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कहानी- गुलामी (Short Story- Gulami)

“तुम इसे बुद्धिमानी समझते हो, मगर मेरी नज़र में यह गुलामी है. किसी की मदद लेना अलग बात है, लेकिन उस पर इतना निर्भर हो जाना कि उसके बगैर काम ही रुक जाए यह तो ग़लत बात है न? गैजेट्स हम इंसानों ने अपनी सुविधा के लिए बनाए हैं. हम इनका कभी भी, कहीं भी प्रयोग कर अपना काम आसान कर सकते हैं. ये हमारे गुलाम हैं, पर हम इनके गुलाम क्यों बनते जा रहे हैं?.."

पार्लर में युवतियों, महिलाओं का आना-जाना जारी था. हेयरकट के लिए सुधा का नंबर आनेवाला था. तभी एक कमसिन आधुनिका बड़ी ही अदा से मोबाइल पर बतियाती पार्लर में प्रविष्ट हुई. सुधा सहित सभी की नज़रें उस पर जम-सी गईं. बेहद चुस्त लिबास में बालों को झटकती, भौंहें मटकाती इस बाला को पहली ही नज़र में इग्नोर कर देना आसान न था. ऊंची हील खटकाती वह सीधी ब्यूटीशियन के पास पहुंच गई.
“मैं लंबे फॉरेन टूर से लौटी हूं और आज ही मुझे एक फैशन शो में जाना है. जल्दी से मेरा पूरा मेकओवर कर दो.”
“क्या-क्या करना है?” उम्रदराज़ ब्यूटीशियन ने उसे नख से शिख तक घूरते हुए पूछा.
“ऊपर से लेकर नीचे तक सब कुछ.”
“ठीक है, अभी आधे घंटे में मैं इन सभी कस्टमर्स से फ्री होकर आपको बुलाती हूं. आप बैठिए.”
“ओह, वेट करना पड़ेगा? फिर… इसके बाद कितना टाइम लगेगा?” वह ऐसे जता रही थी मानो इसे हिन्दी बोलने में बहुत मेहनत करनी पड़ रही हो, पर चूंकि इंडिया लौट आई है, तो मजबूरी में बोलनी पड़ रही है.
“4-5 घंटे तो लग ही जाएंगे यदि सब कुछ करना है तो?”
“नो, इतना टाइम नहीं है मेरे पास. घंटे भर में बस सिर्फ़ मेकअप कर दो.”
“पर फेस, हाथ-पैर बहुत टैन हो रहे हैं. ऊपर लीपापोती करने से पहले इसे तो साफ़ करना ही पड़ेगा, वरना सब कुछ बहुत पैची और भद्दा लगेगा. मैं 2-3 घंटे में निबटाने का प्रयास करती हूं.”
“नो, नो प्रयास. मुझे तो लगता है तुमसे होगा ही नहीं. ग़लती मेरी ही है. इतने पैसों में तो मुझे किसी हाई फाई पार्लर में जाना चाहिए था. वहां अत्याधुनिक मशीनों से सब काम पलक झपकते हो जाएगा.” बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए वह जैसे हील खटखटाती आई थी, वैसे ही वापस चली गई. ब्यूटीशियन का धैर्य अब जवाब दे गया था.


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“इस आजकल की जनरेशन को हो क्या गया है? ज़िंदगी में सामान्य गति से चलना तो ये लोग भूल ही गए हैं. बस दौड़ना, दौड़ना और दौड़ना. इतनी फास्ट लाइफ से आख़िर ये लोग हासिल क्या करना चाहते हैं? फास्टफूड, फास्टट्रेक वॉचेस, ऑनलाइन शॉपिंग, ऑनलाइन बुकिंग, और तो और बच्चा भी अपने हिसाब से समय से पूर्व सिजेरियन करवा लेते हैं.” सुधा सहित कई उम्रदराज़ कस्टमर्स की गर्दनें सहमति में हिलना आरंभ ही हुई थी कि ब्यूटीशियन अगली कस्टमर को लेकर अंदर चली गई. अब वहां बैठी अन्य लड़कियों की ज़ुबान धीरे-धीरे खुलने लगी.
