मेरी आंखों में आंसू देखे तो अपने चिर-परिचित अंदाज़ में बेटी बोली, “क्या हुआ मेरी कर्मण्येवाधिकारस्ते?" मैंने आपबीती सुनाई तो वो सांत्वना देते हुए बोली, “होता है! होता है! मैं भी तो स्कूल के कम्पिटीशन्स में होने वाली नाइंसाफ़ियों के बारे में बताती थी, तो तुम क्या समझाती थीं? बोलो! बोलो! तुम कहती थीं कि हम दुनिया नहीं, केवल ख़ुद को बदल सकते हैं और मेहनत करो. ख़ुद को इतना ऊंचा उठाओ कि लोग तुम्हें चुनने के लिए मजबूर हो जाएं… कि कोई तुम्हारे साथ नाइंसाफ़ी न कर पाए. फूल की ख़ुशबू कोई मिटा नहीं सकता और सूरज की चमक छिपा नहीं सकता. मैं जानती हूं मेरी कर्मण्येवाधिकारस्ते बेस्ट है.”
पेंटिंग कॉम्पिटिशन! मेरी सोसायटी में आयोजित हो रहा है? सभी पेंटिग्स सोसायटी के क्लब में तीन महीने सजाई जाएंगी? लोग उन्हें देखकर सोसायटी में रखे पैड में अंक देते रहेंगे. फिर उनके आधार पर दस चुनिंदा पेंटिंग्स को पुरस्कार तो मिलेंगे ही, साथ ही कलाकारों को जीती हुई पेंटिग और अपनी अन्य पांच पेंटिंग्स के साथ शहर के सबसे प्रतिष्ठित प्रदर्शिनी हॉल में दस दिन के लिए बिना किसी किराए के जगह भी मिलेगी. मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा.
मैं एक मध्यवर्गीय अपार्टमेंट में रहनेवाली एक मध्यवर्गीय कलाकार. नहीं, अपनी नज़र में व्यवसाय से कलाकार पर लोगों की नज़र में सिर्फ़ गृहिणी, जिसकी हॉबी है कलाकारी करना. यों सिर्फ़ गृहिणी होना और सिर्फ़ हॉबी के तौर पर कलाकारी करना मेरी नज़रों में कतई कम सम्माननीय नहीं है, पर एक व्यावसायिक कलाकार के रूप में अपनी पहचान बनाना मेरा सपना है, जुनून है, ज़िंदगी के ल्क्ष्यों में से एक है तो क्या करूं. दिन-रात मेहनत? वो तो करती हूं. समय कम पड़ा, तो नौकरी छोड़कर अपने पैशन पर ध्यान केंद्रित करूं? वो भी किया. अपनी शॉप खोलूं? ड्रॉइंग-रूम वाली बालकनी में अपनी कलाकारियों की छोटी-सी गैलरी भी खोली. न्यूनतम मेहनताना लेकर अपनी कला बेचूं? वो भी करती हूं भई. तमाम सोशल मीडिया पर विज्ञापन करने में मगजमारी? वो भी करती हूं. पर अपने स्तर से नीचे गिर नहीं पाती और इतने में जितना निवेश लग जाता है, उतना घर की सजावट पर ख़र्च करना मेरी उन मध्यवर्गीय लोगों को उचित नहीं लगता, जिन तक मेरी पहुंच है. पर तारीफ़ें मुझे भरपूर मिलती हैं. जब कभी कोई पूरी गैलरी देखकर, सबके दाम पूछकर अच्छा-खासा समय बरबाद करके बिना कुछ ख़रीदे चला जाता, तो बेटी चुटकी लेती, “तुम पागलों की तरह मेहनत करती हो मेरी मिस बेचारी.” तो मैं उसे उपदेश थमाती, “इस तरह की मेहनत को कर्मण्येवाधिकारस्ते कहते हैं, मिस बेचारी नहीं।” और हम गलबहियां डालकर हंस पड़ते.
