"अभय, तुम भूल गए. यह घर… यह तो पहले से मेरा है, मेरे पापा का दिया हुआ, और जो रुपया है उसका मूल भी मेरा ही था. मेरे ख़्याल से तुम तो तब भी खाली हाथ थे और अब भी."
अभय की आंखें भी छलछलाती हुई लबालब हो रही थीं. उसने एक बार फिर मेरा हाथ पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, पर मैं हट गई थी.
अब इस स्पर्श में कुछ नहीं है. सब-कुछ बदल गया था. अब हमारे रिश्ते बदल गए थे, जिनका कोई दूसरा नाम नहीं था. नए सिरे से हमें लिखनी होगी जीवन के रिश्तों की इबारतें.
मुझे घर छोड़कर पापा के यहां आए 15 दिन हो गए, पर न जाने क्यों इस बार ये 15 दिन युगों की तरह कटे. न मां से बात करना अच्छा लगता, न पापा का सामना करना. एक अपराधबोध-सा हमेशा बना रहता, जैसे मैंने अपनी लापरवाही से उनकी किसी बहुमूल्य वस्तु को खो दिया था. पूरी तत्परता से मां और पापा मेरा ख़्याल रख रहे हैं, जिसके पीछे झांकती हुई उनकी संशय की चिन्ताएं मुझे स्पष्ट दिखाई देती हैं. उन्हें डर है, कहीं मैं डिप्रेशन में कुछ कर न लूं. कैसा दुर्भाग्य है यह? मां-पापा को इस उम्र में मेरी तरफ़ से चिन्तामुक्त होना चाहिए, ब्याहता बेटी अपने घर-संसार में सुखी रहे; यही तो वे चाहते थे, पर उन्हें चिन्ता है मेरे भविष्य की अब क्या होगा?
एक तीखा-सा खेद मन में जागा, अपने आपको कोसा भी- क्यों अभय के प्यार में उलझी? इससे अच्छा शायद वही रिश्ता रहता, जो बड़ी चाची के मायके से आया था, पर अब? तब तो अभय ही दुनिया जहान में सबसे अच्छा, सबसे निराला लगता था. एकदम विश्वासपात्र और उसी अंधे प्यार और विश्वास के कारण उसे सहर्ष
ज़िंदगी सौंपी थी. मेरे उस निर्णय से चाची थोड़ी नाराज भी रही थीं, पर मुझे विश्वास था कि प्रेम-विवाह ही सफल रहेगा. बड़े-बड़े दावों के साथ मैं अपने निर्णय पर अटल थी, पर रेत के महल साबित हुए मेरे दावे, उसी ने यूं तोड़ा विश्वास. कुछ दिन तो मेरे भीतर अभय के प्रति एक अन्धक्रोध था, जो सिर्फ़ अभय के अलावा कुछ और देख ही नहीं पा रहा था. लावे की तरह पिघलता वह क्रोध जो अभय का कुछ नहीं बिगाड़ सकता था, पर मुझे भस्म किए जा रहा था. पर एक माह में ही वह क्रोध अपनी आवेगात्मकता के अनुपात में शांत भी होने लगा और मुझे अपनी नहीं, मां और पापा की चिन्ता होने लगी. उनके बुढ़ापे को यूं बिगाड़ देना ठीक नहीं है, मैं सोचने लगी कि मुझे स्वयं को संभालना होगा. एक तेज़ प्रवाह की तरह अभय मेरे जीवन में आकर चला गया. एक ज्वारभाटा ही तो था उसका आना और जाना.
मैं उठ खड़ी होती हूं एक नए निर्णय के साथ. एक ठोस निर्णय ने मेरे अंदर के ज्वालामुखी को शांत कर दिया था. मैं मां के सामने जाकर दृढ़विश्वास के साथ कहती हूं, "मां, मैं कल जाना चाहती हूं."
"कहां?" मां चौंक उठी.
"अपने घर…"
मैं कहती हूं, "हां, मां! वहीं, वापस अपने उसी घर में."
"क्यों, यहां तकलीफ़ है क्या?" मां थोड़ा ग़ुस्से से बोलती हैं.
