जब रितिका साइना नेहवाल, सानिया मिर्ज़ा, कर्णम मल्लेश्वरी, मेरी कॉम आदि को खेलते देखती, तो उसे स्टेडियम में हैंड बॉल खेलती स्वयं की धुंधली-सी छवि दिखाई पड़ती. उसकी आंखें कभी ख़ुशी से भर आतीं, तो कभी नम हो जातीं. बीते बरसों की यादें उसे शूल-सी चुभतीं. स्वयं को उनके साथ देखने की कोशिश करती और रुलाई फूट पड़ती.
“सुना है तुम्हारी प्रथम त्रैमासिक परीक्षा का परिणाम आ गया है.” रितिका की मां ने उसे संदेहास्पद लहजे में डांटते हुए घुड़का.
“नहीं मां, अभी तो परीक्षा हुई ही नहीं तो परिणाम कैसे आएगा भला.” अचकचा कर रितिका ने प्रत्युत्तर में एक प्रश्न मां के समक्ष रख दिया.
"तुम सच कह रही हो परीक्षा नहीं हुई?"
"हां मां, मैं क्या तुम से झूठ बोलूंगी?"
"गज़ब है सामने रहने वाली तुम्हारी सहपाठी संचिता की मां तो कह रही थी कि उसकी बेटी के अंक परीक्षा में बहुत ही कम आए हैं. वह किस परीक्षा की बात कह रही थी फिर?"
“वह मैं क्या जानूं भला? संचिता की मां तो वैसे भी उसकी सौतेली मां है, हर वक़्त उस पर शक करती है. पढ़ी-लिखी भी तो नहीं, कुछ जानती-समझती तो है नहीं, बस ऊलजुलूल तुम्हारे कान भरती रहती है.”
“तुम ठीक कहती हो, क्या पता उसे ही भ्रम हो और मुझे फ़िक्र में डाल दिया हो.”
बातें बना कर रितिका ने आज फिर स्वयं को बचा लिया था और वह मन ही मन अपनी बहानेबाज़ी की कला पर बहुत प्रसन्न हो रही थी.
अगले दिन विद्यालय की प्रार्थना सभा में वह कतार में सबसे आगे खड़ी थी. जैसे ही प्रार्थना समाप्त हुई खेल शिक्षिका का रौबदार स्वर उसके कान में गूंजा, “स्पोर्ट्स की सभी लड़कियां कक्षा में न जाएं और यहीं से बस में जा कर बैठ जाएं."
जो छात्राएं स्पोर्ट्स में नहीं थीं वे अपनी-अपनी कक्षाओं में चली गईं और वह स्कूल बस की तरफ़ बढ़ गई.
अपनी साथी खिलाड़ियों के उत्साह से मुस्कुराते चेहरे देख वह अपनी मां की हिदायत को भूल गई. जैसे ही बस स्टेडियम पहुंची वह ख़ुशी-ख़ुशी बस से उतरी और स्टेडियम के अंदर की और दौड़ती नज़र आई.
हैंड बाल और खो-खो की खिलाड़ी रितिका जब बॉल हाथ में लेकर दौड़ती, तो मजाल है जो कोई उससे बॉल छुड़ा सके. सात-सात खिलाड़ियों की दो टीम जब आमने-सामने होती, तो जिस फुर्ती से वह बॉल अपनी साथी खिलाड़ी को पास करती और फिर विरोधी टीम की गोल पोस्ट तक पहुंचा देती वह मैच देखने लायक होता. आधे-आधे घंटे के दो मैच खेलते हुए पलक झपकते ही समय कहां बीत जाता मालूम ही न चलता.
पूरी टीम को संचालित करती रितिका का अपनी टीम के साथ सामंजस्य भी बहुत अच्छा था, आख़िर मंजी हुई खिलाड़ी जो थी वह.
