उन्होंने संन्यासी से पूछा, "स्त्री क्या है?" संन्यासी हंस पड़ा और बोला, "राजा, स्त्री सब कुछ है और कुछ भी नहीं है. वह मां है; बहन है; पतिव्रता है; नीति है… उसमें सब कुछ है- श्रृंगार है, वैराग्य है और नीति भी है… उसमें क्या कुछ नहीं है." यह सुनकर भर्तृहरि बहुत गंभीर हो गए और साधु की एक-एक बात उनके मस्तिष्क में अंकित हो गई.
महा विलासी से वीतरागी होने तक भर्तृहरि के जीवन में अनेकों उतार-चढ़ाव आए, जिसमें उन्होंने यह अपने अनुभूतियों, विचारों एवं घटित कथाओं को अपनी रचनाओं का रूप दे दिया. उनके
बारे में जानने के लिए जीवन रूपी किताब के युवावस्था पन्ने से शुरुआत करते हैं.
मालवा नरेश गंधर्वसेन के बड़े पुत्र भर्तृहरि एवं छोटे पुत्र विक्रमादित्य थे, जिनमें भर्तृहरि बचपन से ही बड़े नटखट या फिर कह लीजिए कि एक जगह स्थिर बुद्धिवाले नहीं थे.
परंपरा अनुसार पिता की मृत्यु के पश्चात बड़े बेटे को गद्दी मिली,
परंतु राज्य का विस्तार करने की स्थान पर भर्तृहरि भोग विलास में डूबते चले गए. उनका सारा समय रनिवास में ही बीतने लगा. एक से एक सुंदर युवतियों की खोज करा कर अपने महल तक लाते. इस प्रकार निम्न जाति की स्त्रियों के साथ भी समय गुज़ारने में उन्हें कोई संकोच नहीं होता था.
यद्यपि उनके राज्य में बहुत सारी सुंदर युवतियां थी, जिनमें से पिंगला और अनंगसेना उनकी रानियां भी थी. परंतु उनका मन अन्यत्र भी था, जो राजमहल प्रांगण में नृत्य आदि कार्य करती थी, नाम था रूपलेखा. वह पेशे से गणिका (वेश्या) थी.
भर्तृहरि इन भोग विलास में इस तरह रमे रहते थे कि उन्हें राजकाज का भी होश नहीं था. यहां तक कि एक दिन ऐसा आया कि उनके छोटे भाई विक्रमादित्य ने आकर उनसे कहा, "भैया अगर आप ऐसा ही करते रहे, तो मुझे राजमहल छोड़ कर जाना होगा."
भर्तृहरि ने कहा, "जाना है तो चले जाओ."
क्रोधित होकर विक्रमादित्य ने राज छोड़ दिया और अन्यत्र चले गए. उनके जाने के पश्चात भर्तृहरि कुछ ज़्यादा ही रासलीला में मग्न हो गए.
अचानक एक दिन वह अंत:पुर में व्यस्त थे, तभी एक आगंतुक ब्राह्मण ने मिलने की गुहार लगाई. भर्तृहरि ने आकर यथोचित आदर-सत्कार कर आशीर्वाद लिया. तत्पश्चात संन्यासी ने अपनी झोली से एक विचित्र फल निकाला और राजा के हाथ में रख दिया.
वे बोले, "यह एक चमत्कारी फल है, इसे जो मनुष्य खाएगा वह सौ वर्ष की आयु तक जिएगा. यह आयुवर्धक फल है. मैं इसे इंद्र के बगीचे नंदनकानन से लाया हूं."
उसके बाद वह साधु वहां से अंतर्ध्यान हो गए. राजा उठकर वहां से सीधा अपने अति प्रिय रानी अनंगसेना के पास गए. उनके साथ वार्तालाप करने के पश्चात उन्होंने वह फल खाने को दिया. बोले, "यह खाने से तुम शतायु हो जाओगी."
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परंतु अनंगसेना ने वह फल रख लिया और नहीं खाया, क्योंकि वह राजा के सारथी चंद्रचूड़ पर आसक्त थी. वह फल उसने उसे खाने को दे दिया. परंतु वह राजा का सारथी गणिका रूपलेखा पर मोहित था, अतः उसने उसकी शतायु की कामना करते हुए उसे वह फल दे दिया. तत्पश्चात वह फल रूपलेखा ने राजा को प्रेमवश दिया कि राजा शतायु हो जाएं.
फल को देखते ही राजा की सारी उत्तेजना शिथिल पड़ गई. क्रोध एवं आश्चर्य से बुरी तरह कांपते हुए उन्होंने पूछा, "तुम्हें ये फल कहां से प्राप्त हुआ?"
गणिका द्वारा सारी बातों को जानकर राजा भर्तृहरि अपनी रानी अनंगसेना के पास आए और प्रत्यक्ष सामने आ जाने के कारण अनंगसेना ने ख़ुद को आग की लपटों में जला लिया.
इन घटनाओं के पश्चात दुख में डूबे हुए राजा भर्तृहरि ने ख़ुद के मनोरंजन के लिए शिकार पर चले जाना उचित समझा. उधर से लौटने के बाद उन्होंने अपनी दूसरी रानी पिंगला से यह बताया कि उन्होंने एक मृग को मारा और मृगी ने भी अपना प्राण त्याग दिया. इस पर रानी पिंगला हंसते हुए बोली, "इसमें कौन-सी आश्चर्य की बात है! ये तो प्रत्येक भारतीय नारी का कर्तव्य है कि वह पति के साथ सती हो जाए."
तब राजा ने मुस्कुराते हुए पूछा, "क्या मेरी मृत्यु के बाद भी तुम्हारी भी यही दशा होगी?"
रानी पिंगला ने कहा, "ऐसा अशुभ मत बोलिए."
उसके बाद राजा ने रानी की बातों का परीक्षण करने के लिए एक दिन जंगल में गए. वहां पर उन्हें एक संन्यासी मिला. उन्होंने संन्यासी से पूछा, "स्त्री क्या है?" संन्यासी हंस पड़ा और बोला, "राजा, स्त्री सब कुछ है और कुछ भी नहीं है. वह मां है; बहन है; पतिव्रता है; नीति है… उसमें सब कुछ है- श्रृंगार है, वैराग्य है और नीति भी है… उसमें क्या कुछ नहीं है."
यह सुनकर भर्तृहरि बहुत गंभीर हो गए और साधु की एक-एक बात उनके मस्तिष्क में अंकित हो गई.
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वे महल लौट आए और महल में ऐसा ऐलान करा दिया कि भर्तृहरि को शेर ने मार डाला है. यह सुनते ही रानी पिंगला ने प्राण त्याग दिए. यह बात भर्तृहरि ने सुनी तो वे आश्चर्यचकित हुए. उन्हें विश्वास नहीं हुआ कि रानी पिंगला ने सचमुच प्राण त्याग दिए हैं. परंतु सत्य पता चलते दुख से अश्रु विहीन होकर शांत हो गए. संन्यासी द्वारा कही बातें उनके मस्तिष्क में घूमने लगी- नारी शृंगार है… वैराग्य और नीति भी है… वह बैठे रहें फिर अपना राजसी वस्त्र त्याग कर संन्यासी वेश बनाकर जंगल की ओर चले गए. इसके बाद उन्होंने अपने ही जीवन पर आधारित तीन ग्रंथों की रचना की- शृंगारशतक, नीतिशतक, वैराग्यशतक…
- ममता चौधरी
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