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कहानी- बेटियां जो ब्याही जाएं मुड़ती नहीं हैं… (Short Story- Betiya Jo Biyahi Jaye Mudti Nahi Hain…)

"आठ घंटे की ड्यूटी के बाद आराम का हक पुरुष को है तो स्त्री को भी है.अगर पति ,अपनी पत्नी के भविष्य की कोई सुरक्षा नहीं कर रहा ,उसे बाहर पैसे कमाने भी नहीं दिया कभी. फिर भी उसे बाहर का रास्ता दिखाने का अधिकारी है तो अपने द्वारा हर किए गए काम के लिए वेतन की पत्नी भी अधिकारिणी है…"

स्वस्ति अदालत में आज पति शाश्वत की डायवोर्स एप्लीकेशन के विरुद्ध 1-1 तथ्यों की तैयारी के साथ बड़े संयत भाव से अकेली खड़ी थी. उसके विपरीत शाश्वत के चेहरे पर हवाइयां सी उड़ रही थीं. जबकि उसके समीप खड़े उसके माता-पिता, बहन-भाई सभी उसे कभी उकसाते, कभी हौसला देते हुए धीरे-धीरे सीटों पर बैठ गए थे. जज साब आ गए और कोर्ट की कार्यवाही आरंभ हो गई.
जिरह शुरू हो गई थी.
"मिस्टर शाश्वत आपने पंद्रह साल शादी के बाद पत्नी स्वस्ति से तलाक़ लेने का फ़ैसला किया, जबकि छह महीने हो गए आपने अभी तक स्वस्तिजी पर लगाए अपने सभी आरोपों के लिए कोई ठोस प्रमाण नहीं दिया. बेवफ़ा, बदचलन, घर-परिवार व बच्चों के प्रति लापरवाह, उनका अमर्यादित व्यवहार, अपने मायके के प्रति असीम लगाव के आगे ससुराल को कुछ न समझना आदि आदि."
"जी..." के अलावा शाश्वत कुछ बोल ना पाया.
"जी मुझे मालूम है जज साहब इन्हें कोई सबूत नहीं मिलेंगे, क्योंकि सबूत सच को ही मिलते हैं झूठ को नहीं… पर फ़र्क़ क्या पड़ता है मैं तो तलाक़ के लिए तैयार हूं."
"पूछें जज साब जब यह तलाक़ के लिए तैयार हैं, तो घर से अब तक गई क्यों नहीं? तलाक़ के लिए छह महीने अलग रहने का जो प्रावधान है."
"क्या यह भी प्रावधान है की पत्नी ही घर से अलग कहीं और जाकर रहे अपने दम पर? बिना पैसे? क्यों जाए?"
"कमाल है वह पति का ही घर है वह क्यों जाएगा?" शाश्वत का वकील झुंझलाया था.


"वाह तो पत्नी शरणार्थी हुई? पहले लड़की, लड़के का विवाह करवाए, अपना घर, रिश्तेदार-नाते, सुख-सुविधाएं छोड़े, बच्चे पैदा करे, घर को सही चलाने के प्राॅसेस में सालों सारे ज़रूरी-गैरज़रूरी काम बनाम ड्यूटी, पति व घरवालों की इच्छा से करती रहे, बिना पैसे के. सच है, इससे सस्ती कामवाली कहां मिलेगी, जो कैश नहीं सिर्फ़ और सिर्फ़ सो काॅल्ड घरवालों के रहमो करम पर रह रही होती है. यह मायके और ससुराल दोनों पक्षों द्वारा विवाह के पहले क्यों नहीं क्लियर कर दिया जाता. तब तो सुहावने ख़्वाब दिखाकर एक साथ सम्मान से साथ सिंहासन पर बैठा दिया जाता है. झूठे सात वचन दिलवा दिए जाते हैं. बाद में उसे जाने कितने नए वचनों में उसे बांधा जाने लगता है, जैसे-
"नौकरी नहीं करना या जो हम कहें वही करना होगा."
"जो यहां बनता रहा है वही तुम्हें बनाना, खाना होगा. "
"नाॅनवेज नहीं खाती हो तो भी हमारे लिए बनाना तुम्हारा धर्म है." कही-कहीं तो खिला भी दिया जाता है कि 'ये भला कौन सी बात है पति के लिए इतना नहीं कर सकतीं?'
