उस दिन देर रात जब मैं शादी से लौट रही थी, मुझे यही लग रहा था कि जीवन में लिया गया एक ग़लत फ़ैसला सब कुछ उलट-पलट कर रख देता है. सब कुछ पाकर बुआ का दामन खाली ही रहा. किसी ने ठीक ही कहा है, "जीवन की वर्तनी ग़लत हो जाए, तो नंबर नहीं कटते, ख़ुशियां ही कट जाती हैं."
वह रविवार की एक अलसाई सी सुबह थी. जब मेरी छोटी बुआ का लड़का केशव अचानक मुझे फोन किया कि वह पटना में ही है और थोड़ी ही देर में मुझसे मिलने और अपनी बेटी नेहा की शादी का निमंत्रण पत्र देने मेरे घर आ रहा है. मुझे अपनी कानों पर विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि पूरे दस बरसों से वह पटना आता भी था, तो मुझसे मिलने नहीं आता था, न ही फोन करता था. जाने कौन सी बात उसके दिल में चुभ गई थी.
एक समय ऐसा भी था जब केशव मेरे सगे भाई से भी बढ़ कर था. हमारे संबंध इतने मज़बूत थे कि एक अंतरंग दोस्त की तरह हम दोनों हर एक बात एक-दूसरे से शेयर करते थे. और अब आलम यह था कि रिश्ते का होना या न होना कोई मायने नहीं रखता था.
कहते हैं, मन में शिकायतों का चाहे कितना बड़ा पुलिंदा क्यो न हो, पर मायके से आमंत्रण की आशा ही दिलोदिमाग़ को उल्लास से भर देता है. यही सोच कर मन मेरा आह्लादित था कि अतंतः केशव को उससे मात्र छह महीने बड़ी अपनी बालसहचर मनुदी का प्यार खींच ही लाया. फोन करने के घंटे भर बाद ही वह हंसता-मुस्कुराता पहले की तरह मेरे सामने खड़ा था. पहले से ज़्यादा स्मार्ट और चुस्त-दुरूस्त. इतने दिनों में उसकी पत्नी स्मिता ने ठोक-पीटकर उस सरल व्यक्तित्ववाले केशव को काफ़ी कुछ बदल दिया था.
पास आकर जब उसने मेरे पांव स्पर्श किया, तो आनायास ही हम दोनों की आंखे भर आईं. इतने में मेरे पति हरीशजी भी वहां आ गए थे. कुछ देर तक औपचारिक और घर-परिवार की बातें होती रहीं. हमेशा की तरह जब वह अपने जीजाजी से किसी राजनीतिक चर्चा में व्यस्त हो गया, तो मैं उठकर चाय-नाश्ते का इंतज़ाम करने चली गई. हाथ भले ही मेरे कामों में लगे थे, पर दिलोदिमाग़ पर यादों का बवंडर सा उठ खड़ा हुआ था.
केशव को देख बार-बार मुझे नैना बुआ की याद आ रही थी. ऊंचे क़द-काठी और तीखे नैन-नक्शवाली नैना बुआ काफ़ी सुंदर थी. उनका बस एक ही सपना था पढ़-लिख कर डॉक्टर बनने का. पर अक्सर जो हम चाहते है वह हमें मिलता नहीं, जो हमें मिलता है, वह हमें मंज़ूर नहीं होता. इसी पाने और खोने के जद्दोज़ेहद में ज़िंदगी निकल जाती है. छोटी बुआ के साथ भी कुछ वैसा ही हुआ.
