उस रात देर तक रिचा के मन में गुदगुदी मचती रही कि क्या वैवाहिक जीवन सचमुच इतना अधिक सुखी और आनंदित होता है! जब मन के किसी कोने में उत्तर मिला, “इससे भी कहीं अधिक” तो ख़ुद ही शर्म से दोहरी हो गई. देर तक कल्पनाएं संजोती रही कि रोमांस का हाल उस वक़्त क्या होगा, जब दोनों एक ही घर में हर पल साथ रहेंगे, तब तो शुभम से पीछा छुड़ाना ही मुश्किल हो जाएगा.
ऑफिस से आते ही शुभम लॉबी में टाई ढीली करके, कोट और जूते-मोजे उतारकर सोफे पर पसर गया. रिचा ने मोजों को जूतों में खोंसने के बाद उन्हें रैक में रखा और कोट आलमारी में टांग दिया. जब तक शुभम वॉशरूम में मुंह पर कुछ छींटें मारकर दोबारा सोफे पर आया, तब तक वह दो कप में चाय और कुछ स्नैक्स ले आई. शुभम ने मोबाइल पर कुछ टटोला, फिर कप उठाकर चाय सुड़कने लगा. रिचा कुछ देर तक टेबल पर रखा दूसरा कप देखती रही. पूरे दिन अलग रहने के बाद भी दो शब्द नहीं..! रोज़ाना इसी तरह का यंत्रचालित रूटीन-सा बन गया था घर में.
किचन में बर्तन रखकर वह बेडरूम में चली गई, जहां आशु बेसुध सो रहा था, उसकी मनोव्यथा से अनभिज्ञ. वात्सल्य उमड़ा तो उसका माथा और नन्हें से मुट्ठी भिंचे हाथों को चूम लिया, फिर आंखें बंद करके लेट गई… ‘तो क्या ज़िंदगी बस अपने-अपने हिस्से के कार्य कर लेने भर का नाम है! सुबह जल्दी उठो, ब्रेकफास्ट बनाओ, लंच तैयार करो, टिफिन बनाओ, नौकरी पर जाओ, शाम को साहब आएं तो जूते, कपड़े आलमारी में रखो, चाय बनाओ, डिनर तैयार करो… फिर पति को ख़ुशी देने के लिए शरीर को सौंपो. तो क्या भावनाओं के कोमल एहसास से दूर केवल स्थूल कार्यों के निर्वहन तक सिमट जाना ही वैवाहिक जीवन का सच है? आख़िर वह रोमांस और प्रेम कहां चला गया, जिसके सपने उसने स्वयं देखे थे और शुभम ने भी दिखाए थे?
रात में रोज़मर्रा की तरह बेड पर अपने हिस्से में सिमटी रिचा ने एक नज़र शुभम पर डाली. वह दैहिक सुख से तृप्त होकर बेसुध सोया पड़ा था. मन की वितृष्णा बढ़ी, तो लॉबी की बालकनी में आकर
तारों से भरे आकाश को देखने लगी, जहां पूर्व में संजोए सपने बिखरे नज़र आ रहे थे!
रिचा जब पोस्ट ग्रेजुएशन के अंतिम वर्ष में थी, तभी कई लड़कों के बीच में से उसके लिए शुभम को चुना गया था. वैसे परिवार तो उसका दिल्ली का था, लेकिन दो वर्ष पूर्व मुंबई के आईटी सेक्टर में सॉफ्टवेयर इंजीनियर की नौकरी लग जाने के बाद वह वहीं रहता था. दोनों परिवारों के संतुष्ट हो जाने के बाद विवाह की तैयारियां होने लगीं.
उस दिन सगाई की रस्म पूरी हो जाने के बाद वह और शुभम किचन गार्डन में चले गए थे. रिचा के चेहरे पर बालों की झूलती लट को हटाते हुए शुभम ने कहा, “कभी भी दूर मत जाना. कभी कोई छोटी बात हो भी जाए, तो एक-दूसरे को मना लेंगे… वैसे मैं तुम्हें रूठने ही नहीं दूंगा…इतना प्यार दूंगा!”