या मांसाहारी पत्नी है और पति घरवाले नहीं, तो उसे भी छोड़ने पर ही मजबूर कर दिया जाता है.
मायकेवालों की कभी कलात मेहमान नवाज़ी करने में सबकी त्योरियां चढ़ जाती हैं, सबको अखरने लगता है.
कुछ भी ख़र्च करने से पहले अनुमति लो… ससुरालवालों का या पति का एक-एक रुपये का हिसाब लेना… हृदय बींध कर रख देता है, इतना विश्वास नहीं कि कुछ बिल्कुल ग़ैरज़रूरी ख़र्च नहीं करेगी.
"यहां जाओ, वहां मत जाओ" ,"ये क्यों, वो मत करो" "ऐसे बैठो" ,"ऐसे पहनो","ये रंग, ये ड्रेस नहीं पहनो" तो "ये व्रत-उपवास ज़रूरी है यहां" या "तुम्हारा पूजा-पाठ का इतना पाखण्ड यहां नहीं चलेगा."
"तुम्हारे मायकेवाले यहां नहीं आएंगे."
"तुम मेरी इजाज़त के बिना किसी से मिलने नहीं जाओगी. हमारी मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं करोगी." आदि आदि... क्या लड़की को अपने घर के नाम पर ससुराल बनाम पर जेल भेजा जाता है?
"आप कहना क्या चाहती हैं?"
"मतलब ये वकील साहब, वह घर पत्नी का भी होता है. ऐसा ही लड़की को शादी से बहुत पहले ही बल्कि होश सम्भालते ही बेटियों को बता, जता दिया जाता है कि वो उनके पास पराई अमानत हैं, उन्हें विवाह कर अपने घर जाना होता है. पूरे समाज में ये क्यों बेकार में नाटक खेला जाता है, जबकि सच तो ये है यहां लड़की का कोई स्थाई घर ही नहीं होता."
"मोहतरमा आप ख़्वामख़्वाह अदालत का वक़्त जा़या कर रही हैं. ज़माने से चला आ रहा दस्तूर है. बेटियों की ही विदाई होती रही है."
"ठीक फ़रमाया आपने, तो वे विदा कहां के लिए की जाती हैं अपने घर के लिए ही न? पराए घर के लिए तो नहीं. तो फिर तलाक़ के लिए वे ही जाए क्यों और जाएं तो कहां सड़क पर?"
"ज़ाहिर है अपने मायके!" तपाक से वकील साहब बोल पड़े.
"वाह वाह! कहां, वहां? उस घर में जिस घर को समाज ने, विवाह के बाद पराया बना दिया. समाज में ससुराल से ही लड़की की अर्थी निकलने की बात ही बार-बार दोहराई गई. आपसी समझौते से ही विवाह के पश्चात् वह सारी ज़िंदगी के लिए अपने पिता का घर छोड़कर पति के साथ अपना नया घर बसाने आती है. वह अपनी, अपनी सारी सेवाएं, दहेज का सामान, कैश, अपना बैंक बैलेंस स्त्री धन, सेहत, करियर, सब जब उनके हवाले कर देती है और तन-मन-धन से समर्पिता बनी जीवन व्यतीत करती रहती है. जी, आप, करते-करते, आदेशों का पालन करते, आदर्श बनी वो नारी जिसने कभी अपने लिए अलग से कुछ न सोचा, छोड़ा, जोड़ा… तो रिहाइश का, जीवनयापन का, मुक़दमें के ख़र्च का इंतजाम किसे करना चाहिए? उसके मायकेवालों को? तब भी उनका ही दायित्व? कैसे? निष्ठुर समाज की दोहरी मानसिकता!
… समाज की चालाकी देखिये सारे बलिदान त्याग औरत के नाम, लड़की ही शादी में बिदा होकर अपना घर-परिवार, सुख-सुविधा छोड़े, जबकि लड़का नहीं. दबाव रहता है विवाह का सारा ख़र्च लड़की के मां-बाप करें लड़के के नहीं.
