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लघुकथा- पहचान (Short Story- Pehchan)

मैं कुछ कहती इतने वह बोल पड़ी, "कैसी हो दिव्या? कहां खोई हो, पहचाना नहीं मुझे? कैसे भूल गई तुम… तुम्हारी सखी, बचपन में तुम्हारे टिफिन से सारी रोटी खा जानेवाली चुलबुली प्रिया…"

आज बरसों बाद वही खिलखिलाती हंसी सुनकर मेरा ध्यान उसकी तरफ़ गया और बरबस ही मुझे अपनी बचपन की सहेली की याद हो आई. आवाज़ भले ही जानी-पहचानी थी, पर सूरत? इसी उधेड़बुन में खड़ी थी कि क्या यह मेरी सखी प्रिया तो नहीं, जिसके साथ मेरी दांत काटी रोटी थी और जिसका साथ छूटने पर हम दोनों कितना रोए थे.
अचानक पीछे से किसी ने कंधे पर हाथ रखा, तो देखा एक शालीन महिला खड़ी थी. कलफ लगी सूती साड़ी में उसका व्यक्तित्व काफ़ी सौम्य लग रहा था. मैं कुछ कहती इतने वह बोल पड़ी, "कैसी हो दिव्या? कहां खोई हो, पहचाना नहीं मुझे? कैसे भूल गई तुम… तुम्हारी सखी, बचपन में तुम्हारे टिफिन से सारी रोटी खा जानेवाली चुलबुली प्रिया…"

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सुनकर मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि यह वही प्रिया है. चंचल चुहिया सी, एक शानदार व्यक्तित्व की मालकिन.
प्रिया फिर बोल पड़ी, "हां, तुम्हारा सकते में आना भी ठीक है. हमें मिले हुए भी काफ़ी समय हो गया है. जब हम अलग हुए थे, उस वक़्त हमारी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, यह तो तुम जानती हो. पिताजी मुझे आगे पढ़ाने के हक़ में नही थे. परंतु उनकी मालकिन (जहां काम करते थे) की कृपा से आज अपनी पढ़ाई पूरी करके इस ओहदे पर पहुंच पाई हूं. ईश्वर उन्हें सलामत रखे."
प्रिया अपनी धुन में बोले जा रही थी और मैं सोच रही थी कि साधारण से परिवार की लड़की अपनी प्रतिभा और थोड़ी-सी सहायता पाकर कितनी बदल गई है और आज स्वयं की एक पहचान बना पाई है.

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उसकी इसी पहचान ने मुझे उसकी ओर आकर्षित किया था. उसे देखकर मुझे नारी शक्ति का भी एहसास हुआ और मैंने मन ही मन निश्चय किया कि मैं प्रिया की लगन और मेहनत की कहानी सबको सुनाऊंगी, विशेषकर लड़कियों को, ताकि वे भी प्रेरित होकर अपनी स्वयं की पहचान बना पाएं और समाज में सिर उठाकर चल सकें.

- अलका रेहानी

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Photo Courtesy: Freepik

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