जिनकी मासूम आंखों में कई भोले-से सपने पलते हैं, जिनकी एक मुस्कान से कई उदास चेहरे भी खिल उठते हैं… जिनकी कोमल छुअनसे दिल के ज़ख़्म भी भर जाते हैं… वो बच्चे जब समाज के नियम-क़ायदों से कुछ अलग होते हैं तो खुद ही सहम जाते हैं… लेकिन ये बच्चे ख़ास होते हैं, ऐसे ख़ास बच्चों में खूबियां भी ख़ास होती है जिनकी उभारने के लिए उनको आम बच्चों से कुछ अलग तरह सेसिखाने-पढ़ाना पड़ता है, क्योंकि इनको आगे बढ़ाने के लिए इनके दिमाग़ नहीं, दिल तक जाना पड़ता है.
ऐसे ही स्पेशल बच्चों के लिए स्पेशल काम कर रही हैं अनुराधा पटपटिया. ये एक ऐसा नाम है जिन्होंने ऐसे ही खास बच्चों के दिलों मेंअपनी खास जगह बनाई है, क्योंकि उन्होंने इनके दिलों को छुआ है. आज वो REACH (रेमेडियल एजुकेशन एंड सेंटर फ़ॉर होलिस्टिकडेवलपमेंट) की फ़ाउंडर और डायरेक्टर हैं, जो स्पेशल चाइल्ड एजुकेशन और उनके संपूर्ण विकास के लिए खड़ा किया गया है. लेकिन येसफ़र अनुराधा जी के लिए भी आसान नहीं था. यहां तक पहुंचने के लिए उन्होंने न सिर्फ़ मेहनत की, बल्कि मज़बूत इच्छा शक्ति, जोश, जुनून और जज़्बा क़ायम रखा.
कैसा रहा उनका ये सफ़र और क्या-क्या करने पड़े संघर्ष ये जानने के लिए हमने खुद अनुराधा जी से बात की…
पहला और सीधा सवाल- शुरुआत कहां से हुई और ये ख़याल कैसे पनपा कि ऐसा कुछ करना है?
शुरुआत हुई जब मैंने साल 1996-98 के दौरान हैदराबाद में मदर टेरेसा के यहां काम करना, सोशल वर्क करना शुरू किया. मेरे पतिका जॉब ऐसा था जिसमें उनका ट्रान्स्फ़र होता रहता था इसीलिए मुझे भी अपना बैंक का जॉब छोड़ना पड़ा, लेकिन घर पर बैठने की मुझे आदत नहीं थी और मुझे कुछ न कुछ करना ही था इसलिए मैंने उनके स्पेशल चाइल्ड स्कूल में काम करना शुरू कर दिया. वहां मेरा कामथा स्पेशल चाइल्ड को एडमिशन में हेल्प करना और ऐसा नहीं है कि मैं सिर्फ़ टाइम पास के लिए ये काम कर रही थी. वहां भी मैं नियमित रूप से पूरे डेडिकेशन के साथ अपना काम करती थी. तब मैंने इन बच्चों को क़रीब से देखा और मुझे ये पता चला कि स्पेशल चिल्ड्रन कोजो टीचर्स पढ़ाते हैं वो दरअसल ट्रेंड होते हैं, स्पेशल एजुकेशन में बीएड किया जाता है और इसके लिए अलग से कोर्स करना पड़ता है. तब मुझे ख़याल आया कि मुझे भी इन बच्चों के साथ जुड़ना है और इनके लिए काम करना है.
फिर मैं मुंबई आई, तक़रीबन 1998-99 में और चूंकि मुंबई में कम्फ़र्टेबल थी तो यहां आकार मैंने पता किया. एसएनडीटी में ये कोर्सहोता था और मैंने जॉइन कर लिया. मैं तब 42 साल की हो चुकी थी. मेरे दोनों बच्चे भी बड़े हो गए थे तो इसलिए मुझे लगा ये सहीसमय है कुछ करने का और सिर्फ़ समय बिताना मेरा मक़सद नहीं था, मुझे वाक़ई में कुछ करना था और कुछ बेहतर करने के लिए ज़रूरीथा कि क्वालिफ़ायड होकर करूं बजाय ऐसे ही समय बिताने के. वैसे भी एसएनडीटी मुंबई यूनिवर्सिटी से जुड़ा था तो कोई एज बार नहींथा और ये एक साल का कोर्स था. काफ़ी डिफ़िकल्ट था, क्योंकि ये फुल टाइम कोर्स था और बच्चे मेरे भले ही बड़े थे लेकिन पढ़ाई कररहे थे. पर घरवालों और मेरे मां के सपोर्ट से मैंने ये कोर्स पूरा किया.
