“हर उम्र की अपनी एक सोच होती है. ग़लत कुछ भी नहीं है. ग़लत सिर्फ़ यह है कि उम्र के उस दौर से गुज़रने के पश्चात् हम अपने एहसास को भूल जाते हैं. भूल जाते हैं कि कभी हमारी भी यही सोच थी, यही चाहतें थीं, यही उमंगें थीं. वक़्त गुज़र जाता है और हम अपने बच्चों की भावनाओं को न समझने की भूल कर बैठते हैं…"
संध्या अपने बेटे विनीत और बहू प्रिया के साथ फिल्म देखकर घर लौटी, तो बहुत ख़ुश थी. उस दिन शनिवार था. बेटे-बहू की छुट्टी थी. दोपहर में उसने अपने हाथों से बेटे-बहू की पसंद का लंच तैयार किया था. विनीत फिल्म की टिकट ले आया था. शाम को तीनों फिल्म देखने गए और रात का खाना भी बाहर ही खाया. फिल्म बहुत अच्छी थी. रास्तेभर कार में तीनों फिल्म पर चर्चा करते रहे. संध्या को लगा, प्रिया कुछ चुप-चुप-सी थी. उसने कारण जानना चाहा तो प्रिया ने कहा, “कुछ ख़ास नहीं मम्मी. बस, थोड़ा सिरदर्द है.”
अगले दिन रविवार था, सो प्रिया और विनीत देर तक सोते रहे. आदत के मुताबिक संध्या जल्दी उठ गई. चाय पीकर उसने रात में भिगोई दाल पीस ली और झटपट दही वड़े बना लिए. शाम को घर में पार्टी थी. विनीत और प्रिया के कलीग्स आनेवाले थे. जब भी बेटे-बहू के कलीग्स घर में आते हैं, संध्या का वो दिन बहुत अच्छा कटता है. वो देर तक उनसे बातें करती. नौ बजनेवाले थे. पर्स उठाकर वह दूध लेने चली गई. सोसायटी के गेट के बाहर ही दुकान थी. दूध लेकर वो वापस लौटी, तो उसे लगा विनीत और प्रिया जाग चुके हैं. वो उनके कमरे की ओर बढ़ी, तभी प्रिया की आवाज़ उसके कानों में पड़ी. वह विनीत से कह रही थी, “मम्मी को यहां आए एक साल हो चुका है. जब से मम्मी यहां आई हैं, क्या हम लोग कभी भी अकेले कहीं गए हैं? हर वक़्त, हर जगह मम्मी साथ होती हैं. क्या मेरा मन नहीं करता, कभी बस मैं और तुम..?”
“कैसी बातें करती हो प्रिया? तुम जानती हो, पापा के जाने के बाद मम्मी कितनी टूट गई थीं. अभी तो वो ज़रा संभली हैं और तुम ऐसी बातें कर रही हो.”
“प्लीज़ विनीत, मुझे ग़लत मत समझो. मुझे मम्मी के दुख का एहसास है, तभी तो मैंने इतने दिनों से तुमसे कुछ नहीं कहा. साथ ही मैं यह भी मानती हूं कि जितना मम्मी मेरा ख़्याल रखती हैं, उतना कोई सास नहीं रख सकती. लेकिन विनीत, तुम ये क्यों नहीं समझते कि हमें भी प्राइवेसी की ज़रूरत है. रिश्ते में कुछ बैलेंस तो तुम्हें रखना ही चाहिए.”
“अब मैं भी क्या करूं प्रिया? मम्मी का कोई सर्कल भी तो नहीं है, जिसमें वो बिज़ी रह सकें.”
“अपना सर्कल वो बनाना ही कब चाहती हैं? हमारी सोसायटी की कितनी बुज़ुर्ग महिलाएं सुबह-शाम पार्क में आकर बैठती हैं, मम्मी चाहें, तो उनसे मेलजोल बढ़ा सकती हैं. लेकिन वो अकेले कहीं जाना ही नहीं चाहतीं.”
“धीरे बोलो प्रिया, मम्मी कहीं सुन न लें.”
“मम्मी दूध लेने गई हैं.” प्रिया निश्चिंतता से बोली. संध्या को लगा, पूरा घर जैसे घूम रहा है. उसने दीवार का सहारा न लिया होता, तो शायद चक्कर खाकर गिर ही पड़ती. लड़खड़ाती हुई वो बाथरूम में चली गई और दरवाज़ा बंद करके नल खोल दिया, ताकि पानी के शोर में कोई उसका रुदन सुन न सके.
