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कहानी- देखा तो सिर्फ़ तुमने है… (Short Story- Dekha To Sirf Tumne Hai…)

भावना प्रकाश

पंखुड़ी अपने होनेवाले पति और ससुराल से कतई ख़ुश नहीं थी और मम्मी की नज़र में ये सब बचपना था. वो जब उनकी शिकायत करती, मम्मी व्यावहारिकता के उपदेश लेकर बैठ जातीं. “समझौता तो लड़की को ही करना पड़ता है. मुझे देखो, एक सुंदर साड़ी ख़रीदने की, एक मनपसंद गहना ले पाने की ख़्वाहिश में उम्र बीत गई. तुम्हें क्या पता कितनी तकलीफ़ होती है एक दिन में सौ बार मन मारकर जीने में. और फिर देख, धन से सारी दुनिया में सम्मान भी मिलता है. सारे रिश्तेदार इस रिश्ते के होने से हमें कितना मान देने लगे हैें.”

पंखुड़ी का चीत्कार करता मन ये मानने को तैयार ही नहीं था कि अब नयन से उसका कोई रिश्ता नहीं रहेगा. उसे अब ज़िंदगीभर के लिए किसी और को समर्पित हो जाना है. नयन उसके लिए पराया होगा और वो नयन के लिए. क्या सात फेरों की अग्नि कोमल भावों को जलाकर राख कर पाएगी? और इससे भी बड़ी बात ये कि क्या वो गर्वित के फ्रेम में सजी तस्वीर बनकर जी पाएगी? बिना अपनी अस्मिता के, स़िर्फ एक शोपीस की तरह? पर वो ़फैसला ले चुकी है… पर क्या सचमुच वो ़फैसला ले चुकी है? या मम्मी को अपना ़फैसला ख़ुद पर थोपने दे चुकी है?
तभी उसका ध्यान ब्यूटीशियन की ओर गया और वो उसका मन समझ गई. नयन के साथ रहकर उसे भी मन पढ़ना आ गया है शायद. उसे पता है शहर के सबसे प्रसिद्ध ब्यूटीपार्लर की सबसे कुशल ब्यूटीशियन आज अपनी कला से संतुष्ट नहीं हो पा रही है.
“क्या हुआ? मैं सुंदर नहीं लग पा रही?” उसे परेशान-सी देखकर पंखुड़ी ही मुस्कुराकर पूछ उठी.
वो सकपका गई, “नहीं, नहीं आप सौंदर्य की प्रतिमा हैं पर… पर कुछ कमी-सी लग रही है, जो समझ में नहीं आ रही.”
“चिंता मत करिए, मैं संतुष्ट हूं.” पंखुड़ी ने उसका वाक्य हल्की-सी हंसी के साथ पूरा किया और उठ गई. अपना लेटेस्ट कशीदाकारी का बेशक़ीमती लहंगा नज़ाकत के साथ उठाए पार्लर का कमरा और कॉरीडोर पार करके कार तक पहुंचते हुए पंखुड़ी सारी तारीफ़ भरी नज़रें हसरत के साथ अपनी ओर उठी महसूस कर रही थी.
कार में बैठकर ड्राइवर को चलने का आदेश दे, पंखुड़ी ने सिर हेडरेस्ट से टिकाकर पलकें मूंद लीं. कैसे कहती ब्यूटीशियन से कि वो जानती है कि क्या कमी है. मन की सच्ची ख़ुुशी के बिना कोई सुंदर लग सकता है भला? फिर क्या फ़ायदा ऐसी सुंदरता का, जिसके दम पर मम्मी को गुमान था कि लड़केवाले मांग कर ले जाएंगे. मांग कर तो ले जा रहे हैं लड़केवाले, पर बिल्कुल वैसे ही जैसे कोई प्रदर्शनी में सजी पेंटिग पर मुग्ध होकर मुंहमांगे दाम देकर कहे कि इसे मेरे इंटीरियर डेकोरेटर के पास फ्रेम कराने भेज दो.