“वो रूडली व्यवहार कर रही थी, तो इसकी वजह से हम पूरी यंग जनरेशन को क्यों कोसा जा रहा है? और फिर फास्ट होने में बुराई ही क्या है? वक़्त के साथ इंसान को बदलना ही चाहिए. यदि ऑनलाइन बुकिंग का ऑप्शन हमारे पास मौजूद है, तो टिकटों की लंबी लाइन में खड़े होकर वक़्त बर्बाद करने का क्या तुक? यदि ऑनलाइन शॉपिंग का विकल्प हमारे पास मौजूद है, तो दुकान-दुकान भटकने, थकने और समय बर्बाद करने का क्या तुक है? ये बूढ़े कंजरवेटिव लोग तो चाहते हैं हम हमेशा आदिमानव ही बने रहें.”
एक दूसरा स्वर उभरा, “जब विज्ञान ने इतनी प्रगति की है, इतने नए-नए आविष्कार किए हैं, तो इनका लाभ तो उठाना ही चाहिए. यह कहां की
बुद्धिमानी है कि घर में मिक्सर है और आप सिलबट्टे पर मसाला पीस रहे हैं? ज़माना मोबाइल और नेट का है और आप चिट्ठियां भेजे जा रहे
हैं? बात कहां से शुरू होकर कहां पहुंच चुकी थी. सुधा सहित कुछ और कस्टमर्स अब लड़कियों के तर्क से प्रभावित होने लगे थे. तभी सुधा का
नंबर आ गया पार्लर से निकलते-निकलते उसे काफ़ी देरी हो गई थी.
उफ़! अभी तो घर पर ढेर सारा काम फैला पड़ा है. वह तो शुक्र है कि बच्चों की नानी यानी मम्मी आई हुई हैं. उम्र हो जाने के बावजूद वे काफ़ी संभाल लेती हैं.
वाक़ई घर पहुंचकर सुधा को यह देखकर काफ़ी राहत मिली कि मम्मी ने बच्चों को दूध-नाश्ता करवाकर पढ़ने बैठा दिया था. और अब लंच के लिए सब्ज़ी साफ़ कर रही थीं.
“मम्मी आप तो यहां आकर और बिज़ी हो गई हैं…”
मां की आवाज़ कान में पड़ी, तो मिली लपककर बाहर आई और छोटे भाई की शिकायत करने लगी.
“ममा, दीपू फिर कैलकुलेटर से मैथ्स कर रहा है.”
“दीपू, तुझे कितनी बार समझाया है बेटा, एग्ज़ाम में कैलकुलेटर अलाउड नहीं है, वहां कैसे करोगे?” दोनों बच्चे आपस में इतना झगड़ते थे कि सुधा को घर में आधे से ज़्यादा वक़्त मां से ज़्यादा जज का चोगा पहने रहना होता था.
“एग्ज़ाम में कर लूंगा. पर अभी इतनी मोटी-मोटी किताबें बिना कैलकुलेटर के सॉल्व नहीं कर पाऊंगा. एग्ज़ाम तक किसी तरह कोर्स तो करना ही पड़ेगा न?” दीपू का तर्क हाज़िर था.
“उफ़! वहां पार्लर में भी ऐसे ही गैजेट्स पर निर्भरता को लेकर बहस चल रही थी और अब घर आकर फिर वही बहस शुरू हो गई. मेरा तो सिर भन्ना रहा है. सारा काम और पड़ा है. मशीन में कपड़े डालने हैं, खाना बनाना है, नहाना है…” बड़बड़ाती सुधा रसोई में घुस गई. पर दो ही मिनट में बाहर आना पड़ा.
“लो, लाइट तो है ही नहीं. अब खाना कैसे बनेगा? इन्वर्टर से न मिक्सर चल सकता है, न माइक्रोवेव. मम्मी, जरा अख़बार में देखना पावर कट तो नहीं है?”
लॉबी में सब्ज़ी काटती नानी पास रखा अख़बार पलटने लगीं.
“इसमें तो 4 घंटे का पावर कट लिखा है यानी शाम 4 बजे लाइट आएगी.”
“ओह गॉड! अब? न खाना बन सकता है, न कपड़े धुल सकते हैं और… ओह नो! गीजर के बिना नहा भी नहीं सकती.” सुधा मां के पास आकर सिर पकड़कर बैठ गई.
