क्या वक़्त और उम्र आदमी को इतना निरूपाय कर देते हैं… एक असहय रोष से भर खीझकर कहा, "यह क्या हालत बना ली है, बालों में कंघी कब से नहीं करी?"
"अरे, वह मरी उर्मिला बाई दो दिन से नहीं आई."
"एक बाई नहीं आई, तो क्या हुआ घर में और भी लोग तो हैं."
"सब अपने-अपने काम में लगे रहते हैं. मुझ बेकार के पास कौन बैठता है." बेकार… सुन मन बार-बार अनकहे रोष से भीगता जा रहा था. साथ ही बड़बड़ाना भी जारी था… "थोड़ा वॉकर के सहारे घूम लिया करो… पांव जाम हो जाएंगे, तो चल भी नहीं पाओगी. पड़ी रहोगी, कोई पूछेगा भी नहीं…"
"अभी जैसे बहुत पूछ हो रही है?" मैं निरुउत्तर थी…
टन… टना… टन…
मोबाइल की रिंगटोन घनघना रही थी. देर रात मोबाइल बजने पर मन थोड़ा शंकित हुआ और झपट कर अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो मोबाइल उठाया, "हेलो, बुआ, चाची दादी नहीं रहीं."
"कब… कैसे…" प्रश्नों के प्रतिउत्तर नदारद…
'चाची' यह नाम मां का संयुक्त परिवार की देन था. चाची मां शतायु से गुज़र रही थीं. सुनते ही नम आंखों में तस्वीर घूमने लगी थी.
पति… दो-दो बेटियों और एक जवान बेटे को खो देनेवाली चाची मां उम्र के इस दौर में भीष्म पितामह बन मृत्यु के इंतज़ार में जीवन जी रही थीं.
मैं पिछले महीने ही मायके गई थी. उनके कमरे के सामने से दबे पांव निकलते हुए देखा, तो वह तिरछी लेटी दरवाज़े को निहार रही थीं पहरेदार की तरह. शाम के केवल पांच बजे थे. कमरे में अंधेरा था. पता नहीं चाची मां को इस बाहर के कमरे में अंधेरी कोठरी में क्यों डाल रखा था?
तर्क था उन्हें अब अंधेरे-उजाले से क्या फर्क़ पड़ता है. दिनभर बिस्तर ही तो तोड़ना है. दीवार को टटोलकर मैंने स्वीच दबाया. मनहूस-सी पीली रोशनी कमरे में बिखर गई…
"कौन?"
एक आवाज और, "ओ भैया… को भैया…"
"मैं हूं चाची मां."
मैंने उनके हाथ को अपने हाथ में पकड़ा, तो हाथ के स्पर्श को पहचान कर बोलीं, "तू कब आई?"
"अभी आई हूं."
श्रवण शक्ति इंद्रियों के साथ शिथिल हो चली थी. चाची मां को मैंने इशारा किया.
"अकेली आई है?"
"नहीं साथ में ये भी आए हैं."
"रेल से या गाड़ी (कार) से आई है."
"रेल से आई हूं…" ना चाहते हुए भी झूठ बोला, अन्यथा उम्र के इस पड़ाव पर बेटी के यहां खाना न खाने वाली मां साथ में चलने की ज़िद करने लगतीं. बुढ़ापा बचपन का पुनरागमन होता है, तभी तो चाची मां…
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खांसते खकारती मां उठ कर बैठ गईं. मेरी सांस उस कमरे की बदबू की अभ्यस्त हो चली थी. मैंने ध्यान से चाची मां की ओर देखा बिखरे उलझे बाल, बदन पर झूलता गंदा-सा ब्लाउज़, ऊपर का बटन टूटा, पतला-सा पेटीकोट. बटन दिखाते हुए बोलीं, "सुई-धागा ला देना, बटन लगा लूंगी. बाई ने धोते समय तोड़ दिया…" वाह री कर्मठता इस उम्र में भी किसी की मोहताज़ नहीं.
