- कुंदनिका कापड़िया
"जब हम सबके बीच होते हैं, तो अकेलेपन के भय से घबरा जाते हैं. पर सचमुच अकेलेपन की स्थिति में प्रवेश करते हैं, तो अच्छा लगता है, आपको कैसा लगता है?" स्त्री हंसी. “ठीक-ठीक पता नहीं. अभी तो नई-नई अकेली पड़ी हूं न.”
दूर से देखने पर लगता था वहां सरू का घना वन है, पर वन के बीचोंबीच आकर खड़े होने पर मालूम हुआ कि वृक्ष एक-दूसरे के उतने पास-पास नहीं हैं, जितने उसने सोचे थे. वे तो खासे दूर-दूर हैं. उनकी डालियां एक-दूसरे से गुंथी हुई नहीं हैं. वे एक-दूसरे से पूरी तरह अपरिचित हों इस तरह खड़े हैं. अपने आप में मगन. उसे थोड़ी हंसी आई. मनुष्य का जीवन भी ऐसा होता है, ख़ासतौर से स्त्री-पुरुष का, पति-पत्नी का जीवन. दूर से देखें, तो लगता है कितने प्रगाढ़ रूप से वे परस्पर आबद्ध हैं. दोनों के स्वप्न, तृप्ति और अनुभूतियां इस तरह एकाकार हो गई हैं कि उनके बीच कोई विभाजक रेखा ही नहीं खींची जा सकती. पर नज़दीक जाकर देखें, तो सरू के इन वृक्षों की ही तरह वे दोनों अलग-अलग और विषाद ओढ़े हों, इस तरह धुंध से घिरे लगते हैं. शाम अब क्षितिज पर झुक रही थी, अभी कुछ ही देर में सुनहरे रंगों का अंतिम स्पंदन होगा और पूरे आकाश को भर देनेवाला वह बिंब पानी में चू पड़ेगा. पानी के किनारे से सूर्य के टूट पड़ने का यह एक क्षण भव्य विस्मयों से लबालब भरा लगता था. इस नन्हें क्षण में असंख्य विश्वों की असंख्य परिभ्रमणों की गति झलक उठती थी. सूर्यास्त की इस घड़ी की प्रतीक्षा में वह रेत के एक ढूहे पर बैठ गया. अचानक उसने देखा एक प्रतिबिंब उसके और सूर्य के बीच खड़ा है. उसकी उपस्थिति से अनभिज्ञ एक स्त्री ठीक वहीं, उससे थोड़ा ही आगे समुद्र के पानी के निकट खड़ी थी. उसकी ही तरह वह भी सूर्य की ओर नज़र टिकाए थी. उसके वहां खड़े होने के कारण सूर्य ओट में हो गया था. संतोष ने सोचा उठकर जगह बदल दे, पर उसी समय स्त्री कुछ क़दम आगे गई और सूर्य दिखा, लेकिन फिर पानी में डूब गया. उसके बाद गहरी शांति फैल गई. उस स्त्री ने आगे जाने के पहले अपना मुंह घुमाया. संतोष ने उसका चेहरा देखा. फिर वह उत्तर की ओर पानी के किनारे-किनारे चलने लगा. वैसे तो आश्चर्य न होता, पर सूर्यास्त के समय लोग आमतौर पर घूम-टहलकर वापस आ जाते हैं, इसके बदले वह घूमने जा रही थी. तिस पर वह अकेली थी. पर उसकी चाल में रंचमात्र भी शिथिलता नहीं थी. इन सारी बातों से संतोष को कौतूहल हुआ. दस वर्ष पहले शायद न होता. अब स्वयं के विस्मित होने, छोटी से छोटी घटना में निहित मधु-बिंदुओं को खोजने का समय था. तिस पर इस स्त्री की तो छटा ही न्यारी थी और वह सूर्य के उस क्षण को देखने के लिए खड़ी थी, जिसे वह स्वयं चिंतन और सौंदर्य का श्रेष्ठ संधिकाल मानता