खो-खो खेलती तो दौड़ लगाते हुए उसकी नज़र ज़मीन पर बैठे हरेक खिलाड़ी पर होती. जैसे ही आगे दौड़ने वाली लड़की विपरीत दिशा में मुंह किए बैठी लड़की के सामने से गुज़रती वह चीता की गति से वहां पहुंच कर झट से "खो" कह देती. कोच भी उसकी लगन एवं प्रतिभा को देख कर बहुत प्रसन्न होते.
पांच भाई-बहनों के परिवार में दूसरे नंबर की रितिका जिस तरह अपने भाई-बहनों से सामंजस्य बैठा लेती थी. उसी प्रकार साथी खिलाड़ियों के साथ भी उसका अच्छा एवं परिपक्व व्यवहार देख खेल शिक्षिका भी टीम की श्रेष्ठ खिलाड़ियों में उसकी गिनती करती. “दुपट्टा कहां है तुम्हारा” घर में घुसते ही मां का स्वर जब कान में पड़ा, तो उसकी एकाग्रता टूटी और वह झट से बोली, “बैग में है, जब पानी पीने गयी नल पर हाथ से ओक बनाई, तो पानी कोहनी तक आ गया और दुपट्टा गीला हो गया इसलिए बैग में रख लिया, वरना सारे कपड़े गीले हो जाते.” झेंपती सी बनावटी मुस्कान बनाते हुए वह बाथरूम की तरफ़ बढ़ गई और कपड़े बदल कर आ गई.
गरमा-गरम शाम की चाय और नाश्ता उसकी मां ने टेबल पर रखा, तो ऐसे टूट पड़ी मानो जन्मों से भूखी हो. मन ही मन सोच रही थी कि.दुपट्टा तो स्टेडियम में खेलते वक़्त उतारा था. उसके बाद पुनः पहनना तो याद ही नहीं रहा. शुक्र है आज तो मां के समक्ष उचित बहाना सूझ गया, वरना खैर न थी…
खा-पी कर जब बैग से दुपट्टा निकालने लगी, तभी सामने की संचिता की मां का स्वर उसके कान में गूंजा, “ओ भाभी जी, ल्यो झांको या री मारक सीट.” अपने देसी स्वर में वह संचिता की परीक्षा की मार्कशीट लेकर उसकी मां के सामने खड़ी थी.
रितिका की घिग्घी बंध गई थी, सो वह चादर तान कर सोने का उपक्रम करने लगी.
"हे भगवान! यह तो सचमुच त्रैमासिक परीक्षा की मार्कशीट है. सचमुच आपकी बेटी के अंक तो बहुत कम आए हैं, लेकिन रितिका से तो कल ही पूछा, तो कहने लगी कि परीक्षा हुई ही नहीं. कुछ तो दाल में काला है ज़रूर."
संचिता की मार्कशीट हाथ में लिए मां रितिका के पास आई.
"ये देखो घोड़े बेच कर सो रही है. अरी, परीक्षा का क्या हुआ?” मां ने उसकी चादर खींच कर एक तरफ़ पटक दी थी. अपने कपड़े ठीक करती हुई रितिका उठ बैठी. माँ का ग़ुस्से से तमतमाया चेहरा देखा, तो उनसे नज़रें मिलाने की हिम्मत न हुई सो नीचे मुंह कर बैठ गई.
“यह क्या है?” मां ने चीखते हुए स्वर के साथ संचिता की परीक्षा की मार्कशीट रितिका के सामने पलंग पर पटक दी.
"बोलती क्यों नहीं? अब क्या सांप सूंघ गया तुझे? या ज़ुबान को लकवा मार गया?"
"मां… क्या बताऊं?.." आगे कुछ बोल पाती उससे पहले मां का झनझनाता हुआ हाथ चटाक की आवाज़ के साथ उसके गाल पर अपनी उंगलियों के निशान अंकित कर चुका था.
सिसक-सिसक कर रोने लगी थी वह. थोड़ा चेहरा ऊपर किया, तो मां का विकराल रूप नज़र आया. पुनः नज़रें पलंग की चादर पर बने लाल-नीले गोलों की परिधि मापने लगी थीं.
“ल्याओ मारक सीट.” संचिता की मां मार्कशीट लेकर वहां से चली गईं.