आज तक उसे लगता था, बच्चे उसके सान्निध्य में ख़ुश हैं. लेकिन आज पता चला कि उसे साथ रखना उनकी विवशता है. तो क्या प्रिया का उससे स्नेह रखना, उसकी ज़रूरतों का ख़याल रखना, ये सब दिखावा है? इसमें लेशमात्र भी सच्चाई नहीं. उसे लगता था विनीत और प्रिया के साथ उसका शेष जीवन आराम से कट जाएगा, पर नियति हमेशा से ही उसके साथ अजीब खेल खेलती रही है. वो सोचती कुछ है और होता कुछ और है. पता नहीं क्या लिखा है उसके हाथ की इन आड़ी-तिरछी लकीरों में कि सुख हमेशा उससे दो कदम आगे चलता है.
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जतिन का उसे यूं असमय छोड़कर चले जाना इस बात का प्रमाण है कि उसकी क़िस्मत में सुख है ही नहीं. जतिन जब तक नौकरी में थे, बेहद व्यस्त रहते थे. उनके साथ वक़्त गुज़ारने की, अपने सभी अधूरे अरमान पूरे करने की ख़्वाहिश लिए वह उनके रिटायरमेंट की प्रतीक्षा कर रही थी. जतिन रिटायर हुए, पर अधिक दिनों तक संध्या का साथ न निभा सके. दो माह बाद ही मौत के क्रूर हाथों ने उन्हें उससे छीन लिया. स्तब्ध-सी संध्या फटी-फटी आंखों से बस देखती रह गई थी.
कब पूना से विनीत और प्रिया आए, कब जतिन का अंतिम संस्कार हुआ, उसे कुछ पता नहीं चला. होश तो तब आया, जब सब कुछ समाप्त हो चुका था. रिश्तेदार जा चुके थे. विनीत और प्रिया ने उसे अपने साथ पूना ले जाना चाहा, लेकिन वह नहीं मानी. पिछले बीस वर्षों से वह उस घर में रह रही थी. वहां की आबोहवा में जतिन की सांसें रची-बसी हुई थीं. कितनी यादें जुड़ी हुई थीं उस घर के साथ. इन्हीं यादों के सहारे वो अपना शेष जीवन गुज़ारना चाहती थी, पर अकेले रहना इतना सहज भी नहीं था.
सूना घर उसे काट खाने को दौड़ता. अकेले के लिए खाना बनाने की भी उसकी इच्छा नहीं होती थी.
उधर मां की चिंता में विनीत भी अपने काम पर ध्यान नहीं दे पा रहा था. कुछ दिनों में ही वह बीमार पड़ गई, तब विनीत और प्रिया ने उसकी एक नहीं सुनी.
महीनेभर में उन्होंने दिल्लीवाले घर को बेचा और उसे अपने साथ पूना ले आए. कुछ माह तक तो यहां पर भी उसका मन उचाट ही रहा. बेटा-बहू दोनों इंजीनियर थे. सुबह ऑफिस के लिए निकलते, तो शाम तक घर आते थे. सारा दिन वह अकेली पड़ी बोर हो जाती थी.
प्रिया ने कई बार कहा भी कि वह आसपासवालों से मेलजोल बढ़ाए, सुबह-शाम घूमने जाया करे, किंतु उसका दिल ही नहीं करता था अकेले कहीं जाने का. अपनी ओर से तो विनीत और प्रिया मां को प्रसन्न रखने का भरसक प्रयास करते. प्रिया उनके लिए पत्रिकाएं लाकर रखती. शनिवार या रविवार को तीनों कभी फिल्म, तो कभी कहीं घूमने निकल जाते. अब तो उनके कलीग्स भी संध्या से काफ़ी घुल-मिल गए थे. कुल मिलाकर नए माहौल में वह रच-बस गई थी. ज़िंदगी की गाड़ी एक बार पुनः पटरी पर आ गई थी. बेटे-बहू के घर में वो सुख का अनुभव करने लगी थी, किंतु आज प्रिया के एक ही वाक्य ने उसके शांत हो चले जीवन में हलचल मचा दी थी. काश! जो कुछ भी उसने सुना, वो सच न होता. उसका मन विरक्ति से भर उठा. दुनिया में कुछ भी अपना नहीं है. नाते-रिश्ते सभी स्वार्थ की बुनियाद पर टिके हुए हैं.
अच्छा ही हुआ, जो उसका भ्रम टूट गया. कम से कम अब स्वयं को बेटे-बहू पर थोपेगी तो नहीं. न जाने कब तक वो विचारों के ताने-बाने में खोई रहती कि प्रिया ने दरवाज़ा खटखटाया. उसने आंसू पोंछे, मुंह धोया और दरवाज़ा खोल दिया.