दान दहेज भी लड़की वाले करें लड़के वाले नहीं पर अधिकार उसकी सब चीज़ों पर उनका है.
घर परिवार के लिए अपना कैरियर लड़की ही छोड़े चाहे वह डाॅक्टर, इंजिनीयर,आर्किटेक्ट प्राध्यापक या आप जैसे वकील ही क्यों न हो.
बच्चे को 9महीने गर्भ में रखने की कवायत,जन्म देने की असहनीय पीड़ा , माना प्रकृति प्रदत्त है लड़की को ही सहना है परन्तु,
बच्चे के जन्म के समय लड़की मायके जाए ताकि मायका ही सारा ख़र्च उठाएं,वही उसकी सारी देखभाल करे ये कहाँ का न्याय है.
बीमारी इलाज करवाना है तो उसकी सहूलियत के बहाने उसे उसके मायके भेज देना कि उससे कोई परेशानी ख़र्च सेवा पति या ससुराल के मत्थे न पड़े.
बच्चे के जन्म के असहनीय दर्द प्रक्रिया के पश्चात,अपने क्षीण शक्तिदेह की परवाह किए बिना भी वो भरपूर प्यार ऊँडेलती ,बच्चे परिवार की हर ज़रूरत ,सुख का पूरा ध्यान रखती है .इसलिए नहीं कि वह पति और घरवालों की पैसों पर रखी नौकरानी है बल्कि इसलिए कि वह माँ है , कोई सेरोगेट मदर नहीं कि बच्चा पैदा किया और अपने पैसे लेकर चलती बने.कितने ही काम किए उसने पर किसी ने उसकी कैश कमाई के बारे में नहीं सोचा .यदि अपनी ज़रूरत के लिए उसे मांगना पड़े या मोहताज सी महसूस कराया जाये तो ऐसे काम करे ही क्यों ?यह कौन से एकतरफ़ा नियम संस्कार हैं , जिनमें खाली पत्नी ही पिसती रहे और पति और उसके घर वाले जब चाहे तब उम्र के किसी भी पड़ाव पर उसे घर से बाहर निकल जाने को कह दें.और इस बात के लिए कानून भी उनका साथ देने लग पड़े तो ये कहाँ का न्याय है?
दर्द के उस पैमाने से पार जिसके बाद पुरुष जीवित नहीं रह पाता उससे कहीं ज्या़दा दर्द को झेलकर स्त्री शिशु को जन्म देती है.नित्य बच्चे की सूसू पाॅटी से लेकर घर के सारे ऑड जाॅब्स की ज़िम्मेदारी ब्याहता स्त्री के नाम कर दी जाती हैं .खाना, बर्तन ,कपड़े, घर,बच्चे, बुज़ुर्ग, देखभाल,मेहमान की आवभगत घर बाहर सब चकाचक रखे स्त्री ,पर न तो मैनेज करने के पैसे उसे मिलने है न आपके हिसाब से घर भी उसका है. ऐसी दशा है कि कभी भी उसका पति, ससुराल उसे बाहर का रास्ता दिखा सकता हैं किसी भी उम्र में… कमाल है इस समाज और उसके कानून का!.. नहीं? फिर क्या ग़लत कर रही हैं वे लड़कियां जो शादी के बाद अपना कैरियर अपनी ज़रूरत अपनी ख़ुशी अपने भविष्य को ही प्राथमिकता देती हैं. क्योंकि इज्ज़त,मुहब्बत ज़रूरत भर की दौलत और घर की स्थाई सुरक्षा कुछ भी तो नहीं दी जा रही यहां शादी के पश्चात् उन्हें.सब अस्थाई है यहाँ…. उसका वजूद तक।
लड़की लड़के माता पिता रिश्ते नातों को अपना लें पर लड़के को लड़की के माता पिता को माँजी पिताजी /मम्मी जी पापाजी कहने में शर्म महसूस होती है. बात बात पर मायके वालों को उलाहने ताने किस लिए? इज्ज़त प्यार पाने का हक क्या केवल लड़के वालों का होता है?"


अक्सर तेरा बाप ,तेरा भाई साला ऐसे बात की जाती है. मज़ाक माखौल हर समय….!भद्दे चुटकुले जोक्स सब पत्नियों के लिए.
