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कहानी- उपहार (Story- Uphaar)

 

नींद तो आज नहीं आएगी. मन बंजारा हो जाना चाहता है. सोचना नहीं चाहते, पर सोच रहे हैं कि सुभागी क्या कर रही होगी? सो गई होगी? डर नहीं रही होगी, वह अकेली और घर में अंधेरा, एकांत, एक पुरुष की मौजूदगी? बच्चा क्या सो गया?
मानव मनोविज्ञान विचित्र होता है.
वर्जनाएं लुभाती हैं.
एकांत… अंधेरा… अंधड़… सुभागी… मिलकर मन को डांवाडोल कर रहे हैं, लेकिन यह ख़्याल अच्छा लग रहा है कि किसी कमरे के किसी कोने में एक रमणी मौजूद है.

 

 

उस दिन उन्होंने जोख़िम भरे करतबों को मनोरंजन की दृष्टि से नहीं, भूख से जोड़कर देखा था. पेट के लिए लोग जान जोख़िम में डालते हैं और बदले में उतना नहीं पाते, जिससे इनकी आवश्यकता पूरी हो. वे करुण हो रहे थे शायद इसीलिए जब सुभागी घाघरा मटकाती बख़्शीश के लिए आई, तो उन्होंने सौ रुपए उत्साहित होकर दिए थे. अनुमान से अधिक बख़्शीश देखकर वह बड़ी अदा से हंसी थी. आज इस अंधड़-पानी में इन लोगों का पता नहीं क्या हाल होगा. इंद्र देव लगता है ज़िद पर आ गए हैं. पता नहीं किसका छप्पर उड़ा होगा, किसका घर ढहा होगा, पशु-पक्षी मरे होंगे, लोग भी… ये बंजारे क्या सुरक्षित होंगे?…

मजिस्ट्रेट मधुर मिश्रा आदिवासी क्षेत्र की इस तहसील में प्रथम नियुक्ति पर आए हैं. उन्हें लगता है कि यहां आकर वे परेशानियों से घिर गए हैं. पिछड़ेपन, अशिक्षा, अज्ञानता के साथ-साथ गवाहों से परेशानी अलग. क्या गवाही देते हैं, कठिनाई से समझ में आता है. साथ ही सबसे बड़ी परेशानी है यहां की मूसलाधार बारिश. सुबह तेज़ धूप थी, दोपहर में बादल, शाम को हवा ने वेग पकड़ा, रात तक झमाझम बरसात. उस पर बिजली गुल, क्रुद्ध मौसम के आसार परख अर्दली बैजू खाना बनाकर शाम को ही घर जा चुका है. मधुर की पत्नी निष्ठा प्रथम प्रसव के लिए इन दिनों मां के पास है, अतः खाना बैजू बनाता है.

 