“ओह मम्मी, मैंने कितनी आवाज़ें दीं आपको. जल्दी से आइए, मैंने आपकी पसंद की खस्ता कचौरी मंगवाई है.” बोलते-बोलते यकायक रुक गई प्रिया. गौर से उसका चेहरा देखते हुए बोली, “मम्मी, आपकी तबियत ख़राब है क्या? आंखें लाल हो रही हैं.” उसकी बात को अनसुना करती हुई, वो अपने कमरे में चली गई. बुद्धि तो कह रही थी, उसे अपना व्यवहार सामान्य रखना चाहिए, ताकि बेटे-बहू को पता न चल सके कि उसने उनकी बातें सुन ली हैं, लेकिन मन साथ नहीं दे रहा था. यहां तक कि खाना भी वो ठीक से नहीं खा पाई.
सारा दिन अनमनी-सी रही. रह-रहकर जतिन याद आते रहे. काश! वो आज होते तो उसे यूं बेटे-बहू पर आश्रित न रहना पड़ता. शाम के छह बजनेवाले थे. मन में विचार कौंधा, फिल्म साथ जाने में प्रिया को ऐतराज़ है. हो सकता है उसका यूं उनके मित्रों के बीच बैठना भी उसे नागवार लगता हो. विनीत के कमरे में जाकर उसने कहा, “बेटे, कॉलोनी की एक परिचित महिला के साथ मैं घूमने जा रही हूं. देर से लौटूंगी. तुम लोग खाना खा लेना.”
“लेकिन मम्मी, आज अचानक? किसके साथ जा रही हो?” विनीत को आश्चर्य हुआ. संध्या की ओर से कोई जवाब न पाकर वो बोला, “मम्मी, कुछ देर में सभी मित्र आ जाएंगे. आप नहीं होंगी, तो किसी को अच्छा नहीं लगेगा.”
“तुम दोनों तो हो, एंजॉय करना.” कहते हुए वो कमरे से बाहर निकल गई. विनीत और प्रिया का चेहरा उतर गया. इतना तो वे दोनों भी समझ गए थे कि हो न हो मम्मी ने सुबह उनकी बातें अवश्य सुन ली हैं, तभी आज इतनी ख़ामोश और बदली-बदली लग रही हैं… और संध्या, उसका मन तो बेहद बेचैन था. घर से तो निकल आई थी, अब कहां जाए, क्या करे, कुछ समझ नहीं आ रहा था. बस, निरुद्देश्य सड़क पर चलती जा रही थी. उसके कदमों से भी तेज़ गति थी मस्तिष्क में उठ रहे विचारों के तूफ़ान की. कुछ तो उसे स्वयं के लिए निर्णय लेना ही होगा.
सड़क के किनारे घने छायादार वृक्ष थे. ठंडी हवा चल रही थी. काफ़ी दूर निकल आने के कारण संध्या को कुछ भय-सा लगने लगा था. कुछ थकान-सी भी महसूस हो रही थी. सड़क के किनारे बेंच दिखाई दी तो उस पर बैठ गई और आती-जाती कारों को देखने लगी. हिंजेवाड़ी रोड पर बहुत-सी आईटी कंपनियां हैं. रोज़ तो सुबह और शाम के समय यहां कारों और बसों की रेलपेल मची रहती है, किंतु आज रविवार होने के कारण सड़क पर ट्रैफिक बहुत कम था. यहां शांति से बैठकर अपने बारे में वो कुछ सोच सकती थी, लेकिन सोचे भी तो क्या? बच्चों की बातों में आकर मकान बेचने की भारी भूल वो कर बैठी थी. अब उसका ख़ामियाज़ा सारी ज़िंदगी उसे भुगतना पड़ेगा. उसने एक ठंडी सांस भरी, तभी एक पुरुष स्वर से अपना नाम सुन वो चौंक पड़ी. उसने गर्दन उठाकर देखा. पैंट-कमीज़ पहने हाथ में छड़ी थामे क़रीब पैंसठ वर्षीय पुरुष को पहचानने में उसे तनिक भी देर न लगी. “अरे मोहनजी आप?” आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी उसके चेहरे पर फैल गई.