रितिका का जी चाहा यदि उसके हाथ में एक पत्थर होता, तो वह खींच कर संचिता की मां के सिर में दे मारती. ग़ुस्से में धड़कन बेकाबू होने लगी थी और मन ही मन न जाने कितनी गालियां उसने संचिता की मां को दे डाली थीं.
सौतेली मां है, संचिता पर पूरी नज़र रखती ही हैं. उसके स्कूल बैग की भी पूरी तहक़ीक़ात करती हैं. संचिता ने स्वयं ही तो आज कक्षा में बताया था कि उसकी मां जब-तब उसका बैग चेक करती रहती हैं.
हे भगवान यह तो अनपढ़ है. पढ़ी-लिखी होती, तो न जाने क्या कहर ढाती संचिता पर. इतना क्या कम पड़ता है, जो मेरी मां को आ कर सारी ख़बरें भी देती हैं…
“बोल अब क्या होंठ सिल गए तेरे?” मां का कर्कश स्वर पुनः उसके कानों के डायाफ्राम पर कम्पन पैदा कर रहा था.
“क्या बताऊं मां… मेरी परीक्षा तो हुई ही नहीं…” आगे कुछ कह पाती इससे पहले ही मां ने दूसरा सवाल दाग़ दिया था.
“कहां गई थी परीक्षा के समय… क्यों नहीं हुई तेरी परीक्षा?”
"मां क्या बताऊं खेल शिक्षिका रोज़ स्टेडियम लेकर जाती हैं सभी खिलाड़ी लड़कियों को. अगले माह अंतर विद्यालय खेल प्रतियोगिताएं हैं. अध्यापिका बोलीं कि प्रतियोगिताओं के बाद सभी खिलाड़ी लड़कियों की परीक्षा अलग से होंगी."
“कान खोल कर सुन ले किसी खेलकूद में भाग नहीं लेना है. तुझे पहले भी कितनी बार कहा, पर तू माने तब न.” मां ने एक और तमाचा उसके गाल पर जड़ दिया था.
अगले दिन प्रार्थना सभा के बाद रोज़ाना की तरह खेल शिक्षिका ने हुकम दिया, “खेलकूद की सभी खिलाड़ी लड़कियां बस की तरफ़ प्रस्थान करें.”
“मैडम, आज मैं स्टेडियम नहीं जाऊंगी, मेरी तबीयत ठीक नहीं.”
“क्या हुआ तुम्हारी तबीयत को, अच्छी-ख़ासी तंदुरुस्त तो दिख रही हो तुम?”
“मैडम खेल कर जब घर जाती हूं, बहुत थकान हो जाती है. पैरों और कमर में बहुत दर्द होता है. मां ने कहा कि खेलकूद से नाम कटा दे.” दबे स्वर में सिर्फ़ इतना ही कह पाई रितिका.
“बादाम और चने भिगो कर खाओ, सब दर्द ठीक हो जाएगा.” खेल शिक्षिका के कड़क स्वर के साथ ही रितिका स्टेडियम जाने वाली बस की तरफ़ बढ़ गई थी.
गणित की अध्यापिका भी अब उसे रोज़ हिदायत देने लगी थी, “तुम मंगलवार और गुरुवार के मेरे पीरियड में जिमिनास्टिक के लिए चली जाती हो. तुम्हें मालूम है गणित विषय के लिए अभ्यास बहुत आवश्यक है. गणित के पीरियड में जिमिनास्टिक अभ्यास करोगी, तो परीक्षा में क्या वृत लाएगी?"
“वृत” शब्द सुनते ही पूरी कक्षा ठहाका लगा कर हंस पड़ी थी. गणित अध्यापिका ने बड़े ही सभ्य अंदाज़ में गोल अंडा यानी शून्य अंक को वृत की परिभाषा दे डाली थी.
विद्यालय से घर पहुंचती, तो मां का सामना करने से कतराती. मां कुछ पूछेगी, तो कैसे बताएगी कि अभी भी वह स्टेडियम जाती है. चोर निगाहों से घर में घुसती, कपड़े बदलती, थोड़ा कुछ खाती-पीती और झट से पढ़ने बैठ जाती.