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मधुर को निष्ठा की याद आई. वो होती तो मिलकर अंधेरे और अंधड़ का सामना कर लेते. बगल में रहनेवाले बी.डी.ओ. ख़ान इस समय पिता के निधन पर सपरिवार कामटी गए हैं, वरना उनसे बातचीत कर कुछ संबल मिलता. ख़ान साहब रात की चौकसी के लिए अर्दली को रख गए हैं, जो शाम से शराब पीकर असुर नींद में डूब जाता है. मधुर को लगा इस तरह अकेले वे अब तक न हुए थे.
बस्ती से दूर अंग्रेज़ों के समय का यह विशाल बंगला है, जिसके एक हिस्से में मधुर रहते हैं, दूसरे हिस्से में ख़ान. बंगले के सामनेवाली दालान, जिसमें दोनों हिस्सों के प्रवेशद्वार खुलते हैं, बहुत बड़ी और कॉमन है. बंगले के सामने विशाल मैदान है, जिसमें वसंत पंचमी का मेला लगता है. इधर एक-डेढ़ माह से एक ख़ानाबदोश परिवार इस मैदान में ठहरा हुआ है. परिवार का मुखिया बूढ़ा टेकराम मधुर के बंगले के आंगन में उन्नत खड़े पीपल के पेड़ से बकरी के लिए पत्तियां ले जाता है.
मधुर को इन ख़ानाबदोश का ख़्याल आया. इस अंधड़-पानी से कैसे जूझ रहे होंगे? वे दालान में खुलनेवाली खिड़की पर आकर टोह लेने लगे. दोनों तंबू अंधेरे में गुम. बड़े तंबू में टेकराम, उसकी पत्नी, एक बेटी और छोटा बेटा रहता है. छोटे तंबू में टेकराम का बड़ा बेटा हेतराम उसकी 18-19 साल की पत्नी सुभागी और 6-8 माह का बच्चा रहता है. हेतराम, सुभागी से छोटा, बल्कि सुनहरी मूंछें और सामने के एक आधे टूटे दांत के कारण ग़ुलाम की तरह लगता है. बैजू बताता है, “नहीं हुज़ूर, वो सुभागी से बड़ा है. उसकी क़द-काठी मुलायम है, इसलिए छोटा लगता है. ये लोग हर साल यहां आते हैं. एक-दो महीना ठहरकर जाते हैं. पास में तालाब है, इतना बड़ा मैदान है, जगह इनको अच्छी लगती है. इनके खच्चरों को भी.”
मधुर हंस देते हैं, “खच्चर.”
“हां हुज़ूर, जब टेकराम यहां से जाएगा, तब देखिएगा वो अपनी पूरी दुनिया दो खच्चरों पर लाद लेगा.” कचहरी जाते हुए मधुर को ख़ानाबदोश परिवार का कोई न कोई सदस्य तालाब के आस-पास मिल जाता है. कभी टेकराम खच्चरों को पानी पिलाता है, कभी उसकी बुढ़िया कुछ धोती-पछारती है, कभी सिर पर मिट्टी का घड़ा रखे हुए सुभागी उन्हें देखकर मुस्कुरा देती है, मधुर झिझककर मुंह फेर लेते हैं. बैजू आगे बताता है, “ये लोग पता नहीं क्या-क्या करते हैं. बच्चे चुराते हैं, कपड़ा-बर्तन चुराते हैं, कभी करतब दिखाएंगे, कभी गंडा-तावीज़, बाल काले करने की दवा, नामर्दी और बांझपन की दवा, कभी हंसिया-खुरपी बेचते हैं…”
मधुर को याद आया कि रविवार को इन लोगों ने करतब दिखाए थे. ख़ान और मधुर के परिवार के लिए बंगले से लाकर मैदान में कुर्सियां सजा दी गई थीं. दो बांसों के बीच ख़ूब तानकर बांधी गई रस्सी पर टेकराम की लड़की चल रही थी. टेकराम और हेतराम ढोलक-ताशा बजाते हुए मुंह से जोश भरी आवाज़ें निकाल रहे थे. छोटा लड़का पलटियां खा रहा था. टेकराम ने बताया था कि ढोलक-ताशा बजाकर, ध्वनियां निकाल, पलटियां खाकर कलाकारों में जोश-उत्साह, निर्भयता और स्फूर्ति भरी जाती है. वातावरण बनाया जाता है.

 