मोहनजी और उनकी पत्नी सविता के साथ अपने रिश्ते को क्या नाम दे संध्या. विवाह होकर इस घर में आई, जतिन और अपने आसपास ही पाया उसने मोहनजी और सविता भाभी को. जतिन के हृदय के तार उस परिवार से पूरी तरह जुड़े हुए थे. उस स्नेह बंधन को पल्लवित और पोषित करने में संध्या ने अपना भरपूर सहयोग दिया था. उसे आज भी याद है, कैसे उसकी हर समस्या का समाधान मोहनजी और सविता भाभी मिनटों में कर दिया करते थे. दसवीं क्लास में था विनीत जब मोहनजी ट्रांसफ़र होकर पूना आ गए थे, फिर भी उनसे संपर्क बना रहा. दो वर्ष पूर्व सविता भाभी के स्वर्गवास के समय जतिन पूना आए भी थे, किंतु फिर न जाने क्यों मोहनजी से संपर्क टूट गया.
“आपने तो बिल्कुल भुला दिया. कहां खो गए थे आप इन दो वर्षों में?” अपनत्व भरा उलाहना उसने दिया.
“क्या कहूं संध्या? हालात की साज़िश का शिकार हो गया था.” बेंच पर बैठते हुए मोहनजी बोले.
“क्या मतलब?” संध्या उनकी बात का अर्थ न समझ सकी.
“सविता के स्वर्गवास के तीन माह बाद मेरा भी एक्सीडेंट हो गया, जिसमें मेरा एक पैर जाता रहा. पूरे आठ माह तक हॉस्पिटल में रहा. पैर में स्टील की रॉड डाली गई.”
“इतना सब कुछ हो गया और आपने ख़बर भी नहीं की.” मोहनजी के साथ हुए हादसे को सुनकर संध्या अपना दर्द भूल गई.
“कैसे ख़बर देता, एक्सीडेंट के वक़्त मेरा मोबाइल खो गया था. तुम लोगों का नंबर उसी में फीड था.” मोहनजी ने एक गहरी सांस ली.
“ख़ैर, छोड़ो ये सब, तुम अपनी कहो, यहां पूना में कैसे? जतिन कैसा है? अब तो रिटायर हो गया होगा.” संध्या कुछ क्षण ख़ामोश रही, फिर धीमे स्वर में बोली, “रिटायर भी हो गए और मुझे छोड़कर भी चले गए.”
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“यह क्या कह रही हो तुम?” विचलित हो उठे मोहनजी. संध्या की आंखों में आंसू छलक आए. रुंधे कंठ से वो बोली, “रिटायर हुए दो माह बीते थे कि एक रात सीवियर हार्ट अटैक आया. हॉस्पिटल भी नहीं पहुंच पाए, रास्ते में ही…” कहते-कहते वो सिसक उठी.
पीड़ा का आवेग कुछ कम हुआ, तो वो बोली, “उसके बाद विनीत और उसकी पत्नी प्रिया मुझे पूना ले आए.”
मोहनजी कुछ देर ख़ामोशी से सिर झुकाए परिस्थितियों को आत्मसात करने का प्रयास करते रहे, फिर धीमे स्वर में बोले, “अपनी कहो, कुछ मन लगा पूना में? क्या दिनचर्या रहती है?” संध्या ख़ामोश रही. क्या कहती? सुबह से दिल में उमड़-घुमड़ रहे वेदना के बादल बरस पड़ने को हुए, लेकिन उसने ख़ुद को रोक लिया. इतने दिनों बाद मिले हैं, क्या वो आज ही अपना रोना लेकर बैठ जाए? नहीं, यह शोभनीय नहीं होगा.
इससे पहले कि वो कोई संतोषजनक उत्तर सोच पाती, उसके मनोभावों को भांप चुके थे मोहनजी. उन्होंने कहा, “संध्या, तुम कल भी मेरी छोटी बहन थी और आज भी छोटी बहन ही हो. वक़्त के अंतराल के साथ रिश्तों के मायने नहीं बदल जाते हैं. रिश्ते वही रहते हैं. जिस तरह तुम खोई-खोई-सी बैठी थीं, अवश्य ही कोई परेशानी है, बताओ मुझे.”
मोहनजी का सहारा पाकर संध्या भावनाओं के आवेग में बह गई. सब कुछ शांत भाव से सुनने के उपरांत मोहनजी गंभीरतापूर्वक बोले, “सच पूछो तो यह कोई समस्या है ही नहीं. यह बात उठती भी नहीं, यदि तुम शुरू से ही बीच का रास्ता अपनाती. कभी बच्चों के साथ जाना, कभी उन्हें प्राइवेसी देना ही समझदारी है. संध्या, हर इंसान अपनी प्राइवेसी और आज़ादी चाहता है. तुम्हारे बच्चे भी ऐसा चाहने लगे तो इसमें क्या ग़लत है? याद करो वो दिन, जब तुम्हारी नई-नई शादी हुई थी. जब भी जतिन फिल्म देखने या कहीं घूमने का प्रोग्राम बनाता, उसकी छोटी बहन तुम लोगों के साथ हो लेती थी. कितना बुरा लगता था उस समय तुम दोनों को, याद है न…?” संध्या ने गर्दन हिलाई.