"हां, मां! यहां रहते मुझे लगता है, मैं छोड़ी हुई औरत हूं. यह एहसास मुझे डंक मारता है. वह घर मैंने नहीं छोड़ा है, मां! वह मेरा घर है. मैं वहीं रहकर आगे पढ़ाई करूंगी और कुछ नया काम शुरू करूंगी. मुझे आपका और पापा का आशीर्वाद चाहिए. पिछले पांच सालों से वहां रहते-रहते वहां की आदत-सी हो गई है. उस सबके बग़ैर यहां सब अटपटा-सा, अजनबी-सा माहौल क्यों लगता है? इस घर में तो मैंने उम्र के बीस वसंत देखे थे, पर वह घर मेरे सपनों से जुड़ा था, मेरा अपना घर."
"क्या वहां अभय के बग़ैर रह पाओगी?" मां का सहज-सा प्रश्न था.
"हां, ज़रूर. रहकर बताना चाहती हूं और फिर वह घर हमारा है. उसके एक-एक तिनके को मैंने ही तो संजोया था. क्या हक़ है उस पर अभय का?" मैं मां पर ही भड़क उठी थी.
"अच्छा, तेरे पापा से बात करूंगी."
"हां, मां! पर कुछ दिन तुम दोनों भी चलो मेरे साथ. वह घर हमारा है. उसे मैं यूं ही बनाए रखूंगी, चाहे वह मेरे लिए यादों का कब्रिस्तान ही क्यों न बन जाए. अभय को जीवन में एकरसता पसंद नहीं थी, वह बदलाव चाहता था, अब मैं ऐसे बदलाव लाना चाहती हूं कि वह देखता रह जाए."
मां और पापा के साथ मैं फिर लौट आई थी अपने उसी घरौंदे में, जहां अब केवल गृहस्थी का सामान था. एक बिखरे रिश्ते का वर्तमान अपने सुखद दाम्पत्य की यादों के अतीत के साथ मौजूद था. घर में सब-कुछ वैसे ही मौजूद था, पहले की तरह अपने पूरे वजूद के साथ, नहीं था तो केवल मेरा अपना वजूद. अभय के साथ मैं भूल गई थी कि मैं एक अलग व्यक्तित्व हूं. मैंने ढाल लिया था स्वयं को अभय के वजूद में. मैं शायद सोचना ही भूल गई थी अपने बारे में. नहीं-नहीं, मैं जो सोचती थी, जो करती थी, उसके केन्द्र में ही अभय होता था. क्या बनाना है? क्या सजाना है? क्या पहनना है?
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सब कुछ अभय की पसंद के अनुसार करने लगी थी. मैं कहीं थी ही नहीं जैसे. क्यों इतना निर्भर हो गई थी उस एक शख़्स पर? अभय की पसंद-नापसंद इतनी हावी थी मुझ पर कि लगा, मैं खोल के अंदर जी रही थी अब तक अंडे के अन्दर पनपे उस चूजे की तरह, जो समझता है बस इतना-सा ही है संसार, पर आज अब अचानक उस खोल के टूट जाने पर मैं आश्चर्यचकित हूं.
घर में लौटने के वे क्षण बड़े कठिन थे. दरवाज़े पर टंगी नेमप्लेट अभय-मीनू से पहला साक्षात्कार एक मीठी-सी कसक की तरह लगा, पर जाने कहां से एक हिम्मत, एक शक्ति आ गई थी और मैंने हाथ बढ़ाकर अभय शब्द उखाड़ दिया. अब वहां केवल मीनू नाम था. मैंने प्रवेश किया देहरी के अंदर और शुरू किया अपने बिखरे वजूद को समेटने का काम. रातभर सोचती रही, सो नहीं पाई थी. साथ वाली खाली जगह जीवन में आयी रिक्तता का एहसास कराती रही रातभर. अपने आप से बुदबुदाती रही, तुम पागल हो, मीनू, एकदम पागल, पर मैं पागल भी कहां हूं! कितना अच्छा होता अगर मैं पागल हो जाती. तब कोई ज़िम्मेदारी, कोई लोकलाज नहीं, चीखो-चिल्लाओ कोई डर नहीं, पर पागल होने जैसी भाग्यवान मैं कहां? मैं तो चीखकर, चिल्लाकर अपनी भड़ास भी नहीं निकाल सकती, मां या बाबूजी को सुनकर कुछ हो गया तो? जीवन में अभय के साथ ब्याह के निर्णय के बाद शायद ही कोई निर्णय मैंने लिया हो.
अभय अक्सर मज़ाक में ही कह देता था, "तुम कभी अपने लिए निर्णय नहीं लेती, कब तक यूं ही मेरे निर्णय में हां करती रहोगी?"