उनका बचपन से सपना था डॉक्टर बनने का. किसी भी डॉक्टर को देखती, तो वह अभिभूत हो जातीं. पर छह भाई-बहनोंवाले उनके लंबे-चौड़े परिवार में उनके सपनों का कोई मूल्य ही कहां था? उनके बीए का फाइनल एक्ज़ाम समाप्त होते ही दादाजी ने अपनी अंतिम ज़िम्मेदारी नैना बुआ की शादी कर निश्चिंत हो गए. और नैना बुआ अपने सपनों की गठरी संभाले ससुराल चली आईं. जहां उनके पढ़ाई की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं थी. फूफाजी एक प्राइवेट नौकरी में थे. उनकी आमदनी इतनी कम थी कि उससे घर का ख़र्च चलाना ही बहुत मुश्किल था. शादी के तीन वर्ष पूरा होते-होते उनके दो बच्चे भी हो गए, केशव और निशा. जैसे-जैसे वे बड़े होने लगे उनकी ज़रूरते भी बढ़ने लगी. उनके ससुराल में उनके जेठ और देवर दोनों अच्छी नौकरियों में थे. उनके बच्चों के सामने बुआ के बच्चों की स्थित बहुत ही दयनीय हो जाती थी, जो उनको गंवारा नहीं था.
बच्चों को सम्मानपूर्ण ज़िंदगी देने के लिए वह पास के ही एक स्कूल में पढ़ाने लगी थी. अपनी कर्मठता और दृढ़ निश्चय के कारण जल्द ही ऊंचे क्लासों में भी पढ़ाने लगीं. खाली समय में ट्यूशन भी पढ़ाने लगीं. जीवन में मिले चुनौती को उन्होंने स्वीकारा और साहस से उसका मुक़ाबला करने के लिए अपनी पूरी शक्ति झोंक दी.
उन दिनों दोनों एक ही शहर में रहने के कारण मैं और केशव एक ही स्कूल के एक ही क्लास मेें पढ़ते थे. केशव बचपन से ही पढ़ने में काफ़ी तेज था. मेरे नंबर भी बुरे नहीं आते थे, पर लाख कोशिशों के बावजूद नंबरों के मामले में मैं हमेशा उससे पीछे रह जाती. हालांकि वह पढ़ाई में मेरी हर संभव सहायता करता.
यह भी पढ़ें: रिश्तों में बदल रहे हैं कमिटमेंट के मायने… (Changing Essence Of Commitments In Relationships Today)
बी.ए. के बाद हम दोनों ने एम.ए. में नामांकन तो करवाया, पर एक सकारात्मक सोच के साथ यू.पी. एस.सी. के परीक्षा की तैयारी में जुट गए थे. मैं भी पढ़-लिख कर नौकरी करना चाहती थी, पर पापा ने मौक़ा ही नहीं दिया. अपने सिर का बोझ उतारने के लिए मेरी शादी तय कर आए. पापा का निर्णय हमेशा से निर्णायक होता था, इसलिए कुछ भी कहना बेकार था.
शादी के बाद मिली नई-नई ज़िम्मेदारियों को निभाने में मैं इतनी व्यस्त हो गई कि पढ़ाई-लिखाई सब भूल गई. तभी एक दिन पता चला कि केशव आई.ए.एस. अधिकारी बन गया है. ट्रेनिंग में जाने के पहले वह मुझसे मिलने भी आया.
केशव का ट्रेनिंग अभी समाप्त भी नहीं हुआ था कि निशा को भी मेडिकल में एडमिशन मिल गया. बुआ की ख़ुशी का ठिकाना न रहा. कभी अपने लिए देखे गए सपने को बेटी ने साकार कर दिखाया था. बच्चों के अभूतपूर्व सफलता ने बुआ की क़िस्मत पलट दी. वह आर्थिक और मानसिक रूप से समर्थ तो हो ही गई थीं, समाज में भी उनका मान-सम्मन और रूतबा बढ़ गया था. अब तो बुआ अपने जीवन में उग आए नवपल्लवों को हर उस आदमी को दिखाना चाहती थी, जो कभी उन्हें शब्दों के व्यंग्यबाणों से घायल कर उनका निरादर करते थे.
