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कहानी- पुनश्‍च (Short Story- Punashcha)

"तुम्हारी चिर संचित अभिलाषा को साकार करने के लिए भी हम सबने मिलकर तुम्हें यह भेंट देने का निश्‍चय किया. ये सब कार्य तुमसे छुपकर हमने इसलिए किया, क्योंकि हम तुम्हें सरप्राइज़ देना चाहते थे. मुझे लगने लगा था कि जीवन के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण नकारात्मक हो रहा है. मैंने सोचा यदि तुम किसी संरचनात्मक कार्य में संलग्न हो जाओ, तो तुम शायद अपने आप को उपेक्षित महसूस न करो…"

सुलोचना का मन बहुत उद्विग्न था. कई दिनों से मन में निराशा-सी आने लगी थी. हर समय मन में एक ही बात कचोटती रहती कि चंद दिनों बाद ही वह जीवन का अर्द्धशताब्दी का सफ़र तय कर प्रौढ़ावस्था की ओर क़दम बढ़ाने वाली है. पचास वर्ष पूरे करने के बाद एक बार पीछे मुड़कर अपनी उपलब्धियों का आंकलन करती है तो मन में कसक-सी उठती है. बचपन में सोचा था कि कुछ संरचनात्मक कार्य करके आम नारी की छवि से हटकर, अपनी एक अलग पहचान बनाएगी. किसी की बेटी, पत्नी या मां के रूप में न जानी जाकर अपने नाम से जानी जायेगी, पर ऐसा कुछ नहीं कर पाई वह. स्कूल-कॉलेज में हर क्षेत्र में जितनी सक्रिय और अग्रणी रही, विवाह के पश्‍चात् उसका समूचा व्यक्तित्व ही बदल गया. बच्चों और परिवार की सार-संभाल में ही समय कब व्यतीत हो गया इसका एहसास जब हुआ है तो लगता है कि समय उनके हाथ से रेत की तरह फिसल कर कहीं दूर जा चुका है.
आज कहने को वह एक सम्पन्न घर-परिवार की स्वामिनी है. जीवन की सभी भौतिक सुविधाएं निजी बंगला, कार, नौकर-चाकर एवं अन्य सारे ऐशो-आराम उसे उपलब्ध हैं, फिर भी मन की शांति नहीं है. अपने भरे-पूरे घर में भी स्वयं को नितान्त अकेला पाती है. पति अपने व्यवसाय में इतने लिप्त हो गए हैं कि उन्हें उसकी परवाह ही नहीं. दोनों बेटे भी पिता के साथ ही कारोबार में लगे हैं. एक्सपोर्ट का व्यवसाय होने के कारण दोनों में से एक तो प्राय: बाहर ही टूर पर रहता है. दोनों बहुएं भी जॉब करती हैं. एक फैशन डिज़ाइनर है तो दूसरी इंटीरियर डेकोरेटर. दोनों ही अपने-अपने पतियों के साथ सुबह 9 बजे घर से निकलती हैं तो शाम तक लौटती हैं. ऐसे में उनके पास भी समय कब रहता है कि फुर्सत से बैठकर कुछ समय उसके साथ गुज़ार सकें. बड़े तो बड़े उनके छोटे पोते-पोतियां भी इतनी छोटी उम्र में ही इतने व्यस्त रहते हैं कि अपनी दादी के पास बैठकर अपनी प्यारी-सी तुतलाती भाषा में उसका मन बहला सकें इतना भी व़क़्त नहीं है.