"तुम्हें क्या तकलीफ़ होती है?"
"नहीं, मैं तुम्हें अपनी छाया बनाकर रखना नहीं चाहता. मैं डरता हूं." मीनू, "छाया कभी पीछा नहीं छोड़ती, इसलिए."
"नहीं, तुम अपने को मुझसे अलग पहचानों, महसूस करो, क्योंकि ज़िंदगी में केवल अपना वजूद काम आता है, समझी?"
यादों के ऐसे कितने ही टुकड़े हैं, जो रात-दिन याद आते हैं, पर यादें कितनी पीड़ा देती हैं! हां, कानों में गूंजती है अभय की वह चुनौती. मैं जुट जाना चाहती हूं अपने उस वजूद के लिए जिसे मैं अभय के साथ होने पर पता नहीं कब-कहां, किस मोड़ पर छोड़ आई थी. मैं समझती थी, ब्याह के बाद जो कुछ है वह पति के लिए ही है. पति-प्रेम एक ऐसी जादू की छड़ी है, जो जीवन में दुख-दर्द आने ही नहीं देती, पर मैं ग़लत थी. मात्र कुछ वर्षों में मैं स्वयं को भूल गई थी. सिर्फ़ एक समर्पिता थी, जो अपना अस्तित्व तलाशती थी, कभी पति की बांहों में, कभी पति के चरणों में और कभी पति के घर में.
मेरा समर्पण इतना व्यर्थ निकला कि अभय उस एकरसता से कब बोर हो गया, ऊब गया मुझसे, मुझे पता ही नहीं लग पाया. जब पता लगा, तब तक बहुत देर हो चुकी थी. पिछले कुछ समय से मुझे लग ज़रूर रहा था कि अभय परेशान है, खोया-खोया सा रहता है. कभी लम्बे समय तक हाथ पकड़े बैठा रहता, जैसे डर रहा हो कि कहीं मेरा हाथ छूट न जाए. हो सकता है हमारा प्यार उसके अन्दर चल रहे द्वंद में उसे डराता हो या फिर वह छोड़ देने से पहले की पकड़ थी. जाने कैसा ठण्डापन था उन दिनों के स्पर्श में. तब मैं समझी, अभय परेशान होगा किसी बिज़नेस प्रॉब्लम में. उसके चेहरे से लगता था कि वह घुटन महसूस कर रहा है, कहीं उलझा हुआ है. कभी मैं समझती, वह कहीं दूर है, बहुत दूर मुझसे हज़ारों मील दूर्. बस, केवल वह शरीर से मेरे साथ है और उसका अपने पास होने का भ्रम पालती रही.
कभी-कभी अभय प्रगाढ़ अन्तरगंता में डूबता-उतराता रहता, पर अब लगता है, वह भुलावा था या छलावा? मैं कहती, "आपको आजकल क्या हो गया है? इतने चुप, इतने खोए-खोए क्यों रहते हैं?"
"कुछ नहीं! फिर कभी बताऊंगा." मैं ज़्यादा परेशान भी नहीं करती. अभय कुछ मूडी है, बात का सीधा जवाब कभी नहीं देता. फिर लंबा-चौड़ा कारोबार, हज़ारों उलझनें हो सकती हैं, पर पिछले एक साल से अभय अक्सर दिल्ली टूर पर रहता. अब तक हर दौरे पर एक बार तो मुझे भी ले जाता रहा था, पर पिछले एक साल से दिल्ली टूर पर मुझे चलने को नहीं कहा था.
इस बार जाते वक़्त वादा किया था अभय ने, शादी की वर्षगांठ पर वह मुझे दिल्ली ले जाएगा और एक ख़ूबसूरत तोहफ़ा भी देगा. मैं उसी वादे पर अटकी इंतज़ार कर रही थी. दो माह का अकेलापन था. इतना लम्बा टूर अभय ने पहले कभी नहीं किया था. मैं कोशिश करती ख़ुद को व्यस्त रखने की. कभी शॉपिंग करती, फिल्म देखती, कभी सेल में जाती, किचन का नया सेट, बेड कवर, परदे, पौधे बदलती रहती. यूं भी अभय को बदलाव चाहिए. उसे घर की सजावट में चेंज पसंद है. वह अक्सर कहता, "बदलती रहा करो ये चादर, ये कवर, ये परदे. मैं बोर हो जाता हूं एक-सी व्यवस्था से."