इसे करने के बाद मुझे एक दिशा मिली क्योंकि मैं अब समझ पा रही थी कि रेमेडियल थेरपी क्या होती है, किस-किस तरह की होती है. साल 2002 में मैंने ये पक्का कर लिया कि घर पर जो 2-4 बच्चे मेरे पास आते थे उनके लिए और उनके जैसे अन्य बच्चों के लिए एकअलग से जगह होनी चाहिए ताकि हम बेहतर ढंग से उनको पढ़ा पाएं.
मैंने एक छोटी सी जगह ली और एसएनडीटी से भी मेरे पास स्पेशल बच्चे आते थे और फिर बच्चों की संख्या बढ़ने लगी. साल 2004 मेंमैंने अपने साथ मेरी एसएनडीटी की साथी जो मुझसे 20 साल छोटी थी, क्योंकि मैं तब खुद 42 साल की थी, तो वो भी मेरी ही तरहकाफ़ी उत्साहित थी इस काम को लेकर, उसका नाम हीरल था तो उसको भी जोड़ा अपने साथ ताकि लर्निंग डिसएबिलिटी वाले बच्चों केलिए हम बेहतर काम कर सकें. धीरे-धीरे अन्य लोग भी जुड़ने लगे.
लर्निंग डिसेबिलिटी का अगर अर्थ देखने जाएं तो उसका मतलब यही है कि वो लर्न यानी सीख सकते हैं लेकिन अलग तरीक़े से. अगरआप सीधे-सीधे उनको बोर्ड पर या पेन-पेंसिल से लिख कर या बोलकर पढ़ाओगे तो वो नहीं समझेंगे लेकिन अगर आप उनको ब्लॉक्स दिखा कर या अन्य तरीक़े से समझाएंगे तो वो सीख जाएंगे. वो मूल रूप से काफ़ी इंटेलिजेंट होते हैं और कई-कई तो बहुत क्रीएटिव होते हैं. कई बच्चों का आईक्यू लेवल बहुत हाई होता है तो उनको अलग तरह से सिखाना पढ़ता है.
लेकिन समस्या ये थी कि जागरूकता नहीं थी. स्कूल्स में ऐसे बच्चों को समझा नहीं जाता था और वो एडमिशन नहीं देते थे. पैरेंट्स परेशान रहते थे कि बच्चा बार-बार फेल हो रहा है, कितना भी सिखाओ सीखता ही नहीं. स्पेलिंग याद नहीं होती… पर अब काफ़ी जागरूकता आ चुकी है.
लेकिन हम उस वक्त भी वर्कशॉप्स करते थे. स्कूल्स में भी वर्क शॉप्स करते थे ताकि टीचर्स ये समझ पाएं कि ऐसे बच्चों को कैसे हैंडलकरना है. ये ज़रूरी था क्योंकि बार-बार बच्चे को डांट खानी पड़ती थी टीचर से भी और पैरेंट्स से भी. जिससे बच्चे सहम जाते थे. इनकामोरल डाउन हो जाता है. लेकिन इन बच्चों को अगर बार-बार सामान्य तरीक़े से स्पेलिंग सिखाओगे तो वो नहीं सीखेंगे, उनको आपकोशब्द ब्रेक करके, साउंड और प्रोनाउंसिएशन के साथ समझाकर सिखाना पड़ता है.
इन सबके बीच आपको काफ़ी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा होगा, तो उनसे कैसे डील किया?
बिल्कुल चुनैतियां तो थीं और मेरी सबसे बड़ी चुनौती थी कि मैंने कभी भी पैसों को ध्यान में रखते हुए कुछ नहीं सोचा. न ही मेरे पास इतनेज़्यादा पैसे थे और न मैंने इस काम को पैसा कमाने यानी कमर्शियल करने के हिसाब से देखा. मेरा उद्देश्य था कि इन बच्चों को पढ़ाकरबेहतर ज़िंदगी और अपने पैरों पर खड़ा करने की दिशा में योगदान दे सकूं. इसके चलते मुझे आर्थिक तौर पर काफ़ी चुनौती झेलनी पड़ीक्योंकि बार-बार जगह बदलनी पड़ती थी. किराए की जगह पर हम स्कूल चलाते थे लेकिन हर साल किराया बढ़ा दिया जाता था, जिस वजह से हमको दूसरी थोड़ी सस्ती जगह ढूंढ़नी पड़ती थी.