था. इस तरह की सभी, यूं तो छोटी पर आनंददायक बातों के कारण संतोष के मन में एक विचित्र अनुभूति हुई. रात को वह अपने विश्राम गृह के बरामदे में आराम से कुर्सी डालकर बैठा था और आकाश में बादलों और चांदनी की लीला निहार रहा था. बगीचे में रोशनी कम थी, आकाश में बादलों की ओट में घड़ी में छिपती और घड़ी में बाहर झांकती चांदनी थी, सामने सरू के वृक्ष थे और उसके आगे समुद्र था, जिसके मंद गर्जन से वातावरण मुखरित हो रहा था. कोई-कोई क्षण अपने आप में पूर्णतः संपूर्ण होते हैं. उनके आगे-पीछे कुछ नहीं होता, स्मरण या आशा या उपेक्षा जैसा कुछ नहीं, मात्र एक अनाम आनंद... ऐसा ही कुछ वह अनुभव कर रहा था कि उसने उस स्त्री को सरू के वन से चढ़ान पर ऊपर जाते हुए देखा और अपनी कुर्सी से उठकर लगभग खड़ा हो गया. प्रकाश की एक रेखा या सुगंध की कोई लहर, आकस्मिक नहीं, बल्कि लंबे समय बाद स्मृति में चढ़ी किसी काव्य-पंक्ति-सी वह स्त्री उसे लगी. क्या वह उसे किसी समय पहचानता रहा होगा? पैंसठ वर्ष के लंबे जीवन में हज़ारों लोगों से मिलना हुआ होगा, उनमें शायद यह स्त्री भी रही होगी. चांदनी के प्रकाश में उसे उस स्त्री का चेहरा अधिक स्पष्ट नहीं दिखाई दिया. फिर भी देखा, नाक सीधी थी, होंठ पतले और थोड़े खुले हुए जैसे कुछ गुनगुना रही हो, बरामदे के क़रीब से गुज़रते समय उसने संतोष की ओर देखा और फिर आगे चली गई. संतोष उसे पीछे से देखता रहा. उसे लगा, सुंदर अलस-भाव से फैली यह नीरवता जैसे अचानक झंकृत हो उठी, मानो कोई प्रिय व्यक्ति अनजाने ही आकर कोई सुंदर भेंट देकर आश्चर्य में डाल दे, एक संगीतमय क्षण की भेंट उसे किसने दी? रात में उसे यही विचार आते रहे कि जीवन को ऐसे महा उपहार देनेवाले हाथ किसके हैं और ये उपहार क्षणिक क्यों होते हैं? और फिर उसे लगा कि क्षणिक तो क्या नहीं होता? शायद यह बात अहम् नहीं थी. उपहार मिलता है, यही सबसे विस्मयकारी, आनंदभरी बात थी. सुबह वह उठा तो अत्यंत प्रसन्न था. सूरज को निकलने में अभी देर थी. उठकर वह रेत की ढलान से उतरकर सरू के वृक्ष को प्रेम से स्पर्श करता हुआ समुद्र के किनारे खड़ा हुआ कि सुनहरे उजाले का एक बड़ा टुकड़ा समुद्र के जल में तैर उठा. उसने चौंककर ऊपर देखा. ठीक सिर के ऊपर एक बड़ा बादल झिलमिलाता दिखाई पड़ा और फिर नीचे नज़र करने पर उसने उस स्त्री को देखा, घूम-टहलकर वापस लौटती हुई. ‘एक अन्य आश्चर्य उपहार.’ वह मन ही मन गुनगुनाया और बात करने के उद्देश्य से उसकी ओर पलटकर प्रतीक्षा में लगभग खड़ा हो गया. अभी कोई जागा न हो, पवन सोई हो, वृक्ष सोए हों, समुद्र की रेत सोई हो और सूरज अभी मुश्किल से उगनेवाला हो, ऐसे समय घूमना समाप्त करके वापस लौट रही इस स्त्री के विषय में उसे अब सचमुच कौतूहल हो उठा था. क्या और कैसे पूछे, इस पर वह विचार कर ही रहा था कि वह ख़ुद आकर उसके पास खड़ी हो गई. उसके होंठ किंचित् खुले और इसी बीच सिर के ऊपर का वह सुनहरा बादल फट गया और उसमें से प्रकाश का एक प्रपात समुद्र पर ढुलक उठा और वह स्त्री जैसे अपने आपसे कह रही हो, फिर भी संतोष सुन सके इस तरह ज़ोर से बोली, “द लॉर्ड रेइन, लेट द अर्थ रिजॉइस...’ संतोष आनंद से किलकारी मार उठा और उसके आतुर स्वर में साठ वर्ष जाने कहां अदृश्य हो गए. “आप यह पंक्ति जानती हैं?” स्त्री हंसकर बोली, “यह प्रकाश की वर्षा हुई, इसलिए मुझे इस तरह बोलना सूझा... द फ्लड्ज़ लिफ्ट अप देयर वेव्ज़...” संतोष सभी पंक्तियां बोल गया. उसकी आंखों में समुद्र का सुनहरा पानी चमक उठा. दोनों थोड़ी देर चुपचाप खड़े रहे. सूरज के उजाले की छोटी-छोटी तरंगें बिखरने लगीं और थोड़ी ही देर में आकाश, समुद्र, रेत और सरू के वृक्ष सबके सब सुनहरे हो गए. “आप विश्राम गृह में ठहरी हैं?” “हां, तीन नंबर के कॉटेज में. आप पहले कॉटेज में हैं न?” “हां, कल ही आया. आते ही मुझे यह जगह भा गई. समुद्र के इतने क़रीब मैं इसके पहले कभी नहीं रहा.” वह यूं ही पीछे की ओर घूमा और स्त्री के साथ-साथ चट्टान पर चढ़ने लगा. “मेरी यहां की यह पहली सुबह है. सब कुछ बहुत ही सुंदर है न?” “सबसे सुंदर तो है यहां का एकांत. आप विश्वास करेंगे, मैं सुबह जल्दी उठकर तीन मील घूम आई और इतने समय में स़िर्फ एक ही आदमी देखा. वह बैलगाड़ी लेकर किनारे पर खड़ा था और उसमें रेती भर रहा था.” संतोष का कॉटेज आ गया. कहने न कहने की किसी दुविधा के बिना सरलता से वह बोला, “आ रही हैं? चाय पीकर जाइएगा.” स्त्री ने उतनी सरलता से इसे स्वीकार कर लिया. “ठीक है, चाय कौन, आप बनाते हैं? आप अकेले आए हैं?” संतोष ने बरामदे में दो कुर्सियां और एक टेबल लगा दी. “नहीं, मेरे साथ मेरा नौकर है.” और कुर्सी पर बैठते हुए आवाज़ दी, “रंजीत!” एक छोटा लड़का अंदर से दौड़ता हुआ आया. “चाय बनाओ, ज़्यादा हां!” “ठीक है, साहब.” दौड़ते हुए वह अंदर गया. “दोनों कुर्सी पर बैठ गए. अभी पांच मिनट पहले ही उनकी पहचान हुई थी, फिर भी अपरिचय का भाव उनके बीच से चला गया था. संतोष ने सहज भाव से पूछा, “आप अकेली ही आई हैं?” “हां, अपने बेटे और बेटी की शादियां एक साथ ही अभी-अभी निबटाई हैं. बेटी लंदन चली गई. बेटा अपनी पत्नी को लेकर कश्मीर गया है. मैं अकेली पड़ गई, इसलिए मैंने सोचा मैं कुछ दिन घूम आऊं.” ‘आपके पति...’ ऐसा कुछ संतोष पूछने जा रहा था, लेकिन इसकी जगह उसने पूछा, “दोनों बच्चे एक साथ बाहर चले गए, तो घर में आपको बहुत अकेलापन लगा होगा न?” स्त्री थोड़ी देर चुप रही, फिर से बोली, “अकेलापन एक तरह से देखें तो वरदान भी माना जा सकता है.” संतोष उत्तेजित हो गया. “वरदान? आप वरदान में विश्वास करती हैं? कैसी आश्चर्य की बात है. रात में मैं भी वरदान के विषय में ही सोच रहा था...” और फिर वह थोड़ा लज्जित हो गया. उसे लगा, उसने कुछ उतावलापन कर दिया. एक लंबा जीवन जीने के बाद, वह छोटे बच्चे की तरह इतना अधीर, उत्तेजित हो सकता है, इस बात पर उसे आश्चर्य हुआ. स्त्री मिठास से हंसी. “बेटी के चले जाने पर तो सूनापन बहुत लगा, पर बाद में लगा कि जीवन की एक ऐसी अनुभूति मुझे वरदान स्वरूप मिल गई, जो अब तक अनजानी थी. इसे और संपूर्ण बनाने के लिए मैं यहां आई. नहीं तो आपको मालूम है, अपने सगे-संबंधी ही हमारे एकांत को सबसे अधिक बाधा पहुंचाते हैं. यहां भी किसी सैलानी के साथ बात या परिचय न करना पड़े, इसीलिए मैं भोर में ही घूम आती हूं और रात में देर से घूमने जाती हूं.” संतोष कुछ बोला नहीं. वही फिर बोली, “मेरे पति सात वर्ष पहले गुज़र गए. उस समय मैं बहुत अकेली पड़ गई थी. पर बच्चे थे, परिवार की ज़िम्मेदारियां थीं. आज सारे काम पूरे हो चुके हैं. अब एक समूचा अकेलापन मिला है. मुझे इसका कौतूहल है कि पथ पर अकेले चलना कितना रमणीय बनाया जा सकता है.” वह हल्के से हंसकर चुप हो गई. लड़का चाय की ट्रे रख गया. संतोष ने कप में चाय डालकर एक कप उस महिला को दिया और दूसरा ख़ुद लिया. कप के अंदर से निकलती गर्म सुगंधित भाप का वायुमय आकार वह कुछ देर तक निहारता रहा. फिर बोला, “मैं भी अभी-अभी निवृत्त हुआ हूं. मेरा बिज़नेस था, बच्चों को सौंप दिया. तीन लड़के हैं. तीनों की शादियां हो गई हैं, अब तक बहुत व्यस्त जीवन जिया है, इसलिए मेरे आनंद की बातें प्रायः हाशिये पर रह जाती थीं. अब फुर्सत से कुछ समय अलग-अलग स्थानों पर घूमूंगा, पढ़ूंगा. ख़ूब पढ़ने का मेरा मन है. जब हम सबके बीच होते हैं, तो अकेलेपन के भय से घबरा जाते हैं. पर सचमुच अकेलेपन की स्थिति में प्रवेश करते हैं, तो अच्छा लगता है, आपको कैसा लगता है?” स्त्री हंसी, “ठीक-ठीक पता नहीं. अभी तो नई-नई अकेली पड़ी हूं न.” थोड़ी देर तक दोनों चुप रहे, फिर संतोष धीरे-धीरे बोला, “आपने सुबह जो काव्य पंक्तियां बोलीं, उन्हें मैंने बचपन में पढ़ा था. बाद में भूल गया था. कल यहां आते समय ट्रेन में फिर से वो पंक्तियां पढ़ीं, पर वे दूसरी ही तरह हैं.” “लॉर्ड रेइन- ईश्वर राज्य करता है इस तरह है.” “पर मुझे लगा ईश्वर बरसता है. लॉर्ड रेइन, प्रकाश के रूप में.” “भेंट के रूप में?” संतोष हंसा. स्त्री खड़ी हुई, “मेरा नाम तोषा है. नए ज़माने की छोटी लड़की जैसा नाम है न? पर मेरे पैरेंट्स बहुत नए विचारों के थे. मेरी मां उस ज़माने में एक स्कूल की प्रिंसिपल थीं और विदेश भी घूम आई थीं.” वह सीढ़ियां उतरी. “अच्छा तो...” और