"तुम्हारी मुस्कान बहुत ही प्यारी है अनु, हमेशा मुस्कुराती रहा करो. पता है तुम्हारी मुस्कान को मैं अपनी आंखों में बसाकर ले जाता हूं, जब भी याद आती है, तब आंखें बंद कर लेता हूं और तुम्हारी ये हंसी बंद पलकों के पीछे खिलखिला उठती है. जब भी बहुत थक जाता हूं, तब यही मुस्कान मुझमें ताक़त भरती है. हमेशा मुस्कुराती रहना मेरी जान अनु. चाहे मैं रहूं या न रहूं इस दुनिया में..."
अक्टूबर की एक गुलाबी दोपहर थी. न सर्द, न गर्म. बस गुनगुनी-सी, जैसे प्यार होता है, मन की एक मखमली कोमलता में लिपटा तन की नरम ऊष्मा में महकता एहसास. तभी तो वह अक्टूबर की गुनगुनी धूप-सा मन पर छाया रहता है. जो न बहुत तेज होती है कि उसके ताप से झुलस जाए और न इतनी कच्ची की ठंडे कोहरे की चादर में लिपटी ख़ुद भी सर्द हो जाए. खिड़की के बाहर उजला नीला आसमान फैला हुआ था दूर तक और उस पर सफ़ेद बादल तैर रहे थे, जो न जाने किस दूर देश से तैरते चले आ रहे थे. अनुभा के मन में उन बादलों को देखकर एक कसक उठी. क्या ये बादल उसके विभु के देश से आ रहे हैं, क्या ये उसे पहचानते हैं, क्या ये विभु का कोई सन्देश लेकर आए हैं... ज़रूर लेकर आए होंगे. विभु ने ज़रूर ही इन बादलों से कहा होगा, "जाओ बादलों दूर धरती के एक पहाड़ी शहर में मेरी अनु रहती है. वो मुझे याद करती होगी. उसे कहना मैं बिल्कुल ठीक हूं. मेरी चिंता न करे. ख़ुश रहे. मैं उसे बहुत प्यार करता हूं और उसे हमेशा ख़ुश देखना चाहता हूं. उसके चेहरे की वो प्यारी-सी मुस्कान ही मेरी ताक़त है. मेरा सहारा है."
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बादलों को देखते हुए अनुभा के चेहरे पर एक मुस्कान आ गई. एक खोई हुई सी मुस्कान. ज़रूर बादलों से विभु ने यही कहा होगा. उससे भी तो विभु यही कहता रहता था, "तुम्हारी मुस्कान बहुत ही प्यारी है अनु, हमेशा मुस्कुराती रहा करो. पता है तुम्हारी मुस्कान को मैं अपनी आंखों में बसाकर ले जाता हूं, जब भी याद आती है, तब आंखें बंद कर लेता हूं और तुम्हारी ये हंसी बंद पलकों के पीछे खिलखिला उठती है. जब भी बहुत थक जाता हूं, तब यही मुस्कान मुझमें ताक़त भरती है. हमेशा मुस्कुराती रहना मेरी जान अनु. चाहे मैं रहूं या न रहूं इस दुनिया में. मैं जहां भी रहूंगा वहां से तुम्हे और तुम्हारी मुस्कान को देखकर ख़ुश होता रहूंगा." और अनु उसकी आख़िरी बात पर कांपकर उसके होंठों पर अपना हाथ रख देती, "ऐसी अशुभ बात मत बोलो प्लीज़. तुम्हे कभी कुछ नहीं होगा." और विभु उसकी हथेली चूम लेता, "वादा करो मुझसे तुम मेरी अनु को हमेशा ख़ुश रखोगी. उसकी मुस्कान को कभी फीकी नहीं पड़ने दोगी. उसकी मुस्कान में ही मैं खिलता हूं, मेरा प्यार खिलता है." और अनुभा विभु का सिर अपने सीने में भींच लेती. कोई किसी से इतना प्यार भी कर सकता है. वो भी इतने कम समय में. कुछ ही महीने तो हुए थे उससे पहचान हुए. उसके शहर में विभु अपने एक दोस्त के घर आया था किसी काम से और वहीं उसकी अनुभा से मुलाक़ात हुई. छह दिन में ही यह मुलाक़ात एक अजीब-सी प्रगाढ़ता में बदल गई और विभु की आंखों में अनु के लिए कुछ ऐसे भाव छलकने लगे कि उन्हें देखते ही अनु की आंखें झुक जाती और दिल धड़क जाता. और इन्ही झुकी, शरमाई आंखों की कशिश में विभु ने अपनी छुट्टी चार दिन और बढ़वा ली थी.
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और फिर कभी काम के बहाने से तो कभी यूं ही अनु के शहर के पास ही पोस्टिंग होने से वह कभी इतवार को या कभी किसी शाम को अनु के पास चला आता और जब अनु हंसकर छेड़ती, "कोई काम-धाम नहीं था आज क्या जो इस समय चले आए?" तो विभु उसकी गोद में लेटकर कहता,"क्या करूं बहुत थक गया था न, तो तुम्हारी मुस्कान की छांव में ज़रा-सा आराम करने चला आया. सच तुम्हे देखकर, थोड़ी देर तुम्हारे पास बैठकर मेरी सारी थकान दूर हो जाती है."
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डॉ. विनीता राहुरीकर
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