पर अभय, तुमने इस हद तक बदलाव पसंद किया, यह तो मैं सपने में भी नहीं सोच सकती. तुमने तो मुझे भी बदल डाला. शायद तुम मेरे अस्तित्व को पलंग पर बिछी चादर की तरह समझ बैठे. मैं कोई तुम्हारे ड्रॉइंगरूम में रखा फूलदान नहीं थी.
उस दिन शाम मिसेज़ कांत के घर गृह प्रवेश की पार्टी थी. न चाहते हुए भी मुझे अकेले ही जाना था. वहीं मुलाक़ात हो गई कांत की दिल्लीवाली बुआजी से.
"अरे बुआजी, आप?" मैं चहक उठी थी. वे मुझे अच्छी लगती हैं, पहले कई बार मिल चुकी थीं.
"हां, मीनू कैसी हो..?"
"एकदम ठीक!" मैं बोल गई.
"दिल्ली आने वाली हूं." मैंने उत्साह से कहा.
"अभय तो वहीं है आजकल." कुछ रुककर मैंने फिर कहा.
"क्या अक्सर वहीं रहने लगा है?" पूछते हुए उनका चेहरा एकाएक गंभीर हो गया. उनकी आंखों में एक अजीब-सा भाव था, जिसमें व्यंग्य भी था, दया भी.
"मीनू! तुमसे बात करनी है. चलो, ऊपर बालकनी में बैठते हैं." वे सहज होते हुए बोलीं.
"हां-हां, चलिए." मैं आगे चलने लगी.
वे बात का सूत्र जमाते हुए बोलीं, "दुबली लग रही हो."
"नहीं तो, सारा दिन खाती रहती हूं, अकेली जो हूं."
"हां! मैं जानती हूं, पर तुम विरोध क्यों नहीं करती?" वे कहने लगीं.
"किस बात का?"
"अभय के दिल्ली जाने का. तुम रोकती क्यों नहीं उसे?"
"दिल्ली जाने से क्यों रोकूं भला!"
"तुम्हें नहीं मालूम? अकेली क्यों रहती हो, यही समझाना चाहती हूं, पर तुमसे कैसे कहूं? सोचती हूं कि तुम मुझे बुआ कहती हो, इस नाते तुम मेरी बच्ची जैसी हो, तो मेरा फ़र्ज़ बनता है." वे चुप हो गईं.
मैं विस्मय भरे नेत्रों से उन्हें देखती रही.
"मीनू!"
"जी!"
"क्या तुम सचमुच नहीं जानती?"
मैंने उनका हाथ पकड़ लिया, "क्या बात है?"
"बेटी! अभय दिल्ली बिज़नेस के काम से कम और कुछ दूसरे ही कारण से ज़्यादा जाता है. अभय के साथ एक लड़की रहती है. मैंने समझा, तुम्हें पता होगा."
"नहीं तो!" मैंने कहा, "ऐसा तो हो ही नहीं सकता. अभय मुझसे प्यार करता है… वह मेरे बग़ैर जी भी नहीं सकता."
"हमने अपनी आंखों से देखा है. वे सामने वाले मल्टी के फ्लैट में रहते हैं. शायद वहां के लोग उन्हें पति-पत्नी ही समझते हैं."
मैं असहज थी उस वक़्त. मन में थी लावा उगलती एक खीझ. मैं बुदबुदाने लगी थी, "बुआ! क्यों मेरे सुख-चैन को यूं छिन्न-भिन्न करना चाहती हो! न ही बतातीं तो अच्छा था. मैं अपने इस खोल में जी रही थी, क्यों अभय और मेरे रिश्ते का सच अनावृत कर दिया! मेरे जीवन का भ्रम, जिसे मैं सच समझे बैठी थी, क्यों तोड़ दिया! तुम्हारे एक सच से मेरे सारे सुख किन अदृश्य छिद्रों से बाहर निकल गए, मैं नहीं जानती. कितना सुख था अभय की पसंद के अनुसार घर की सजावट में बदलाव लाने का." बदलाव… बदलाव… बदलाव… शब्द का एक बोझिल भार मुझ पर लदने लगा… एक दर्द था, मैं ख़ामोश थी, सजल नेत्रों से किसी के सामने सरलता से खुलती-बिलखती नहीं हूं मैं. शायद यूं खुल पाना मेरा स्वभाव ही नहीं. मैं अपनी पनीली आंखों को झुकाती भी नहीं, क्योंकि पानी टपक गया तो कमज़ोर पड़ जाऊंगी.