केशव के लिए अब उनके पास ढे़रों रिश्ते आने लगे थे. कभी जिनके दहलीज़ पर बुआ को कदम रखने की भी हिम्मत नहीं होती थी, अब वही लोग उनके दहलीज़ पर बैठे उनसे रिश्ता जोड़ने की बातें कर रहे थे, जिससे बच्चों की सफलता का एक शक्तियुक्त अभिमान उनके दिलोदिमाग़ पर छाने लगा था. उन्होंने यह जानते हुए भी कि केशव नंदिनी से प्यार करता है और कभी उन्हें भी नंंदिनी बहू के रूप में पसंद थी, फिर भी उन्होंने केशव की शादी एक रिटार्यड आई.ए.एस. ऑफिसर की बेटी स्मिता से तय करने का मन बना लिया था. जैसे ही केशव को मालूम हुआ वह बुरी तरह से झुंझला उठा.
‘‘मां, आपको हो क्या गया है. हम लोग निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के लोग है. सक्सेना साहब की लड़की स्मिता कॉन्वेट से पढ़ी तेज स्वभाव की, अत्यन्त आधुनिक लड़की है. उसकी बोलचाल, खानपान और पहनावा सब हम लोगों से अलग है, ख़ासकर आपकी सोच से उसकी सोच पूरी तरह अलग होगी. आपके कहने पर भी न वह घूंघट डालेगी, न ही साड़ी पहनेगी. जान-बूझकर आप क्यों अपने पैर पर कुल्हारी मारने को तैयार है. आपको तो नंदिनी जैसी लड़की चाहिए."
शायद जाने-अनजाने मां को याद दिला रहा था की वह नंदिनी से प्यार करता है. नंदिनी का नाम सुनते ही बुआ बिदक उठी थीं.
‘‘तुम इस खामख़्याली में मत रहना कि मैं तुम्हारी शादी नंदिनी जैसी साधारण लड़की से और उसके जैसे साधारण परिवार में करूंगी. अगर नंदिनी से शादी हो गई, तो लोग कहेगें, देखो अपनी औकात पर आ गई. मैं स्मिता जैसी सर्वगुण सम्पन्न लड़की से ही तुम्हारी शादी करूंगी. तू चिंता मत कर मैं उसके साथ एडजस्ट कर लूंगी. अगर तुमने मेरी इच्छा का खून कर नंदिनी से शादी की बात भी की, तो ज़हर खा कर अपनी जान दे दूंगी.’’
बुआ अच्छी तरह जानती थी कि केशव उनकी इच्छा के विरुद्व कभी नहीं जाएगा, क्योंकि उन्होंने अपने बच्चों के लिए जो त्याग किया था, वह किसी से छुपी नहीं थी.
वही हुआ भी. पहले केशव मेरी शरण आया. मैंने बुआ को समझाने की बहुत कोशिश की, पर वह किसी भी शर्त पर नंदिनी को अपनी बहू बनाने के लिए तैयार नहीं हुई. केशव ने और भी लोगों द्वारा मां को मनाने की कोशिश करता रहा, पर वह नहीं मानी. तब लाचार होकर केशव बोला, "मां, आपको मेरी बात नहीं माननी है, मत मानिए, पर एक बात जान लीजिए कि आप जिसे बहू बनाकर लाएगीं और वह अगर आपके साथ कुछ ग़लत करेगी, तो उसकी ज़िम्मेदारी भी आप पर ही होगी. मैं हर्गिज़ आपका साथ नहीं दूंगा.’’
बुुआ ने उसकी बातों पर ध्यान दिए बिना ख़ुशी-ख़ुशी केशव की शादी स्मिता से तय कर दी. बुआ को हो या न हो पर एंगेजमेंट के दिन ही स्मिता के घरवालोें का नकली औदार्य में मुझे आगत के कदमों की आहट मिल गई थी. शादी के बाद तो जल्द ही बुआ को भी बहुत कुछ समझ में आने लगा था. स्मिता का पहनावा ही नहीं बोलचाल भी इतना अलग और दंभ से भरा था कि एक सप्ताह में ही बुआ को लगने लगा था कि उनके परिवार की परंपरा और संस्कारों की धज्जिया उड़ जाएगी.
खानपान भी इतना अलग था कि बुआ के मेहनत और प्यार से बनाए खाने पड़े ही रह जाते और वह ऑर्डर देकर मंगाए बर्गर और पिज़्ज़ा से अपना और केशव का पेट भरती.