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फिर हेतराम बीस फीट ऊंचे लकड़ी के खंभे के अंतिम सिरे पर जा चढ़ा था और सिरे पर पेट के बल लेटकर चकरी की तरह घूमने लगा था. हवाई ऊंचाई में घूमते हेतराम को सुभागी सांस रोककर देख रही थी. मधुर का ध्यान अनायास सुभागी की ओर चला गया था. सुभागी सुंदर है. हेतराम मवाली था. फिर हेतराम और पलटियां खानेवाले छोटे लड़के ने आग के छल्ले से आर-पार कूदकर दिखाया था. मधुर विस्मित थे. इनमें इतना दैहिक संतुलन और आत्मविश्‍वास कहां से आता है? कहां से आती है जुझारू वृत्ति और श्रमशीलता?
उस दिन उन्होंने जोख़िम भरे करतबों को मनोरंजन की दृष्टि से नहीं, भूख से जोड़कर देखा था. पेट के लिए लोग जान जोख़िम में डालते हैं और बदले में उतना नहीं पाते, जिससे इनकी आवश्यकता पूरी हो. वे करुण हो रहे थे शायद इसीलिए जब सुभागी घाघरा मटकाती बख़्शीश के लिए आई, तो उन्होंने सौ रुपए उत्साहित होकर दिए थे. अनुमान से अधिक बख़्शीश देखकर वह बड़ी अदा से हंसी थी.
आज इस अंधड़-पानी में इन लोगों का पता नहीं क्या हाल होगा. इंद्र देव लगता है ज़िद पर आ गए हैं. पता नहीं किसका छप्पर उड़ा होगा, किसका घर ढहा होगा, पशु-पक्षी मरे होंगे, लोग भी… ये बंजारे क्या सुरक्षित होंगे?… बकरी मिमियाने का स्वर उभरा. क्या टेकराम की बकरी है? बचाव के लिए दालान में चली आई.
मधुर ने बिस्तर में रखी टॉर्च उठाई और खिड़की से रोशनी दालान में फेंककर बकरी को पुचकारा. बकरी को अवलंबन का बोध हुआ. उसने मिमियाकर पुचकार का उत्तर दिया. तेज़ तिरछी बौछार से दालान गीला हो चुका था. बकरी एक कोने का सहारा लिए खड़ी थी. बकरी का यह हाल है, तो उन ख़ानाबदोशों का क्या हाल होगा?
उन्होंने तंबू की दिशा में टॉर्च की रोशनी डाली, जो वहां तक पहुंचने में सक्षम न हुई. सहसा बिजली कौंधी. मधुर ने देखा छोटा तंबू धराशायी हो चुका है और बड़े तंबू के खूंटे-रस्से हवा के प्रचंड वेग से अस्तित्व खो रहे हैं. तो जल्दी ही यह भी? क्या करना चाहिए? क्या टेकराम को आवाज़ दें कि एक कमरा खोल देता हूं रातभर को रह लो? पर पानी-हवा के शोर में आवाज़ उस तक नहीं पहुंचेगी. अंधेरे में कुछ सूझ नहीं रहा है और पानी बहुत तेज़ है. वहां जाकर इन्हें बुलाया नहीं जा सकता. कुछ नहीं हो सकता.
खिड़की बंदकर मधुर बिस्तर पर लेट गए. झपकी आने ही लगी थी कि लगा कोई दरवाज़े पर दस्तक दे रहा है. बकरी ने धक्का दिया है या…
“बाबू, दरवाज़ा खोलो. मेरा बच्चा पानी में मर जाएगा…”
ये तो सुभागी है.
मधुर ने बिना सोचे-विचारे दरवाज़ा खोल दिया. बच्चे को गुदड़ी में लपेटे हुए सुभागी बिना अनुमति के भीतर घुस आई.
“तुम?” टॉर्च के फोकस से सुभागी की आंखें तेज़ प्रकाश से झपक गईं.
उसके बाल कंधों पर फैले हुए थे. वो सिर पर हरदम कपड़ा बांधकर रखती थी, जो गीला हो गया था और उसने उतार दिया था.
मधुर पहली बार सुभागी को समीप से देख रहे थे.
“क्या है? टेकराम कहां है?”
“दिन में सब लोग लोहरउरा (देहात) के बुधवारी हाट में सामान बेचने गए. अब तक पता नहीं. बच्चे को बुख़ार है. दोनों तंबू गिर गए. बाबू हम कहां जाएं?”
