सहमी हुई तेरी ज़िंदगी को मैं सिमटी हुई चादरों से ओढ़ देना चाहता हूं, लम्हे के इस सहरा को कुछ वक्त के लिए कहीं और मोड़ देना चाहता हूं…
तुझे लगता है कि तू उड़ने लायक भी नहीं, पर तेरी ऊंची उड़ान के लिए मैं अपने पंखों की ताकत को जोड़ देना चाहता हूं…
महान है वो मां जिसने तुम जैसी लाड़ली को जन्म दिया, कुछ बखान तेरा करने से पहले अपने दोनों हाथ उसकी वंदना में जोड़ देना चाहता हूं…
शख्सियत तेरी ऐसी जैसे कान्हा को मीरा ने अंखियन में बसा लिया, तुम वो अमृत का प्याला हो जिसे शिव ने अपने कंठ लगा लिया…
प्यार और विश्वास शबरी के उन मीठे बेरों की तरह है तुम्हारा, जिसने राम को अपनी भोली सूरत से अपना बना लिया…
सुबह के सूरज से निकलती वो सुनहरी किरणें, पानी में खिलते कमल सी ताजगी सी हो तुम…
चांद की चांदनी की वो चादर और रात की रानी के फूलों की महक सी हो तुम और सूखी मिट्टी पे बरखा की गिरती बूंदों के बाद आती महक सी हो तुम…
पर्वत से बहती उस गंगा की धारा जैसी पवित्र हो तुम, जीवन के इस सफर में मेरे लिए आदर और सत्कार की मूरत हो तुम…
तुम वो जिसे अपने होने का अंदाजा भर भी नहीं, जो रात के अंधेरे को दूर करती दहकती मशाल सी हो तुम…
अभी यह कतई न समझ लेना कि तुम्हारा काम यही संपन्न हो गया, कुछ और चिरागों को जलाना अभी बाकी है…
मानव का मानवता से फिर परिचय करवाना है, और भगवान से मिली नयी ज़िंदगी का उधार चुकाना बाकी है…
- हनुमंत आनंद