तभी नयन का वॉइस मैसेज आ गया- ‘तुम्हारे नेट के एग़्जाम की डेट आ गई है. उसका लिंक और सभी ज़रूरी सामग्री तुम्हारे लैपटॉप में
डाउनलोड कर दी है. ऑल द बेस्ट फॉर एवरीथिंग.’ एक और मैसेज था जिसे सुनने के बाद पंखुड़ी के लिए आंसू रोकना मुश्किल हो गया- ‘हमेशा ख़ुश रहना और किसी भी ज़रूरत के लिए मुझे बताने में सकुचाने न लगना. हम दोस्त थे, हैं और रहेंगे.’
ओह नयन! तुम इतने समझदार और इतने बुद्धू एक साथ कैसे हो सकते हो? क्यों नहीं समझ पाए तुम मेरा मन? नहीं, ऐसा हो ही नहीं सकता कि तुम मेरा मन न समझ पाओ. फिर क्यों तुमने बगावत के लिए मेरा साथ नहीं दिया? मुझमें न सही तुममें तो आत्मविश्‍वास की कोई कमी नहीं? फिर वो आत्मविश्‍वास मम्मी का मन बदलने के लिए काम में क्यों नहीं लाए? और मैं भी कितनी बेवकूफ़ हूं. तुम्हें ये समझाने की कभी कोशिश ही नहीं की कि मैं वहां ख़ुश नहीं रहूंगी. क्या करूं, तुम्हें कैसे समझाती कि अपने आत्मसम्मान को गिरवी रखकर कोई ख़ुशी नहीं ख़रीदी जा सकती. पर तभी पंखुड़ी के विचारों ने दिशा बदली. नयन से बेहतर इस बात को और कौन समझ सकता है. उसने तो कदम-कदम पर… तो क्या इसीलिए नयन ने…? उसकी मम्मी के विरुद्ध जाकर उसे अपनाकर क्या नयन का आत्मसम्मान आहत नहीं होगा? पंखुड़ी के मानस पर अतीत का चलचित्र चलने लगा.


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उसके घर के बगल में घर था नयन का. पहली बार नयन को कब लड़ते देखा था आत्मसम्मान के लिए? छह-सात साल के रहे होंगे दोनों. उस दिन वे दोनों पार्क में थे, जो उनके घर के सामने स़िफर्र् चौड़ी सड़क के पार था. पापा उनकी निगरानी के लिए बेंच पर बैठे थे, तभी ऑफिस से ज़रूरी फोन आ गया. उन्होंने घर की ओर निकलते हुए यूं ही कह दिया, “पंखुड़ी बेटा, अगर घर आना तो नयन का हाथ पकड़ लेना.”
“मुझे नहीं पकड़ना किसी का हाथ. मैं ख़ुद अपना ख़्याल रख सकता हूं.” नेत्रहीन नयन के तमतमाए चेहरे को देखकर सब सकते में आ गए थेे. तभी पापा ने बात सम्हाली थी, “अरे बेटा, तुम तो अपना ध्यान रख सकते हो, पर पंखुड़ी तो नहीं रख सकती न! कितनी अल्हड़ और लापरवाह है. चलती कहीं है, देखती कहीं और गिरती रहती है. मैंने पंखुड़ी से तुम्हारा हाथ पकड़ने को कहा, ताकि तुम उसका ध्यान रख सको.”
उस दिन नन्हें नयन ने जो प्यार से आगे बढ़कर उसका हाथ थामा, तो आज तक नहीं छोड़ा. कहा जाता है कि जब ईश्‍वर कुछ लेता है, तो बदले में बहुत कुछ अनोखा देता भी है. नेत्रहीन नयन इस बात का अनूठा उदाहरण था. गज़ब की चेतना और सतर्कता थी उसके अंदर.
बहुत छोटी उम्र से वो अपना ध्यान ख़ुद रखना सीख गया था. सच ही था, कई बार दोनों के मम्मी-पापा ने देखा और इस बात पर हंसे थे कि पंखुड़ी लड़खड़ाकर गिरने को हुई और नयन ने आगे बढ़कर उसे सम्हाल लिया. पंखुड़ी कहां है, और किस संकट में फंसनेवाली है, वो ये महसूस कर सकता था.
