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कहानी- डिस्काउंट (Short Story- Discount)

अपनी पत्नी का जोश और उसका विश्वास देखकर रघुवर ने सोचा, 'इसमें बुराई ही क्या है. मैं तो नौकरी ढूंढ़ ही लूंगा. उर्मिला की इच्छा भी पूरी हो जाएगी. यदि वह सफल हो गई, तब तो सब अच्छा ही होगा. यदि असफल भी हो गई, तब भी कम से कम उसे इस बात का दुख तो नहीं होगा कि मैंने उसे कोशिश ही नहीं करने दी.'

अत्यंत ही मध्यम वर्ग का रघुवर अपनी छोटी-सी दुकान से होने वाली कमाई से अपना घर-परिवार अच्छी तरह से चला रहा था. किराने की छोटी-सी दुकान के दम पर ही अपनी बूढ़ी मां, पत्नी, दो बच्चे सभी की ज़िम्मेदारियां वह उठा रहा था. रघुवर स्वभाव से बहुत ही नेक दिल इंसान था. अपने ग्राहकों से प्यार से बात करना उसकी आदत थी. उसके हंसमुख स्वभाव के कारण ही उसकी दुकान ख़ूब चलती थी. आसपास के लोग कहीं दूर किराना लेने नहीं जाते थे, रघुवर से ही ले लिया करते थे.
लेकिन समय हमेशा एक जैसा कहां रहता है. समय ने करवट बदली, मौसम बदला, लोगों का मिज़ाज बदला. धीरे-धीरे शहर में बड़े-बड़े सुपर मार्केट खुलने लगे. जहां कई तरह के डिस्काउंट के बोर्ड लगे देख, वहां की चमक-दमक, ऊपर चढ़ने की बढ़िया स्वचालित सीढ़ियां देखकर लोग उनकी तरफ़ आकर्षित होने लगे. अपने आसपास के छोटे दुकानदारों को छोड़ कर अब वे घर से दूर सुपर मार्केट में जाने लग. जहां उन्हें अच्छा-खासा डिस्काउंट मिल जाता था. साथ ही इतनी बड़ी दुकान में घूम-घूम कर स्वयं ही सामान ख़रीदने में आनंद भी आता था. बच्चे भी ख़ुश होते थ.
मध्यमवर्गीय रघुवर जैसे छोटे दुकानदार इतना डिस्काउंट नहीं दे सकते, ना ही उनकी दुकानों में लोगों को आकर्षित करने की क्षमता होती है. धीरे-धीरे रघुवर की दुकान का धंधा भी मंदा चलने लगा.
जीविकोपार्जन में भी अब उसे कठिनाइयों का सामना होने लगा. बूढ़ी मां का इलाज, बच्चों की पढ़ाई, सब कुछ अकेला कैसे करे? उसकी पत्नी उर्मिला, रघुवर की हालत देखकर बहुत चिंतित हो रही थी. दुकान में रखा माल ख़राब होने की स्थिति में आ रहा था. यूं समझ लो कि बड़े-बड़े सुपर मार्केट ने अजगर का रूप ले लिया था, जो छोटी दुकानों को निगल रहे थे.
परेशान होकर एक दिन रघुवर ने अपनी पत्नी से कहा, "उर्मिला, अब तो जान पर बन आई है. दिनभर बैठे-बैठे ग्राहकों का इंतज़ार करता रहता हूं. इक्के दुक्के यदि आ भी जाते हैं, तो केवल ज़रूरत की ही कुछ ख़ास वस्तु लेकर चले जाते हैं. आसपास के गरीब मज़दूर दस-बीस रुपए की ख़रीददारी कर भी लें, तो उससे क्या होता है. हम जैसे दुकानदार अब मुनाफ़ा तो जाने दो, दुकान का किराया तक भी नहीं निकाल सकते. हमारे लिए तो कम से कम इतनी सुविधा है कि दुकान हमारी ख़ुद की है. तब भी तकलीफ़ हो रही है, जो बेचारे किराए से लेकर चला रहे हैं उनकी तो शामत ही आई है समझो."
"चिंता मत करो जी, सब ठीक हो जाएगा."

