद्धों को बच्चों से जोड़ता है तो युवाओं से टकराहट का कारण बनता है.
हालांकि अनुप्रिया का नानी से स्वभावगत कोई टकराव नहीं था. बस उसमें यह समझ आ गई थी कि वह उसकी नहीं सुरभि की नानी है. और उन पर उसका इतना अधिकार जताना उसका बचपना था.
अनुप्रिया ने एक ठंडी आह भरी. पिछले सप्ताह घर से लौटने के बाद से ही वह बेहद व्याकुल है. अपनी असमंजसपूर्ण मन:स्थिति स्वयं ही नहीं समझ पा रही है. नानी गंभीर रूप से बीमार थीं. उन्हें इतनी अशक्त, असहाय अवस्था में देख उसका तन-मन रो उठा था. बीमारी और बुढ़ापे ने याददाश्त पर भी असर डाला था. कभी घरवालों को ही नहीं पहचान पाती, तो कभी बरसों पुराना कोई क़िस्सा लेकर बैठ जातीं.
अनुप्रिया को यह देख आघात सा लगा कि नानी उसे ही नहीं पहचान पा रही थीं. पास बैठी सुरभि उन्हें बचपन के वे पुराने सुनहरे लम्हे याद दिलाने का प्रयास करने लगी, जो उन तीनों ने साथ बिताए थे. नानी के भावहीन चेहरे से यह कयास लगाना मुश्किल था कि उन्हें कुछ याद आ भी रहा था या वे मात्र श्रोता ही बनी हुई थीं. लेकिन नानी के संग बिताए उन ख़ूबसूरत पलों की यादों ने अनुप्रिया को भावविह्नल कर दिया था. घर आकर वह फूट-फूटकर रो पड़ी थी.
"मम्मी, नानी मुझे कैसे भूल गईं? सुरभि तो उन्हें बख़ूबी याद
है." जाने कहां से बचपन वाली ईर्ष्या फिर से उसके सुर में आ समाई थी.
"बेटी, कसूर उनका नहीं, जर्जर होते शरीर और बीमारी का है. उनकी याददाश्त आ-जा रही है. न सब भूली हैं, न सब याद है… हमारा तो ख़ुद का बुढ़ापा आ गया है. रोज़ ही कुछ न कुछ भूल जाते हैं." मम्मी
अपना रोना रोने लगीं, तो अनुप्रिया के आंसू स्वत: ही थम गए थे.
यादों के गलियारे में विचरण करती अनुप्रिया के मोबाइल पर मम्मी की तस्वीर चमकी तो उसकी विचार श्रृंखला को विराम लग गया.
"आज तो तेरी छुट्टी है. देर से ही उठी होगी. क्या कार्यक्रम है आज का?" इधर-उधर की बातों के बाद अनुप्रिया ने नानी की तबीयत के बारे में पूछा.
"तबीयत तो दिन प्रतिदिन बिगड़ती ही जा रही है बेटी. खाना-पीना सब बंद कर दिया है. दो दिन पूर्व अस्पताल में भर्ती करवाया हैं. दवा से ज़्यादा अब उन्हें दुआ की ज़रूरत है. कभी-कभी आंखें खोलती हैं.
अस्पष्ट-सा बोलने का प्रयास भी करती हैं. बहुत जीवट वाली हैं तेरी नानी. मालती से उनके संघर्ष की कहानी सुनती हू, तो श्रद्धा से नतमस्तक हो जाने का मन करता है. अपने छात्रा जीवन में उन्होंने शैक्षणिक, अशैक्षणिक गतिविधियों में ढेरों पदक जीते हैं. उस ज़माने में अध्यापन कार्य करते हुए ससुराल के संयुक्त परिवार में सबकी चहेती बनी रहीं. यही नहीं, अपनी चारों पुत्रियों को उन्होंने उच्च से उच्चतर शिक्षा दिलवाकर अपने पैरों पर खड़ा किया. फिर प्रतिष्ठित परिवारों में ब्याहा. जीवन के हर मोर्चे पर पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ी रहीं. वैधव्य को भी बहुत साहस और शालीनता से लेते हुए जीवनपथ पर बेटियों का हाथ थाम आगे बढ़ती रही. हमेशा सबकी मदद को तत्पर.
सब उनके लिए प्रार्थना कर रहे हैं. पशु-पक्षी भी उनसे जुड़े हुए
थे. मालती बता रही थी रोज़ नानी के हाथ से रोटी खाने वाले
मोरों ने भी उनके अस्पताल जाने के बाद आना बंद कर दिया है.
मालती अपने हाथों से रोटी का चूरा बनाकर आंगन में फैलाती है.
लेकिन मोर उन्हें खाना तो दूर, पास फटकते भी नहीं हैं.’श"
"ओह..!"
"अरे हां, मालती ने बताया वे तुझे याद कर रही थीं."
"मुझे? पर मुझे तो पहचाना ही नहीं था."
"मैंने बताया न इस अवस्था में याददाश्त आती-जाती रहती है. उस दिन अस्पताल में सुरभि की मौसी उनके पास थीं. अचानक उन्होंने आंखें खोली और, "प्रिया, प्रिया… पुकारती नज़रें घुमाने लगीं…"
"सच?" ख़ुशी और रोमांच से अनुप्रिया का रोम-रोम उठ खड़ा हुआ था.
"हां, मौसी बेचारी तो समझ ही नहीं पाई कि वे किसे खोज रही
हैं? तभी मालती पहुंच गई. उसने नानी के पास जाकर पूछा कि क्या वे अनुप्रिया को खोज रही हैं? तो वे स्वीकृति में गर्दन हिलाने लगीं.
फिर अटकते हुए पूछने लगीं, "मुझसे मिलने आई थी… चली क्यों गई?"
"आपने पहचान लिया था?" मालती ने पूछा था. तो वे उसे ग़ुस्से से देखने लगीं.
"अपनी… नातिन… को न…नहीं प…हचानूंगी क्या?"
अनुप्रिया को लगा उसके अंदर का एक बहुत बड़ा गुबार फूटकर बाहर आने वाला है. उसकी मन:स्थिति से अनजान मम्मी बताए जा रही थी.
"… फिर सुरभि ने उन्हें तुम्हारा बनाया वो मोर वाला वीडियो दिखाया. जिसकी पृष्ठभूमि में वो गाना बज रहा था न? कौन सा था… याद नहीं आ रहा…"
"नानी तेरी मोरनी…" बोलते-बोलते गुबार अंतत: फूट ही पड़ा था. इसके साथ ही सारे गिले-शिकवे उसमें बह चले.

संगीता माथुर

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Photo Courtesy: Freepik

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