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"तुम जानती होगी, हम तो यही समझे थे."
"नहीं."
बुआ ने फिर मेरा हाथ पकड़ा था. वे कोमल स्वर में मुझे सांत्वना दे रही थीं, "मुझे क्षमा करना, मीनू. मैंने तुम्हारा दिल दुखाया. तुम्हारे पत्नी व्रत को चोट पहुंचाई. तुम एक अदृश्य विश्वास के सहारे खड़ी थी, जिसे मैंने जाने-अनजाने तोड़ दिया." वे चली गईं.
मन में डर की नींव शायद उसी शाम पड़ी थी. रात का भयावह अंधेरा मेरे मन में भी भरा था. उस रात अभय के बदलाव की हद जानने के बाद मन चकनाचूर था. क्यों मैं भी बदल दी गई, कैलेंडर के पन्ने की तरह?
अगले दिन सुबह-सुबह ही अभय ने दरवाज़ेे पर दस्तक दी थी. मैंने दरवाज़ा खोला, अनमने-से भाव के साथ.
"क्यों, तबीयत ख़राब है क्या?"
मैं चुप रही.
"तुम्हारा चेहरा इतना उतरा हुआ क्यों है?"
"चाय पिओगे?"
"हां…"
चाय का प्याला देते वक़्त मैंने महसूस किया था कि अभय फिर उलझन में है.
"क्या बात है, मैं तुम्हें उदास नहीं देख सकता."
"तो देखना ही छोड़ दो." मैं आवेश में बोल गई.
अभय बग़ैर हिले-डुले अपनी जगह बैठा रहा.
"कल दिल्लीवाली कांत की बुआजी मिली थीं. तुम्हारे फ्लैट के सामने वाले मल्टी के फ्लैट में ही रहती हैं."
"ओह! तो यह बात है!"
मेरे होंठ थरथराने लगे थे और आंखें आंसुओं से लड़ रही थीं, "तुमने कभी कुछ बताया क्यों नहीं, अभय!"
"क्या?"
"यही कि दिल्ली में तुम्हारे समर्पित व्यवहार से एक ताक़त, एक शक्ति है, जो मुझे रोक देती थी."
कहते-कहते अपने बिखर पड़ने के क्षण को समेट लेती हूं मैं.
"चलो, अच्छा हुआ, तुम्हें पता चल गया! तुम्हें बताने और समझाने के एक कठिन द्वंद से बच गया मैं."
"फिर..?"
"फिर क्या, मैं उसके साथ रहना चाहता हूं."
चुप रही मैं.
"तुम चाहो तो ये घर, ये सामान सब तुम्हारे पास ही रहेगा… तुम्हें कोई तकलीफ़ नहीं होगी. जितना रुपया चाहोगी, तुम्हें मिलता रहेगा… मुझे समझने की कोशिश करो, मीनू!"
"अभय, यह दान कर रहे हो?"
"नहीं…"
"तो फिर?"
"मैं तुम्हें परेशानी में डालना नहीं चाहता."
"अभय, तुम भूल गए. यह घर… यह तो पहले से मेरा है, मेरे पापा का दिया हुआ, और जो रुपया है उसका मूल भी मेरा ही था. मेरे ख़्याल से तुम तो तब भी खाली हाथ थे और अब भी."
अभय की आंखें भी छलछलाती हुई लबालब हो रही थीं. उसने एक बार फिर मेरा हाथ पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ाया, पर मैं हट गई थी.
अब इस स्पर्श में कुछ नहीं है. सब-कुछ बदल गया था. अब हमारे रिश्ते बदल गए थे, जिनका कोई दूसरा नाम नहीं था. नए सिरे से हमें लिखनी होगी जीवन के रिश्तों की इबारतें.
क्यों हुआ ऐसा? एकदम पसंद की मिठास को पीते-पीते कोई बेहद फीका-सा स्वाद हमारे बीच आ गया था. शाम होते-होते अभय चला गया था, बग़ैर बताए. फोन के पास एक पत्र छोड़कर, जिसमें लिखा था, मुझे माफ कर देना, मीनू! मैं जा रहा हूं, शायद लौटकर न आऊं. न ही आऊं तो बेहतर रहेगा, क्योंकि तुम्हारी आंखों में उठते प्रश्नोें के उत्तर मेरे पास नहीं है. ऐसा क्यों हुआ, कब हुआ, मैं नहीं जानता…
पत्र तह करते वक़्त मैं बोल गई थी, "तुम ज़रूर आओगे अभय, एक दिन ज़रूर… पर अब बदलाव मेरे होंगे, मेरे अपने."
