जीवन में कई बार ऐसे वाकये या हादसे हो जाते हैं जो ज़िंदगी की चाल ही बदल देते हैं या यूं कहें कि हमें तोड़कर रख देते हैं. ऐसी बातों को सीने से लगाए रखने की बजाय आगे बढ़ना और नई शुरुआत करना ही जीवन है. ये मुश्किल है, मगर नामुमक़िन नहीं.ज़िंदगी रुकती नहीं
कितनी भी बड़ी आपदा या हादसा क्यों न हो जाए ज़िंदगी ठहरती नहीं. हां, कुछ समय के लिए इसकी रफ़्तार ज़रूर धीमी पड़ जाती है, लेकिन उसे फिर अपने पुराने ढर्रे पर आना ही पड़ता है. चाहे जापान में आई सुनामी हो या हाल ही में उत्तराखंड में आई प्राकृतिक आपदा, इतने बड़े विनाश के बाद भी धीरे-धीरे ही सही, ज़िंदगी फिर पटरी पर आने लगती है, क्योंकि जो हो गया उसे हम बदल नहीं सकते, जो अपना चला गया उसे हम वापस नहीं ला सकते, लेकिन आने वाले कल को संवारने की कोशिश तो कर ही सकते हैं. अपने और अपने आसपास के लोगों की ख़ातिर हमें जो हो गया उसे भुलाकर फिर से जीवन की नई शुरुआत करनी ही पड़ती है.
जब तक आस है...
बात चाहे कुदरत के कहर की हो या जीवन में किसी अन्य तरह की असफलता की, आगे बढ़ने के लिए सबसे ज़्यादा ज़रूरी है उम्मीद. चाहे किसी अपने का साथ छूट जाए या कोई मनचाही मुराद पूरी न हो पाए, हम जीने की उम्मीद नहीं छोड़ सकते. कई बार ज़िंदगी ऐसा मोड़ ले लेती है कि जीने की दिशा ही बदल जाती है. हम अपने आस-पास ऐसे कई उदाहरण देख सकते हैं जिन लोगों ने अपना सबकुछ गवांकर भी जीने की ललक नहीं छोड़ी और अपना जीवन दूसरों की सेवा में समर्पित कर दिया. इसी तरह कई बार आपके करियर की दिशा बदल जाती है. आप बनना कुछ चाहते हैं, लेकिन हालात आपको कुछ और ही बना देते हैं. ऐसी तमाम स्थितियों में जीत उसी की होती है जो हार नहीं मानता और हर स्थिति में ख़ुद को बेहतर साबित करने की भरसक कोशिश करता है.
जो बीत गई सो बात गई
"टूटे तारों पर कब अंबर शोक मनाता है, जो बीत गई सो बात गई'', हरिवंश राय बच्चन की कविता की इन पंक्तियों का सही अर्थ समझकर यदि आप इन्हें जीवन में उतार लेंगे, तो मुश्किल से मुश्किल हालात से भी ख़ुद को उबारकर जीवन में आगे बढ़ सकेंगे. ज़िंदगी में बहुत से ऐसे लोग, चीज़ें, बातें और पल होते हैं जिनके छिन जाने पर आपको बहुत दुख होता है या आपकी पूरी ज़िंदगी ही बदल जाती है. कई बार तो लगता है जैसे जीने का कोई मक़सद ही नहीं बचा, मगर जब तक आप ज़िंदा हैं आपको अतीत को भुलाकर आगे बढ़ना ही होगा, वरना आप ज़िंदा होकर भी ज़िंदगी नहीं जी पाएंगे.
- कंचन सिंह
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