लेकिन हमारे जज़्बे को देख कर हमारे दोस्तों और बच्चों के पैरेंट्स ने भी काफ़ी मदद की. जब लोगों ने देखा कि हम इस काम को लेकरवाक़ई गंभीर हैं तो डोनर्स ने काफ़ी सहायता की.
दरअसल आर्थिक परेशानी की एक बड़ी वजह ये भी रही कि हम कभी भी गरीब बच्चों को ना नहीं बोलते थे. हम हमेशा गरीब परिवार सेआए बच्चों को भी प्राथमिकता देते थे और आज भी देते हैं, क्योंकि जब गरीब घर के बच्चों को स्कूल से निकाल दिया जाता है तो उनकेसाथ क्या होता है- लड़की को घरों में बर्तन, झाड़ू आदि के काम के लिए भेजा जाने लगता है और लड़के को किसी साइकल या चाय कीदुकान पर बैठा दिया जाता है, जो कि ग़लत है, इसीलिए 25-30% हम ऐसे बच्चों के लिए एजुकेशन की सहूलियत रखते हैं.
ऊपरवाले की दया से हमें बहुत अच्छे डोनर्स मिले आज तक. जब कभी कोई बच्चा फ़ीस नहीं भर पता तब हम डोनर्स की मदद लेते हैं. आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवार के बच्चों के लिए भी हम बेसिक फ़ीस ही रखते हैं क्योंकि अगर सबको फ्री पढ़ाएंगे तो सर्वाइव ही नहींकर पाएंगे, दूसरे टीचर्स की भी सैलरी निकालनी ज़रूरी है. लेकिन इन सबके बीच हम ये ध्यान में रखते हैं कि हाई फ़ीस न रखें क्योंकिऐसे बच्चे जब बड़े होते जाते हैं तो पैरेंट्स को भी काफ़ी थेरपी वग़ैरह में जाना पड़ता है जिससे काफ़ी खर्च बढ़ जाता है. ऐसे हर बच्चे केसाथ इन्वेस्टमेंट तो है ही इसलिए मैं हमेशा पैरेंट्स की तरफ़ से सोचती हूं क्योंकि मैं खुद भी पैरेंट हूं तो उनकी परेशानी समझ सकती हूं.
उसमें भी हर बच्चे की अलग समस्या होती है- किसी को पढ़ने में दिक़्क़त है, किसी हो मेमरी में तो किसी को कुछ और… ऐसे में हर बच्चेका आईक्यू देखना पढ़ता है कि लर्निंग प्रॉब्लम है या कुछ और डिसएबिलिटी, क्योंकि हर बच्चा अलग होता है और इसीलिए हर 5 बच्चेके साथ एक टीचर रखा है हमने.
आज कुल मिलाकर 35 बच्चे हैं मेरे पास, 9 टीचर्स और 3 एसिस्टेंट टीचर्स हैं. ताकि हर बच्चे पर पूरा ध्यान दिया जा सके, क्योंकि हरबच्चे पर बहुत मेहनत करनी पड़ती है और उन सबके बीच बार-बार जगह बदलने का चैलेंज भी था पर अब साल 2015 से हम कुछसेटल फ़ील कर रहे हैं क्योंकि मुंबई के विलेपार्ले में एक संस्था ने बेहद कम किराए पर एक बंगला दिया है और सात सालों से हम वहींपर हैं.
आपको ऐसे भी पैरेंट्स मिलते होंगे जो दुविधा में होते होंगे कि क्या पता बच्चा कुछ सीख या कर पाएगा या नहीं… ऐसे पैरेंट्स को आपकैसे भरोसा दिलाती हैं?
जी हां, इस चीज़ पर मैं सबसे ज़्यादा मेहनत करती हूं और उनको विश्वास दिलाती हूं कि मुझ पर भरोसा करो और साथ में खुद को औरबच्चे को भी वक्त दो. मैं अकेले तो जादू नहीं कर सकती, इसके लिए मुझे, बच्चे को और उनके पैरेंट्स को मिलकर काम करना होगा. किसी भी बच्चे में इम्प्रूवमेंट नज़र आने के लिए कम से कम 6 महीने का वक्त तो लगता ही है.