क्या करें? अकेली स्त्री को रखना ठीक होगा? चोरी करे, उन पर मोहिनी डाले, इज़्ज़त ख़राब करने जैसा झूठा आरोप लगाकर पैसे ऐंठे… इस जगह की परेशानियां ख़त्म क्यों नहीं होतीं?
सुभागी ने मानो उनकी दुविधा भांप ली, “हम बकरी के पास ओसारे में रह जाते, पर बाबू ओसारा गीला है.” वे साहसविहीन हो गए, मानो उनका चीरहरण किया जाना है. अकेली स्त्री, बच्चे को बुख़ार. इसे आश्रय न देना निष्ठुरता होगी.
“आ इधर.”
टॉर्च के प्रकाश में मार्ग प्रशस्त करते हुए मधुर ने सुभागी को अतिथिकक्ष में पहुंचा दिया. यहां बिस्तर के अलावा कुछ नहीं है. बिस्तर तो चुरा न ले जाएगी? अब ये जाने और इसका बच्चा. वे सुभागी को अंधेरे के हवाले कर शयनकक्ष में आ गए. सोने की कोशिश करने लगे. बच्चे का रोना व्यवधान दे रहा था. यह ख़ानाबदोश युवती आज रात्रि जागरण कराएगी.
उन्हें याद आया, जब वे कचहरी चले जाते थे, तब सुभागी कभी-कभी निष्ठा के पास आ जाती थी. निष्ठा बताने लगती, “सुभागी मस्त लड़की है. कहती है, उसके पास बाल काले व घने करने की दवा है. नामर्दी और बांझपन को दूर करने, गोरा बनाने, दाद-खाज आदि की दवा है. उसकी सास पहाड़ से जड़ी-बूटी ढ़ू़ंढकर लाती हैं और कूट-छानकर दवा बनाती हैं. उसके पास ऐसे अभिमंत्रित गंडे-तावीज़ हैं कि पहन लो, तो कोई जंतर-मंतर, टोना-टोटका, भूत-प्रेत असर नहीं डाल पाते… जानते हो मधुर, सुभागी कहती है वह इतनी सुंदर है कि उसके दल के कई लड़के उससे शादी करना चाहते थे. पर उसे हेतराम अच्छा लगता था. हैसियत अच्छी है. अपने खच्चर, बकरी, लोहे के औजार बनाने और करतब दिखाने का हुनर. और क्या चाहिए? हे भगवान! इसकी ज़रूरतें कितनी कम हैं. कहती है कि उसे ये खुला मैदान और तालाब इतना अच्छा लगता है कि यहीं बस जाना चाहती है. पर एक जगह रहकर धंधा नहीं होता…”
मधुर इन बातों को अनसुना कर देते थे, पर आज सुभागी की उपस्थिति को अनदेखा नहीं कर पा रहे थे. मानव मनोविज्ञान विचित्र होता है. चाह रहे थे कि सो जाएं, पर सुभागी की उपस्थिति से मुक्त नहीं हो पा रहे थे. बच्चा अब भी रो रहा है. उसे बुख़ार है. कपड़े गीले होंगे, गीले कपड़े बुख़ार बढ़ा देंगे, वे उठे. पुराना तौलिया ढूंढ़ा.
“सुभागी.”
“हां बाबू.”
“ले तौलिया. बच्चे के कपड़े गीले होंगे. उसे इसमें लपेट ले.”
“हां बाबू. बोरा फट्टा हो, तो दो. बिछाकर पड़ी रहूंगी.”
लड़की सभ्य है. बिस्तर पर नहीं बैठी. बैठ जाती तो आपत्ति न कर पाते.
सुभागी को दरी दे अपने कमरे में आ गए. याद आया कपड़े सुभागी के भी गीले होंगे, पर बार-बार उसके पास जाना अशोभनीय लगेगा. निष्ठा की साड़िया रखी हैं, पर कुर्ती-घाघरा पहननेवाली साड़ी का प्रयोग क्या जाने. ठीक है. शरण दे दी है, इतना ही अधिक सहानभूति पाकर मोहिनी न डालने लगे. क्या ये घुमन्तू स्त्रियां सचमुच मोहनी डालती हैं? आदमी को वश में करने की दवा है इनके पास? उ़फ्! नींद तो आज नहीं आएगी. जबकि नींद आनी चाहिए. कल व़क्त पर कचहरी पहुंचना होगा.
