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कहानी- गरीबी (Short Story- Garibi)

"बड़ी मुश्किल से पेट काट-काट कर पढ़ाया. अब शहर में नौकरी करता है." उसकी आंखें फिर चमक उठी.
"पर अपने ही गुज़ारे लायक कमा पाता है. शादी हो गई है. दो बच्चे भी हैं. बाबूजी, बहुत प्यार करता है हम दोनों से, पर किराया, बच्चों की पढ़ाई… उसका दर्द मैं समझती हूं. हम बूढ़ा-बूढ़ी, अपने लायक कमा लेते हैं." रुआंसी हो उठी वो.

आज फिर सुमित की नज़र सड़क पर बैठी उस वृद्धा पर अटक गई थी. वो रोज़ ही उसको उसी स्थान पर बैठे देखता, कभी लोगों से मनुहार करती, तो कभी एकाध लोग उससे सहानभूति दिखाते हुए गुल्लक ख़रीद भी लेते.
क्या होता होगा इतने थोड़े-से पैसों से? वो सोचता और आगे बढ़ जाता, पर आज कुछ सोचते हुए ठिठक गया.
"बाबूजी गुल्लक आपके बच्चों के लिए' और दीया आपके पूजाघर के लिए…"
"हां! ठहरो भई, मैं पास में ही रेलवे कॉलोनी में रहता हूं. ऐसा करो, तुम ये टोकरा उठाकर मेरे साथ चलो. बच्चे ख़ुद ही पसंद कर लेंगे कि उन्हें कैसी गुल्लक चाहिए."
आशा की एक चमक उभरी माई के चेहरे पर और वो अपनी टोकरी उठाकर सुमित के साथ चल दी.
चलते-चलते सुमित उससे उसके परिवार के विषय मे भी पूछता जा रहा था.
"घर में मरद है. सब्ज़ी का ठेला लगाता है और मैं ये गुल्लक बनाकर बेचती हूं…" वो बता रही थी.
"अच्छा!"
उसके हाथों में भरी चूड़ियां देख कर ही सुमित समझ गया था कि अभी उसका पति है.
"और बच्चे?"
"सिर्फ़ एक बेटा है, दूसरा हुआ ही नहीं…" वो किंचित हंसते हुए बता रही थी.
"बड़ी मुश्किल से पेट काट-काट कर पढ़ाया. अब शहर में नौकरी करता है." उसकी आंखें फिर चमक उठी.


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"पर अपने ही गुज़ारे लायक कमा पाता है. शादी हो गई है. दो बच्चे भी हैं. बाबूजी, बहुत प्यार करता है हम दोनों से, पर किराया, बच्चों की पढ़ाई… उसका दर्द मैं समझती हूं. हम बूढ़ा-बूढ़ी, अपने लायक कमा लेते हैं." रुआंसी हो उठी वो.
सुमित का घर आ चुका था. उसके साथ वृद्धा को देख नेहा, उसकी पत्नी की सवालिया निगाहें उसकी ओर उठी. उसे चुप रहने का इशारा करते हुए सुमित अंदर आया. बताया उसे साथ लाने का उद्देश्य. वो मदद करना चाहता था उसकी.
सुमित ने अपने दोनो बच्चों रेवा और रवि के लिए एक-एक गुल्लक ली और पूजाघर के लिए एक दीया.
माई आशीर्वाद देकर जाने को ही थी कि नेहा ने उसे रोका, "माई, हम लोग धुलाई की मशीन लानेवाले थे, पर क्या तुम हम लोगों के कपड़े धो दिया करोगी?"
"काहे नही बीबीजी, जुग, जुग जियो!"
"पर तुम लोगी क्या?"
"जो तुम ख़ुशी से दे दो."
तब से माई रोज़ वहां आती, कपड़े धोती और अपनी गुल्लकें बेचने निकल जाती. बहुत आसरा हो चुका था उसे नेहा से, सो छोटे-मोटे काम भी निपटा देती.
सालभर गुज़र चुका था. माई के चेहरे पर रौनक़ आ चुकी थी. आज सुमित ने उसे बुलाया, "माई, एक बात बताओ? मूल प्यारा कि सूद?"
इस कहावत को माई शायद जानती थी.
"क्या बेटा…" मुस्कुराई वो.
"मुझे तो अपने दोहते अपने बेटे से अधिक प्यारे हैं."
"हां, ये बात!"
तभी सुमित के दोनों बच्चे अपनी-अपनी गुल्लक लेकर कमरे में आए और माई के पैरों के पास रख दिया.
"ये क्या?" चौंक कर माई ने पूछा.


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सुमित और नेहा मुस्कुराए, सुमित बोला, "ये गुल्लक, तुम्हारा मूल और सूद है इसके अंदर…"
"नही बेटा, नही बीबीजी…"
"नही क्या? उठाओ इसे." नेहा ने बनावटी ग़ुस्से से कहा और रोती हुई माई उनके चरणों में झुक गई.

- रश्मि सिन्हा

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Photo Courtesy: Freepik

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