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ये कॉम्पिटिशन मुझे अपनी कलाकारी के प्रचार का, अपनी पहचान बनाने के सपने के पूरे होने का एक सुनहरा अवसर लगा. मेरी सोसायटी नई थी. काफ़ी फ्लैट्स खाली थे. अभी रेज़िडेंट्स असोसिएशन बिल्डर के पास ही थी. ज़ाहिर था कि इसीलिए बिल्डर ने डिस्ट्रिक लेवल पर होनेवाली ये प्रतियोगिता लपकी थी. लोग अपनी पेंटिंग्स को अंक देने के लिए अपने परिचितों को बुलाएंगे और इस तरह सोसायटी का प्रचार होगा. हर कलाकार ख़ुश था, क्योंकि लोग आकर अंक भले ही अपने परिचित को दें, पर देखेंगे तो वो सबकी पेंटिंग और इस तरह सबका प्रचार होगा. यदि मेरी पेंटिंग सेलेक्ट हुई, तो मुझे पुरस्कार से ज़्यादा ख़ुशी प्रचार की थी.
मैंने लगभग बीस पन्नों की शर्तें व नियम पढ़े और पांच पन्नों का फॉर्म भर दिया. एक नियम ये भी था कि इस कॉम्पिटिशन को जो कलर कंपनी प्रायोजित कर रही थी, उसी के एक प्रकार के रंग-विशेष इस्तेमाल करने थे. बस ऊपर की ओर दाएं कोने में अपना नाम और थीम पेन से लिख सकते थे. पता था मुझे कि ये रंग नए आए हैं और इन रंगों का प्रचार कंपनी का मक़सद है. कंपनी ने इन रंगों के प्रचार के लिए एक ऐप भी लॉन्च किया था। हमें अपनी स्वीकृत पेंटिंग्स उस ऐप पर भी अपलोड करनी थी। लोग वहां भी उसे वोट और रिव्यू दे सकते थे। ये ऑप्शन दूसरे शहर में रहने वाले परिजनो को ध्यान में रखकर रखा गया होगा। उसके भी नियम कायदे थे। मेरे लिए ये कोई मुश्किल काम न था। अच्छा लगा, एक साथ कितने लोगों का प्रचार हो रहा है। वोट के जरिए कम्पिटीशन ग्लोबल हो गया है।
मुश्किल सिर्फ एक थी। पेंटिग बनानी तो हॉल में जाकर सिर्फ एक घंटे में थी, और टेम्पेरेरी सब्मिशन कर देना था। पर कम्पिटीशन हॉल में जाकर बैठना एक हफ्ते तक रोज़ सात घंटे था। क्योंकि उसे कम्पिटीशन में एंट्री कराने के लिए सब्मिट करने में समय लगना था। करीब डेढ़ सौ लोगों ने फार्म भरा था और निरीक्षक पांच थे। उन्हें प्रतियोगियों को उनके नाम के अनुसार अल्फाबेटिकल ऑर्डर में बुलाकर सारी नियम और शर्तें पूरी करने की तसल्ली करने के बाद पेंटिग्स को स्कैन करके जमा करना था। कोई ठीक करने योग्य गड़बड़ी होने पर प्रतियोगी उसे ठीक भी कर सकता था। अब जिसका नाम पहले आता है वो पहले छुट्टी पा जाए, ये तो अच्छी बात नहीं न! इसीलिए सबको समय पूरा देना था।
नियत दिन नियत प्रतियोगिता हॉल में जाकर मैंने सुंदर सी पेंटिग बनाई और उसमें नियत जगह पर अपना नाम और थीम भी बड़े कलात्मक ढंग से लिखा, जिससे वो भी कलाकृति का एक हिस्सा लगने लगा। इस आइडिया ने मेरी कृति में चार चांद लगा दिए।
