आते ही सुखदा का माथा छूकर देखा. कैसा था उनका अपनत्व भरा स्पर्श. मन की गहराई तक उतरकर तन की मिट्टी को छूकर जैसे महक गया हो वो स्पर्श. इस आत्मीय स्पर्श को पाकर सुखदा को लगा कि अंतस में उभरते शून्य की जगह सुबह का एक शीतल झोंका उसके मन के अंदर तक घुस आया है.
शाम को पार्क के चार चक्कर लगाकर सुखदा रोज़ की तरह बेंच पर बैठ गई. बच्चों का खेलना, बुज़ुर्गों का अपने नाती-पोतों के साथ मन बहलाना पार्क की रौनक़ बढ़ा रहा था. थोड़ी देर की यह रौनक़ दिनभर की उसकी उदासी को कुछ कम कर देती है, उसके होंठों पर पल भर के लिए ही सही मुस्कुराहट तो आती है. हल्का-हल्का अंधेरा होने लगा था, लेकिन उसका मन घर जाने का नहीं था, क्या करेगी घर जाकर. टीवी ज़्यादा देखने का शौक है नहीं, कोई पत्रिका उठा लेगी, लेकिन कितनी देर तक पढ़ सकती है!
बच्चों के शोर से अचानक दिल से आह-सी निकली, काश बिपिन साथ रहता तो चिंकी और सोनू में कुछ समय बीतता, कितना मन करता है बच्चों को देखने का. लेकिन बेटे को कहां समझ आता है मां का मन. कितना कुछ हुआ है इन सालों में. कितने सपने देखे, कुछ पूरे हुए, कुछ टूट कर बिखर गए, लेकिन जीवन का सफ़र यथावत चलता रहा.
समय को तो गुज़रना ही है, उसमें किसी के सुख-दुख के लिए ठहराव की गुंजाइश ही कहां है, सुखदा सोच रही थी. तन्हा, उदास, वीरान, वह ऐसी तो कभी नहीं थी, लेकिन जीवन में होनेवाले कुछ हादसों ने उसे बहुत अकेली कर दिया था. सोमेश के साथ-साथ सब कुछ ख़त्म हो गया था. इस एहसास का दंश कि उसके बच्चों बिपिन और निकिता को उसकी कोई ज़रूरत नहीं है, रह-रहकर उसके मन को कचोटता है.
वह यहां कितनी भी देर बैठी रहे, इतनी देर क्यों हुई, पूछनेवाला भी कोई नहीं है. अपने आपको समझाने में बहुत समय लगा उसे कि यह सच ही है जैसे शादी के बाद बेटी पराई हो जाती है, वैसे ही बेटा भी. सोमेश जैसे पति को पाकर उसने ख़ुद को हमेशा भाग्यशाली समझा था, लेकिन दस साल पहले सोमेश हृदयाघात के कारण नहीं रहे, तो सुखदा के पैरों तले ज़मीन खिसक गई. टूटी आस के साथ बस बच्चों से उम्मीद थी कि वे उसका सहारा बनेंगे, लेकिन बच्चे ऐसे आते कि उनका टूटा मन जुड़ न पाता. उनके स्नेह के किसी भी ओर-छोर की अब बच्चों को ज़रूरत नहीं थी. बहू नीता अलग रहना चाहती थी, तो बिपिन ने पत्नी की इच्छानुसार लखनऊ में ही दूसरा घर ख़रीद लिया था. निकिता की शादी बनारस में हुई थी. वह संयुक्त परिवार से थी. घर की बड़ी बहू थी. उसके ऊपर घर-परिवार की काफ़ी ज़िम्मेदारियां रहती थी. उसका आना कम ही होता था. बिपिन बहुत दिनों बाद आता. सुखदा कभी चिंकी-सोनू को लाने के लिए कहती, तो उसका जवाब होता, "मैं ऑफिस से ही आया हूं. टाइम नहीं मिलता." और नीता तो झांकती ही नहीं थी.