धीरे-धीरे पंखुड़ी भी उसे महसूस करना सीख गई. पार्क में बच्चे उसे साथ खिलाने की ज़िद करने पर मुंह बिचकाते. कुछ बच्चे तो साफ़ शब्दों में उसके अंधेपन की खिल्ली उड़ाते हुए उसको साथ खिलाने से मना कर देते. ऐसे में नयन के चेहरे पर छपी उदासी और बेबसी पंखुड़ी की बर्दाश्त से बाहर हो जाती. वो नयन के लिए सबसे झगड़ पड़ती. और घर आकर भी, कभी-कभी तो बहुत दिनों तक ग़ुस्सा रहती. उन बच्चों से बोलना, उनके साथ खेलना बंद कर देती. लेकिन नयन उसे समझाता, शांत करता और कहता कि वो खेले, नयन उसके जीतने से ख़ुश होता है. वो पार्क की बेंच पर बैठ जाता और उसका ख़ुश चेहरा और ताली बजाती भंगिमा पंखुड़ी के लिए जीत की प्रेरणा बन जाती. पार्क में कुछ पतझड़ और बसंत बीतते-बीतते पंखुड़ी थोड़ी समझदार हो गई और उसे नयन के ख़ुश चेहरे के पीछे छिपी अकेलेपन की उदासी की परत साफ़ दिखाई देने लगी, लेकिन खेल छोड़कर नयन के पास बैठकर बातें करने के लिए बनाया गया कोई भी बहाना नयन तुरंत समझ जाता, “तू खेलेगी नहीं, तो मैं तेरे साथ पार्क आना बंद कर दूंगा. अगर तुझे जीतते या जीत के लिए संघर्ष करते नहीं देखना है, तो मेरा यहां आना बेकार है.” नयन के स्वर की सख़्ती पंखुड़ी के दिल को छू जाती.
शुरुआती कक्षाओं में नयन को उसकी मां ने घर पर ही पढ़ाया. बिना ब्रेल लिपि में सिद्धहस्त हुए वो स्कूल जा नहीं सकता था. पंखुड़ी स्कूल से लौटते ही सीधे नयन के घर आती. हालांकि मम्मी से इसके लिए बहुत डांट खाती, पर नयन से सारी बातें शेयर किए बिना न उसे भूख लगती थी, न चैन पड़ता था.


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कभी-कभी मम्मी ज़्यादा चिढ़ जातीं, तो पापा कहते, “जाने दो. दोनों अकेले हैं और अपना अकेलापन बांट लेते हैं, ये तो अच्छी बात है.” नयन के मम्मी-पापा भी पंखुड़ी पर जान छिड़कते थे और अपने पापा की तो वो जान थी. उसके क्लर्क पिता ने ़फैसला किया था कि वो एक ही संतान करेंगे, ताकि उसकी हर ज़रूरत पूरी कर सकें.
फिर वो दिन भी आया जब नयन को स्कूल जाना था. नयन के उत्साह का ठिकाना नहीं था. अकेलेपन की अंध गुफा में उसका स़िर्फ एक साथी था- पंखुड़ी. पर आज उसके सामने एक ऐसी दुनिया खुलनेवाली थी, जो न स़िर्फ उसे नए दोस्त देनेवाली थी, बल्कि कहीं न कहीं उसे सामान्य की श्रेणी में भी रखनेवाली थी. वो भी सब बच्चों की तरह स्कूल जाएगा. उसके पास भी करने के लिए बहुत सारी गतिविधियां और लौटकर मम्मी-पापा को बताने के लिए ढेर सारी बातें होंगी. पंखुड़ी ने गेट, फिर मैदान, फिर कक्षाओं का ऐसा खाका खींचा था कि उसे पूर्ण विश्‍वास हो गया था कि वो कहीं गिरेगा नहीं.
लेकिन पहले ही दिन उसका सामना इस बेरहम दुनिया से हुआ. कुछ उसकी अतुलनीय मेधा तथा संजीदगी थी और कुछ अध्यापिकाओं
की संवेदनशीलता और सहानुभूति कि पहले ही दिन से उसे अध्यापिकाओं की इतनी प्रशंसा और प्रोत्साहन मिला कि वो कुछ बिगड़े विद्यार्थियों की ईर्ष्या का कारण बन गया. वो उसे
तरह-तरह से परेशान करते. स़िर्फ उपहास ही नहीं उड़ाते, बल्कि उसकी नेत्रहीनता का फ़ायदा उठाकर उसे चोट पहुंचाने का भी कोई मौक़ा न छोड़ते.