अब शुरू हुआ एक नई तरह का विज्ञापन। आओ और मेरी तस्वीर देखो। ऐप डाउनलोड करो और मुझे वोट करो। शहर अपना था। ढेर सारे प्रियजनो और परिजनो से छलकता दायरा था मेरा। पर इस दौरान बिल्कुल नए अनुभवों से गुज़री। कुछ परिजन प्यार से लबालब भरे बड़े उत्सुक से और कुछ के पास बिल्कुल समय नहीं। फटाफट वोट करने वालों ने उनके वोट और रिव्यू न दिखने की शिकायत की। मैंने फिर शर्तें पढ़ीं तो पाया कि वोट और रिव्यू उसी का दिखेगा, जिसने कम से कम एक पैकेट उस कलर का खरीदा होगा और वो भी ऐसी दुकान से जो बारकोड स्कैन करके बिल के साथ सामान देता हो। हालांकि सबसे सस्ता पैकेट सिर्फ पचास रुपए का था पर मेरे सामने नई समस्या खड़ी हुई। मैं किसी को कुछ खरीदने को कहने में इतनी संकोची न होती तो मेरी गैलरी ही न कुछ ज्यादा अच्छा बिज़्नेस कर रही होती? फिर एक पचास रुपए का पैकेट खरीदने में इतनी झंझट उठाने को लोगों से कहना। कुछ प्रियजन छोटे शहरों में रहते थे जहां ऐसी दुकान मिलना मुश्किल था। पहले वो ऐसी दुकान ढूंढ़े, फिर…या ऑनलाइन मंगाकर प्रोडक्ट से ज्यादा कॉटेज दें…मेरे संकोची स्वभाव को ये सब अखरने लगा। खैर! प्रमोशन और इमोशन से भरे दिन बीत रहे थे। कुछ के लिए बड़ा कठिन प्रॉसेस था पर वे अपने मेरी जीत की चाह में मुझसे भी ज्यादा उत्सुक दिखे, तो पलकों में खुशी के आंसू आए। कुछ, जिनके लिए ये सब बड़ा आसान था पर उन अपनो ने मैसेज देखकर भी पलटकर भी नहीं पूछा कि ये क्या है तो दिल में टीस भी उठी। कई परिजनो ने सिर्फ मेरे प्रति स्नेह के कारण झंझट उठाकर कलर खरीदे तो दिल को नेह की तरल नमी ने भिगोया। कई परिजनो की पूर्ण उपेक्षा ने मन में कसक भी भरी। कुछ, जिन्हें मैं पराया समझकर संकोच करती थी, वे भी अपनो द्वारा फॉरवर्ड किए मैसेज देखकर उत्साह में भरे-भरे कलर खरीदकर वोट कर रहे थे। मेरे सामने लोगों के असली चेहरे और अपने प्रति लगाव या अ-लगाव के असली भाव प्रकट होते जा रहे थे। नियत समय के अंत के दिन करीब आ रहे थे कि…
…अचानक एक परिजन ने बताया कि मेरी पेंटिंग प्रदर्शिनी हॉल और ऐप दोनो जगह से गायब हो गई है। मैं शॉक्ड। खुद जाकर देखा तो पाया बात में सच्चाई है। शुरु हुआ आयोजको से पत्र व्यवहार। दो दिन के पत्र-व्यवहार के बाद पता चला कि मैंने अपना नाम और थीम तो ऐज़ यूजुअल पेन से ही लिखा था पर वो मेरे थीम का हिस्सा बनकर उसकी खूबसूरती को बढ़ा रहे थे और इस प्रक्रिया में वो तय चौकोर से थोड़ा सा बाहर भी निकल गए थे। तो उसे पेंटिग का हिस्सा मानकर नियम विरुद्ध समझा गया था। फिर पत्र-व्यवहार किया तो सुझाव मिला कि मैं किसी जज से समय लेकर उसकी उपस्थिति में पेन के हिस्से को उस कलर-विशेष से ढककर साधारण ढंग से अपना नाम और थीम लिख दूं। ये कोई कठिन काम न था मेरे लिए पर किसी जज से सम्पर्क वगैरह…
