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कहानी- हमारी अधूरी कहानी (Short Story- Hamari Adhuri Kahani)

प्रतिभा तिवारी

“फैमिली में कौन है तुम्हारे? पति क्या करते हैं तुम्हारे..? बच्चे?”
“अरे, इतने सारे सवाल… इतना उतावलापन. अब तक नहीं बदले तुम. कहा तो था तुमसे शादी पर यक़ीन नहीं करती, तो शादी करने का सवाल ही कहां आता है.”
मैं भरसक कोशिश कर रही थी कि कहीं वो मेरी आंखों में ख़ुद के लिए प्यार के लफ़्ज़ न पढ़ ले.

आज फिर न जाने कहां से आ गया वो अचानक यूं ही सामने… चार साल बाद… वही मुस्कुराता चेहरा… शरारती आंखें… पर मेरी आंखों से शरारत गायब थी. इन्फैक्ट मैं तो बहुत बेचैन हो गई थी उसे यहां देखकर.
“अरे विश्‍वसुंदरी, मिस यूनिवर्स… कहां गायब हो गई थी चार साल. कितना तड़पा तुम्हारी याद में, कुछ एहसास
भी है तुम्हें?”
वही पुरानी आदत, सोचना-समझना कुछ नहीं. बस बोलते चले जाना. मैं भी तो ऐसी ही थी. चार साल पहले की दिव्या होती मैं तो कह देती, “जो मज़ा तड़पाने में है, वो और किसी में कहां.”
लेकिन आज शायद मैं पूरी तरह बदल चुकी थी. सीरियस हो गई थी लाइफ को लेकर. रिलेशनशिप को लेकर.
“चलो कॉफी पीते हैं.” उसके कहने पर हम दोनों ने कैफेटेरिया में बैठकर कॉफी पी. वो बोलता रहा, मैं सुनती रही. पता नहीं
क्या-क्या बोल गया वो… और मैं बस सुनती रही उसे.
“तुम बदल गई हो यार बहुत.” उसने भी शायद मुझमें बदलाव को पहचान लिया था. वो तो जाना ही नहीं चाहता था. लेकिन संडे मिलकर एक घंटा साथ बिताएंगे, मुझसे ये प्रॉमिस लेकर ही छोड़ा उसने मुझे.
और जब से घर लौटी हूं, मन बेचैन हो गया है. क्या था ये, पता नहीं… या समझना नहीं चाहती मैं. कहीं मुझे उससे…
अरे ये क्या सोचने लगी मैं. चार साल पहले तो ऐसा नहीं था.
अच्छे फ्रेंड थे हम दोनों. वो हैंडसम, अच्छी पर्सनैलिटी थी उसकी और हमेशा हंसते-मुस्कुराते रहना उसकी आदत. और मैं सांवली-सी… छोटा क़द… कपड़े पहनने का सलीका भी नहीं आता था. वैसे हम दोनों में कोई साम्य नहीं था. वो बातूनी था और मैं अच्छी श्रोता… मैं शेरो-शायरी कर लेती और मेरी हर शायरी में कुछ शब्द जोड़-घटाकर वो उसे और ख़ूबसूरत बना देता.