शादी के एक हफ़्ते बाद ही वह केशव के साथ मुंबई चली गई. फिर पलट कर बुआ के उस छोटे से घर में आने का कष्ट नहीं की. मुंबई में वह आराम से अपनी गृहस्थी अपने हिसाब से चला रही थी, जहां बुआ के लिए कोई जगह नहीं थी.
कभी बुआ और फूफाजी बेटे से मिलने जाते भी तो बेटे को अपने कामों से फ़ुर्सत नहीं मिलती और बहू को सैर-सपाटे और पार्टियों से. दोनों बच्चे मसूरी के हाॅस्टल में रहते थे. परायों की तरह वह दोनों घर के एक कोने में पड़े रहते. एक नौकर उन लोगों के देखभाल के लिए रहता. बच्चे घर पर होते भी तो उन्हें अपने गंवार दादा-दादी से मिलने की इजाज़त नहीं थी. अब उस घर में स्मिता के मायकेवालों का मान-सम्मान था. वे लोग अक्सर बुआ और फूफाजी की अवहेलना कर सिर्फ़ केशव का सम्मान करते.
धीरे-धीरे बुआ का यह हाल हो गया कि बहू के बनाए सीमा रेखा के बाहर बैठी अतृप्त, तृषित मन से बेटा के आशातीत वैभव को निहारती रहती. जिस सुख की कल्पना में जी तोड़ मेहनत की थी, वे इच्छाए पूरी भी हुई, पर उसकी तासीर ही बदल गई. उन्हें ही बेटे की ज़िंदगी से दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिया गया.
फूफाजी के अचानक हार्ट अटैक से मृत्यु के बाद बुआ ने बेटे के पास जाना ही छोड़ दिया. उन्हें ख़ामोश रहना ही सही लगा. बुआ से ही नहीं हम सबों से केशव की दूरी काफ़ी बढ़ गई थी. उसके सारे पुराने दोस्त उससे अलग हो गए. बरसों बाद वह आज शायद एक बार फिर टूटी कड़ियों को जोड़ने निकला था.
मैं उसके लिए उसकी पसंद की कचौड़ी और चटनी लेकर आई, तो उसकी आंखें चमक उठी. मेरे कहने से पहले ही प्लेट उठाकर खाने में जुट गया. खाना समाप्त कर बोला, "दी आपको अभी भी मेरी पसंद याद है.’’
‘‘बहन हूं तुम्हारी, कैसे भूल सकती हूं?’’
वह पहले की तरह खिलखिलाकर हंस पड़ा. फिर देर तक बैठा इधर-उधर की बातें करता रहा. तभी अचानक ही पूछ बैठा.
‘‘दी, नंदिनी कहां है? उसकी शादी कहां हुई? मैं उसे नेहा की शादी में बुला लूं.’’
मैं उसकी बाते सुन स्तब्ध रह गई. अपने पहले प्यार को वह आज तक भूला नहीं पाया था.
‘‘वह तो पटना में ही है. यही के एक काॅलेज में पढ़ाती है, पर उसने शादी नहीं की है. तुम उससे ना मिलो तो वही अच्छा हैं."
मेरी बातें सुन उसका चेहरा काफ़ी निरीह हो आया था. वह निर्वाक चुपचाप बैठा कुछ देर तक मुझे देखता रहा. फिर धीरे से उठकर चला गया. शादी के दिन मैं ज़रा पहले ही पहुंच गई. केशव ने पटना का एक प्रसिद्ध होटल बुक किया था. अंदर घुसते ही स्मिता से सामना हो गया. वह बेहद ख़ुश नज़र आ रही थी. मुझे देखते ही गानेवालियों को सुनाकर बोली, "बुआ देर से आई है. कुछ चुन-चुनकर गालियां सुनाओ."
एक हंसी का फुव्वारा फूट पड़ा. मायके के इसी मीठे नोकझोंक के लिए ही तो किसी भी लड़की का मन मायके के गंगोत्री में डूबकी लगाने के लए बेचैन रहता है. साथ लाए उपहार को स्मिता को सौंप कर मुड़ी, तो निशा से नज़रे चार हुईं.फिर तो उस भीड़भाड़ में भी एक एकांत कोना ढूंढ़ हम दोनों बातों में मशगूल हो गए थे. तभी मुझे याद आया.