खैर मैंने फटाफट काम पूरा किया। फिर जज ने मेरी तस्वीर को दोबारा स्कैनिंग मशीन में डाला और कई फॉर्मेलिटीज़ पूरी की और प्रदर्शिनी हॉल में भेज दिया।
मैंने चैन की सांस ली पर…
मेरी पेंटिंग अगले दिन भी नहीं दिखी। फिर पत्र-व्यवहार का सिलसिला शुरू हुआ तो बताया गया कि सुधार के बाद जमा करने से दोबारा स्कैन करना भी ज़रूरी था और इससे मशीन में आज की डेट आई है। ये सारा कम्प्यूटराइज़्ड होने के कारण आपकी प्रतियोगिता के लिए एंट्री नई डेट की मानी जाएगी। क्योंकि प्रतियोगिता में पेंटिंग जमा करने की डेट निकल चुकी है, इसलिए मेरी पेंटिंग अब प्रतियोगिता का हिस्सा नहीं रही। वो प्रदर्शिनी हॉल में नहीं रहेगी और ऐप के कम्पिटीशन पेज पर भी नहीं दिखेगी पर डोंट वरी, वो ऐप के सामान्य पेज पर रहेगी। मैं बौखला गई – जिस पर बच्चों की और केवल हॉबी के तौर पर पेंटिंग करने वाले लाखों लोगों की पेंटिंग्स पड़ी हैं। वहां पेंटिग होने से मुझे क्या मिलेगा? पर मैंने मन को संयत किया और आयोजकों को पत्र लिखा – जब एक हफ्ते रोज़ सात घंटे हमें हॉल में सिर्फ इसीलिए बुलाया गया था कि हम अपनी नियम या शर्तों में हुई कोई गलती सुधार सकें तो ये बात मुझे अब बताकर भूल सुधारने का सुझाव देने के बाद मेरे वैसा करने पर मुझे कम्पिटिशन से निकालना सही नहीं है। …चार दिन बीत गए…मैं रोज़ अपना मेल दोहरा रही हूं… कोई जवाब नहीं। परिजन पूछ रहे हैं पेंटिंग क्यों नहीं दिख रही।
मेरी आंखों में आंसू देखे तो अपने चिर-परिचित अंदाज़ में बेटी बोली, “क्या हुआ मेरी कर्मण्येवाधिकारस्ते?" मैंने आपबीती सुनाई तो वो सांत्वना देते हुए बोली, “होता है! होता है! मैं भी तो स्कूल के कम्पिटीशन्स में होने वाली नाइंसाफ़ियों के बारे में बताती थी, तो तुम क्या समझाती थीं? बोलो! बोलो! तुम कहती थीं कि हम दुनिया नहीं, केवल ख़ुद को बदल सकते हैं और मेहनत करो. ख़ुद को इतना ऊंचा उठाओ कि लोग तुम्हें चुनने के लिए मजबूर हो जाएं… कि कोई तुम्हारे साथ नाइंसाफ़ी न कर पाए. फूल की ख़ुशबू कोई मिटा नहीं सकता और सूरज की चमक छिपा नहीं सकता. मैं जानती हूं मेरी कर्मण्येवाधिकारस्ते बेस्ट है.” कहते हुए बेटी ने मुझे गले से लगा लिया और बिल्कुल वैसे ही पुचकारते हुए मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए आगे बोली जैसे मैं उसके सिर पर फेरते हुए बोला करती थी.