ठीक है मां की उम्र हो गई है. मां बूढ़ी है, पर उनका इस प्रकार अर्ध्द नग्न अकेले कमरे में पड़ा रहना मन को साल रहा था. कौन भरोसा करेगा की कभी उनकी सफ़ाई, सुघड़ता के चर्चे मोहल्ले के घर-घर में थे. घर के बर्तन कांच के समान राख से मांज कर रखतीं. चूल्हे की लकड़ी पर रोटी बनाते हुए रोटी कभी जलती नहीं थी. चूल्हा रोज़ शाम पूतता था. उनकी रसोई की महक पड़ोसियों के मुंह में पानी भर लाती थी और कहते, "चाची, आज क्या बना रही हो? चाची बहुत दिनों से कचोरी और बेडई आलू की सब्ज़ी नहीं खिलाई."
और चाची सारे काम छोड़ कर बेडई बनाने में लग जातीं. सिलबट्टे से दाल पिसी जाती, मिक्सी में पिसी दाल में वह स्वाद कहां? और हींग और लौंग से बघार कर लपटेमा आलू का झोल बनाती. ना कोई खीज, ना झुंझलाहट, प्यार से खिलाती, खानेवाला वाह… वाह… कर उठता.
क्या वक़्त और उम्र आदमी को इतना निरूपाय कर देते हैं… एक असहय रोष से भर खीझकर कहा, "यह क्या हालत बना ली है, बालों में कंघी कब से नहीं करी?"
"अरे, वह मरी उर्मिला बाई दो दिन से नहीं आई."
"एक बाई नहीं आई, तो क्या हुआ घर में और भी लोग तो हैं."
"सब अपने-अपने काम में लगे रहते हैं. मुझ बेकार के पास कौन बैठता है." बेकार… सुन मन बार-बार अनकहे रोष से भीगता जा रहा था. साथ ही बड़बड़ाना भी जारी था… "थोड़ा वॉकर के सहारे घूम लिया करो… पांव जाम हो जाएंगे, तो चल भी नहीं पाओगी. पड़ी रहोगी, कोई पूछेगा भी नहीं…"
"अभी जैसे बहुत पूछ हो रही है?" मैं निरुउत्तर थी…
मैंने हाथ पकड़ कर खड़ा किया. लटकते ब्लाउज़ और पेटीकोट, जो तेल से काला हो रहा था, उसे देख मैं चिल्लाई, "चाची, तुमने क्या स्वांग बना रखा है. ठीक से कपड़े क्यों नहीं पहनती!"
"अरे, कई बार बाथरूम में लिथड़ गई और गिर गई. सब चिल्लाने लगे… संभलती नहीं तो पहनती क्यों हो? वैसे भी पूरे समय इस कमरे में लेटे ही तो रहना है…"
उनका तर्क सुन मैं बोली, "इससे तो अच्छा है तुम गाउन पहना करो."
"मुझे उतारने में हाथ में दर्द होता है… और तुम लोग मेरी कितनी फजीहत करवाओगे."
उस चर्चा को वही विराम दे मैंने कहा, "तुम्हारे जमाई राजा आए हैं तुमसे मिलने." दामाद की आवाज़ सुनकर जमाई राजा के पैर छूने झुकती हैं मैंने रोक लिया.
"पैर मत छुओ, वह तुम्हारे पैर छू लेंगे."
"अरे नहीं बेटा, उन्हें बेटी ब्याही है पैर पूजे हैं. वह क्यों मेरे पैर छू लेंगे." मैंने इशारे से पैर छूने के लिए मना किया! ये बाहर निकल गए! चाची मां पीछे से आवाज़ लगाती रहीं, "हो बेटा… ओ बेटा…"
घरभर बोलने लगा, "वह तो दिनभर चिल्लाती हैं तुम मत सुनो…" भतीजे हंसने लगे. मुझे लगा कि भाभी बच्चों को डांटेगी, पर वह चुपचाप मुस्कुराती रही. बच्चों का यह व्यवहार, यह हालत देखकर मन में कील-सी चुभ गई.
