जब प्रीति की पतंग बहकने लगी, तो काकी फिर से चटकारे लेकर बोलीं, "बेटा विजय, समझो अब गई तुम्हारी पतंग. मैं तो पहले ही कह रही थी बहू-बेटियों का खेल न है ये पतंगबाज़ी."
आज प्रीति का पसंदीदा यानी मकर संक्रांति का त्योहार था. पड़ोस वाली राधा चाची की छत सज चुकी थी आनेवाले सभी लोग छत पर आ चुके थे. राधा चाची की छत काफ़ी बड़ी और ऊंचाई पर थी इस कारण प्रीति के ससुरालवाले व मोहल्ले के कुछ अन्य लोग उनकी छत पर चढ़कर ही पतंगबाज़ी का लुत्फ़ उठाते थे. मोहल्ले की सभी छतों पर रौनक़ें थीं, पर राधा चाची की छत की रौनक़ देखने लायक थी. पतंग और मांझे के साथ सभी तरह-तरह के व्यंजन भी लाए थे. तिल-गुड़ की महक और मगोड़ी के स्वाद के बीच पतंगबाज़ी का खेल शुरू हुआ.
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लड़कों ने और पुरुषों ने पतंगों को खुले आसमान की ख़ूब सैर कराई, तभी प्रीति ने अपने पति विजय की पतंग की डोर थाम ली और वह उस पतंग को मनचाहे तरीक़े से उड़ाने लगी. तभी पास बैठी कमला काकी बोलीं, "प्रीति बहुरिया! ये हम औरतों का काम न है, पतंग उड़ाने की कला तो मर्द ही जानते हैं."
कमला काकी को सब के घर जा-जाकर रिश्तों का मांझा उलझाने और संबंधों की पतंग काटने में बड़ा मज़ा आता था. आज भी उन्होंने यह बात प्रीति की सास और उसके पति को भड़काने के लिए ही की थी.
जब प्रीति की पतंग बहकने लगी, तो काकी फिर से चटकारे लेकर बोलीं, "बेटा विजय, समझो अब गई तुम्हारी पतंग. मैं तो पहले ही कह रही थी बहू-बेटियों का खेल न है ये पतंगबाज़ी."
तभी प्रीति की सास सरलाजी ने बड़ी सूझ-बूझ के साथ प्रीति की पतंग का मांझा खींचा और फिर से सही दिशा देकर पतंग को उड़ाकर वापस प्रीति के हाथों में पतंग की डोर सौंप दी.
कमला काकी सास-बहू की पतंगबाज़ी की तकनीक और उनके बीच के आपसी प्रेम को देखकर चकित रह गईं. तभी सरलाजी, कमला काकी से बड़े आदरसहित बोलीं, "काकी, आप ग़लत कह रही थीं कि हम महिलाएं पतंगबाज़ी में मर्दों की बराबरी नहीं कर सकतीं. अब आप ख़ुद को ही देख लीजिए. आप पतंगों को और रिश्तों को दोनों को काटने का क्या ख़ूब हुनर जानती हैं. और मैं और मेरी बहू प्रीति कटती हुई पतंगों को और रिश्तों को दोनों को बचाने का हुनर जानते हैं, तो हुए न हम असली पतंगबाज़?"
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फिर क्या? कमला काकी, सरलाजी की बात सुनकर अपने घुटनों का दर्द और अपनी पतंगबाज़ी के खेल की हार का दर्द लेकर वहां से चल दीं.
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