स्कूल खुलने के दस ही दिन बाद पंखुड़ी की बैडमिंटन की इंटर-स्कूल प्रतियोगिता में चयन के लिए प्रतियोगिता होनेवाली थी. नयन को पंखुड़ी के ही वर्ग में रखा गया था, ताकि वो अकेला महसूस न करे. प्रधानाध्यापिका ने भी पंखुड़ी को बुलाकर समझाया था कि वो नयन का विशेष ध्यान रखे. यदि बच्चे उसके साथ दुर्व्यवहार करें, तो तुरंत सूचित करे. लेकिन पंखुड़ी को पूरा समय खेल के अभ्यास में जाना होता था. वो लंच के समय या अति आवश्यक क्लास अटेंड करने ही कक्षा में आती और नयन से पूछती कि सब ठीक है, तो वो ख़ुुश नज़र आता.
उस दिन पंखुड़ी बहुत ख़ुश थी कि दर्शकों की भीड़ में नयन भी होगा उसका उत्साह बढ़ाने को. उधर वो शरारती लड़के नयन के साथ कुछ और ही खेल खेल रहे थे. वो नयन को खेल के मैदान की बजाय बिना बाउंड्री वॉल वाले टेरेस पर ले गए थे. एक ने उसकी छड़ी छीन ली और उसे रास्ता ढूंढ़ने को कहकर ठहाके लगा रहे थे कि एक अध्यापिका पहुंच गईं.
“तुमने अपनी दोस्त पंखुड़ी या किसी अध्यापिका को पहले क्यों नहीं बताया?” उन बच्चों को सज़ा देने के बाद प्रधानाध्यापिका ने नयन से पूछा.
“पंखुड़ी को पता नहीं चलना चाहिए. वो बहुत भावुक भी है और ग़ुस्सैल भी. अगर उसे पता चला, तो वो मुझे छोड़कर अभ्यास में नहीं जाएगी और मेरे लिए लड़कर इतना ग़ुस्सा पाल लेगी मन में कि खेल में ध्यान भी नहीं लगा पाएगी. इस तरह किसी इंटर-स्कूल प्रतियोगिता में जाने का उसका ख़्वाब पूरा नहीं हो पाएगा. मैं नहीं चाहता कि मेरे कारण ऐसा हो. वैसे भी मेरे जीवन की व्यावहारिक समस्याओं से मुझे ही जूझना सीखना चाहिए.”
नयन की समझदारी और आत्मसम्मान की भावना उस दिन दरवाज़े पर उसकी बातें सुन रही पंखुड़ी के साथ-साथ अध्यापिकाओं की आंखों में भी पानी ले आई थी.

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घड़ी की सुइयां अपनी गति से चलती रहीं. कैशोर्य की दहलीज़ पर कदम रखने के साथ ही पंखुड़ी का असाधारण सौंदर्य लोगों की प्रशंसा के साथ-साथ ईर्ष्या और पंखुड़ी की मां के असाधारण सपनों का कारण बनता जा रहा था. अठारह की होते-होते उसके लिए रिश्तेदारों ने तीन-चार रिश्ते बता दिए.
घर में बात चलाई, तो पंखुड़ी के पिता भड़क उठे. मां और रिश्तेदारों ने तमाम तर्क दिए, पर पिता की सख्त आवाज़ ने बातचीत का अंत कर दिया.
“जब तक पंखुड़ी जितना पढ़ना चाहती है, उतना पढ़कर आत्मनिर्भर नहीं हो जाती, मैं उसकी शादी के विषय में कुछ नहीं सुनना चाहता.”