"भाभी, आजकल उर्मिला नहीं आ रही है क्या? चाची बता रही थी." मैंने बात बदलने के अंदाज़ में शुरू किया…
"अरे, उसका बेटा बीमार है. उसे दिखाने नागपुर गई है. आदमी शराबी कबाबी है. उसने दूसरी शादी कर ली है. एक बेटा पोलियो अपंग हैं. भगवान ऐसे लाचार लोगों को उठा क्यों नहीं लेता…" मैं समझ गई उनका इशारा किसकी तरफ़ था.
मृत्यु पर किसी का बस नहीं होता. अगर मां का होता, तो क्या वह अब तक जीवित रहती. बार-बार हमसे कहती… "भगवान मुझे भूल गया है, उठाता क्यों नहीं है…" जाते समय कहती, "मुझे कहीं छोड़ आओ…" मैं कहती, "भरा-पूरा परिवार है. तुम कहां जाओगी. यहीं रहो!"
भाभी कहती, "हमसे नहीं होता यह सब. हम भी बूढ़े हो रहे हैं. भगवान इतनी लंबी आयु किसी को ना दे." उस समय जुग जुग जियो का आशीर्वाद खलने लगता.
मन एक बार फिर संयत करते हुए मैंने कहा, "दिनभर के लिए एक आया रख लो!"
"रख तो लेंगे, पर बहुत पैसे मांगती है. नहला-धुला कर कपड़े भर धोती है, वह भी काले पीले, उसके भी ₹3000 मांगती है. इतना पैसा किसके पास है."
मन तो हुआ कह दूं… पैसे मैं दे दूंगी, पर भाई की बात याद आ गई कि वह बहुत बिस्तर गंदा करती हैं. उसे ज़्यादा मत खिलाया करो. मां का इतना ही ख़्याल है, तो दो-चार महीने अपने पास रख लो, पर तुम्हारे पास तो नौकरी का बहाना है.
सब अपने-अपने काम में मशगूल हैं. उम्र का तकाज़ा है. कर्मठ मां इस उम्र में आकर बेकार हो गई…
शतायु का वरदान क्यों देते हैं लोग… मन में प्रश्न उठता. लौटते समय मन बेहद उदास था. मैं चाची मां के लिए कुछ नहीं कर सकी. रह-रह कर आंखों के सामने मां का अंधेरा मैला-कुचला बिस्तर, अस्त-व्यस्त कपड़े, रूखे-सूखे बाल और झुर्रियोंवाला चेहरा घूमता रहा.
मैंने इनसे कहा, "जब भी वहां से लौटती हूं मन दुखी हो जाता है."
कहने लगे, "जाने दो उनकी ऐसे ही गुज़रेगी. बुढ़ापा है, वे फालतू हैं. सब काम में लगे रहते हैं…"
फालतू… बेकार… सुनकर मन में फिर कुछ सरका…
"मेरे मन में एक बात आई है. कह दूं क्या? हम मां को अपने यहां नहीं ला सकते."
"क्यों नहीं ला सकते ज़रूर ला सकते हैं, पर रखोगी कहांं. उनके लिए एक अलग कमरा चाहिए और वह दिनभर अकेली कैसे रहेंगी, तुम छुट्टी ले लो."
"ना भाई ना, बोर्ड के एग़्जाम, परीक्षा की ड्यूटी, मुझे छुट्टी कहां से मिलेगी… कौन देगा इतनी लंबी छुट्टी?"
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"तो फिर रिटायरमेंट ले लो. आख़िर नौकरी मां से बड़ी तो नहीं है. वहां तो भाई के कहने पर डॉक्टर घर आ जाते हैं, पर यहां पर डॉक्टरों के यहां लंबी लाइन लगी रहती है."
ठीक है मांं. जहां है, वही ठीक है. भैया-भाभी उन्हें जैसे भी रखें, मैं क्यों उनसे बुराई लूं… मेरे किस काम की… नहीं… आख़िर मां है… ख़्याल आता है मां… वह भी किस काम की… क्या मां सचमुच बेकार हो गई… हम भी एक दिन बेकार होंगे… जुग जुग जियो… नहीं एक जुग भी लंबा है… हाय… यह जीवन मृगतृष्णा..!
आख़िर भगवान को चाची मां की याद आ गई, वे पंचतत्व में विलीन हो गईं.
- सुधा दुबे
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