किन्तु पति पर संस्कार या कानून की कोई नकेल नहीं.
कभी लड़का न होने पर पत्नी को प्रताड़ित किया जाता है तो कभी उसकी कन्या भ्रूण को वंश के नाम पर कोख में ही को मार ही दिया जाता हैं. हर ज़्यादती सहे लड़की बिना बात,बिना तर्क के.
….लड़की को कोई ज़रूरत हो उसके मायके पर थोप दी जाती है और अपना पल्ला झाड़ लिया जाता है गोया कि वह घरवाली नहीं बल्कि पति ससुराल की शरणार्थी अनपेड प्रासेस सर्वर या, अवैतनिक कामवाली हो,जिसका जी भर के यूज़ किया जा सकता है. जिसे पति अपने घर में रख कर ,दो टाइम खाना देकर बहुत बड़ा एहसान करता जा रहा हैं…और बाहर से आई उस लड़की के सालों के बलिदान त्याग की कोई बात नहीं.जबकि वह अपना बेस्ट ,पहले पति परिवार को देती है बाद में स्वयं कुछ लेती है."
"जब आपस में नहीं निभ रही तभी तो तलाक और अलग जाने की बात आई है .आप खु़द ही कह रही हैं आपको तलाक देने में कोई ऐतराज़ नहीं …" शाश्वत के वकील ने साफ़ करना चाहा.
"किस शर्तों पर तलाक… आपने पढ़ा नहीं? …तो जाने को पत्नी से क्यों कहा जा रहा है. इन 15 सालों में न करियर न पैसा… न शक्ति न सेहत रह गई उसकी.उसपर बच्चों की ज़िम्मेदारी लिए क्या वो सड़क पर आ जाए?"
"तो इसका मतलब है अब आप तलाक नहीं देना चाहतीं?"
"अपना सब कुछ समर्पण करने के बाद औरत को ही कहा जाता है 'अपनी और बच्चों की ज़िम्मेदारी लो और निकलो यहाँ से, महीने का निर्धारित भत्ता मिल जायेगा,वो भी कोर्ट केस लड़ने के बाद…कहाँ से लड़ेगी? वह सब कुछ तो पति ससुराल समाज ने समर्पित करवा लिया.यह कंपन्सेशन है, हर्जाना है एक औरत की जिंदगी का? न उसके भरोसे का मान-सम्मान, न प्रेम स्नेह, न उसकी अपनी आवश्यकताओं भर का पैसा, न अपनी कोई स्वतंत्रता, न ही अपने घर का स्थायित्व!… बस पत्नी बनाकर लड़की को बांदी दासी या कनीज़ों बना कर रख दिया गया है ,प्राचीन राजाओं ,मुगलोंकी तरह ही… उनसे कोई ख़ास फ़र्क नहीं इनमें? भई वाह! उसने ताली बजाई थी.
"कानून ने दे तो दिया अब मायके की प्राॅपर्टी पे हक, मकान पे हक.औरत वहाँ जाकर आराम से रह सकती है."
"ख़ूब चालाकी से बनाया गया ये भी कानून ,मैं तो हैरान हूँ बनाने पास करने वाले महानुभावों की बुद्धि पर."
"आप समझ रही हैं अदालत में खड़े होकर आप अदालत और कानून की तौहीन नहीं कर सकतीं."
"वाह वकील साहब हम औरतों के लिए कानून बना है हमें उसके लिए अपने विचार रखने की भी स्वतंत्रता नहीं देंगे …आप बताइए जज साब?" उसने जज साब से ही सीधा पूछ लिया.
"इन्हें बोलने दिया जाए!" जज ने कहा.
"थैंक्यू माई लॉर्ड!