उन्हें लग रहा है नोटिस नहीं ली, पर वे इस ख़ानाबदोश परिवार पर ध्यान देते रहे हैं. जब से निष्ठा गई है, इनकी गतिविधियां देखना मनोरंजन का साधन बना हुआ है. सुभागी कपड़े का झूला बना, उसमें बच्चे को सुला देती है. दिनभर के काम के बाद मैदान में छिटकी हुक्का गुड़गुड़ाता रहता है. पूरा परिवार मिलकर गरम लोहे को खुरपी, हंसिया, कुल्हाड़ी की शक्ल देता है.
हेतराम बच्चे को हवा में उछालता है, जैसे उसमें जोश भर रहा हो.
सुभागी हिण्डोलियम के बर्तनों में भोजन बनाती है. कभी-कभी हेतराम सुभागी को पीट देता है. वह ऊंचे स्वर में रोती है, पर ग़ुलाम-सा दिखनेवाला हेतराम सुभागी जैसी सुंदर ख़ानाबदोश युवती को क्यों पीटता है? नींद तो आज नहीं आएगी. मन बंजारा हो जाना चाहता है. सोचना नहीं चाहते, पर सोच रहे हैं कि सुभागी क्या कर रही होगी? सो गई होगी? डर नहीं रही होगी, वह अकेली और घर में अंधेरा, एकांत, एक पुरुष की मौजूदगी? बच्चा क्या सो गया?
मानव मनोविज्ञान विचित्र होता है.
वर्जनाएं लुभाती हैं.
एकांत… अंधेरा… अंधड़… सुभागी… मिलकर मन को डांवाडोल कर रहे हैं, लेकिन यह ख़्याल अच्छा लग रहा है कि किसी कमरे के किसी कोने में एक रमणी मौजूद है. उन्होंने सुभागी को ध्यानपूर्वक नहीं देखा था, फिर भी याद रह गया कि उसके चिबुक पर तीन बुंदकियां गुदी हुई हैं, जो उसकी सुंदरता को बढ़ाती हैं. लंबे-घने काले बाल, भीगी देह, थका, उदास-पस्त मासूम चेहरा.
अचरज पर उन्हें लगा कि वे सुभागी की कामना पता नहीं कब से कर रहे हैं. जब से देखा है तब से, निष्ठा गई है तब से, सदियों से, ठीक इसी क्षण से…
वे अपने भीतर साहस भरने लगे. कोई ढोलक-ताशा बजाकर उनमें जोश और स्फूर्ति भर दे. सौ-पचास थमा देंगे बच्चे को. डॉक्टर को दिखाकर दवा दिला देंगे. ख़ुश हो जाएगी. मौक़ा है फिर न होगा. मधुर उठे, पैरों में कंपन. अपने ही घर में चोरों-सी सतर्कता से चलते हुए शर्म आई, पर वे नहीं रुके. सुभागी ने दरवाज़ा बोल्ट न कर लिया हो. दरवाज़ा खुला था. तंबू में रहनेवाली दरवाज़े और सिटकनी का प्रयोग क्या जाने? क्या पता जान-बूझकर खुला छोड़ दिया हो? वही… मोहिनी डालने की कोशिश. दरवाज़े पर ठिठके खड़े मधुर भीतर की गतिविधियों का अनुमान लगाने लगे… बच्चा कुनमुनाया और सुभागी का लाचार स्वर उन तक पहुंचा.
“जानती हूं तू भूखा है. मुझे न दूध मिलता है, न अच्छा खाना. तेरा पेट कैसे भरूं…?
तो बच्चा सोया नहीं है. इच्छा हुई बिलौटे को उठाकर फेंक दें. वैसे बच्चे की कुशलक्षेम के बहाने बात कर सकते हैं. कुछ कहना चाहा तो कंठ रुद्ध हो गया. अंगूठे के दबाव से टॉर्च प्रकाशमान हो गया. देखा सुभागी दरी पर पलथी मारे बैठी थी. बच्चा जोंक की तरह चिपका हुआ दूध पी रहा है. दूध की आपूर्ति नहीं हो रही है, इसीलिए ग़ुस्से में जबड़े भींचकर कुनमुना रहा है.
सुभागी प्रकाश के हमले से अचकचा गई. मधुर ने झटके से टॉर्च ऑफ कर दी. क्या करें? यहां आने का क्या कारण बताएं?
“बच्चा भूखा है सुभागी?” नहीं जानते कैसे बोल पाए.
“हां बाबू, पानी के कारण चूल्हा नहीं जला, दाल ही बनाकर पिला देती…”