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वो गज़ब का रोमांटिक… और मेरा प्यार पर यक़ीन ही नहीं था. एक बार उसने पूछा था, “यार किसी से प्यार क्यों नहीं कर लेती.”
“तुम तो जानते हो, प्यार-व्यार मेरे बस की बात नहीं. और मुझ जैसी बदसूरत लड़की से प्यार करेगा कौन?”
“मैं हूंं ना.” वो शाहरुख खान के अंदाज़ में बोला. “और कौन कहता है तुम बदसूरत हो. मेरे लिए तो तुम विश्‍वसुंदरी हो.”
बस उसी दिन से मेरा नामकरण विश्‍वसुंदरी हो गया.
हम रोज़ ही मिलते. दुनिया जहान की बातें करते. पॉलिटिक्स, सोशल टॉपिक, कहानियां, कविताएं…. हर टॉपिक पर हम घंटों बातें करते. लेटनाइट तक टाइमपास करते. न उसे घर जाने की जल्दी होती, न मुझे. मेरा तो इस शहर में कोई था ही नहीं और वो ठहरा मस्तमौला इंसान. एक दिन भी हम न मिलते, तो वो रात को फोन करता, “यार आई एम मिसिंग यू. मिलना ज़रूरी लगता है.”
“मुझे नहीं लगता. और मेरे प्रेमी थोड़े ही हो तुम जो मिस करो. दोस्त हो दोस्त की तरह रहो.”
“अरे, मज़ाक कर रहा था यार. तुमसे कौन प्यार करेगा.”
“तो मैं कौन-सा सीरियस हूं तुम्हें लेकर. मैं भी मज़ाक ही कर रही थी.”
बस फिर वही बकवास करते रहते हम दो-तीन घंटे. हमारा रिश्ता इतना अलग था कि हमारी दोस्ती को सब पसंद करते. वो मार्केटिंग हेड था कंपनी का और मैं अकाउंटेंट. लेकिन सोच एक जैसी थी हमारी. पसंद एक थी. यहां तक कि बातचीत के मुद्दे भी समान ही होते हमारे.
उसे फिल्मी डायलॉग्स बोलने का शौक था और मुझे सुनने का. अमिताभ बच्चन का फैन था वो. एक बार हम यूं ही बैठे थे समुद्र किनारे. वो बोला, “कुछ सुनाऊं?”
“ना बोलूंगी तब भी कहां माननेवाले हो. बोलो.”
“मैं और मेरी तन्हाई अक्सर… ये बातें करती रहती हैं… तुम होती तो कैसा होता… तुम ये कहती तुम वो कहती… तुम इस बात पर हैरान होती…”
“बस करो यार. कितने फिल्मी हो तुम. तुम्हें तो प्यार कर ही लेना चाहिए. शादी भी.”
“ठीक है, तो समझो हो गया. अब आगे का सुनाऊं?”
“फिर कभी यार. बोर मत करो तुम.”
“तुम्हारी कोई बात नहीं टाली आज तक. ये भी नहीं टालूंगा. लेकिन पूरी कविता एक न एक दिन सुननी ज़रूर पड़ेगी तुम्हें.
याद रखना.”