विदा में हाथ हिलाती वह अपने कॉटेज में चली गई. पचपन-साठ की उम्र होगी, पर इतनी लगती नहीं थी. वह उससे पहले कहीं मिला होगा? वह परिचित क्यों लगती थी? या फिर उसकी बातें परिचित थीं? वह मन में ऐसी ही कुछ बातें सोच रहा था. पत्नी की मृत्यु के बाद... पत्नी को बहुत प्यार किया था. बहुत यानी बहुत ही. पत्नी कहती, “दुनिया में कोई पुरुष किसी स्त्री को इतना प्रेम नहीं करता होगा.” उसकी मृत्यु के बाद लंबे समय तक तो ऐसा ही लगा कि उसकी स्वयं की ही मृत्यु हो गई है. कुछ भी ग्रहण करने की संवेदना पूरी तरह नष्ट हो गई थी. यहां तक कि उस अवस्था से बाहर निकलने की इच्छा भी मर गई थी. बहुत समय के बाद अब कहीं जाकर थोड़ी अकेलेपन में निहित शांति का अनुभव होने लगा था. इस शांति को दूसरी वस्तुओं से भरने की ज़रूरत नहीं थी. उसे अकेला होना अच्छा लगने लगा था. ईश्वर ने उसकी प्रिय पत्नी छीन ली थी, पर उसके बीच से वह धीरे-धीरे दूर हटने लगा था. ख़ुद को अच्छी लगनेवाली चीज़ों- पुस्तक, कविता और पानी का समुद्र उनके नज़दीक जाने लगा था. वह मकान समुद्र के इतने नज़दीक था कि उसमें चलते-फिरते, उठते-बैठते समुद्र दिखाई देता. वह दिखाई न देता, तो भी साथ रहता था. समुद्र तट पर रहनेवालों के लिए समुद्र रोज़ की बात थी. पर उसे तो यह बात बहुत आकर्षक लगती थी. सौंदर्य की अनुभूति मन में हिलोरें लेती रहतीं. समय कोमल क़दमों से बह जाता. और अब यह स्त्री. पत्नी की मृत्यु के बाद पहली बार उसने किसी स्त्री के साथ इतनी निकटता से बात की थी और उसे बहुत अच्छा लगा था. पैंसठ वर्ष की आयु में आदमी को किस चीज़ की ज़रूरत होती है? वह सोचने लगा. अंतिम घड़ी तक आदमी को किसी न किसी चीज़ की ज़रूरत रहती ही है. अकेले रहना अच्छा लगता था, पर तोषा के साथ बात करना और भी अच्छा लगा था. इसके बाद पूरे दिन उसने तोषा को नहीं देखा. उसे देखने का उसने विशेष प्रयत्न नहीं किया था. सहज ही वह दिख जाएगी, ऐसी उम्मीद भर थी. पर दोपहर-शाम, समुद्र तट या कैंटीन में, कहीं भी वह दिखाई नहीं दी. वह समुद्र तट पर घूमने गया और उसके आस-पास हज़ारों क़दमों के निशान उभर आए. ‘ज्वार आएगा ये सब मिट जाएंगे. कौन कहां चला था, इसकी एक भी निशानी नहीं रहेगी, मृत्यु की तरह वह सब कुछ मिटा डालेगा. मृत्यु ज्वार है या भाटा?’ उसे लगा, तोषा के साथ इस विषय पर बात की जा सकती है. उसने अपने जीवन में कैसे-कैसे अनुभव किए होंगे? इन अनुभवों में हर्ष का अंश अधिक होगा कि शोक का? चेहरे से वह पीड़ित तो नहीं लग रही थी. दूसरे पूरे दिन भी उसने उसे नहीं देखा, तो वह थोड़ा अधीर हो गया और उसे देखने के लिए हर जगह नज़र दौड़ाता रहा. अंत में शाम को भी जब वह नहीं दिखाई पड़ी, तो वह लगभग व्याकुल हो गया. उस रात