यह भी पढ़ें: लाइफस्टाइल ने कितने बदले रिश्ते? (How Lifestyle Has Changed Your Relationships?)
‘‘अरे निशा, शाम होनेवाली है. कितने ही शादी की विधि बाकी होंगे. चल, चल कर हमलोग मिलकर उसे पूरा करवाते हैं.’’
‘‘बैठो न दी, कैसा विधि-विधान यहां कुछ नहीं हो रहा है. एक बार शादी के समय ही पंडितजी को जो विधि करवाना होगा, करवा देगें."
‘‘अभी तक बुआ की आवाज़ सुनाई नहीं देे रही हैं. सभी की शादी में तो सारी रस्में वही पूरा करवाती थीं, पर आज कहां हैं?
‘‘अम्मा आई कहां हैं, जो रस्में निभाएंगी. उसे तो भैया-भाभी मुंबई में ही छोड़ आए हैं. भाभी का कहना है, वह काफ़ी कमज़ोर हो गई हैं. विवाह में आती, तो भीड़भाड़ में कौन उन्हें सभालता." बोलते-बोलते निशा की आंखें भर आईं.
थोड़ी देर तक हम दोनों बहनों के बीच गहरा सन्नाटा छा गया. एक अनकही घनीभूत पीड़ा का एहसास हम दोनों के बीच पसरने लगा था. तभी वहां स्मिता आ गई थी.
‘‘अरे दी, आप तो आज बहुत सुंदर लग रही हैं, पर गहने आपके वही आउटडेटेड डिज़ाइनवाले है. समय बहुत बदल गया है. कुछ नए गहने बनवाइए."
वह हंसते हुए चली गई और निशा भुनभुनाने लगी.
‘‘दी, आपने भाभी को देखा. ज़रा-सा मौक़ा मिलते ही हमारे ऊपर गंवार होने का लेबल लगा कर चली गई." तभी जाने कहां से घूमता-फिरता केशव आकर बैठ गया.
"मेरी व्यवस्था कैसी लगी दी?’’
‘‘बहुत सुंदर. तुम तो शुरू से ही हर काम व्यवस्थित ढंग से करते हो. कही कभी कोई ग़लती नहीं करते.’’
‘‘जीवन का सबसे महत्वपूर्ण फ़ैसला ही तो ग़लत हो गया दी. काश! उस दिन मां की ग़लत मांग को नहीं मानता, तो आज मेरे सारे रिश्ते खोखले नहीं होते, न ही इतनी ज़िंदगियां बर्बाद होतीं. एक बात और कि अगर इस घर में तुम्हारे मान-सम्मान में कोई कमी रह गई हो, तो मुझे माफ़ कर देना कही न कही मैं मजबूर हूं.’’
‘‘मेरे मान-सम्मान की चिंता तो तू मत ही कर, बरातियों के स्वागत की चिंता कर. बहन हूं तेरी. तेरे दिल की सारी बातें समझती हूं. हम दोनों के रिश्ते परिस्थितिवश उलझ ज़रूर गए हैं, पर टूटे नहीं हैं."
थोड़ी देर में कई लोग केशव को ढूंढ़ते हुए उसे लेने आ गए और वह अपनी भरी हुई आंखें पोछता वहां से चला गया. उस दिन देर रात जब मैं शादी से लौट रही थी, मुझे यही लग रहा था कि जीवन में लिया गया एक ग़लत फ़ैसला सब कुछ उलट-पलट कर रख देता है. सब कुछ पाकर बुआ का दामन खाली ही रहा. किसी ने ठीक ही कहा है, "जीवन की वर्तनी ग़लत हो जाए, तो नंबर नहीं कटते, ख़ुशियां ही कट जाती हैं."
अधिक कहानियां/शॉर्ट स्टोरीज़ के लिए यहां क्लिक करें – SHORT STORIES