“परेशान क्यूं हो रही है? जब बिजली नहीं थी तब भी तो सारे काम होते ही थे न? उठ, मेरे साथ आ.” वो सुधा का हाथ पकड़कर अपने संग रसोई में ले गईं. एक बड़ी भगोनी में पानी भरकर गैस पर चढ़ाया.
“यह तेरे नहाने का पानी है. यह गरम हो, तब तक मुझे प्याज़, टमाटर, लहसुन जो भी पीसना हो निकालकर दे दे. मैं इन्हें
कद्दूकस करके सब्ज़ी छौंक देती हूं और हां नहाने जाए, तब ज़रूरी कपड़े अंडरगारमेंट्स वगैरह वॉशिंग पाउडर से निकालकर सुखा देना. बाकी कपड़े कल धुल जाएगें. बस, हो गया न सारा काम?”
सुधा ख़ुशी-ख़ुशी मां के बताए अनुसार सारे काम निबटाने लगी. लंच टाइम तक सारा काम निबट गया था. सब ख़ुशी-ख़ुशी लंच करने बैठे सब्ज़ी देखते ही बच्चे ख़ुशी से उछल पड़े.
“वाह, आज तो सब्ज़ी की रंगत ही अलग नज़र आ रही है. ख़ूब गाढ़ी ग्रेवी बनाई है मम्मी ने.”
“यह मम्मी का नहीं, नानी का कमाल है.” सुधा ने अपनी मम्मी को सब्ज़ी परोसते हुए कहा.
“तुम्हारी मां के भरोसे तो आज तुम्हें 4 बजे लाइट आने के बाद ही खाना मिलता. नहाना-धोना अलग रुक जाता. बिजली पर इतनी निर्भरता भला किस काम की? हमारे ज़माने में ये सब इलेक्ट्रॉनिक अप्लायेंस कहां थे? सुधा, तुमने क्या मुझे इन सबके बिना घरेलू काम करते नहीं देखा?”
बच्चों को मन ही मन बड़ा मज़ा आ रहा था. रोज़ इनको फटकार लगाने वाली मम्मी को भी कोई डांट लगा सकता है यह इनके लिए कौतुक की बात थी.
“नानी, आप ममा को सब सिखाकर जाना. ऐसी सब्ज़ी बनाना भी और हां, पापा टूर से लौटे तो ऐसी सब्ज़ी उनको भी बनाकर खिलाना. ममा तो माइक्रोवेव के बिना पापड़ तक नहीं सेंक सकतीं.”
“हां, एक ग्लास दूध भी गरम नहीं कर सकती.” मिली ने भाई के सुर में सुर मिलाया. दोनों भाई-बहन को मां से बदला लेने का आज अच्छा मौक़ा मिल गया था. उन्हें नहीं पता था अगला नंबर उनका ही लगनेवाला है.
“दोनों भाई-बहन एक होकर बड़े सयाने बन रहे हो. तुम दोनों को तो मैं आई हूं जब से देख रही हूं. मिली, परसों तुम्हें तुम्हारी ममा ने दूध का हिसाब करके देने को कहा, तो तुमने कहा कि कैलकुलेटर दीपू ले गया है कैसे हिसाब करूं? क्या इतना छोटा-मोटा हिसाब भी तुम बिना कैलकुलेटर नहीं कर सकती?”
“अच्छा, दीदी ने ऐसा कहा था? और रोज़ मुझे टोकती है, ममा से शिकायत करती है कि मैं कैलकुलेटर से सम कर रहा हूं.” दीपू ने भी
मौक़ा देखकर आग में घी की आहुति दे दी.
"दीपू, तुम तो न बोलो तो ही अच्छा है. चार कदम पर दुकान से ब्रेड भी लानी हो, तो तुम्हें बाइक चाहिए. पैदल चलने की तो तुम लोगों की आदत ही नहीं रही. चार दिन पहले तुम्हें होमवर्क में एक आर्टिकल लिखने को मिला था. वो तुमने कल लिखा है क्यूं?.. क्योंकि इतने दिन नेट नहीं चल रहा था. एक छोटा-सा आर्टिकल भी तुम इंटरनेट की मदद लिए बिना अपने दिमाग़ से नहीं लिख सकते?”