हवा ख़ूब खुलकर बह रही थी और हवा ख़ुद समुद्र की तरह जैसे बह रही थी. चांदनी को आर-पार बींधता यह गर्जन बगीचे में, मकानों में, वृक्षों में फैल गया और उसके सामने समुद्र की घनघोर आवाज़ भी मंद पड़ गई. फिर तो संतोष से रहा नहीं गया. वह घर से निकलकर तीसरे नंबर के कॉटेज की ओर चल पड़ा. इस समय सीज़न नहीं था, वेकेशन नहीं था, इसलिए समुद्र तट के इस हॉलीडे होम में सैलानी कम थे. पहले और तीसरे कॉटेज के बीच का निर्जन एकांत पवन के आलिंगन और चांदनी की बरसात में झंकृत हो रहा था. वह तीन नंबर के कॉटेज पर पहुंचा. दरवाज़ा बंद था. उसने हल्के-से दस्तक दी. दरवाज़ा खुला. तोषा ही थी. वह कुछ बोली नहीं, केवल दरवाज़े से थोड़ा खिसककर खड़ी हो गई, जिससे संतोष अंदर आ सके. संतोष को देखकर उसे आश्चर्य हुआ हो, ऐसा लगा नहीं. उसके चेहरे पर एक विचित्र भाव था. कुर्सी पर बैठते हुए संतोष बोला, “आज पूरे दिन आप कहीं दिखाई नहीं दीं, तो मुझे थोड़ा आश्चर्य हुआ. कल भी नहीं दिखाई दी थीं. तबीयत तो ठीक है न?” तोषा थोड़ी देर चुप रही, फिर उसके होंठों से कुछ इस तरह शब्द बाहर आए, जैसे लंबे अर्से से उसने कुछ बोला न हो, “कल मैं अपने बेटे के कश्मीर पहुंच जाने के तार का इंतज़ार कर रही थी.” “तार आया?” तोषा धीरे से उठी. मेज़ पर पड़ा एक काग़ज़ उठाकर संतोष के आगे रख दिया. संतोष को काटो तो खून नहीं. वह काग़ज़ दरअसल टेलीग्राम था- बस दुर्घटना में उसके बेटे और बहू के मारे जाने का समाचार. हृदय एकदम जड़ हो गया. यह स्त्री. कल यह अकेलेपन की अनुभूति को परिपूर्ण बनाने की बात कर रही थी और आज यह संपूर्ण रूप से अकेली हो गई थी. उसके दाएं-बाएं एक भयानक अकेलापन फैल गया था. मुझे बहुत अफ़सोस है. बहुत ही अफ़सोस है... संतोष का मन बोलता रहा, पर उसने इन शब्दों को वाणी नहीं दी. वह केवल चुपचाप बैठा रहा. कल तार आया होगा. तब से लेकर अब तक इस स्त्री ने बिल्कुल अकेले रहकर इस भयंकर आघात को झेला होगा. खाए-पीए, सोए बिना एक-एक क्षण उसने बिताया होगा. किसी को कुछ बताए बिना, किसी के पास से सहारा पाने की कामना किए बिना. अचानक उसे कुछ सूझा और वह तेज़ी से उठकर अपने कॉटेज पर गया. वहां जाकर उसने कॉफी बनाई और एक बड़े ग्लास में भरकर, बाहर पागल हवा से उसे बचाता ढांकता तोषा के पास आया. साथ में नींद की गोली भी थी. “थोड़ी कॉफी पीजिए.” उसने तोषा से आग्रहपूर्वक कहा और ज़बर्दस्ती ग्लास तोषा के हाथ में रख दिया. “पीजिए.” उसने फिर आग्रहपूर्वक कहा. “यह गोली ले लीजिए.” उसने लगभग डॉक्टर की तरह आदेश देते हुए कहा. तोषा ने गोली ली. कॉफी पी. संतोष की ओर उसने पूरी नज़र डालकर देखा. फिर वह एकदम से टूट गई और हिचकी ले-लेकर रोने लगी. काफ़ी देर तक वह रोती रही. संतोष ने उसे रोने दिया. वह बस उसके पास बैठा रहा. बड़ी देर बाद वह थोड़ी शांत हुई.