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"क्या ठीक होगा उर्मिला, अब यह हालात हमेशा ऐसे ही रहेंगे. हमें ही कुछ निर्णय लेने पड़ेंगे. मैं सोच रहा हूं…"
"क्या सोच रहे हो?" घबरा कर उर्मिला ने प्रश्न किया.
"मैं सोच रहा हूं दुकान का सारा माल किसी और दुकानदार को बेचकर दुकान किराए पर उठा दूं, जिस में हिम्मत होगी वह चला लेगा."
"नहीं रघुवर किसी और को औने-पौने भाव में हम अपना सामान क्यों बेचें? हम ख़ुद ही उसे उपयोग में क्यों ना लाएं?"
"क्या कह रही हो तुम? इतना सामान, इतना अनाज, हम क्या करेंगे? घर में पड़ा-पड़ा भी सड़ ही तो जाएगा ना."
"नहीं रघुवर जिस सामान की हमें ज़रूरत नहीं वह बेच दो. अनाज-मसाले सब रख लेते हैं. मैं टिफिन सर्विस चालू कर दूंगी."
"यह सब इतना भी आसान नहीं. बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं. मैं सोच रहा हूं कि मैं कोई छोटी-मोटी नौकरी कर लूं."
"तुम नौकरी कर लो पर मुझे एक मौक़ा दो. मैं सब कर लूंगी. हमें करना ही पड़ेगा हमारे बच्चों की ख़ातिर. तुम सिर्फ़ अनाज-मसाले मत बेचो और मुझे थोड़ा-सा समय दे दो. यदि मैं नहीं कर पाई, तो फिर सब कुछ बेच देना."
अपनी पत्नी का जोश और उसका विश्वास देखकर रघुवर ने सोचा, 'इसमें बुराई ही क्या है. मैं तो नौकरी ढूंढ़ ही लूंगा. उर्मिला की इच्छा भी पूरी हो जाएगी. यदि वह सफल हो गई, तब तो सब अच्छा ही होगा. यदि असफल भी हो गई, तब भी कम से कम उसे इस बात का दुख तो नहीं होगा कि मैंने उसे कोशिश ही नहीं करने दी.'
अब रघुवर नौकरी की तलाश में था. दुकान किराए पर उठ गई, इसलिए कम से कम एक आमदनी शुरू हो गई. अनाज, मसाले, घी, तेल सब घर में संग्रहित कर लिया. जो सामान काम का नहीं था, वह बेचने में निकाल दिया. मरता क्या न करता, सामान तो बेचना ही था और अवसर का फ़ायदा कौन नहीं उठाना चाहता. एक दुकानदार ने औने-पौने दाम में सारा सामान भी ख़रीद लिया.
रघुवर को कपड़े की एक दुकान में नौकरी मिल गई. उर्मिला ज़ोर-शोर से अपने काम में जुट गई. रघुवर सोच रहा था नौकरी के अलावा जितना भी समय मिलेगा वह उर्मिला को मदद कर दिया करेगा. वह सुबह जल्दी उठकर सब्ज़ी ले आएगा.
उर्मिला ने कई ऑफिसों में चक्कर लगाना शुरु कर दिया. उसने अपनी टिफिन सर्विस के प्रचार के लिए पेम्पलेट छपवा कर बांटना शुरू कर दिया. गरम-गरम स्वादिष्ट सफ़ाई से बनाया हुआ, घर का खाना देने का कह कर उसे कुछ ग्राहक भी मिल गए. घर के बाहर भी टिफिन सर्विस का बड़ा-सा बोर्ड लगा दिया गया.
उर्मिला को 8-10 टिफिन का ऑर्डर भी मिल गया. उसने और मन लगाकर खाना बनाना शुरू कर दिया. वह खाना बनाकर ख़ुद ही समय पर ऑफिस में टिफिन दे आती थी. उसके हाथ का खाना लोगों को पसंद आने लगा. बात फैलने में समय कहां लगता है. उसके पास खाने के ऑर्डर बढ़ने लगे. उर्मिला बहुत ख़ुश थी. उसने अपने कई ग्राहक सुनिश्चित कर लिए और इस तरह उसकी टिफिन सर्विस चल निकली.
उधर रघुवर भी अपनी नौकरी पर जाने लगा, लेकिन उसका मन विचलित था. अपनी दुकान पर मालिक बनकर बैठने वाला रघुवर अब किसी और की दुकान पर सेल्समैन का काम कर रहा था. कपड़े की दुकान पर काम करते हुए रघुवर उदास रहने लगा था. उसकी यह उदासी उर्मिला से देखी नहीं जाती थी. जब तक 8-10 टिफिन थे उर्मिला संभाल पा रही थी, लेकिन अब काम बढ़ने के कारण उसे भी मदद की ज़रूरत थी.
एक दिन उसने रघुवर से कहा, "अजी तुम अब नौकरी छोड़ दो. बहुत ऑर्डर आने लगे हैं. अब मुझसे अकेले यह नहीं संभलेगा. खाना बनाने में भी समय ज़्यादा लगेगा. वह तो सुबह जल्दी उठकर मैं कर लूंगी, लेकिन इतने सारे लोगों को सही समय पर डिब्बा पहुंचाना नहीं हो पाएगा."
उर्मिला की मेहनत और संघर्ष देखकर रघुवर ने उसका साथ देना ज़्यादा ठीक समझा. उसने वह नौकरी जो हमेशा उसे यह एहसास दिलाती थी कि अब वह पहले की तरह मालिक नहीं, बल्कि एक सेल्समैन है, उसे छोड़ कर अब वह उर्मिला के साथ लग गया.
रघुवर की दुकान जिसने किराए पर ली थी, दुकान ना चलने के कारण उसने भी दुकान खाली कर दी. यह समय तो सभी छोटे दुकानदारों के लिए अच्छा नहीं था. जो बहुत भाग्यशाली थे, उनकी तो दुकान चल रही थी, लेकिन सब का भाग्य ऐसा कहां होता है.
उर्मिला बहुत होशियार थी. उसका दिमाग़ तेज चलता था. उसने रघुवर से कहा, "क्यों ना हम अपनी उसी दुकान में छोटा-सा होटल खोल लें. कुछ कुर्सी-टेबल लगा दो. सस्ते दामों पर हमारी थाली देखकर बहुत से लोग आकर्षित होंगे. हमारा धंधा भी बढ़ेगा. मुझे पूरी ईमानदारी से अपना यह कारोबार चलाना है. यदि हमें फ़ायदा हो रहा है, तो हम दूसरों को क्यों ना अच्छा भोजन परोसें? गरीब लोगों की दुआएं मिलेंगी, तो हमारा परिवार भी ख़ुश रहेगा."
"तुम बिल्कुल ठीक कह रही हो उर्मिला, कम पैसों में अच्छा स्वादिष्ट खाना किसे पसंद नहीं होगा."
धीरे-धीरे उनकी मेहनत रंग ला रही थी. रघुवर अब फिर से कैश काउंटर पर बैठने लगा. उसका हंसता-मुस्कुराता चेहरा देखकर उर्मिला को भी प्रसन्नता होती थी, जिसके लिए उसने इतनी मेहनत की थी.

