मनमोहन जी चाहते थे मोना यहीं रह जाए, लेकिन वह होममेड नहीं नर्स थी. उसके जाने के ख़्याल भर से बुढ़ापे का अकेलापन उनकी बेचैनी बढ़ा देता. जब तक मोना घर में रहती, यह बड़ी सी इमारत घर लगने लगती. शाम को उसके जाने के बाद यही घर भुतहा बंगला बन डराने को दौड़ता.
मनमोहन जी गंभीर बीमार हुए. विदेश में रह रहे बेटा-बहू अपनी व्यस्ताओं के कारण देखरेख हेतु आ ना सके, तो वहीं से देखभाल के लिए नर्स का इंतजाम कर दिया.
नर्स मोना 32 साल की सुशील, सभ्य और स्नेही महिला थी. वह सुबह सात बजे आती और शाम को सात बजे चली जाती. बेहद विनम्र और ज़िंदादिल महिला. पति कुछ साल पहले सड़क दुर्घटना में छोड़कर जा चुका था. घर में केवल बुज़ुर्ग सास-ससुर और एक दस साल की बेटी थी.
मनमोहन जी मोना के मृदु व्यवहार के क़ायल हो गए. ऐसा लगता था मानो क्रोध पर विजय पाई हो उसने.
मोना की स्नेह भरी देखभाल और दवाइयों के असर से मनमोहन जी की तबीयत में सुधार होने लगा था. बेटा प्रतिदिन शाम को वीडियो कॉल कर उनका हालचाल जान अपने उत्तरदायित्व की इतिश्री कर लेता था. जैसे-जैसे मनमोहन जी की तन की तबीयत सुधार में आ रही थी मन की तबीयत उदास होती जा रही थी. वजह थी स्वस्थ हो जाने के पश्चात उसी अकेलेपन को झेलना.
पिछले एक महीने से मोना ऐसे हिल-मिल गई थी जैसे उनकी अपनी ही बेटी हो. इतवार के दिन वह अपनी बेटी साध्वी को भी साथ ले आती थी. उसकी प्यारी-प्यारी भोली बातों से रविवार बड़ा सुकून भरा कटता था.
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मनमोहन जी चाहते थे मोना यहीं रह जाए, लेकिन वह होममेड नहीं नर्स थी. उसके जाने के ख़्याल भर से बुढ़ापे का अकेलापन उनकी बेचैनी बढ़ा देता. जब तक मोना घर में रहती, यह बड़ी सी इमारत घर लगने लगती. शाम को उसके जाने के बाद यही घर भुतहा बंगला बन डराने को दौड़ता.
खैर चाहने से क्या होता है…
वह दिन भी आ गया जिस दिन मोना का उस घर में अंतिम दिन था. मनमोहन जी पूर्णतः स्वस्थ हो चुके थे. देखभाल के ख़र्च और मोना के कार्य का भुगतान उनका बेटा ऑनलाइन कर चुका था.
सुबह से ही मनमोहन जी का दिल बड़ा भारी था. ऐसा महसूस हो रहा था जैसे अपनी बेटी को विदा कर रहे हो.
इतवार था सो साध्वी भी आई थी साथ. शनिवार को उसके लिए लाई ड्रेस, शू, खिलौने, मिठाई बड़े प्यार से उसे दुलार करते हुए थमाई. साध्वी यह सब लेने के लिए झिझकी और अपनी मम्मी की तरफ़ देखा. मम्मी की नज़रों की अनुमति मिलते ही उसने सब उत्साह से लपक कर अपनी छोटी सी गोद में समेट लिया.
उसे यूं चहकता देख मनमोहन जी बड़े खुश हुए फिर मोना की ओर देखकर एक थैला उसके हाथों में भी थमा दिया.
"इसमें क्या है अंकल जी?" मोना ने अपनी उसी चिर-परिचित कोमल आवाज़ में पूछा.
"तुम्हारे लिए सूट." मनमोहन जी ने मुस्कुराते हुए कहा.