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वे सुभागी को बच्चे से अलग कर दें. यह इस समय स्त्री नहीं मां है. स़िर्फ मां. लाचार मां, जो अपने बच्चे की भूख शांत नहीं कर पा रही है. इस व़क्त यह ममता में इतना डूबी है कि इसका स्पर्श करने का साहस उनमें नहीं है… इच्छा भी नहीं. वे सन्नाटे में कुछ क्षण खड़े रहे, फिर अपने कमरे में लौट आए. दिल पूरी क्षमता से धड़क कर बैठने को था. दिल पर हाथ रखे हुए बिस्तर पर बैठ गए. न जाने क्यों निष्ठा का ख़्याल आ गया. किसी भी दिन शुभ समाचार आ सकता है. सुभागी दूध पीते बच्चे की मां है. निष्ठा मां बननेवाली है. निष्ठा स्वस्थ शिशु को जन्म दे, इसलिए कितने उपाय किए गए हैं. निष्ठा पौष्टिक खाना खाए, सीढ़ियां न चढ़े, गिरने-पड़ने से बचे, तनावग्रस्त न रहे, ज्ञानवर्द्धक पुस्तकें पढ़े, ताकि गर्भस्थ शिशु पर सकारात्मक प्रभाव पड़े और स्वस्थ, सुंदर व बुद्धिमान शिशु जन्मे. सुभागी इसके पास कुछ नहीं है. यह अपने बच्चे को ममता के अलावा कुछ नहीं दे सकती. इसे ममता के दायरे से खींचकर अपनी कामना की पूर्ति करना अमानवीय चेष्ठा होगी.
ओह…!
मधुर मानो पूरी तरह चेत में आ गए. उन्होंने पाया वे दूध में शक्कर घोल रहे हैं.
“सुभागी दूध लाया हूं. बच्चे को पिला दे. बचे तो तू पी जाना. तू दूध पीते बच्चे की मां है, तुझे दूध की ज़रूरत है.”
टॉर्च के चमकीले वृत्त में कैद सुंदर डबडबाई आंखें कृतज्ञता से निहार रही थीं.
“ले कटोरा और चम्मच.” झपट लिया, “यहां आने में डरी थी बाबू. बच्चे के कारण आई. तुम आसरा न देते तो बच्चा मर जाता… बाबू, तुम भले आदमी हो. बेटे का मुंह देखो.”
ओह! क्या करने जा रहे थे? बच्चे की प्राण रक्षा के लिए अंधेरी रात में यह निपट अकेली लड़की पनाह मांगने आई है और वे पनाह देने की मूल्य वसूली… ओह…!
दूसरे दिन मधुर कचहरी से लौटकर चाय पी रहे थे, तभी टेकराम आ गया. उसके हाथ में बहुत बड़ा तरबूज था. तरबूज को उनके पास रखकर कोहनी तक हाथ जोड़ अभिवादन करते हुए बोला, “हुज़ूर, कल हवा-पानी. नदी-नाला बह रहे थे. उसमें फंसे रहे. आज लौटे. सुभागी बताई तंबू पसर गए थे. आप आसरा दिए. बच्चा मर जाता हुज़ूर. हाट से लाया हुज़ूर आपके लिए.”
“नहीं…पर…”
“दिल न तोड़ें हुज़ूर.”
मधुर समझ गए टेकराम अपने परिवार के लिए तरबूज लाया होगा. सुभागी ने पनाह देने की बात कही होगी. उपकार के बदले उपहार देने को कुछ न रहा होगा, तो तरबूज भेंट कर रहा है. ओह! संस्कार और सभ्यता इनमें भी है. विनय और सामाजिकता है. अनुग्रह और आग्रह है. सुभागी ने न चोरी की, न मोहिनी डाली, न ही इज़्ज़त ख़राब करने जैसा आरोप लगा भयादोहन किया. उन्होंने प्रणाम कर लौट रहे टेकराम को पुकारा, “टेकराम, मैं बैजू से तरबूज कटवा रहा हूं. बच्चों को भेज दें. हम लोग मिलकर खाएंगे.

सुषमा मुनीन्द्र

 

 

 

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