बस, अब सुखदा की नीरस-सी दिनचर्या में न कोई उमंग थी न उत्सुकता, न कोई आकर्षण, न कोई मनोरंजन, आस-पड़ोस की किसी सहेली से थोड़ी बातचीत हो जाती, तो समय कट जाता. पढ़ने का शौक उसे शुरू से था. इसलिए उसने घर के पास ही बनी लायब्रेरी की सदस्यता ले ली थी. सोचा पार्क से उठकर लायब्रेरी से कोई पत्रिका लेती जाऊंगी. वह लायब्रेरी पहुंची, तो एक और व्यक्ति उन्हें वहां दिखा. उन्हें वह अक्सर पार्क में भी देख चुकी थी.
सुखदा ने सुना कि वह रिसेप्शन पर बैठे लड़के से किसी मूवी की बातें कर रहे थे. लड़का खूब हंस रहा था. सुखदा ने हैरानी से फिर उन्हें देखा. उम्र होगी लगभग साठ साल की. इस उम्र में इतनी मस्ती, क्या आदमी है यह. अब उसे याद आया पार्क में भी इस आदमी ने लाफ्टर क्लब बना रखा है. उस आदमी को भी शायद सुखदा का चेहरा परिचित लगा होगा, उसने सुखदा को देखकर, "हैलो." बोला और कहा, "आपको सुबह पार्क में देखता हूं. शाम को भी जाती हैं क्या?" सुखदा ने हां में गर्दन हिला दी, तो उस आदमी ने अपना परिचय दिया, "मैं सुधीर, इस रोड के सामनेवाली सोसायटी में रहता हूं." सुखदा ने भी अपना परिचय दिया. फिर पत्रिका देखने लगी. सुधीर ने बातचीत जारी रखी, "आजकल लोगों को अच्छा साहित्य पढ़ने का शौक ज़रा कम ही है या उनके पास समय नहीं है. मेरे जैसे पिछड़े लोग अब कम ही बचे हैं, जिन्हें रोज़ बिना कुछ पढ़े चैन ही नहीं मिलता." कहकर सुधीर ने एक ठहाका लगाया, सुखदा भी मुस्कुरा दी. सुधीर बोलते रहे, "अच्छा हुआ, मैं रिटायर हो गया. अब आराम से पढ़ने का शौक पूरा हो जाएगा."
सुखदा उन्हें नमस्ते कह अपने घर की ओर चल दी. घर पहुंची, तो घर में फैले सन्नाटे से रोज़ की तरह उसे घबराहट हुई. उसने टीवी चलाकर पुराने गाने लगा लिए.
पार्क में सुबह-शाम जाना उसका एक नियम बन चुका था. अगला दिन, एक और सुबह, कुछ ख़ामोश-सी, सुखदा पार्क की तरफ़ जा रही थी कि सुधीर रास्ते में ही मिल गए. सुखदा को गुड मॉर्निंग कहते हुए उसके साथ ही चलने लगे. सुखदा पहले कुछ असहज रही फिर सुधीर से बातें करते हुए कब पार्क आ गया पता ही नहीं चला.
सुधीर ने कहा, "अब आप अपने चक्कर लगाइए. मेरे दोस्त मेरा इंतज़ार कर रहे हैं." सुखदा ने मुस्कुराकर गर्दन हिला दी, तो जाते-जाते रुककर सुधीर ने कहा, "ऐसा करते हैं, वापस साथ में चलेंगे." सुखदा ने आज सुधीर के बारे में सोचते हुए ही चक्कर लगाए.
लौटते समय सुधीर की बातें जारी थी. सुखदा सुधीर को ध्यान से देख रही थी. एकदम चुस्त-दुरुस्त, हंसता-मुस्कुराता चेहरा, राजनीति से लेकर मौसम, विज्ञान से लेकर मनोविज्ञान तक हर विषय पर उनकी इतनी अच्छी पकड़ थी कि किसी भी विषय पर वे बात कर सकते थे. थोड़ी देर में दोनों अपने-अपने घर लौट गए.