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जब भी अतीत के दिन याद आते हैं तो मन के आकाश में स्मृतियों की वर्षा से मन और आंखें गहरे तक भीग जाती हैं. संयुक्त परिवार में बचपन कब बीता पता ही नहीं चला. इसका भान हुआ तो स्वयं को यौवन की दहलीज़ पर खड़े पाया. उसके परिवार का शिक्षित माहौल होने के कारण उसे भी पढ़ने-लिखने की पूरी स्वतन्त्रता मिली. उसके दोनों बड़े भाई डॉक्टर थे, पर उसका शुरू से ही कला तथा साहित्य के प्रति रुझान था. अच्छे-अच्छे लेखकों की पुस्तकें पढ़ना और उनके लेखन से प्रेरित होकर अपने भावों को अभिव्यक्ति देने में उसकी विशेष अभिरुचि थी. लेखन में रुचि होने के कारण स्कूल, कॉलेज की मैगज़ीन का सम्पादन भी उसने कई वर्षों तक किया. साहित्य में एम.ए. करने के पश्‍चात वह पी.एच.डी. करने की सोच ही रही थी कि इसी बीच रवि के यहां से विवाह का प्रस्ताव आ गया. हालांकि आर्थिक दृष्टि से रवि और उनके परिवार में ख़ासा अंतर था, पर रवि की शिक्षा और व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उसके पिताजी ने रवि के साथ उसका रिश्ता तय कर दिया. उसके पिताजी को विश्‍वास था कि रवि इतना होनहार है कि वह किसी भी परिस्थिति में रहकर भी अपनी योग्यता से अपना भविष्य उज्ज्वल बना लेगा.
शादी के शुरू-शुरू के दिनों में तो उसे अपने और रवि के परिवार के जीवन स्तर में बहुत अंतर लगा, पर फिर भी उसने हर परिस्थिति का बहुत सहजता से सामना करते हुए गृहस्थी की गाड़ी को सुचारु रूप से चलाने की हर संभव कोशिश की. रवि की दोनों बहनों की शादी, भाई को उच्च शिक्षा दिलाने के सभी दायित्व ख़ुशी-ख़ुशी निपटाए. इसी बीच थोड़े-थोड़े अंतराल पर कुणाल और कर्ण के जन्म के बाद उनकी परवरिश की ज़िम्मेदारी भी आ गई.
उन आर्थिक तंगी के दिनों में भी अपने सामर्थ्य से बढ़कर उसने बच्चों का लालन-पालन किया. स्वयं कष्ट और तकलीफ़ में रहकर भी बच्चों को दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति में कोई अभाव नहीं हो इसकी पूरी-पूरी कोशिश की. पर जब कभी ज़िन्दगी की व्यस्तताओं में दो-चार क्षणों की फुर्सत मिलती तो जीवन में अपने लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाने का मलाल मन को कचोटता रहता, पर धीरे-धीरे गृहस्थी की व्यस्तता में उसने अपने और शौक़ विस्मृत कर दिये थे.
बच्चों के कुछ बड़े होने पर जब रवि को लगने लगा कि उनके सुरक्षित भविष्य के लिए, उनकी नौकरी की आय पूरी नहीं पड़ रही है, तो उन्होंने अपना निजी व्यवसाय प्रारम्भ करने का निर्णय किया.
आज रवि अपने व्यवसाय में पूरी तरह स्थापित हैं. दानों बेटों ने भी एम.बी.ए करने के पश्‍चात पिता के व्यवसाय से जुड़कर अपने बिज़नेस को बहुत आगे बढ़ा दिया है. आज उनके पास जीवन की सभी भौतिक सुविधाएं उपलब्ध हैं, पर उम्र के इस मोड़ पर पति के सानिध्य में कुछ समय बीता पाए इतना व़क़्त भी रवि के पास नहीं है.
कभी वह उनकी व्यस्तता को लेकर उलाहना भी देती तो वह उसे चुप कर देते, कहते, “सुलोचना, अभी तो मैं तन-मन से एकदम स्वस्थ और समर्थ हूं, ऐसे में अभी से रिटायर होकर घर बैठ जाऊंगा, तो तुम्हीं दो दिनों में ही मुझसे बोर हो जाओगी. आज मैं व्यस्त हूं तो परिवार और समाज में मेरी इ़ज़्ज़त और पूछ है. जिस दिन भी व्यवसाय से निवृत्त होकर घर पर रहने लगूंगा नकारा हो जाऊंगा.
उनके तर्क के प्रविवाद में वह कहती, “मैं आपको रिटायर होने के लिए कब कह रही हूं? बस यह ज़रूर चाहती हूं कि अपनी व्यस्तताएं कुछ कम कर घर-परिवार के लिए भी कुछ समय निकालें.