“लेकिन नानी जब सब कुछ नेट पर मिल रहा है, तो व्यर्थ अपना दिमाग़ क्यों खपाया जाए?” दीपू का तर्क था.
“तुम इसे बुद्धिमानी समझते हो, मगर मेरी नज़र में यह गुलामी है. किसी की मदद लेना अलग बात है, लेकिन उस पर इतना निर्भर हो जाना कि उसके बगैर काम ही रुक जाए यह तो ग़लत बात है न? गैजेट्स हम इंसानों ने अपनी सुविधा के लिए बनाए हैं. हम इनका कभी भी, कहीं भी प्रयोग कर अपना काम आसान कर सकते हैं. ये हमारे गुलाम हैं, पर हम इनके गुलाम क्यों बनते जा रहे हैं? कल को कोई गैजेट काम करना बंद कर दे, ख़राब हो जाए तो हमारी ज़िंदगी वहीं थम नहीं जानी चाहिए. हमें इनके बिना भी जीना, आगे बढ़ना आना चाहिए. क्योंकि गुलामी तो चाहे अंग्रेज़ों की हो, चाहे गैजेट्स की हमेशा बुरी ही होती है.”
“यह हुई न बात! सवेरे से मैं इसी कशमकश में उलझी चली जा रही हूं कि आख़िर सही क्या है और ग़लत क्या? अब पिक्चर साफ़ हुई है. गैजेट्स पर हद से ज़्यादा निर्भरता ने हमें एक तरह से इनका एडिक्ट ही बना दिया है. हम सामान्य ज़िंदगी जीना तो भूल ही गए हैं. अपने-अपने मोबाइल, टैब पर पूरी दुनिया से मैसेजेस, पिक्चर्स, बधाई संदेश शेयर करते रहते हैं, पर बिस्तर पर पास बैठे इंसान को नववर्ष की शुभकामना देने का ख़्याल तक ज़ेहन में नहीं आता.” सुधा को यकायक पति का हर वक़्त वाट्सएप पर लगे रहना याद आ गया था. कितना उपेक्षित महसूस करती है वह तब! सुधा का मन खट्टा हो गया था. तभी पास पड़े अपने मोबाइल पर एक अनजान नंबर से कॉल आते देख वह चौंक उठी. आशंकित हृदय से उसने फोन उठाया.
“हेलो… हां, आप? यह आप किस नंबर से कॉल कर रहे हैं?.. हां, ओह… ओह! अच्छा आप होल्ड करो, बताती हूं.” बोलते-बोलते सुधा बेडरूम में चली गई. जब वह वापस लौटी तो सबकी उत्सुक निगाहें अपने पर जमी देख बरबस ही उसके होंठों पर मुस्कुराहट आ गई.


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“आज का दिन तो गैजेट्स की गुलामी का दिन घोषित कर देना चाहिए.”
“क्यों, अब क्या हुआ?” बच्चों ने एक साथ पूछा.
“तुम्हारे पापा का फोन था. दिल्ली तो सकुशल पहुंच गए हैं, पर रातभर में मोबाइल की बैटरी ज़ीरो हो गई है और चार्जर भी यहीं छूट गया है. एक पब्लिक बूथ से फोन करके पूछ रहे हैं कि मेरे काग़ज़ात देखकर बताओ कि मीटिंग वाली जगह का पता क्या है और वहां के नंबर क्या हैं?”
“चार्जर के साथ-साथ पता भी ले जाना भूल गए क्या?” नानी ने उत्सुकता से पूछा.
“पता, नंबर सब मोबाइल में ही सेव था.” सुधा ने बताया तो सबकी हंसी फूट पड़ी.
“शुक्र है पापा को ममा का नंबर तो याद रह गया, वरना क्या करते? कहां जाते?” मिली ने कहा.
“मुझे तो यह समझ नहीं आ रहा कि इस बात पर तुम्हारे पापा को किस खिताब से नवाज़ा जाए जोरू का गुलाम या गैजेट्स का गुलाम?” नानी ने जान-बूझकर गंभीरता का आवरण ओढ़ते हुए अपनी बात रखी, तो सबका हंसते-हंसते बुरा हाल हो गया.

- संगीता माथुर

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