और तब संतोष ने उसके सिर पर हाथ रखा. अचानक उसे लगा वह समझदार परिपक्व स्त्री असल में छोटी, एकदम अकेली पड़ गई एक बच्ची है. इस समय उसे प्रेम और ममता की ज़रूरत है. क्या वह उसे यह दे सकता है? क्या उसके पास किसी व्यक्ति को दी जा सकने लायक उष्मा थी? इतने वर्षों की जीवन-यात्रा के बाद उसने अपने अंदर ऐसा कुछ अर्जित किया था, जो किसी दूसरे व्यक्ति को जीवन जीने में सहायक हो सके. वह तोषा के सिर पर हाथ फेरता रहा. जैसे किसी बच्चे के बालों को सहला रहा हो. उन उंगलियों में से झरते आश्वासन से धीरे-धीरे तोषा का थरथराता शरीर शांत हो गया. “आप सो जाइए. मैं कल सुबह फिर आऊंगा.” संतोष उसे उठाकर, हाथ पकड़कर पलंग के पास ले गया. बत्ती बुझाते हुए वह बोला, “दरवाज़ा अंदर से बंद करके सो जाइएगा.” उस पूरी रात वह सांय-सांय करती हवा को सुनता, सोचता पड़ा रहा. अभी उसे आए मुश्किल से दो-तीन दिन हुए थे. इतने में ही सब कितना विचित्र घटित हो गया था. पूरे समय वह तोषा के बारे में सोचता रहा. अब वह क्या करेगी? कैसे जिएगी? और सहसा उसे लगा- तोषा की जगह उसकी अपनी ऐसी हालत हुई होती तो? एकाकीपन को लेकर उसके बहुत सुरक्षित विचार थे. उसका ऐसा भयावह रूप उसकी कल्पना के बाहर था. तोषा ने भी अकेलेपन को लेकर बहुत रम्य विचार संजोये थे. जैसे वह आनंद का आधार हो. और अब...? कैसे सहन करेगी वह? कहां जाएगी? बार-बार वह सोचता रहा. व्यवसाय से निवृत्त होने पर उसे लगा था कि वह पूरी तरह मुक्त हो गया है. उम्र उसे कई मामलों में मुक्ति दे रही थी. भविष्य की चिंता से, योजनाएं गढ़ने से, ज़िम्मेदारी उठाने से मुक्ति. पर मनुष्य जब तक मनुष्य रहता है, ज़िम्मेदारियों से कभी मुक्त हो सकता है भला? उसके बाद तीन दिन तक वह सुबह, दोपहर, शाम तोषा के साथ रहा. उसकी हर छोटी से छोटी बात का ध्यान रखता रहा. तोषा ने चाय पी कि नहीं, खाना खाया कि नहीं. उसे नींद आई कि नहीं. हल्की-फुल्की जाने कितनी बातें की और सुनीं. बचपन के प्रसंगों... स्मरणों के विस्तृत मैदान पर दोनों ने साथ-साथ यात्रा की और बीच-बीच में उसने तोषा को एकांत में भी हो आने दिया, जहां वह अपनी पीड़ा का समाधान स्वयं खोज सके. संतोष के जाने का दिन नज़दीक आया. यहां छह-सात दिन रहने की उसकी योजना थी. उसके बाद वह डांग के जंगलों के अंदरूनी इलाकों में जाना चाहता था. वहां की वनस्पतियां देखनी थीं, पक्षी देखने थे, जंगल की निःशब्दता सुननी थी और फिर रात में प्राणियों की दिनचर्या का अवलोकन करना था. चारेक दिन वहां रहने के बाद सीधे नैनीताल जाना था. पर तोषा का क्या कार्यक्रम था? इतने दिनों में वह यह बात पूछ नहीं सका था. इतने देखभाल, धैर्य