जब पति के पास ही उसके लिए समय नहीं है तो बच्चों से कैसी उम्मीद? कभी-कभी ख़याल आता है कि इससे तो उसके अभाव के दिन अच्छे थे, जब वह परिवार की धुरी हुआ करती थी. पति और बच्चे छोटी-छोटी ज़रूरतों के लिए उसके ईर्द-गिर्द घूमा करते थे. अब तो लगता है कि किसी को भी उसकी ज़रूरत नहीं है. बस घर में वह ही एकमात्र ऐसी है, जिसके पास इतना समय रहता है कि काटने से भी नहीं कटता. हालांकि सुबह उठकर वह मॉर्निंग वॉक के लिए जाती है. थोड़ी बहुत माली के साथ बागबानी भी करती है. कहने को एक-दो क्लबों की सदस्यता भी उसके पास है, पर कहीं भी उसे मानसिक शांति नहीं मिलती. खाली बैठे-बैठे उसके स्वभाव में भी चिड़चिड़ाहट और तल्खी आ गई है. मन में रह-रहकर एक ही बात उठती है कि काश, जीवन को एक नए सिरे से जी पाती.
बच्चे अच्छे हैं, बहुएं भी संस्कारी और विवेकशील हैं, पर फिर भी उम्र का फ़ासला उनकी सोच में कुछ दूरियां ला ही देता है. उनका अब भी किचन में बच्चों की पसन्द का कुछ बनाने का मन करता है तो बहुएं तुरन्त टोक देती हैं. बहुएं क्या समझेंगी मां के हाथों बने खाने की महत्ता?
सुलोचना को लगने लगा कि घर में किसी को भी उसकी परवाह नहीं है. दो दिन पहले की घटना के बाद तो उसकी इस धारणा की पुष्टि भी हो गई. रविवार का दिन था, रवि तथा बच्चे सब एक साथ ड्रॉइंगरूम में बैठे बात कर रहे थे. दोपहर को खाने के बाद कुछ देर आराम करने के पश्‍चात जब अपने कमरे से निकली तो ड्रॉइंगरूम से सबकी मिली-जुली आवाज़ें आ रही थीं, बीच-बीच में अपना नाम आने से उसे उत्सुकता हुई कि आख़िर सब उसके सम्बन्ध में क्या बात कर रहे हैं? यह जानने के लिए वह उसे जैसे ही ड्रॉइंगरूम की ओर बढ़ी कि उसे देखते ही कुणाल ने अपने हाथ में रखे काग़ज़ को अपने पीछे छुपा लिया. सब कुछ देखते हुए भी अनदेखा करते हुए पूछा, “आज सब एक साथ बैठकर क्या बात कर रहे हो?”
उसके प्रश्‍न पर एक बार तो किसी को कोई उत्तर नहीं सूझा, पर तुरन्त ही कुणाल ने बात संभालते हुए कहा, “ऐसे ही हम लोग कोई बिज़नेस मैटर डिस्कस कर रहे थे. आइए, आप भी बैठिए.”
वह उन लोगों के पास आकर बैठ तो गई, पर उसे यह एहसास ज़रूर हो गया कि अब वह उन लोगों के लिए इतनी ग़ैर हो गई कि अपनी बात भी उसके साथ शेयर करने से वे कतराने लगे हैं. पांच-सात मिनट वहां पर बैठने की औपचारिकता पूरी करके वह भारी मन से पुन: अपने कमरे में आ गई. रात को सबके बुलाने पर भी वह खाने की टेबल पर नहीं गई. वह भी सबको जतलाना चाहती थी कि यदि उन लोगों को लिए उसकी कोई अहमियत नहीं है, तो उसमें भी इतना आत्मसम्मान है कि वह स्वयं को अपमानित नहीं होने दे. रात को रवि ने उसको मनाने की बहुत कोशिश पर वह बिना बात किए मुंह फेर कर लेट गयी.
अपने विषय में सोचते-सोचते ही उसकी आंख लग गई. दूसरे दिन सवेरे-सवेरे अपने दरवाज़े पर ठक-ठक आवाज़ सुनकर उसकी आंख खुली तो देखा रवि वहां नहीं थे. शायद जल्दी ही सुबह सैर को निकल गए थे. दरवाज़े पर लगातार ठक-ठक की आवाज़ जारी थी. उसने तुरन्त अपनी नाइटी पर गाउन डालकर दरवाज़ा खोला तो घर के सारे सदस्य एक स्वर में चिल्ला रहे थे, “ए वेरी हैप्पी फ़ि़फ़्टी एट्थ बर्थ डे टू यू”. एक-एक सदस्य उसे प्रणाम करता हुआ उसके हाथ में अपना अलग-अलग उपहार पकड़ाते हुए उसे जन्म दिवस की शुभकामनाएं दे रहा था. हताहत इतना सब कुछ हो जाने पर कुछ पल के लिए तो वे किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गयी थी.
रवि ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, “सुलोचना, किन ख़्यालों में खो गई हो? देखो, सब तुम्हें जन्म दिवस की शुभकामनाएं दे रहे हैं,” तो वह सामान्य हुई. सबने उसकी पसन्द का ध्यान रखते हुए उसकी रुचि के अनुरूप पर्स, परफ्यूम, साड़ी, घड़ी आदि उपहार दिए थे. वो हैरान थी कि बच्चों ने कितने प्यार और योजनात्मक तरीक़े से उसके लिए उपहारों का चयन किया था. अपने प्रति सबका इतना प्रेम देखकर वह अभिभूत हो गयी थी. सबसे अंत में रवि ने उसे एक पैकेट अपनी ओर से पकड़ाया तो वह चौंक गई.