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“जब मैं बच्ची थी, तुम मेरा हौसला बढ़ाती थीं और कहती थीं कि मेरे अंदर हुनर की कमी नहीं। बस उसे तराशते रहने की ज़रूरत है। आज मैं कहती हूं मेरी मम्मा दुनिया की सबसे अच्छी पेंटर है। वो मिस बेचारी नहीं कर्मण्येवाधिकारस्ते है।” मैं अवाक सी उसकी बातें सुनती रह गई। स्नेह, खुशी के साथ-साथ मन ग्लानि से भी भर गया। एक तरफ खुशी थी कि मेरी छोटी सी डॉल कब इतनी बड़ी हो गई कि मां को पुचकारते हुए आंसू पोछकर सांत्वना दे रही थी। दूसरी तरफ ग्लानि भी। मैंने उन नाइंसाफियों के बारे में अपनी लड़ाई के बारे में उसे कभी नहीं बताया। मैं समझती थी, इससे वो अपनी गलतोयों की ओर ध्यान देना बंद कर देगी। अतीत एक फलैश की तरह कौंध गया नज़रों में। जब बच्चे छोटे होते हैं और स्कूल में होने वाली गतिविधियों में अक्सर टीचर के बॉयस्ड होने की या किसी नाइंसाफी की शिकायत करते हैं। ऐसे में हम अक्सर सब कुछ समझते हुए भी उन्हें ही समझा देते हैं। क्योंकि हम जानते हैं। कि हमारे पास उस नाइंसाफी को साबित करने का कोई तरीका नहीं है। क्योंकि हम समझते हैं कि हम समाज से नहीं लड़ सकते, व्यवस्था को नहीं बदल सकते। लेकिन अक्सर उन्हें सांत्वना देने के साथ हम लेक्चर भी पिलाते रहते हैं जो घाव पर नमक का काम करता है। आज मैं इस परिपक्व उम्र में भी अपनी गलती जानते हुए भी, ये समझते हुए भी कि कोई कम्पिटीशन पहचान बनाने के बड़े और लंबे संघर्ष का एक छोटा सा हिस्सा है, आयोजकों की गलती से हुए अपने नुक्सान को भूल नहीं पा रही थी तो बच्चे…
“सुन लाडो, तुझे कुछ बताना है।” मैंने बेटी को पास बिठाया। उसकी उत्सुक निगाहें मेरी ओर गड़ गईं। “जब-जब तूने टीचर के बॉयस्ड होने की या किसी और नाइंसाफी की शिकायत की, तुझे बताए बिना मैं असलियत जानने तेरे स्कूल गई हूं और बिना तेरा नाम लिए विनम्र शब्दों में सिस्टम की उस गलती की ओर तेरी प्रिसिपल का ध्यान खींचने की कोशिश की है। तुझे इसलिए नहीं बताया कि तेरे मन में आक्रोश न बढ़े बल्कि तू अपनी कमियों को दूर करने की कोशिश करे।” ये सुनकर पहले तो बेटी की पलकों में खुशी छलकी फिर वो दार्शनिक हो गई। “ऐसा नहीं होता मम्मा, बच्चे भी सही-गलत के बीच का फर्क समझते हैं। अक्सर उन्हें ये समझाने से कि वो दुनिया नहीं बदल सकते उनका आक्रोश कम होने के बजाय बढ़ जाता है और वो सही बात के लिए लड़ने का स्टैंड लेने के बजाए ‘छोड़ो जाने दो’ की विचारधारा अपना लेते हैं और ये समाज के लिए सही नहीं है। ये स्वीकार लेना इतना आसान भी नहीं है। अब तुन्हें समझ आया है तो चलो अबसे हम मिलकर भागने के बजाए झूझने की आदत डालते हैं।” इस दुर्घटना के बहाने मैंने और मेरी बेटी दिल की गहराई में छिपे किसी दर्द को बांटा था और उसकी दवा ढूंढ़ने की कोशिशों को साझा करने के लिए एक-दूसरे का हाथ थामा था। कितनी अच्छी बात थी। है न?