दस साल बाद एक दिन फिर अभय मेरे सामने खड़ा था. दस सालों का यह अंतराल कैसे कटा, यह बताना अब ज़रूरी नहीं रहा. हां, मैं ज़िंदा रही, मैंने आत्महत्या नहीं की, पर बदलाव की हद मैंने भी पार कर ली थी. आज मैं उस शहर में जज के पद पर प्रमोशन के साथ पदस्थ हूं. जी हां, उसी शहर में. कभी अपने लिए सही निर्णय न कर पाने वाली मैं मीनू उसी कुर्सी पर हूं, जहां दूसरों के लिए भी निर्णय देने होते हैं. ऐसे निर्णय जो जीवन के मायने बदल सकते हैं.
एक दिन कोर्ट पहुंची तो आंखें विस्मय से फटी रह गईं. सामने चालीस साल की उम्र में ही साठ साल के प्रौढ़ की तरह अभय खड़े थे. फाइल सामने थी. मिसेज़ सुमन सान्याल अपने पति अभय से तलाक़ चाहती हैं. केस में आरोप था कि अभय बाप बनने में सक्षम नहीं हैं, और सुमन मां बनना चाहती है. अभय आश्चर्यचकित थे. मुझे देखकर उनकी आंखें प्रश्नोत्सुक थीं. शायद ख़ुश भी थीं मुझे सामने देखकर. बदलाव चाहने वाले अभय शायद बदलाव के क्रम में मुझे फिर पसंद कर रहे हों!
आज मुझे निर्णय देना था, पर अभय तो मेरे मन के कठघरे से बहुत पहले ही मुक्त हो गए थे. आज वे एक पत्नी के नहीं, एक जज के कठघरे में खड़े थे और निर्णय करने वाली थी मीनू, जिसे अभय निर्णय लेने में कमज़ोर कहते थे. सुमन सान्याल भी सामने थी- सांवली, दुबली-सी बंगालन लड़की, जिसने मेरे जीवन में यह बदलाव ला दिया था. मेरे अपराधी तो शायद दोनों ही थे. एक तेजस्वी एकाग्रता लाते हुए मैंने आंखों पर चश्मा चढ़ाया, पर सुमन के वकील के न आने पर केस मुल्तवी हो गया. अभय और सुमन चले गए. मैं शाम पांच बजे तक अनमनी-सी कोर्ट में ही बैठी रही. शाम को जाने के लिए बाहर निकली तो अभय सामने खड़े थे.
"मीनू, कैसी हो..?"
"अच्छी हूं…"
"मीनू, अब तो तुम्हें पता चल गया होगा कि मैं…"
"अभय, मुझे तो तब भी पता था. तुम्हें याद है, मां के कहने पर हमने एक बार मेडिकल चेकअप करवाया था..?"
"हां, पर रिपोर्ट यही थी, मैंने तुम्हें नहीं बताया था, यह सोचकर कि तुम सच स्वीकार नहीं कर पाओगे." मैं बोलते-बोलते रुआंसी हो गई.
"और मैंने तुम्हें इसलिए धोखा दिया, क्योंकि मैं पिता बनना चाहता था. मैं समझा कि कमी तुम्हारे में है, तुम कभी मां नहीं बन सकती.
मीनू, मुझे क्षमा कर दो, प्लीज़…"
तभी मेरे पति विजय गाड़ी लेकर मुझे लेने आ गए और मेरी चार वर्षीया बेटी दौड़कर मुझसे लिपट गई, "मम्मी-मम्मी…" कहते हुए.
"मीनू… यह तुम्हारी बेटी…"
"हां, अभय, बदलाव की एक हद यह भी है. इनसे मिलो, ये मेरे पति हैं विजय."
"मीनू, जल्दी चलो, हमारी टिकट बुक है और हम लेट हो रहे हैं." कहते हुए विजय मुझे खींच ले गए बिना अभय की तरफ़ कोई ध्यान दिए.
हां, यही सच है… मैं उनके साथ गाड़ी की ओर तेज़ी से कदम बढ़ाते हुए सोच रही थी.
- डॉ. स्वाति तिवारी
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