अंतर विद्यालय प्रतियोगिताएं आरंभ हो रही थीं और अब खेलकूद की छात्राओं को विभिन्न विद्यालयों में मैच खेलने जाना था. इसके लिए विद्यालय से बस सुविधा उपलब्ध नहीं थी. अभिभावकों को स्वयं ही अपने बच्चों को छोड़ने-लेने की व्यवस्था करनी थी. रितिका मन ही मन डर रही थी मां को कैसे बताए कि अब उसे यह व्यवस्था भी करनी होगी. स्कूल से घर तक के रास्ते में बस में बैठे उसके माथे की लकीरें गहरी होने लगी थीं. घर पहुंची खाना खाया, तभी पास ही की अन्य सहपाठी की मां अपनी बेटी के साथ उनके घर आई और बोली, “देखिए रितिका की मां दोनों लड़कियों को एक ही जगह जाना है. डबल चक्कर कौन लगाए. आप लड़कियों को छोड़ कर आइए, लेने हम चले जाएंगे.”
रितिका की मां कुछ कहती इससे पहले ही रीतिका किसी अपराधी की भांति नज़रें ज़मीन में गड़ाए वहां आ खड़ी हुई.
“क्या करुं मां खेल शिक्षिका के समक्ष बहुत बहाने बनाए, पर वे सुनती ही नहीं. रोज़ स्टेडियम जाती हूं अभ्यास के लिए. बस यह प्रतियोगिता खेल लूं, फिर नाम कटा देना भले ही खेल से. मां इधर तुम डांटती हो, उधर खेल शिक्षिका मेरी एक नहीं सुनती, खेलने पर ज़ोर देती हैं. जिमिनास्टिक की ट्रेनर कहती हैं कि तुम्हारी हड्डियां बहुत लचीली हैं, तुम बहुत अच्छी जिमनास्ट बनोगी, देश का नाम रौशन करोगी.”
अगले ही पल रितिका की मां आगबबूला हो उठी थी, “बेशर्म, ज़िद्दी कितनी बार तुझे कहा कि तुझे इंजीनियर बनना है. कोई खेलकूद में भाग नहीं लेना, पर तू समझे तब न. मेरी ही ग़लती है कि मैं ने तेरा भरोसा किया.” पिताजी के सामने मां ने ख़ूब हंगामा किया.
"बिगाड़ कर रखा है अपनी लाडली को. कल मैं ही तेरी स्कूल आती हूं. देखती हूं कौन सी खेल शिक्षिका है तेरी."
अगले दिन रितिका की मां प्रधानाचार्य के दफ़्तर में थी.
“देखिए मैडम हम अपनी बेटी को स्कूल पढ़ने के लिए भेजते हैं. हमारी बेटी किसी खेलकूद में भाग नहीं लेगी." इतना कह मां ने एक लिखित अर्जी प्रधानाध्यापिका के समक्ष रख दी थी. रितिका का नाम सदा के लिए खेलकूद से काट दिया गया था.
रात-दिन की कड़ी मेहनत और पीईटी की परीक्षा में उसकी अच्छी मेरिट बनते ही इंजीनियरिंग में दाखिला मिल गया. समय पंख लगा कर उड़ गया और सोलह वर्ष पश्चात इंजीनियर रितिका अपनी बेटी को नर्सरी कक्षा में दाख़िले के लिए अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त अन्तराष्ट्रीय विद्यालय में लेकर गई. पहले ही दिन ओरियंटेशन के बाद सभी अभिभावकों को विद्यालय का दौरा करवाया गया. छोटे बच्चों के लिए रंग-बिरंगे फोम से युक्त जिमिनेशियम बनाया हुआ था. सभी बच्चे जिम ट्रेनर की उंगली पकड़ वहां लगी बार पर चढ़ कर अपने आप को संतुलित करते हुए धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे. जबकि रितिका की बेटी सारा फुर्ती के साथ बगैर किसी की मदद के बार पर चढ़ी और उसे पार कर लिया.