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“हमारे घर में रूठने-मनाने के पल कभी आएंगे ही नहीं… देखना तुम!” रिचा के प्रेमपूरित शब्दों से वशीभूत होकर शुभम ने उसके हाथ पर चुंबन जड़ दिया.
उस रात देर तक रिचा के मन में गुदगुदी मचती रही कि क्या वैवाहिक जीवन सचमुच इतना अधिक सुखी और आनंदित होता है! जब मन के किसी कोने में उत्तर मिला, ‘इससे भी कहीं अधिक’ तो ख़ुद ही शर्म से दोहरी हो गई. देर तक कल्पनाएं संजोती रही कि रोमांस का हाल उस व़क्त क्या होगा, जब दोनों एक ही घर में हर पल साथ रहेंगे, तब तो शुभम से पीछा छुड़ाना ही मुश्किल हो जाएगा.
और फिर वह दिन भी आ गया जब वह दुल्हन बनकर शुभम के पास पहुंच गई. कुछ दिन शुभम के परिवार में रहने के बाद दोनों घूमने निकल गए. कभी पर्वतों के बीच तो कभी दूसरी ख़ूबसूरत वादियों में मंडराते रहे.
सब कुछ ठीक चल रहा था, लेकिन धीरे-धीरे रिचा ने महसूस किया कि शुभम के अंदर प्रेम और रोमांस का खुमार उतरने सा लगा था. रिचा को शुभम केे रूखे व्यवहार का आभास तब हुआ जब मुंबई जाने के एक दिन पहले ऐसे ही पूछ लिया, “कैसा है वहां का घर? कुछ लेना है वहां के लिए?”
“अरे, ज़्यादा मत उड़ो, जैसा घर है वैसे ही रहेंगे.अलग से कुछ करने की ज़रूरत नहीं है. जो भी सैलरी है, उसे ख़ूब सोच-समझ कर ख़र्च करना होगा, समझीं…”
शुभम के रूखे व्यहार से रिचा हतप्रभ सी रह गई. वह ध्यान हटाने के लिए तैयारी में जुट गई… यूं ही, यद्यपि तैयारी करने जैसा अब कुछ ख़ास रह नहीं गया था.
नए घर में आकर दोनों प्रेम और रोमांस की बजाय रोज़मर्रा की दिनचर्या से बंध गए. शुभम रिचा के साथ बहुत कम समय साझा करता था. कुछ दिनों बाद उसने रिचा को जॉब करने का सुझाव दे डाला. रिचा इसके पक्ष में नहीं थी. वह ऐसा घर चाहती थी, जिसमें प्रेम करने वाला पति हो और घर के दायित्व निभाने में दोनों एक-दूसरे को सपोर्ट करें. ऑफिस जाते समय और वापस आने पर दोनों आलिंगन में बंधकर प्रेम सुख लें, लेकिन मिल रही थी उपेक्षा, जो सपना देखा था यथार्थ उसके विपरीत सामने आ रहा था.
शुभम के कहने पर रिचा ने एक निजी स्कूल में शिक्षिका के पद पर नौकरी जॉइन कर ली. अब उस पर घर और जॉब के दोहरे काम आन पड़े, जिन्हें व़क्त पर करने की बाध्यता थी. रविवार के दिन तो पहले से छूटे हुए कामों को करने पर व्यस्तता और बढ़ जाती. कभी मन होता कि कुछ आराम कर ले, लेकिन ़फुर्सत के पल उसके पास नहीं थे.
शुभम के उपेक्षित व्यवहार और कर्कश शब्दबाणों के कारण वह अपनी वेदना बताने का साहस नहीं जुटा पाती थी. फिर भी यह विचार तो आता ही था कि शुभम कुछ तो ऐसा करे, जिससे लगे कि उसे उसकी परवाह है. इसी भावना से वशीभूत एक रविवार की सुबह शुभम का कंधा हिलाते हुए कह बैठी, “मन भारी हो रहा है, चाय बना दोगे?”