दृष्टि से रवि की ओर देखा तो वे बोले, “भई, खोलकर तो देखो हमारी भेंट भी.”

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उसने उत्सुकता से पैकेट खोला तो उसमें एक पुस्तक थी. आश्‍चर्य से उस पुस्तक को देखने लगी जिसका शीर्षक था ‘पुनश्‍च’. तभी उसकी नज़र लेखक के स्थान पर पड़ी. उस जगह उसका नाम लिखा था. चौंक-सी गई सुलोचना. एक पल के लिए तो उसे अपनी आंखों पर यक़ीन ही नहीं हुआ. रवि ने उसकी ओर देखकर मुस्कुराते हुए कहा, “तुम्हारी लिखी पुरानी कहानियों को बहुत मुश्किल से ढूंढ़कर बच्चों ने उनको इस कथा संग्रह में संकलित किया है. तुम्हारी चिर संचित अभिलाषा को साकार करने के लिए भी हम सबने मिलकर तुम्हें यह भेंट देने का निश्‍चय किया. ये सब कार्य तुमसे छुपकर हमने इसलिए किया, क्योंकि हम तुम्हें सरप्राइज़ देना चाहते थे. मुझे लगने लगा था कि जीवन के प्रति तुम्हारा दृष्टिकोण नकारात्मक हो रहा है. मैंने सोचा यदि तुम किसी संरचनात्मक कार्य में संलग्न हो जाओ, तो तुम शायद अपने आप को उपेक्षित महसूस न करो. मैंने बच्चों से इस विषय में सलाह-मशविरा किया तो सभी को मेरा सुझाव ठीक लगा और वे जी-जान से इस योजना को कार्यरूप देने में जुट गए. इन चारों ने मिलकर बड़े परिश्रम से इस कथासंग्रह को प्रकाशित करवाया है.” कहते हुए रवि बच्चों की ओर गर्व से देखने लगे.
कुछ देर रुककर रवि फिर बोले, “आज तुम्हारा यह भ्रम भी दूर कर दूं कि उस दिन ड्रॉइंगरूम में तुम्हें देखकर हम क्यों चुप हो गए थे? वह इसलिए कि हम इस कथा संग्रह का नाम तय कर रहे थे. हम  नहीं चाहते थे कि इस बात की कोई भनक भी तुम्हें लगे. तुम्हारा यह सोचना ग़लत था कि हम तुम्हारी आलोचना कर रहे थे. तुम्हारी साहित्यिक अभिरुचि से मैं सदा से ही वाकिफ़ रहा हूं. यह भी जानता हूं कि मेरी और परिवार की ज़िम्मेदारियां निभाने में ही तुम्हें समय नहीं मिला कि तुम अपनी प्रतिभा को उजागर कर सको. मैं तुम्हारे बीते हुए वर्षों को तो नहीं लौटा सकता, पर तुम्हारा वर्तमान और भविष्य उज्ज्वल हो, यही सोचकर ‘पुनश्‍च’ का प्रकाशन करवाया है कि देर से ही सही, पर एक बार फिर तुम अपनी साहित्यिक यात्रा पुर्नआरम्भ कर सको. ‘पुनश्‍च’ के माध्यम से मेरा यही कहना है कि जीवन में चाहे कितनी ही विकट परिस्थितियां क्यों न आ जाएं, यदि कोई समस्या है तो उसका समाधान भी अवश्य है. बस इसके लिए अपेक्षा है सकारात्मक सोच और स्वस्थ चिंतन की. मैं तो मानता हूं कि मन के हारे हार है, मन के जीते जीत.”
बहुत वर्षों बाद अपनी चिरवांछित अभिलाषा को इस रूप में फलीभूत होते देखकर वो इतनी भावविह्वल हो गई थी कि कुछ बोल नहीं पा रही थी. तुलसीदास जी की पंक्तियां मानो उसी की मनोदशा को व्यक्त कर रही थी, ‘गिरा अनयन, नयन बिन वाणी’. पति और बच्चों के हृदय में उसके प्रति अभी भी कितना स्नेह और आत्मीयता है, यह उसने आज जाना है. अपनी नकारात्मक सोच और चिंतन ने उसे कितना कुंठित और निराश बना दिया था कि उसे भ्रम होने लगा कि घर में किसी को उसकी ज़रूरत नहीं है. उसे अपनी सोच पर बहुत आत्मग्लानि हो रही थी. उसने भरे हुए नेत्रों से सबकी ओर देखा. बिन बोले ही सबने उसके हृदय के उद्गार पढ़ लिए थे.
आज की सुबह सुलोचना के लिए नया सवेरा लाई थी, जिसके उजास से उसका वर्तमान और भविष्य दोनों ही प्रकाशमान हो रहे थे.

हंसा दसानी गर्ग

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