"लेकिन अंकल जी इसकी क्या ज़रूरत थी…"
"साध्वी के लिए कितना कुछ ले आए आप और मैं अपने काम के पैसे भी ले चुकी." मोना ने प्रेम भरे शिकायती लहजे में कहा.
"ज़रूरत नहीं थी बेटा. यह तो बस एक बूढ़े पिता का अपनी बेटी के लिए स्नेह समझो तुम." कहते हुए मनमोहन जी ने आशीर्वाद भरा हाथ मोना के सिर पर फेरा.
यह देखकर मोना की पलकें भारी हो आईं.
सब सामान उठा दोनों मां-बेटी जाने को तैयार हुई, तो अचानक मोना ठहरी और मुड़कर मनमोहन जी को देखा. उनकी आंखों में आंसू थे.
पांच मिनट दोनों तरफ़ बिछोह की पीड़ा रिसती रही.
मोना मनमोहन जी के पास आई और उनके गले लग गई.
यह देख साध्वी भी ख़ुद को रोक न सकी और दौड़ कर उन दोनों को अपने नन्हें आगोश में लपेट लिया.
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यह शायद संसार का सर्वोत्तम सुंदर दृश्य था.
जब आंसू बहने से थक गए, तो मोना ने अपने पर्स से अपना कार्ड निकाला और मनमोहन जी को देते हुए कहा, "अंकल जी बीमार वृद्धों की देखभाल करना मेरा जॉब है. किसी हॉस्पिटल में नौकरी करने की बजाय अमीर अकेले बुज़ुर्गों की देखभाल कर अधिक पैसे कमा लेती हूं मैं.
इस नौकरी से मुझे दो फ़ायदे हुए हैं, एक तो पति के जाने के बाद मज़बूत आर्थिक संबल मिला और दूसरा आप जैसे बड़ों का भर-भर आशीर्वाद और प्रेम.
मेरे दामन में इतनी दुआएं हैं कि कभी कभी ख़ुद पर नाज होने लगता है. जितने भी अकेले वृद्धों की मैंने देखभाल की है, उनसे पारिवारिक रिश्ते बन गए हैं. सभी सुबह अपने-अपने ज़रूरी काम निपटा कर मेरे घर आ जाते हैं और आपस में ख़ूब हंसी-मज़ाक, बातें करके पूरा दिन बिता कर शाम को खाना खा कर जाते हैं. इससे मेरे बुज़ुर्ग हो चुके सास-ससुर को भी साथ मिल जाता है. सुबह मेरे ड्यूटी और साध्वी के स्कूल चले जाने के बाद वह भी अकेले रह जाते हैं. इस तरह सभी अकेले बुज़ुर्ग आपस में अपने सुख-दुख बांट कर अपना परिवार बनाए हुए हैं.
क्या आप भी इस परिवार का हिस्सा होना चाहेंगे?"
मनमोहन जी ने कार्ड हाथ में लिया और पुनः मोना को जी भर आशीर्वाद देते हुए कहा, "तुम कितनी नेक दिल इंसान हो बेटी!
तुम्हें जन्म देने वाले धन्य हैं, जिन्होंने सचमुच एक मनुष्य को जन्म दिया है. ज़रूर बनूंगा तुम्हारे परिवार का हिस्सा. ज़रूर…" कहते-कहते मनमोहन जी का गला रूंध आया.
"तुम्हारे नहीं हमारे परिवार का हिस्सा बोलो दद्दू और मम्मी तो रोज़ाना शाम को आती है, लेकिन मैं जल्दी आ जाती हूं. अटेंडेंस मैं ही लेती हूं सबकी."
साध्वी की इस बाल सुलभ बात ने तीनों के चेहरे पर प्यारी-सी मुस्कान ला दी और तीनों फिर से गले लग गए.
यह सचमुच संसार का सबसे सुंदर पल था.
कुछ नेह से अधूरे लोग अपने स्नेह से एक-दूसरे के जीवन में प्रेम ख़ुशियों को भर रहे थे.
यह सचमुच एक पूरा, भरा-पूरा परिवार था.
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