ऐसी ही न जाने कितनी यादें थीं, उससे जुड़ी, जो आज अचानक याद आने लगीं. हमेशा मेरे आसपास ही मंडराता रहता था. ऑफिस में लोगों को लगता कि हमारे बीच रोमांस चल रहा है, कुछ लोगों ने तो मुझे मज़ाक में कहा भी कि कहीं वो तुमसे प्यार तो नहीं करने लगा है.
लेकिन मैं उन्हें डांटकर चुप करा देती.
“यार क्या एक स्त्री और पुरुष अच्छे फ्रेंड नहीं हो सकते. कितनी घटिया सोच है तुम लोगों की.”
उसी दिन मेरी ही एक सहयोगी अनुभा जो मेरी बहुत अच्छी फ्रेंड भी थी, बोली, “सच कहूं तो स्त्री-पुरुष दोस्ती के बीच बहुत बारीक रेखा होती है. गहरी दोस्ती कब प्यार में बदल जाती है, पता भी नहीं चल पाता.”
“अब तू भी शुरू हो गई अनुभा. तुम लोगों की सोच कितनी छोटी है यार. वो मेरा अच्छा दोस्त है, बस और कुछ नहीं.”
आज पता नहीं क्यों उससे जुड़ी यादें पीछा ही नहीं छोड़ रही थीं. सच कहूं तो मैं उसकी यादों से पीछा छुड़ाना भी नहीं चाहती थी. इन्हीं यादों के साथ तो जी पाई हूं चार साल.
फिर एक दिन अचानक वो आया और बोला, “यार घर पर अब शादी के लिए बहुत प्रेशर डाल रहे हैं. कल ही एक लड़की को फाइनल कर लिया उन्होंने. क्या करूं, कुछ बताओ यार.”
“शादी कर लो और क्या करोगे. इतना क्या सोचना.”
“ये फाइनल ़फैसला है मेरे लिए तुम्हारा. सच कर लूं शादी.”
“बिल्कुल.”
“और तुम?”
“मैं इस शादी, प्यार-मोहब्बत पर यक़ीन नहीं करती, जानते हो न तुम.”
“ठीक है. आज तक तुम्हारी बात नहीं टाली मैंने. अब भी नहीं टालूंगा…” और उसने उसी क्षण अपनी मां को फोन लगाया और शादी के लिए हां कर दी. पर वो ख़ुश नहीं लगा मुझे, पता नहीं क्यों.
एक महीने बाद ही उसकी शादी थी. चूंकि शादी गांव में थी, इसलिए जाने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था. शादी के लिए छुट्टी भी नहीं ली उसने. त्यागपत्र दे दिया. पूछने पर इतना ही बोला, “नई ज़िंदगी बिल्कुल नए तरह से शुरू करना चाहता हूं. पुरानी बातों को भुलाकर. तभी उसे ख़ुश रख पाऊंगा.”
पता नहीं उस दिन उसकी आंखों में क्या नज़र आया मुझे, जिसने बेचैन कर दिया. अजीब-सी बेचैनी महसूस होने लगी. कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था.
उसने पूछा भी, “आर यू ऑलराइट?” मैंने हां तो कर दी, लेकिन मैं ऑलराइट नहीं थी. बेचैन ही रही. घर लौटी, तो ख़ूब रोई, ऐसा लगा कि कोई बहुत प्रिय वस्तु हाथ से छिन गई… हमेशा के लिए… जैसे कोई बहुत बड़ी ग़लती कर दी मैंने.
वो दिल्ली शिफ्ट हो गया फाइनली. उसके जाने के बाद एक अजीब-सा खालीपन आ गया ज़िंदगी में. हर पल बस वो ही यादों में बसा रहता. उसकी ही बातें याद आती रहतीं. सच कहूं तो उसे खोने के बाद महसूस हुआ कि उसे प्यार करने लगी थी मैं. बहुत ज़्यादा.
अनुभा से मेरी हालत छिपी नहीं रही. उसने एक दिन पूछ ही लिया, “तुम अमित को मिस कर रही हो ना? जानती हूं. लेकिन तुम्हारी वो प्यार पर यक़ीन नहीं करती, शादी नहीं करूंगी, वाली झूठी बातें न… तुमने ख़ुद ही अपने साथ अन्याय किया.”
बस मैं उससे लिपटकर रो पड़ी, “इस बात का एहसास तो बहुत पहले ही हो गया था मुझे कि मैं अमित को प्यार करने लगी हूं. पर हमेशा डरती रही कि कहीं वो मुझे रिजेक्ट न कर दे. कहां वो हैंडसम बंदा और कहां मैं. बस कभी कुछ कह नहीं पाई. लेकिन अब बहुत तड़प रही हूं यार उसके लिए.”
“तू जानती भी है दिव्या, अमित कितना प्यार करता था तुझे. कई बार कहना भी चाहा तुझे उसने. पर तूने कभी उसे मौक़ा ही नहीं दिया. बड़ी देर कर दी यार तूने.”
जानती थी कि अब अमित को कभी हासिल नहीं कर पाऊंगी मैं. तो बस उसकी यादों के सहारे ही ज़िंदगी बिताने का ़फैसला कर लिया. ख़ुद को बस काम में झोंक दिया. हां, इस बीच मैं पूरी तरह बदल ज़रूर गई थी. प्यार के मायने समझने लगी थी. लोगों को समझाने लगी थी.
अमित मेरे जीवन का हिस्सा नहीं बन पाया था, पर मेरे हर अकेले से लम्हों में स़िर्फ वो ही होता. कई बार तो सच लगता कि उसने विश्‍वसुंदरी कहकर पुकारा… लेकिन वो स़िर्फ एक ख़्याल होता.
इसलिए उस दिन जब वो मिला और उसने मुझे पुकारा तो मैंने समझा फिर वही ख़्याल… लेकिन वो तो साक्षात सामने खड़ा था और मुझे यक़ीन ही नहीं हुआ.
अब तो बस रविवार का इंतज़ार था. मन में पता नहीं कैसे-कैसे ख़्याल आ रहे थे. अमित शादीशुदा है. अब उससे मिलना ठीक रहेगा क्या? लेकिन फिर सोचा उसे कौन-सा अपने एहसास बतानेवाली हूं. दोस्त की हैसियत से तो मिल ही सकती हूं. इसी बहाने प्यार के एहसास के साथ थोड़ा समय तो उसके साथ बिताऊंगी.
आख़िर रविवार आ ही गया. सुबह से मन में कुछ अजीब-सा हो रहा था. शायद अमित से मिलने की व्यग्रता थी, उतावलापन था. हमें शाम को एक कॉफी शॉप में मिलना था.
वो उसी अंदाज़ में मिला.