अब यह रोज़ का क्रम बन गया. दोनों साथ जाते, साथ आते. सुखदा को उनका साथ अच्छा लगने लगा. अपनी उम्र के लोगों से बात करके एक अजीब-सा सुकून मिलता है. एक जैसी समस्याएं, एक जैसी ख़ुशियां, सब कुछ शेयर करना बहुत अच्छा लगता है. उसे ऐसा लगने लगा वह अकेली नहीं है. वे एक-दूसरे के दर्द को आसानी से समझ सकते हैं. सामनेवाले के पास हमारी बात सुनने का समय है, वह हमें गंभीरता से ले रहा है इस उम्र में यह बात मन को शांति देती है.
सुधीर कभी-कभी सुखदा के घर आ जाते. दिल खुलने से अंतरंगता भी बढ़ी. बाहर भी साथ आने-जाने लगे. सब कुछ अपने आप होता जा रहा था. परिवार के बारे में पूछने पर सुधीर ने बताया था, "हमारा प्रेमविवाह था, लेकिन विवाह के छह महीने बाद ही रश्मि की एक रोड एक्सीडेंट में मृत्यु हो गई. बस, उसके बाद मैं अकेला ही रहा. ख़ुद को नौकरी की व्यस्तताओं में भुला दिया. रिटायरमेंट के बाद बस यहीं रहने आ गया."
सुखदा ने भी सोमेश और बच्चों के बारे में उन्हें सब बताया था. एक दिन सुखदा सुबह सैर के लिए नहीं गई, तो सैर से लौटते हुए सुधीर सीधे उसके घर आ गए. सुखदा तेज़ बुखार से तप रही थी. सुधीर ने अपनत्व भरी डांट लगाते हुए कहा, "फोन नहीं कर सकती थी. चलो, डॉक्टर के पास."
"बिपिन को बता दिया है, वह आएगा उसके साथ चली जाऊंगी."
"ठीक है, अभी तो कोई दवाई ले लो, मैं देखता हूं." सुधीर ने किचन में जाकर अपने आप ही सामान ढूंढ़कर चाय बनाई और दो ब्रेड स्लाइस पर बटर लगाकर ले आए और हंसते हुए बोले, "आज आपको मेरी एक और ख़ूबी पता चल जाएगी कि मैं बहुत अच्छा कुक भी हूं." सुखदा को उनके कहने के ढंग पर हंसी आ गई. सुखदा को दवाई खिलाकर सुधीर अपने घर लौट गए.
पूरा दिन सुखदा बिपिन के आने का, उसके फोन का इंतज़ार करती रही. लेकिन वह न आया, न फोन किया और आज इस बुखार ने सुखदा की रही सही आशा भी ख़त्म कर दी कि अलग ही सही, बेटा रहता, तो इसी शहर में है. किसी परेशानी में तो आएगा ही, लेकिन अब यह सच बहुत कड़वा था कि बेटा मां को पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर चुका था. सुधीर ने रात को फोन पर उनके हालचाल पूछे तो सुखदा ने रुंधे गले से बिपिन के न आने के बारे में बताया, तो सुधीर दस मिनट में आ गए.
आते ही सुखदा का माथा छूकर देखा. कैसा था उनका अपनत्व भरा स्पर्श. मन की गहराई तक उतरकर तन की मिट्टी को छूकर जैसे महक गया हो वो स्पर्श. इस आत्मीय स्पर्श को पाकर सुखदा को लगा कि अंतस में उभरते शून्य की जगह सुबह का एक शीतल झोंका उसके मन के अंदर तक घुस आया है. सुधीर उसे अपनी कार से डॉक्टर के यहां ले गए. पड़ोस में रहनेवाली उनकी तीन-चार सहेलियों ने भी उन्हें रात को जाते हुए देखा, तो वे भी पूछने आ गईं.