“हमारी बेटी में मेरे ही जींस आए हैं, देखो न क्या खटाखट इसने बार क्रॉस कर लिया.” रितिका का स्वर सभी अभिभावकों के बीच गूंज उठा था. इतने बरसों बाद आज वह पूरे दिन बहुत प्रसन्नचित्त रही. अपनी बेटी सारा को वह खिलाड़ियों की जीवनी पढ़कर सुनाती और साथ में स्वयं भी उनमें खो जाती. यू ट्यूब पर जिमिनास्टिक के वीडियो दिखाया करती और स्वयं के स्कूल के क़िस्से भी ख़ूब सुनाया करती. एक बार जब सीलिंग से लोहे की चेन के साथ बंधे गोलों पर स्वयं के लटकने का क़िस्सा सारा को सुनाया तो वह ख़ूब ठहाके लगा कर हंसी. जब-तब वह रितिका से कहती, “मॉम, तुम मुझे वही क़िस्सा सुनाओ, वह बहुत फनी है.” हुआ यूं था कि रितिका चेन से बंधे गोलों के बीच अपनी लंबी टांगें डाल संतुलन बना कर ऊपर बैठ गई. उसने अपने दोनों हाथों से चेन पकड़ी हुई थी और पैर गोलों से बाहर नीचे लटक रहे थे. उसकी अन्य जिमिनास्ट सहेलियां पैर पकड़ कर उसे झूला दे रही थी कि तभी ट्रेनर वहां आ पहुंची. उनकी शरारत देख वह बहुत नाराज़ हुईं और बोली, “नीचे उतरो रितिका.” डर कर सभी सहेलियां एक कोने में खड़ी हो गई थीं. अब रितिका नीचे उतरे तो भला कैसे? लेकिन उसने अपने पैर गोलों से बाहर निकाले और चेन के सहारे से नीचे सरकी. यूं तो ज़मीन से काफ़ी ऊंचाई थी फिर भी कूद कर वह सुरक्षित ट्रेनर के सामने खड़ी थी. ट्रेनर का ग़ुस्सा मानो छू हो गया था. उसने रितिका के लिए सभी दूसरी जिमिनास्ट से तालियां बजवाईं. फनी क़िस्सा सुनकर सारा तो बहुत ठहाके लगाती, किन्तु रितिका की आंखें कभी-कभार पनीली-सी हो जातीं.
टीवी पर स्पोर्ट्स चैनल और ओलम्पिक गेम्स मां-बेटी एक साथ बैठ कर देखा करतीं. उनके लिए यही पल सबसे सुखद होते. सारा धीरे-धीरे बड़ी हो रही थी और अब वह लॉन टेनिस खेलने लगी थी. जब रितिका साइना नेहवाल, सानिया मिर्ज़ा, कर्णम मल्लेश्वरी, मेरी कॉम आदि को खेलते देखती, तो उसे स्टेडियम में हैंड बॉल खेलती स्वयं की धुंधली-सी छवि दिखाई पड़ती. उसकी आंखें कभी ख़ुशी से भर आतीं, तो कभी नम हो जातीं. बीते बरसों की यादें उसे शूल-सी चुभतीं. स्वयं को उनके साथ देखने की कोशिश करती और रुलाई फूट पड़ती.
सारा को लॉन टेनिस खेलते देखती, तो मुस्कुरा उठती. अगले ही पल अपनी मां की बात कानों में गूंजती, “कान खोल कर सुन लो तुम्हें इंजीनियर बनना है."
“हां मां बन गई इंजीनियर अब तो तुम ख़ुश होंगी न.” जब कभी सारा कहीं किसी स्टेडियम में मैच खेलने जाती, रितिका दफ़्तर से छुट्टी लेकर दर्शक दीर्घा में बैठ कर उसका मैच देखा करती. उसने स्वयं को मानसिक रूप से मज़बूत किया और अपनी बेटी सारा को उन्मुक्त उड़ान भरने की आज़ादी दे दी.
- रोचिका अरुण शर्मा
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