मोहनजी ने अपनी बात जारी रखी, “हर उम्र की अपनी एक सोच होती है. ग़लत कुछ भी नहीं है. ग़लत स़िर्फ यह है कि उम्र के उस दौर से गुज़रने के पश्चात् हम अपने एहसास को भूल जाते हैं. भूल जाते हैं कि कभी हमारी भी यही सोच थी, यही चाहतें थीं, यही उमंगें थीं. वक़्त गुज़र जाता है और हम अपने बच्चों की भावनाओं को न समझने की भूल कर बैठते हैं. विनीत और प्रिया ने तुम्हारा बहुत साथ निभाया है. अब तुम्हारी बारी है. तुम उनकी भावनाओं को समझो. इन छोटी-छोटी बातों से ऊपर उठो. अपने खालीपन को भरने के लिए दूसरे की स्वतंत्रता को ख़त्म कर देना कहां की समझदारी है? हमारे प्रति अपने कर्त्तव्य को बच्चे बोझ न समझने लगें, यह बहुत कुछ हमारे व्यवहार पर भी निर्भर करता है.”
मोहनजी की बातों से संध्या को मानो परिस्थितियों को समझने के लिए एक नई दृष्टि मिल गई. समस्या वो नहीं, जिसे वो मान बैठी थी. समस्या तो उसका ग़लत दृष्टिकोण था. उफ्, एक मां होते हुए भी वो इतनी स्वार्थी कैसे हो गई? अपनी नासमझी पर लज्जित-सी होते हुए वो बोली, “मोहनजी, नियति ने एक बार पुनः आपसे मिलवाकर मेरे घर की सुख-शांति को बिखरने से बचा लिया. अब से मैं…”
“रुको संध्या, अभी मेरी बात पूरी नहीं हुई है.” मोहनजी ने उसकी बात बीच में ही काट दी, “संध्या, सारी ज़िंदगी हम सिर्फ़ अपने लिए जीते हैं. अपनी नौकरी, अपना परिवार, अपने बच्चे. इन सबसे आगे कभी सोच ही नहीं पाते. अभी वह समय है, जब समाज के प्रति भी हम अपने कर्त्तव्य का निर्वाह कर सकते हैं. दूसरों के काम आ सकते हैं. दो वर्ष पूर्व मैं भी तुम्हारी जैसी स्थिति में था. उस समय अपने बेटे-बहू के सहयोग से मैंने ‘नवनिर्माण’ नामक एक संस्था बनाई. आज इस संस्था से 15-16 लोग जुड़ चुके हैं. लोगों में चेतना जागृत करना, अपने शहर को साफ़-सुथरा रखना, पेड़-पौधे लगाना और आसपास के लोगों की समस्याओं को दूर करना इस संस्था का काम है. कुछ महिलाएं गरीब बच्चों को पढ़ाती हैं. माह में दो बार सब लोग मिलकर आसपास ही कहीं पिकनिक मनाने भी जाते हैं. संध्या, तुम इस संस्था को ज्वाइन करोगी, तो नए-नए लोगों से मिलने से तुम्हारा समय भी अच्छा कटेगा और लोगों की समस्याओं से जुड़ने से तुम्हारी सोच की दिशा भी बदलेगी. किसी के काम आने पर आत्मसंतुष्टि तो मिलती ही है, साथ ही जीने का एक मक़सद भी मिल जाता है. लीक से हटकर कुछ अच्छा करने से तुम्हारे बच्चों को भी तुम पर गर्व होगा.” मोहनजी की बातों से संध्या की आंखों में एक नई चमक पैदा हो गई. उसे जीने की एक नई राह मिल गई थी. “मोहनजी, आप घर चलिए. विनीत आपको देखकर बहुत ख़ुश होगा.”
“संध्या, मैं कल तुम्हारे घर अवश्य आऊंगा.” संध्या ने उन्हें अपने घर का पता बताया. काफ़ी देर हो चुकी थी. उसे लग रहा था, बच्चे परेशान हो रहे होंगे. मोहनजी से विदा लेकर संध्या तेज़ कदमों से घर की ओर चल पड़ी. ये कदम उसे घर की ओर ही नहीं, एक नए संकल्प के साथ नई मंज़िल की ओर भी ले जा रहे थे.
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