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रघुवर अपनी दुकान में बैठा सोच रहा था कि उसी की तरह ऐसे कितने ही छोटे दुकानदार हैं, जो आज सुपर मार्केट का शिकार हो गए हैं. परेशानी में हैं. कितने ही दुकानदारों ने अपनी दुकानें बेच दीं. कितनों ने किराए की ली हुई दुकानें खाली कर दीं. उर्मिला की तरह हर पत्नी इतनी सक्षम नहीं होती कि इतने बड़े काम को सफलतापूर्वक अंज़ाम तक ले जा सके. लेकिन हमें सक्षम तो होना ही पड़ेगा. हर छोटे दुकानदार को अपनी जीविका अच्छे से चलाने के लिए कुछ ना कुछ तो करना पड़ेगा.
उसने उर्मिला से कहा, "उर्मिला, अब तो हम जैसे छोटे दुकानदारों को जीवनभर संघर्ष ही करना पड़ेगा. लद गए वह दिन जब हमारी दुकानों पर भीड़ हुआ करती थी. मुझे लगता है कि जो लोग हम जैसों की छोटी दुकानों से एमआरपी पर सामान ख़रीद कर ले जाते हैं ऐसे अधिकतर लोग गरीब तबके से आते हैं, मज़दूर हैं. इन्हीं लोगों के दम पर अब यदि दुकान चलानी है, तो उन्हें डिस्काउंट अवश्य मिलना चाहिए. क्योंकि जिस दिन उनके कदम भी सुपर मार्केट की तरफ़ मुड़ जाएंगे, उस दिन छोटे दुकानदारों की दुकानों में ताले लग जाएंगे. उनके परिवार भूखे रहने की स्थिति में आ जाएंगे. इस बात की गंभीरता को समझते हुए उन्हें अपनी दुकानों के सामने डिस्काउंट के बोर्ड लगा देना चाहिए. ज़्यादा ना सही जितना संभव हो उतना डिस्काउंट अवश्य दें, वरना आने वाला वक़्त बहुत ही कठिनाइयों भरा होगा."
"तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो. यदि बाज़ार में टिकना है, तो कुछ ना कुछ तो करना ही होगा. भले ही छोटे दुकानदार थोड़ा कम मुनाफ़ा कमाएं, पर बाज़ार में टिक तो सकेंगे, वरना यह सुपर मार्केट के बड़े-बड़े अजगर, छोटी-छोटी दुकानों को ऐसे ही निगलते चले जाएंगे."

- रत्ना पांडे

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