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लघुकथा- चटनी (Short Story- Chutney)

"नही मांजी. मुझे अभी भूख नहीं है." दरअसल प्रभा अभी खाना बनाने के हिसाब-किताब में ख़ुद को थोड़ा कच्चा समझती थी. और अभी कुछ माह पहले ही तो ब्याह कर आई थी वह ससुराल. नई नवेली बहू तो वैसे भी घर के कामों के लेकर डरी-सहमी सी रहती हैं. उसे डर था की कहीं खाना कम न पड़ जाए, ऊपर से आज खाने पर अचानक से आए दो अतिरिक्त मेहमान भी थे.

सरलाजी की रसोई आज महक उठी थी. दो रसे वाली सब्ज़ियां, दो सूखी सब्ज़ियां, रायता, खीर सब बनकर तैयार था. सभी खाने के लिए बैठ चुके थे. प्रभा के बनाए खाने की ख़ूब तारीफ़ें हो रही थीं. तभी सरलाजी बहू पर लाड़ दिखाती हुई बोलीं, "अरे बहू, आओ तुम भी खाना खाओ. तुम्हें भी तो भूख लगी होगी. सब यहां टेबल पर रख दो, जिसको जो चाहिए होगा ख़ुद ही ले लेगा."

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प्रभा, "नही मांजी. मुझे अभी भूख नहीं है." दरअसल प्रभा अभी खाना बनाने के हिसाब-किताब में ख़ुद को थोड़ा कच्चा समझती थी. और अभी कुछ माह पहले ही तो ब्याह कर आई थी वह ससुराल. नई नवेली बहू तो वैसे भी घर के कामों के लेकर डरी-सहमी सी रहती हैं. उसे डर था की कहीं खाना कम न पड़ जाए, ऊपर से आज खाने पर अचानक से आए दो अतिरिक्त मेहमान भी थे.
सबका खाना हो चुका था. दो रोटी और टमाटर की चटनी लेकर प्रभा टेबल पर थाली रखकर खाना खाने बैठी ही थी कि सरलाजी उसकी थाली की ओर देखकर बोल पड़ी, "इतना कम खाना? सारी सब्ज़ियां तो तुम्हारे पसन्द की बनी हैं, फिर सिर्फ़ चटनी रोटी ही क्यों?"

प्रभा, "मांजी, वो ज़्यादा खाना खाने का मन नहीं था मेरा. सुबह से खाने की महक लेते-लेते पेट की भूख मर गई. ऊपर से थोड़ा थक भी गई हूं, तो बस चटनी रोटी ही ले आई."
सरलाजी, "हां, तो अब कौन-सा काम है तुम्हें. जाओ खाना खाकर आराम करो. पर बहू चटनी बनानी ही थी, तो पहले ही बना लेती, ज़रा हम सब भी चटनी का स्वाद चख लेते."


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प्रभा सरलाजी से अब कैसे कहती कि किचन में उसके लिए कुछ बचा होता, तो वह चटनी बनाती ही क्यों? प्रभा उस चटनी में जो छोले, पनीर की ख़ुशबू की कल्पना कर रही थी अब वह कल्पना भी उड़ गई थी और उसका भूख न लगने का बहाना भी सच में तब्दील हो गया था.

- पूर्ति वैभव खरे

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