दरवाज़े के पीछे से सब कुछ सुन रही पंखुड़ी का मन हुआ दौड़कर पापा से लिपट जाए. पापा उसे समझते हैं, इस बात से उसका मन प्रफुल्लित था, लेकिन उसके मन में कूटकर संस्कार भरनेवाली मां थीं. नौ-दस साल की उम्र से ही मां ने पापा से लिपट-चिमट जाने, उन्हें चुंबन देने या बहुत क़रीब बैठकर दिल की बातें करने पर बवाल खड़ा करना शुरू कर दिया था. मां की सख्ती से बोली जानेवाली बातों की निरंतरता ने उसके और पापा के बीच संवाद की भी दूरी बना दी थीे.
स्कूल में लंच में या खाली समय में दिल की सभी उहापोह नयन के दिल में डालकर वह निश्‍चिंत हो जाती और नयन कुछ ही दिनों में समाधान परोस देता, “तुम ह्यूमैनिटीज़ में ग्रेजुएशन करो. विषय तुम्हारी पसंद के मैंने बता ही दिए हैं. तीन सालों में ये तय कर लेंगे कि तीनों में से कौन-सा तुम्हें सबसे ज़्यादा पसंद है. फिर…”
“वाह!” मेरा मन हल्का हो गया.
“पता है नयन? मैं यही चाह रही थी, पर मुझे पता ही नहीं था कि… कौन कहता है कि तुम नेत्रहीन हो. तुम्हारी नज़रें तो एक्सरे मशीन की तरह हैं, जो मेरे दिल की वो बातें भी समझकर मुझे ही समझा देती हैं, जिन्हें मैं ख़ुद से भी नहीं जान पाती.” उन दोनों के ठहाके लड़कों की ईर्ष्या का कारण बनते और नयन उस ईर्ष्या के परिणामस्वरूप अक्सर अपमानित होता. पंखुड़ी उनसे लड़ती और ख़बर मम्मी तक पहुंचने पर मम्मी पंखुड़ी की ख़बर लेतीं. उम्र के साथ पंखुड़ी पर मम्मी की हुकूमत बढ़ती गई और उसका आत्मविश्‍वास सिकुड़ता गया.
स्कूल के साथ ही नयन का स्कूल में मिलनेवाला साथ भी ख़त्म हो गया और घर में मम्मी की पाबंदियों ने भौतिक दूरी भी बना दी. लेकिन अब वे मन से और क़रीब आ गए थे. उन्हें वॉइस मैसेज के जरिए दिल के दर्द बांटने से रोकना मम्मी के बस से बाहर था.
नयन संगीत का व्याख्याता बन चुका था. उधर पंखुड़ी को पास के छोटे स्कूल में नौकरी मिल गई और मम्मी को पापा की शर्त ख़त्म होने की शांति. तभी ये रिश्ता घर चलकर आया और मम्मी को मनचाही मुराद मिल गई.
पंखुड़ी के आंगन से तेज़ी से बोलने पर नयन के आंगन में बात सुनाई देती थी. छुट्टी का दिन था. मम्मी ने जान-बूझकर आंगन में बात छेड़ी थी.
“शायद पंखुड़ी नेट क्रैक करना चाहती है और फिर शायद उसका मन… एक बार उससे पूछ लेना चाहिए.” पापा की इतनी-सी बात पर मम्मी आगबबूला हो गईं.
“आख़िर चाहते क्या हैं आप? लड़की को घर बिठाकर रखना है या एक अपाहिज़ की छड़ी बनाने का इरादा है? पंखुड़ी के अठारह की होने के बाद से तीन रिश्ते छोड़ चुके हैं हम. या तो आप मुझे इस रिश्ते में कोई एक कमी बता दीजिए या बात पक्की करने जाइए.” नयन सब कुछ सुन चुका था.
पंखुड़ी फिर भी उसकी राय लेने गई, तो उसने कह दिया, “रिश्ते में कमी तो सच में कोई नहीं नज़र आती. तुम ख़ुश रहोगी.” पंखुड़ी के शब्द निःशब्द हो गए और पलकों से नदी बह चली. मम्मी की अनुपस्थिति में पापा उसकी राय जानने आए थे. बहुत सुगबुगाया था मन, लेकिन क्या कहती. उसने और नयन ने दिल की गहराई में दफ़न अपने जज़्बातों को शब्द कभी दिए ही नहीं थे. ऐसे में अकेले अपने जज़्बातों को शब्दों का जामा पहनाने का कोई संबल उसके पास नहीं था. उसके शब्द मन की कैद में छटपटाते ही रह गए.