“तुम जानती हो, छुट्टी के दिन देर तक सोता हूं, तुमने तो मेरी नींद ही ख़राब कर दी.” कहते हुए शुभम ने तकिये में मुंह छुपा लिया.
“कभी तो मेरा भी ख़्याल किया करो. दिन-रात घर और बाहर के काम में मरती रहती हूं. क्या मुझे अधिकार नहीं कि…” उसकी आंखों में आंसू तैर गए.
“सुबह हुई नहीं कि बकबक शुरू कर दी. सभी औरतें काम करती हैं… तुम अनोखी नहीं हो. चाय पीनी है, ख़ुद बनाकर पी लो.”
वह धीरे से किचन की ओर बढ़ चली. चाय पीकर ब्रेकफास्ट तैयार किया, फिर वाॉशिंग मशीन चला दी. इसी बीच शुभम उठा, तो सीधे बाथरूम में घुस गया. ब्रेकफास्ट लेने के बाद जब रिचा मशीन से कपड़े निकालने लगी, तो शुभम ने मोबाइल पकड़ लिया.
उसने डरते-डरते कहा, “ज़रा कपड़े फैलाकर टांग दोगे?”
“सारा काम तो मशीन कर देती है, अब कपड़े फैलाने, टांगने के लिए भी एक आदमी चाहिए. उन औरतों से पूछो, जो नल से पानी निकालकर हाथों से कपड़े धोती हैं… और यहां सारी सुविधा है तो भी नखरे! लोग ठीक ही कहते हैं, पत्नी को ज़रा सा मुंह लगाया नहीं कि वह सिर पर चढ़ जाती है.”
रिचा ने आगे कुछ नहीं कहा, चुपचाप मशीन से कपड़े निकालने लगी. एक तरह से शुभम ने अपनी सोच स्पष्ट रूप से बता दी थी कि वह उसकी उंगलियों पर नाचने की बजाय उसे अपनी उंगलियों पर नचाएगा. आशु के जन्म के बाद भी शुभम का उपेक्षापूर्ण रवैया बना रहा. यद्यपि रिचा ने किसी सीमा तक परिस्थितियों से समझौता कर लिया था, फिर भी लगातार तनाव ओर थकान के कारण सहजता खोती जा रही थी. इसका परिणाम यह हुआ कि उसके और शुभम के बीच जब तब वाक युद्ध होने लगा.
दोनों के जॉब के कारण आशु को छोटे बच्चों की देखभाल करने वाली संस्था में छोड़ा जाने लगा. शुभम से पहले स्कूल से लौटने पर वह आशु को साथ ले आती. दिनभर दूर रहने के बाद आशु रिचा से चिपटा ही रहता. वह जैसे ही उसे लेटाती, वह ज़ोर-ज़ोर से रोने लगता. एक घंटे बाद जब शुभम आता, तो सोफे पर पसर कर चाय का फरमान दे देता. तब रिचा को रोना आ जाता. आख़िर एक दिन चाय के आदेश पर उसके सब्र का प्याला छलक ही उठा. आशु को शुभम की गोदी में पटक कर बोली, “इसे संभालो, तब तो चाय बनाऊं!”
“कमाल है, तुमसे छोटा-सा घर नहीं संभाला जा रहा है. दूसरी औरतों को देखो, भरे-पूरे घर को संभालती हैं और उफ़ तक नहीं करती हैं.”
“मुझसे नहीं होगा. नौकरी करो, खाना बनाओ, बच्चा संभालो, दूसरे काम करो और तुम्हारे नखरे भी उठाओ. तुम क्या करते हो घर में?” साहस जुटाकर एक ही सांस में रिचा ने सब कुछ कह डाला.
“घर चलाने के लिए ही तो नौकरी कर रहा हूं, और क्या करूं!” शुभम के स्वर में आवेश था.
“स़िर्फ कमाई करना ही सब कुछ नहीं होता, घर के कामों में एक-दूसरे का साथ देना भी ज़रूरी होता है, लेकिन तुम नहीं समझोगे.”