“हे विश्‍वसुंदरी, बड़ी बेसब्री से इंतज़ार किया इस संडे का. चलो कॉफी पीते हैं.”
सामने बैठा वो मुझे देखे ही जा रहा था, लेकिन मेरी आंखों में इतना साहस नहीं था कि उसकी आंखों का सामना कर पाऊं.
“और बताओ, कैसी चल रही है लाइफ.” मन में तो आया कह दूं तुम्हारे बिना लाइफ चलती तो है, पर अब तक मंज़िल पर नहीं पहुंच पाई, लेकिन फिर सोचा अब क्या फ़ायदा ये सब कहने का. बेवजह किसी की शादीशुदा ज़िंदगी में हलचल क्यों मचाना.
“ठीक हूं.”
“फैमिली में कौन है तुम्हारे? पति क्या करते हैं तुम्हारे..? बच्चे?”
“अरे, इतने सारे सवाल… इतना उतावलापन. अब तक नहीं बदले तुम. कहा तो था तुमसे शादी पर यक़ीन नहीं करती, तो शादी करने का सवाल ही कहां आता है.” मैं भरसक कोशिश कर रही थी कि कहीं वो मेरी आंखों में ख़ुद के लिए प्यार के लफ्ज़ न पढ़ ले.
“तुम सुनाओ, तुम्हारी ज़िंदगी कैसे चल रही है. तुम्हारी पत्नी, बच्चे…?”
“सब ठीक हैं. मैं भी, ज़िंदगी भी. बस…”
“बस क्या अमित?”
“बस तुम नहीं हो और तुम्हारे बिना ज़िंदगी की कहानी अधूरी है. कल भी थी. आज भी है.”
“पागल हो तुम. मुझे बहकाना कब छोड़ोगे. अब तो शादीशुदा हो. ये शरारतें छोड़ दो.”
“आज एक अधूरी कहानी पूरी करना चाहता हूं. कुछ बात अधूरी ही छोड़ गया था उसे पूरा करने दो.” और वो फिर शुरू हो गया अपने फिल्मी अंदाज़ में.
“मैं और मेरी तन्हाई अक्सर ये बातें करती रहती हैं… तुम होती तो कैसा होता… तुम ये कहती तुम वो कहती, तुम इस बात पर
हैरान होती.
तुम इस बात पर कितना हंसती… तुम होती तो ऐसा होता… हां तुमसे मोहब्बत है मोहब्बत है…“
“ये क्या मज़ाक है अमित?”


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“मज़ाक नहीं, सच है. जो उस दिन नहीं कह पाया. अधूरी ही रह गई मेरे प्यार की कहानी उस दिन, जिसे आज पूरी करना चाहता हूं.”
मेरी आंखों से आंसू बहने लगे. ये कुछ खोने का दर्द था.
अब क्या फ़ायदा इन बातों का. अमित अब कहां हासिल होता मुझे. वो तो चार साल पहले ही किसी और का हो गया था.
“अमित प्लीज़, सुधर जाओ. तुम शादीशुदा हो. इस तरह का मज़ाक मत करो मेरे साथ.”
“मज़ाक नहीं कर रहा. सच कह रहा हूं. तब नहीं कह पाया, क्योंकि नहीं जानता था कि तुम क्या सोचती हो मेरे बारे में. पर अब अनुभा ने सब बता दिया है.”
“अनुभा? वो कब मिली तुम्हें.”
“पिछले हफ़्ते जब दिल्ली आई थी. उसने जब तुम्हारे बारे में बताया, तो ख़ुद को रोक नहीं पाया और मुंबई आ गया.”
“और तुम्हारी शादी?”
“वो तो तुमसे दूर हो जाने का एक बहाना था. यार तुम मान नहीं रही थी और मैं हिम्मत नहीं कर पा रहा था तुम्हें डायरेक्ट पूछने की. क्या करता, ख़ुद को दूर कर लिया तुमसे. ये सच है कि मां ने लड़की पसंद कर रखी थी, पर मेरी पसंद तो स़िर्फ तुम थी न दिव्या.”
मेरी आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे.
आख़िरकार उसने पूछ ही लिया, “मेरी अधूरी कहानी पूरी
करोगी न?”
मैं उससे लिपट गई. कहानी पूरी हो गई थी अब.

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