सुधीर को सब अक्सर उनके साथ आते-जाते देख चुके थे, तीन दिन लगे सुखदा को ठीक होने में. इस बीच सुधीर ने उनका भरपूर ध्यान रखा. आस-पड़ोस की, लोग क्या कहेंगे की कोई चिंता नहीं की. सुखदा अब ठीक थी. कुछ कमज़ोरी थी. सुधीर उनके लिए कुछ फल लेकर आए थे. सेब काटकर सुखदा को खिलाने लगे, तो सुखदा ने कहा, "अब बस कीजिए, बहुत ध्यान रख लिया. अब मैं ठीक हूं. आपने जो मेरे लिए किया, उसके लिए…"
"मैं हमेशा तुम्हारा ध्यान रखना चाहता हूं." सुधीर ने बीच में ही सुखदा की बात काट दी.
"क्या हम हमेशा साथ रह सकते हैं. मेरे ख़्याल से हम दोनों को एक-दूसरे की ज़रूरत है."
अवाक् रह गई सुखदा, सुधीर कहते रहे,
"मैंने भी पूरा जीवन तो अकेले काट लिया, लेकिन अब दिल चाहता है कि जीवन की संध्या में ही सही अंतरात्मा का शून्य भरनेवाला कोई तो हो. यह सही है कि अकेलापन अब सहा नहीं जाता. काटने को दौड़ता है अकेलापन. सबसे बड़ी बात तो यह है कि कई बातें ऐसी होती हैं, कुछ दुख-दर्द ऐसे होते हैं, जिन्हें जीवनसाथी के साथ ही बांटा जा सकता है."
बड़े कांपते स्वर में बोली सुखदा, "यह आप क्या कह रहे हैं? इस उम्र में? जबकि हम पूरी तरह समाप्त हो चुके हैं. हमारे पास बचा ही क्या है सिवाय जैसे-तैसे उम्र काटने के."
"यहीं भूल कर रही हो तुम. हम आज भी उम्र को सिर्फ़ काट नहीं, बल्कि पूरी तरह जी सकते हैं. अक्सर लोग बढ़ती उम्र के साथ यह मानने लगते हैं कि उम्र हमें मौत की तरफ़ ले जा रही है. मैं नहीं मानता. अगर मान भी लूं कि यह सच है, तो भी जितनी हमारी सांसें बची हैं, उन्हें तो हम अपने तरीक़े से जी सकते हैं."
आंखें भीगी और चेहरा भावहीन हो गया सुखदा का, "नहीं… नहीं, इस उम्र में, लोग…"
फिर बात काट दी सुधीर ने, "उम्र को क्या हुआ है तुम्हारी और किन लोगों की बात कर रही हो. लोगों का तो काम ही है कमज़ोर लोगों को कष्ट पहुंचाना."
"पर रहना तो इसी समाज में है."
"हां, लेकिन अपनी शर्तों पर." सुधीर के शांत चेहरे पर मुस्कुराहट थी, "अगर हम दो अकेले एक साथ हो जाएं, तो जो जीवन तुम सिर्फ़ काट रही हो उसे एक अर्थ, एक उद्देश्य दे सकती हो."
सुखदा ने कहा, "नहीं, मैं ऐसा सोच भी नहीं सकती."
तो अचानक निराशा छा गई सुधीर के चेहरे पर. वह उठ खड़े हुए बोले, "ठीक है, जैसे तुम्हारी मर्ज़ी. अब मैं चलता हूं, फिर आऊंगा. किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो फोन कर देना, लेता आऊंगा."
सुधीर चले गए, तो बिपिन का फोन आया. मां की तबीयत का ध्यान न रखने का कोई पछतावा नहीं. बस हालचाल पूछे. कहा, "बहुत काम था, बच्चों की परीक्षाएं थी. नीता भी नहीं आ पाई." सुखदा ने कुछ नहीं कहा, अब न कोई शिकायत थी, न उम्मीद.
निकिता का भी फोन आया.