“मुझे नहीं पता था कि तुम छोटी-छोटी बातों को लेकर विवाद पैदा करोगी. भूल की मैंने तुमसे विवाह करके.”
“तुम्हें पता ही नहीं है छोटी बातों का मूल्य. मैं भी जान गई हूं कि सब झूठे सपने दिखाए थे तुमने…पछता रही हूं!” कहते हुए रुआंसी हो गई रिचा. शुभम वहीं से बड़बड़ाया, “कुछ नहीं सूझा तो रोने का नाटक शुरू कर दिया.”
संबंधों में आई टूटन का नतीज़ा यह हुआ कि दोनों के बीच संवादहीनता का ऐसा परिवेश निर्मित हो गया, जो दोनों को अंदर ही अंदर खाए जा रहा था. रिचा जब अपनी सहेलियों से पति के कामों में हाथ बंटाने के क़िस्से सुनती, तो उसका दुख और बढ़ जाता था.
ऐसे ही एक रविवार की सुबह उसका मन जब ज़्यादा उदास हुआ, तो वह आशु को साथ में लेकर अपनी साथी शिक्षिका मालती के घर चली गई, मन को हल्का करने.
“अरे, आओ रिचा, सही समय पर आई हो. देखो, पतिदेव जी आज गोभी के परांठे बना रहे हैं.” मालती ने ख़ुशी से कहा.
मालती के पति राजेश्वर भी बोले, “मेरे हाथ के परांठे खाओगी, तो अपने परांठे भी भूल जाओगी… अरे, शुभम नहीं आया?” फिर उन्होंने तुरंत मोबाइल पर शुभम को अपनेपन से भरी डांट पिलाई, “कहां हो यार तुम? जल्दी आओ, मैं तुम्हारे लिए गर्मागम परांठे बना रहा हूं.” शुभम के आने पर राजेश्वर ने उसे फिर प्यारभरी खरी-खोटी सुनाई, “अजीब आदमी हो, तुम्हें तो रिचा के साथ आना चाहिए था.”
शुभम की समझ में नहीं आ रहा था कि क्या उत्तर दे. जब अपराधबोध प्रताड़ित करने लगता है, तो शब्द मौन हो ही जाते हैं. वह चुपचाप कुर्सी पर बैठ गया. उसे ये देखकर बड़ा अजीब लग रहा था कि राजेश्वर परांठे बना रहे हैं और वह भी ख़ूब रुचि के साथ.
“भाईसाहब, भाभीजी से भी कुछ मदद ले लीजिए.” रिचा ने ख़ामोशी को तोड़ते हुए कहा.
राजेश्वर कुछ कहते, उससे पहले ही मालती बोल पड़ीं, “अरे, मैं तो कह रही थी, लेकिन ये मानें तब ना! कह रहे हैं कि पत्नी की सेवा करके थोड़ा पुण्य हमें भी कमा लेने दो. मैंने भी सोचा, जब ये स्वयं ही पत्नी सेवा में लगे हैं, तो फिर मैं भी क्यों ना आराम से बैठूं.” फिर ज़ोर से हंसने लगीं.
राजेश्वर का व्यवहार देखकर शुभम के मन में हलचल होने लगी. उत्सुकता बढ़ने पर रहा नहीं गया, तो पूछ बैठा, “भाईसाहब, आप घर के सारे काम कर लेते हैं?”
“जी साहब, सारे काम. मिल-बांट कर काम करते हुए जीवन नैया चले, तो उसका आनंद ही कुछ और है.”
“शुभम को क्या बता रहे हो, तुमसे ज़्यादा काम करता होगा… कुछ सीखो उससे.” मालती ने राजेश्वर को सुई चुभो दी.
इस पर सभी हंस पड़े, लेकिन शुभम की हंसी में फीकापन था.
“नहीं भाभीजी, सच तो यह है कि मैं घर का कुछ भी काम नहीं करता हूं, सब रिचा ही करती है.” आत्मग्लानि से भरे शुभम के मुंह से सच्चाई निकल ही पड़ी.