और आश्वासनभरी बातों से उसे किनारे पर खींच लाने के बाद अपने जाने की बात कहकर उसे शोक के भंवर में धकेल देना क्या उचित होगा? इसमें कोई शक नहीं कि उसकी उपस्थिति से तोषा को अपार सांत्वना मिलती थी. अगली सुबह वह तोषा के पास गया, तो वह नहा-धोकर बैठी थी. बहुत दिनों के बाद वह आज कुछ स्वस्थ दिखाई दे रही थी. संतोष को देखते ही वह बोली, “चलिए, समुद्र पर चलेंगे?” समुद्र में उसे पुनः रुचि लेते देख संतोष को अच्छा लगा. किनारे की गीली रेत पर एक-दूसरे से सटकर वे चुपचाप चलते रहे. तोषा के मन में क्या उथल-पुथल चल रही होगी, संतोष उसका अनुमान करने लगा. सरू के वृक्ष के नीचे कोरी रेत पर वे दोनों बैठ गए. काफ़ी देर तक दोनों में से कोई कुछ न बोला. स्वयं में पर्याप्त होना अच्छा है, अकेले रह पाने में गौरव है. परंतु एक साथ होना, एक-दूसरे को उष्मा का आधार देना- क्या यह अधिक सार्थकता देनेवाली बात नहीं है? संतोष चौंक गया. ये विचार उसे किस दिशा में ले जा रहे हैं? पैंसठ की उम्र हुई. तोषा भी साठ की तो होगी ही. हो सकता है एक-दो वर्ष कम-ज़्यादा हो. स्त्री-पुरुष की आवश्यकताओं से वे दोनों दूर निकल चुके हैं, पर प्रेम की आवश्यकता से कोई पूरी तरह मुक्त हो सकता है भला? इस उम्र में लोग क्या कहेंगे? एक-दूसरे का साथ देने में उम्र बाधक हो सकती है? पर इस उम्र के कारण क्या उसे दूसरों की धारणाओं के अनुसार जीने की बाध्यता से मुक्ति नहीं मिल रही थी? पर तोषा क्या कहेगी? उसने तोषा की ओर देखा. वह समुद्र पर नज़र टिकाए शांत बैठी थी. सहसा पहले दिन की ही तरह, प्रकाश का एक बादल फटा और सुनहरी बरसात समुद्र पर बरस पड़ी. एक स्वर्णिम क्षण का आविर्भाव हुआ.तोषा के अधरों पर एक मंद मुस्कान खेल गई. ‘द लॉर्ड रेइन....’ उसने कहा. हर तरह से यह सही था. यहां मनुष्य की कल्पना का राज नहीं चलता. ईश्वर की इच्छा का राज चलता है. और ईश्वर बरसता है.... सदैव. सहसा संतोष बोल पड़ा, “मैं यहां से नैनीताल जाने की सोच रहा हूं. आज टिकट लेने जा रहा हूं. दो टिकट लाऊं न?” भावावेश में उसका स्वर कांप उठा, “आप भी साथ चलेंगी न?” तोषा समझ गई. उसे इस तरह आमंत्रित करने के पहले इस अनजान, मृदु, धैर्यवान, प्रेमालु पुरुष ने किन-किन उधेड़बुन को पार किया होगा, इसका उसे ख़्याल आया. समुद्र पर टिकी अपनी नज़र उठाकर उसने संतोष पर डाली. उन दो निर्दोष आंखों में उसे खालिस सच्चाई दिखाई दी. उसके भीतर एक स्वर्णिम क्षण का उदय हुआ. उसने धीरे से कहा, “ईश्वर की भेंट बरस रही है.” संतोष उसे देखकर एक मधुर हंसी हंस रहा था. अनुवादः त्रिवेणी प्रसाद शुक्लअधिक शॉर्ट स्टोरीज के लिए यहाँ क्लिक करें - SHORT STORIES
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