"आज ही भैया ने बताया आपकी तबीयत ख़राब थी. अब कैसी है? दवाई ली…" वगैरह वगैरह. सुखदा का मन उचाट हो गया. सुधीर की याद आ गई. सच पूछा जाए, तो आजकल उन्हें लग रहा था कि वे सुधीर के साथ अपना वर्तमान ढूंढ़ सकती हैं. भविष्य को भी बांटने का वादा मिला है सुधीर से. आर्थिक रूप से वह किसी पर निर्भर नहीं थी. सोमेश की जमापूंजी सब उन्हें ही हस्तांतरित हुई थी. पीएफ ग्रेच्युटी, बीमा, घर तो अपना था ही. बहू-बेटे, पोता-पोती को देखकर वे जी लेतीं, लेकिन वह सुख उन्हें मिला नहीं. और फिर अपने एकाकी मन का क्या करें, जो रह-रहकर किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढ़ता था जिसके सामने फूट पड़ें. अंदर का सब कुछ बहा डालें किसी झरने की तरह. मन में आ रहा था कि सभी चाहें, उमंगें केवल बच्चों और जवानों के लिए ही होती हैं क्या..? उनकी उम्र के लोगों की जीवन जीने की क्या कोई साथ नहीं होती.
जिस वैधव्य के दस साल उसने अकेलेपन के जिस अंधेरे में जिए थे, उसे कम करने तो कोई नहीं आया था और जब वह अंधेरा सुधीर के आने से छंट रहा था, तो सबसे पहले वह ख़ुद ही लोगों के डर से रास्ते में आकर खड़ी हो रही हैं. उसका एक मन कहता कि यह ग़लत है, तो दूसरा मन पूछता कि इतना अच्छा साथ और ख़ुशियां पाने के लिए एक जीवन और मिलेगा क्या? पहला जब सही-ग़लत की पहचान कराता, तो दूसरा उसकी बात पूरी तरह से अनसुनी कर सुधीर की बात को सही ठहराता.
अगले दिन सैर के बाद सुबह ही सुधीर आ गए. बोले, "कैसी तबीयत है अब?"
"ठीक हूं अब. बैठिए, मैं चाय लाती हूं."
"नहीं, मैं चलता हूं. तुम आराम करो."
"मैं अब काफ़ी ठीक हूं, बैठिए तो सही." सुधीर को ड्रॉइंगरुम में बिठाकर सुखदा चाय ले आई, साथ चाय पी. दोनों के बीच एक चुप्पी. एक ऐसी चुप्पी कि इंसान तो चुप रहता है, लेकिन अंतर्मन में हाहाकार मचा हुआ होता है. फिर सुधीर ही आम बातें करते रहे. सुखदा को किन्हीं सोचों में गुम देखकर सुधीर ने पूछा, "तबीयत तो ठीक है न? क्या सोच रही हो?"
"आप ठीक कहते हैं. जब सभी अपने सुखों में जी रहे हैं, ज़रूरत पड़ने पर हमारे हिस्से का भी जीवन हमसे छीनकर तो हम भी क्यों न जिएं. जब अपना ख़ून, अपने ही बच्चे…" बाकी के शब्द सुखदा की सिसकियों में घुलकर रह गए और आंखों ने किसी झरने का रूप ले लिया. सुधीर ने फौरन उठकर उनके आंसू पोंछें, तो सुखदा ने अपना सिर उनके कंधे पर टिका दिया. अब कुछ कहने सुनने की ज़रूरत नहीं थी. आनेवाले समय की बहुत सारी बातें करके सुधीर चले गए. सुधीर ने बताया था कि उनकी एक छोटी बहन नेहा, जो अमेरिका में रहती है सुखदा से उनकी दोस्ती के बारे में सुनकर बहुत ख़ुश हुई थी. वह भी यही चाहती है कि अब इस उम्र में ही सही उसके भाई के जीवन में अकेलापन दूर करनेवाला कोई तो आए.