सगाई हुई और लड़केवालों ने शुरू किया सिलसिला पंखुड़ी नाम की ख़ूूबसूरत पेंटिंग को अपने घर के बेशक़ीमती फ्रेम में मढ़ने के लिए उसके व्यक्तित्व की कांट-छांट का. हालांकि मम्मी की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था, जब पहली बार महंगी शोफर ड्रिवेन कार पंखुड़ी को शादी की शॉपिंग के लिए लेने आई थी.
लेकिन शॉपिंग से लौटकर पंखुड़ी रोते हुए मम्मी से लिपट गई थी. शॉपिंग के दौरान महंगे रेस्टॉरेंट में लंच के लिए गए थे वो. उसके होनेवाले पति गर्वित ने उसका मज़ाक बनाते हुए उसे कांटे-छुरी से नज़ाकत के साथ खाना सीखने की हिदायत दी थी. रेस्टॉॅरेंट में खाने से पहले शराब लेना उसके लिए स्टेटस सिंबल था और भी बहुत कुछ…
“घर आ गया.” ड्राइवर की आवाज़ से पंखुड़ी वर्तमान में लौटी और अपना लहंगा समेटकर अपने कमरे में आ गई. तभी सास का फोन आ गया, “तुम दोबारा पार्लर चली जाओ. हमारे उस लुच्चे वेडिंग प्लानर ने दगाबाज़ी कर दी. हमारे बिज़नेस राइवल का थीम ही हमें बता दिया, जिनके बेटे की शादी अभी पिछले महीने हुई थी. अब हम भी वही थीम ड्रेसेस पहनेंगे, तो लोगों को लगेगा कि हमने नकल की है. ऐसी ही गफ़लत के लिए हमने सबकी दूसरी पोशाकें तैयार करवाकर रखी थीं.”
“… लेकिन तैयार करने में तो पार्लर ने दो घंटे का समय…”
“अरे अभी तो सब पीकर टुन्न हैं. बारात निकलने के बाद डांस में समय लगेगा. बारात पहुंचने से पहले आ जाओगी वापस.”
“लेकिन मम्मीजी, वो लहंगा बहुत गड़ता…”
“देखो, जो कह दिया वो करो. एक बात तुम आज ध्यान से सुन लो. हमारे यहां बहुओं को न कहने की इजाज़त नहीं है.” बात समाप्त करके सास ने फोन रख दिया और उससे मिलने आए नयन ने सुन लिया. थोड़ी देर दोनों पलकों पर नदी बांधे निःशब्द बैठे रहेे.

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“तुमने ये सब पहले क्यों नहीं बताया?”
“तुम तो मेरा चेहरा पढ़ लेते थे. तुमने ख़ुुद क्यों नहीं पढ़ लिया? तुम कैसे नहीं देख पाए मेरा दिन-ब-दिन मुरझाता चेहरा?” पंखुड़ी की वेदना नाराज़गी के बहाव में बह रही थी कि उसने अपने होंठ काट लिए. क्या वो नयन की नेत्रहीनता का मज़ाक बना रही है?
पर नयन उसकी व्यथा में उसके साथ बह रहा था. उसने पंखुड़ी के शब्दों को सामान्य ढंग से लिया. “हां, नहीं देख सका, क्योंकि शादी तय होने के बाद से तुम मेरे सामने आई ही नहीं. पिछले चार महीनों में एक बार भी नहीं. कोई वॉइस मैसेज भी भेजतीं, तो तुम्हारी आवाज़ में ही तुम्हारी परेशानी दिख जाती मुझे. मैं तो तुम्हारी दूरियों का कारण ये समझता रहा कि तुम सात फेरों की पवित्र अग्नि के सामने किसी और की होने से पहले मेरे प्रति अपने अनुराग को भूलना चाहती हो, इसलिए भौतिक दूरी का सहारा ले रही हो और
मैं भी इसीलिए…”
“भूलना चाहती हूं? मैं तुम्हारे प्यार को भूल सकती हूं? भौतिक दूरी के सहारे? तुमने ये सोच भी कैसे लिया?” कहते हुए पंखुड़ी मुड़ी तो लहंगे से अटककर गिरने को हुई और नयन ने तुरंत आगे बढ़कर उसका हाथ थाम लिया. पंखुड़ी ने उसका हाथ कसकर पकड़ लिया.