… चालाकी इसलिए कहूंगी कि कानून बनाया तो भी वह स्त्री के विवाह के बाद मिले अपने घर में क्यों नहीं हक दिया गया?अगर लड़की को पता हो कि ससुराल से कभी बोरी बिस्तर सहित निकाला जा सकता है और फिर अधिकार पाने के लिए केस लड़ना होगा ,तो वह शायद ही शादी करे, कर भी ले तो अपने लिए भी कुछ सोचेगी ,पूर्ण समर्पण तो कभी नहीं करेगी। …और फिर यदि मायके के घर में हक है तो वह कैरियर घर सबकुछ छोड़कर शरणार्थी सेविका बनाम पत्नी बन दूसरे के घर जाए ही क्यूँ?…
दूसरी बात,
…5-10-20,-40….साल बाद मायके वाले, जिनके लिए इन सालों में मेरे द्वारा कुछ न किया गया, न अपने द्वारा कोई सेवा दी गई ,फिर भी उन्होंने अपने स्नेह की वर्षा से हमें कभी वंचित नहीं किया, हमेशा वक्त पर खड़े रहे. अडिग भावनात्मक संबल सुरक्षा बने रहे… वे जिन्होंने हमारी खुशी की ख़ातिर अपनी ज़रूरतें भी कुर्बान कर दीं. गत इतने वर्षों में वे जब अपने घर में अपने नये जुड़े सदस्यों के साथ रहने के आदी हो चुके हैं अपने एक स्तर के साथ शांति से जी रहे हैं. वहाँ जाकर हमारा ख़लल पैदा करना,उनकी ख़ुशी शांति भंग करना क्या न्यायसंगत है? जबकि इतने सालों पति घर परिवार को अपना सबकुछ दिया…
…इस नये कानून ने फिर लड़के को, उसके परिवार को ही प्राथमिकता दी, उसी का पक्षधर हैं. किसी प्रकार के एडजस्टमेंट के तनाव से लड़के को मुक्त रख दिया गया है इसमें भी. मतलब ये कि यदि किसी उम्र में भी झेलना हो तो झेलें लड़की और लड़की का परिवार! यह पक्षपात नहीं तो और क्या है. कानून बनाते समय कुछ एक मांँ और बहू को भी बिठा लेते तो अच्छा होता वे अपना भला बुरा बता सकतीं. ….
…मायके का जो एक रहा सहा सुरक्षित स्नेहबंधन उसे भी तोड़ने का प्रयास है ये कानून !
लड़की रिश्ते ख़राब करके मायके के मकान में कभी हिस्सा नहीं चाहेगी.जबकि पति और परिवार उसे उकसाते देखें जा रहे हैं. हिस्सा तो वहाँ मिलना चाहिए जिनके लिए अपना सब कुछ समर्पित किया , जहाँ वह विवाह के बाद आई है ,उसका अपना घर !जहाँ उसने उस घर के वंश वारिस को को ,अपनी कोख से जन्म दिया है; स्थाई सम्मानित हिस्सा उसे वहाँ मिलना चाहिए.जहाँ उसका दहेज, पैसा ,कैरियर/सेलरी सेवा सेहत रिश्ते चैन अधिकार सब कुछ ले लिया जाता है.


सम्मान,आत्म सम्मान,प्रेम ,विश्वास,सुरक्षा ,इतना ही तो चाहती थी एक स्त्री विवाह से.इसके बदले में समर्पिता बन सारे जीवन प्रेम पूर्वक निष्ठा से अपनी सेवाएं देती रहती है .असहनीय दर्द सह कर बच्चे वारिस को जन्म देती है.जी जान से उसे पालती पोसती है.उनके एवज़ में वह कुछ नहीं माँगती.इसी का लाभ उठाया जाता रहा है .कोई काॅन्ट्रैक्ट नहीं बनाया गया आजतक. हम लड़कियां मूर्ख बन कर अपने को रानी समझते हुए बाजे गाजे के साथ दुल्हन बनी ,एक नाव से दूसरी नाव पर अधिकार के साथ सुंदर जीवन जीने के सपने दिखाते हुए, बलिदान के लिए कुदा दी जाती हैं. और यही कहा जाता है फसलें जो काटी जाएं उगती नहीं हैं बेटियाँ जो ब्याही जाएँ मुड़ती नहीं हैं …जन्म से 20-25वर्ष जिस नाव पर बिताया, वह नाव तो छुड़ा दी जाती है ,वो दूर निकल गई… जब दूसरी नाव के अनुसार अपने को ढाल लिया ,तो क्यूँ अब सालों बाद पहली नाव पर वापसी द्वारा वहांँ मायके में बेटियों के अधिकार की बात कानून कह रहा हैं ,तो कैसे सम्भव है ?बीच इतने सालों की उम्र की लम्बी नदी…दूरी…क्या वही स्थितियाँ परिस्थितियाँ रह गई होती हैं?…