अगले दिन ही बिपिन दहाड़ता हुआ आया, "यह क्या सुन रहा हूं मैं? पड़ोस के वर्मा अंकल मिले थे. कौन है वो आदमी, लोग बातें कर रहे हैं."
यह शायद पहला मौक़ा था जब सुखदा ने बेटे से आत्मविश्वास भरी कड़क आवाज़ में कहा, "सुधीर नाम हैं उनका, यहीं रहते हैं." सुखदा के स्वर में कुछ तो था ऐसा कि बिपिन चौंका. कुछ नरम पड़ा. बोला, "लोग बहुत कुछ कह रहे हैं. आपको पता है सुनकर शर्म आ रही थी."
"मुझे जानने की ज़रूरत नहीं लोग क्या कह रहे हैं? पचपन साल की तुम्हारी मां कैसे अकेली रहती है बीमारी में, किसी तकलीफ़ में, यह सोचकर शर्म नहीं आती? तुम साथ रहते, तो तुम लोगों को देखकर जी लेती मैं. मुझे किसी अपने की ज़रूरत होगी इस उम्र में कभी सोचा तुमने? अभी मुझे जाना है. सोमवार को मैरिज रजिस्ट्रार के ऑफिस में पहुंचने से पहले कई काम निपटाने हैं." कहकर सुखदा अंदर अपने रूम में चली गई. आहट से अंदाज़ा लगाया बिपिन पैर पटकता हुआ जा चुका था.
सुखदा तैयार होने लगी. ड्रेसिंग टेबल के सामने खड़ी हुई तो पति का चेहरा आंखों को धुंधला कर गया, उसने आंखें बंद कर ली. सोमेश को कहां भुला रही है वह. वे रहेंगे हमेशा उसके दिल में अपनी जगह. सुधीर ने तो उसके मन का वह कोना लिया है, जो उनके और बच्चे के जाने के बाद इस उम्र में खाली हो गया है. अपने ही विचारों में डूबते-उतराते वह घर से निकलकर उस जगह की ओर बढ़ गई, जहां सुधीर उसका इंतज़ार कर रहे थे. सुधीर को सुखदा ने बिपिन से हुई बातचीत के बारे में बताया. वह काफ़ी उदास थी. सुधीर उसका मन बहलाते रहे. दोनों ने थोड़ी-बहुत शॉपिंग की और लंच बाहर ही करके अपने-अपने घर लौट आए.
रविवार की रात को सुखदा किचन में अपने लिए दूध गर्म कर रही थी कि डोर बेल हुई. दरवाज़ा खोलते ही सुखदा हैरान खड़ी रह गई. सामने बिपिन और निकिता मुस्कुराते हुए खड़े थे. निकिता सुखदा के गले लग गई. बोली, "मां, भैया ने मुझे सब बता दिया है. हम आपके हर फ़ैसले में आपके साथ हैं." सुखदा को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. उसकी नज़रें बिपिन की ओर उठीं, तो उसने भी कहा, "मां, मुझे माफ़ कर दो. मैं आपकी तरफ़ से लापरवाह हो गया था, लेकिन मैं अब आपके फ़ैसले में आपके साथ हूं."
निकिता ने पूछा, "मां, आपने डिनर कर लिया?"
"नहीं, बस अपने लिए दूध गर्म कर रही थी. तुम लोग क्या खाओगे?"
"मां, हमें अभी सुधीरजी से मिलवाने ले चलिए. डिनर हम चारों बाहर ही करेंगे."
निकिता ने उन्हें ज़बरदस्ती तैयार होने अंदर भेज दिया. सुखदा के दिल में उमड़ते उदासी, संदेह, नाराज़गी के बादल दूर कहीं विलुप्त हो गए थे. अब नई राहें, नई आशाएं उनके नए जीवन का आह्लादित कर रही थी और वह उन पर आगे बढ़ने के लिए पूर्णतः तैयार थी.
- पूनम अहमद
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