“ये अभी-अभी हमने क्या कहा नयन? जो जज़्बात कभी शब्द न बन सके, उन जज़्बातों को आज शब्द मिले? आज जब…” पंखुड़ी फूटकर रो पड़ी और नयन ने उसका चेहरा अपने हाथों में ले लिया और उसके आंसू पोछते हुए बोला, “अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा. तुम इस शादी से मना कर दो. मैं तुम्हारी मम्मी को मनाने में तुम्हारा साथ दूंगा.”
“तुम?” पंखुड़ी नाराज़गी से बोली.
“देखो पंखुड़ी, बात को समझने की कोशिश करो. दोनों समस्याओं को अलग रखो. तुम्हारी मम्मी तुम्हारी शादी एक अपाहिज़ से यानी मुझसे नहीं करना चाहतीं. इसे मैं ग़लत नहीं मानता. इसलिए तब मैंने तुम्हारा साथ नहीं दिया. सोचा था तुम पति का प्यार पाकर मुझे भूल सकोगी, लेकिन एक ऐसी जगह शादी करने को तैयार हो जाना, जहां तुम्हारे मन की कद्र नहीं, आत्मसम्मान की कद्र नहीं, ये सरासर ग़लत निर्णय है. मैं तुम्हें ये निर्णय नहीं लेने दूंगा.” पंखुड़ी की उम्मीद बंध गई, पर दूसरे ही पल वो फिर सहम गई.
“बारात दरवाज़े आ गई है. सारी तैयारियां हो गई हैं. अब कैसे..?”
“बारात और तैयारियां शादी के लिए होती हैं, शादी बारात और तैयारियों के लिए नहीं…” पापा उन लोगों की सारी बातें सुन रहे थे और अब उनका दृढ़ स्वर गूंजा.
“वैसे भी बारात दरवाज़े पर नहीं जनवासे में है, जहां ज़्यादातर लोग पीकर धुत हैं. पिछले चार महीनो में मैं उनके अहंकार और तानों से आहत होकर भी चुप रहा ये सोचकर कि मेरी बेटी ख़ुश है, पर मुझे क्या पता था कि मेरी बेटी…” उन्होंने बांहें फैला दीं और पंखुड़ी उनसे लिपट गई. पंखुड़ी को सांत्वना का दुलार करने के बाद वो मम्मी की ओर मुखातिब हुए, “ऐसी जगह ब्याहना चाहती हो तुम बेटी को जहां उसे न कहने का भी अधिकार नहीं? कैसे तुम उसका मुरझाता चेहरा और आंसू न देख पाई मां होकर भी?” मां ने सिर झुका लिया.
“मुझे भी स्थिति की गंभीरता का एहसास आज ही हुआ. जब पंखुड़ी की सास का फोन मेरे पास आया. बड़े ही अहंकारी लहजे में पंखुड़ी की दोबारा तैयार होने की ना-नुकुर की शिकायत करते हुए.”
पापा ने तुरंत पंखुड़ी की सास को फोन लगाया, “आपके यहां बहुओं को न कहने का हक़ नहीं है न? पर हम तो न कह सकते हैं. नाज़ों से पाली बेटी है मेरी, एक इंसान, एक व्यक्तित्व… कोई तस्वीर नहीं, जिसे आपके घर के फ्रेम में मढ़ने के लिए दे देंगे.” पापा फूटकर रो दिए और पंखुड़ी को ऐसे दुलारने लगे जैसे सालों की कसर पूरी कर लेना चाहते हों. नयन जाने लगा, तो उन्होंने पंखुड़ी को छोड़कर उसका हाथ थाम लिया और पंखुड़ी का हाथ उसके हाथ में देकर बोले, “इसे देखा तो स़िर्फ तुमने है. तुम ही इसे समझ सकते हो, इसका ध्यान रख सकते हो. देखना ये कभी गिरने न पाए, कभी हारने न पाए…”

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