…अब जब विवाह अपनेपन की भावनाओं का बंधन नहीं रह गया तो क्यों नहीं एक लीगल कांट्रैक्ट के तहत शादी का कानून बनाया जाए ,ये समझ क्यों नहीं आता? ये फेरे मंत्र सात वचन बस उसी समय दिखावे के लिए होते हैं. लड़की तीन फेरे पीछे चार फेरे आगे सब नाटक है ,आदमी जीवन में कभी औरत को अपने आगे नहीं चलने देता. ज़्यादातर औरतें डरी सहमी अनुगामिनी ही बनी घुमाई जाती हैं. विवाह सिंहासन पर तो बराबर से बिठाया जाता है परन्तु गृह प्रवेश के बाद औरत को जल्द ही उसकी असली औकात दिखा दी जाती है.इससे तो अच्छा है शादी के पहले ही बता दें ये इतने काम हैं उसके एवज़ में में ये ये दिया जायेगा.लड़की को तभी क्लियर हो जाए कि…वो इस रिश्ते को स्वीकार करना चाहती भी है या उसे मंजूर नहीं.ये क्या कि अभी सिंहासन पर साथ बैठा लो फिर उसे पैरों की जूती दिखाओ या बना दो.
…शादी के समय लड़के लड़की दोनों को अपनी और एक दूसरे की औकात व इच्छा स्पष्ट होनी चाहिए! जिसका सम्मान होना चाहिए तभी विवाह की मंजूरी दी जानी चाहिए.शादी के बाद जबरन लड़की की नौकरी छुड़वा दें या करवाने लगें इसलिए कि पति की मर्ज़ी है तो यह बिल्कुल अनुचित है। …
"आठ घंटे की ड्यूटी के बाद आराम का हक पुरुष को है तो स्त्री को भी है.अगर पति ,अपनी पत्नी के भविष्य की कोई सुरक्षा नहीं कर रहा ,उसे बाहर पैसे कमाने भी नहीं दिया कभी. फिर भी उसे बाहर का रास्ता दिखाने का अधिकारी है तो अपने द्वारा हर किए गए काम के लिए वेतन की पत्नी भी अधिकारिणी है. जो सेवाएं उससे ली जाती हैं पति को उसका वेतन उसे देना होगा जैसे पति को समय से मिल जाता है कम से कम 8 घंटे की ड्यूटी का; जिससे वह भी आत्म निर्भर बन सके,और बाहर जाकर कमाने में घर परिवार और बच्चों की परवरिश को भी उसका अभाव न झेलना पड़े। जैसे कानून द्वारा विवाह की उम्र निर्धारित कर दी गई है ठीक वैसे ही बिना आर्थिक आत्मनिर्भरता के विवाह दण्डनीय अपराध घोषित कर दिया जाना चाहिए…पर नहीं उल्टे पल्टे कानून पारित कर दिए जाते हैं…"
"कौन से उल्टे कानून मैडम?"
ये क्या हैं कुँवारे लड़के लड़की के लिए लिविंग रिलेशन को भी आज कानून से मान्यता मिल गई है. ऐसे ही विवाह के बाद भी, पर पुरुष पर स्त्री के साथ रहने को कुछ दिनों में कानून से मंजूरी मिल जाएगी तो क्या आश्चर्य? कहाँ रह जायेगी भारतीय संस्कृति? कहाँ जाएंगे भारतीय संस्कार? पति पत्नी के पावन रिश्ते की महत्ता,गरिमा…?बच्चों पर माता पिता के आदर्श प्रभाव?
कानून तो ऐसे ही बनते जाएंगे स्त्रियों के लिए और स्त्रियाँ ऐसे ही झेलती रहेंगी.यदि कानून बनाने ही हैं तो भारतीयता की दृष्टि से स्त्रियों की भलाई तो उनमें निहित हो. ….बस मुझे और नहीं कुछ कहना है जज साब!"
"…."