हर बच्चे के साथ अलग टेक्नीक यूज़ करनी पड़ती है और हम NIOS बोर्ड करते हैं. नेशनल ओपन स्कूल का फायदा ये है कि 5 सब्जेक्ट्स हैं और नौ लैंग्वेजेस. ये 5 सब्जेक्ट्स 5 साल में मल्टीपल अटेम्प्ट्स में कर सकते हैं. वो ब्रेक करके कभी 2 सब्जेक्ट कियाकभी एक तो इस तरह से काफ़ी फायदा क्योंकि आप कितने भी अटेम्प्ट्स कर सकते हो. इस तरह मेरे अब तक सौ के क़रीब एक्सस्टूडेंट्स हैं. इनमें से सभी वेल प्लेस्ड और सेटल्ड हैं. कोई होटेल इंडस्ट्री में है, कोई मीडिया में है, फ़ैशन डिज़ाइनिंग में है कोई.
इस तरह ये सफ़र बेहद ख़ुशगवार रहा मेरे लिए, क्योंकि उन बच्चों को जब कामयाब देखती हूं तो वही मेरी भी सबसे बड़ी कामयाबी होतीहै.
ये बच्चे क्रीएटिव तो होते हैं और हम इनके लिए अलग से करिकुलम बनाते हैं. कलर कोडिंग से लेकर मार्किंग जैसी टेकनीक यूज़ करते हैंताकि वो सिर्फ़ ज़रूरी चीजें ही पढ़ें, एक्स्ट्रा सब हम निकाल देते हैं जो किताबों को मोटा बनाती हैं, क्योंकि मोटी किताब देखकर बच्चा पहले ही डर जाता है.
इसके अलावा हम परीक्षा भी पारम्परिक तरीक़े से नहीं लेते, जैसे- कोई बच्चा वन वर्ड आन्सर लिख रहा है तो कोई एक्स्प्लेन करके, तोकोई ओरल बोलकर जवाब दे रहा है… क्योंकि हमारा मुख्य लक्ष्य यही है कि बच्चा सीख और समझ रहा है फिर चाहे वो उसको अलग-अलग तरीक़े से दर्शाए.
अब हम रीच में आठ साल से कम उम्र के बच्चों को नहीं लेते क्योंकि इससे कम उम्रवाले बच्चों को थेरेपीज़ की ज़्यादा ज़रूरत होती हैस्कूलिंग की बजाय. हमने भी थेरेपीज़ इंट्रड्यूस की हैं हमारे डोनर्स की मदद से, थेरेपी रूम बनाया और अब आज 20 सालों के बाद मुझेथोड़ा सा सेटल लग रहा है सब, क्योंकि इससे पहले तो संघर्ष ही चल रहा था कि कैसे करना है, कैसे करेंगे…
परिवार का रवैया कैसा रहा इस बीच? कभी आपके पति या किसी भी सदस्य ने कहा कि बहुत संघर्ष है, कैसे करोगी…?
परिवार ने और पति ने भी काफ़ी सपोर्ट किया. हां, ये तो ज़रूर कहते थे कि बहुत मेहनत है, कितना स्ट्रगल करोगी लेकिन जब उनकोलगा कि मैं ये दिल से करना चाहती हूं तो सबने सहयोग दिया. रीच नाम हमने मिलकर तय किया जिसका अर्थ ही है पहुंचना… इसकालोगो मेरी बेटी ने डिज़ाइन किया जब वो कॉलेज में थी. अब वो खुद मीडिया में है.
कोई ख़ास मैसेज देना चाहेंगी?
मैं बस यही कहना चाहती हूं कि जब आप दिल से कुछ करना चाहते हो तो वो होता ही है. मेरे बच्चे जब कॉलेज में जाते हैं तब उनकेमाता-पिता के चेहरे पर जो एक संतुष्टि का भाव मैं देखती हूं तो मेरे लिए वही सबसे बड़ा इनाम होता है. पैरेंट्स को जब तसल्ली होजाती है कि हां, अब मेरा बच्चा दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलेगा और आगे बढ़ेगा तो उससे बड़ी ख़ुशी कोई और नहीं. आज भी मेरेएक्स स्टूडेंट मुझे फ़ोन करते हैं जब कभी भी उनको मर्गदर्शन की ज़रूरत पड़ती है, वो चाहे 30-32 साल के ही क्यों न हो गए हों पर मैंहमेशा उनकी टीचर रहूंगी, गाइड रहूंगी… यही मेरी सबसे बड़ी कमाई है.