“अरे यार, प्रेम संबंधों में अपनेपन का एहसास दिलाती छोटी-छोटी बातों का तड़का नहीं लगेगा, तो रोमांस में स्वाद कैसे आएगा. तुम्हारी तरह हम दोनों भी जॉब में हैं. बच्चे बाहर पढ़ रहे हैं. घर में दो ही प्राणी हैं. ऐसे में मिल-जुलकर काम नहीं करेंगे, तो फिर यह घर ही नहीं रहेगा, मकान बन जाएगा. सच बताऊं शुभम, आपस में छोटे-छोटे कामों में एक-दूसरे का हाथ बंटाने से जो ख़ुशी मिलती है, वह कहीं नहीं मिल सकती. है तो ये छोटी-सी बात, लेकिन इसका मूल्य बहुत बड़ा है. इसी से घर में प्रेम, रोमांस और आनंद बना रहता है.” राजेश्वर ने कहा और किचन की ओर बढ़ चले.
“मैं भी देखूं, कहीं परांठों का कबाड़ा न कर दें. आप बैठो, बस अभी आई.” कहती हुई मालती भी किचन में घुस गई.
राजेश्वर और मालती के व्यवहार से शुभम और रिचा को लगा, जैसे वे बहुत हल्के से हो गए हैं. संवादहीनता से उपजा भारीपन कहीं तिरोहित हो गया था. दोनों एक ऐसे नए संसार में प्रवेश कर गए थे, जहां कोई अंतर नहीं था, था तो बस अपनापन, प्रेम और रोमांस. शुभम के अंदर वर्चस्वता का भवन ढहता जा रहा था. मन में सवाल कौंधा- क्या, अकारण संवादहीनता को ओढ़कर घुटन भरे पलों को जीने का नाम ही जीवन है? उत्तर मिला- नहीं, बिल्कुल नहीं… उसे लगा, जैसे उसने रिचा के जीवन की ख़ुशियों का बहुत बड़ा हिस्सा छीन लिया है. इसका प्रायश्चित अपनेपन से उसका विश्वास जीतकर ही किया जा सकता है.
थोड़ी देर में ही चाय-परांठे का दौर शुरू हो गया. जाते समय मालती ने शुभम को छेड़ा, “शुभम, अगले रविवार को हम दोनों तुम्हारे घर आ रहे हैं, क्या खिलाओगे हमें?”
शुभम कुछ कहता, उससे पहलेे ही राजेश्वर बोल पड़े, “देखो, बाहर से तो कुछ लाना मत. बस घर में ही कुछ बना लेना… अरे भई, तुम पकौड़ियां बना लेना, मैं तो दीवाना हूं पकौड़ियों का… रिचा तुम इसे ट्रेंड कर देना.” इस पर सब ज़ोर से हंस पड़े.
“जी बिल्कुल मैं ही बनाऊंगा… और देखना, बहुत स्वादिष्ट बनाऊंगा.” इस बार शुभम ने खुलकर ठहाका लगाया.
घर पहुंचने पर रिचा गोदी में सो रहे आशु को बेड पर लेटा कर किचन की ओर बढ़ी ही थी कि शुभम उसे बांहों में उठाकर दूसरे कमरे में ले आया.
“मैडम जी, किचन को मैं देख लूंगा, पहले कुछ रोमांस तो हो जाए… बहुत दूर रह लीं, अब नहीं रह पाओगी.”
“रहना ही कौन चाहता है?” भावुकता के अतिरेक में रिचा की आंखें भर आईं.
“बहुत दुख दिया है मैंने… मेरी सोच ग़लत थी…देखो, तुम नौकरी छोड़ दो… मैं हर पल तुम्हारे साथ गुज़ारना चाहता हूं… मुझे माफ़…” शुभम इतना ही कह पाया, क्योंकि रिचा के होंठों ने उसके होंठ बंद कर दिए. फिर दोनों आलिंगनबद्ध होकर बेड पर गिर पड़े और प्रेमरस में डूब गए.
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