अदालत में चुप्पी छा गई थी. अचानक जजसाब ने ताली बजाई तो शाश्वत के परिवार को छोड़ सभी ने उनका साथ दिया, हाल तालियों से गूंज उठा. जज साब फिर बोले,
"मिसेज स्वस्ति आपने जो मुद्दे उठाएं है और जिन नये संशोधन की आवश्यकता का ज़िक्र किया है हम उन्हें आगे सदन और उच्चतम न्यायालय पीठ के समक्ष ज़रूर रखवाएंगे…
…रही आपके छै महीने अलग रहने की बात तो मिस्टर शाश्वत को आर्डर दिया जाता है कि वह आपके रहने की कहीं पूरी सुरक्षित व्यवस्था करें तलाक के बाद तो वैसे भी उन्हें यह करना ही होगा. या स्वयं छै महीनों के लिए फ़िलहाल कहीं घर से बाहर रहें.
कोर्ट इज़ डिसमिस्ड!
जज साब चले गए तो कोर्ट में उपस्थित अन्य जन ,वकील स्वस्ति को बधाई देने लगे .
"कांग्रेचुलेशन मैम !"
"बधाई मैम क्या बोली हैं आप!
"वाह मैम!"
"थैंक्यू!" "थैंक्यू!" " धन्यवाद!" "थैंक्स!"
"अरे किसको किसको थैंक्यू बोल रही है सोते सोते स्वस्ति ,मुझे भी तो बता …कोर्ट नहीं जाना ? तेरा एलार्म बजे जा रहा है कब से, उठ !" मम्मी अनुपमा ने स्वस्ति को उठा दिया था.
"वाओ मम्मा इतना अच्छा सपना देख रही थी काश ये सच होता.मैंने देखा मैं सबको कोर्ट में अच्छे से धो रही थी .मेरी दलीलें-पेशकश सुन जज भी ताली बजा रहे थे सबके साथ."
"ओए मुंगेरी लाल के हसीन सपने…!पापा कोर्ट के लिए तैयार होने चले गए ,अपने टाइम पर ही निकल जायेंगे.जल्दी कर…आज से तेरी इंटर्नशिप शुरू है.
"ये मुंगेरी लाल के सपने नहीं वुड बी बिग एडवोकेट मिस स्वस्ति शर्मा के सपने हैं मम्मा, जिसे वो सारी औरतों के लिए एक दिन सच करके दिखाएगी. पक्का प्राॅमिस! कोर्ट ही में नहीं सारी दुनिया ही तालियां बजाएगी आपकी इस स्वस्ति के लिए…" उसने अनुपमा को पकड़कर कस के पप्पी ले ली.
"एक बार पूरी तरह वकील बन जाऊँ, फिर बताती हूंँ सबको,'फ़सलें जो काटी जाएं उगती नहीं हैं, बेटियां जो ब्याही जाएं मुड़ती नहीं हैं.' तलाक के मुकदमें में तो सारी सताई, बेचारी औरतों के लिए अदालत और कानून दोनों को हिला कर रख दूंँगी. जिता कर रहूँगी उन्हें.कोर्ट और कानून को नए ढंग से सोचना होगा ,और समय के साथ कानून बदलना ही होगा,तभी ऐसे मुकदमों में सही फैसला किया जा सकेगा. …मी लार्ड! " अनुपमा के आगे सिर झुकाकर हँसते हुए वह बाथरूम की ओर भागी।
"पर ये पति…शाश्वत ?बच्चे ?ससुराल ?तलाक की नौबत ?ये सब कहाँ से पैदा हो गये मेरे सपने में ?ओ गाॅड ! बिल्कुल रियल जैसा ड्रामा खींचा है… ज़रूर कल रात पढ़ रहे केस के उद्धरणों ने सिर चढ़ कर मेरे ही रूप में ढालकर ये ताना-बाना बुन दिया हा… हा…इन्हें तो कट ही कर देना गाॅड…. बस मेरी दलीलों पर तालियों वाला हिस्सा सच कर देना, सुबह सात बजे का सपना है. गाॅड लव यू!" बुदबुदाती स्वस्ति ब्रश करते-करते हंस पड़ी.

Dr. Neerja Srivastava 'Neeru'
डाॅ. नीरजा श्रीवास्तव 'नीरू'

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