उसने थरथराते शब्दों में कहा, "शालू दी, यह साड़ी..." वह अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि शालू दी बोली, "हां, यह हल्के रंग की साड़ी सुलोचना दीदी के लिए रख दो, वह विधवा हैं, उनके लिए ठीक रहेगा." कहते हुए शालू दी कमरे से निकल गई. नीलू बेजान-सी होकर साड़ी को सीने से लगाकर बैठ गई. उसकी आंखों के सामने उसकी मां का चेहरा तैर गया और आंखें नम हो गई.
शालू दीदी रीतू बेरी के डिज़ाइन किए हुए दो लाख का लहंगा पहन, तमाम जेवरातों से लदी-फदी अपनी पच्चीसवीं शादी की सालगिरह में आए हुए मेहमानों की मेहमांनवाज़ी कर रही थी. इस मेहमांनवाज़ी में अगर कोई उनकी तारीफ़ कर देता, तो वह इतराती हुई यह बताना नहीं भूलती कि यह रीतू बेरी द्वारा डिज़ाइन किया हुआ लहंगा है.
इतराए भी क्यों नहीं! ईश्वर ने दोनों बहनों में एक की क़िस्मत में अर्स लिखा, तो दूसरी के क़िस्मत में फ़र्श. फ़र्श से क़िस्मत जुड़ी होने की वजह से ही शायद नीलू ज़िंदगी की तमाम वास्तविकताओं और नैतिकताओं से जुड़ी हुई थी. जहां शालू के पति ऐसे ओहदे पर थे, जहां सामने से लक्ष्मी का आगमन कम तथा पिछले दरवाज़े से ज़्यादा होता था. वहीं नीलू के पति एक अदद अध्यापक थे, जिनका वेतन मुंशी प्रेमचंद के कथनानुसार पूर्णमासी का चांद ही होता था, जो महीने का अंतिम पखवारा आते-आते अमावस्या में तब्दील होने लगती. गनीमत यही था कि पूर्णमासी भी आने में देर नहीं लगती, वह निश्चित समय पर आ ही जाती.
सालगिरह का कार्यक्रम समाप्त होने के बाद अब मेहमानों के विदा होने का समय आ गया था. तभी भीड़ में से शालू दी नीलू का हाथ पकड़कर एक कमरे में ले गई. वहां उसने एक बॉक्स की ओर इशारा करके नीलू से कहा, "इसमें रिश्तेदारों के यहां से मिली हुई बहुत-सी साड़ियां हैं, जो मेरे स्टैण्डर्ड का नहीं था, इसलिए मैं पहनी नहीं. तुम इन्हीं साड़ियों में से ज़रा छांटकर मेरे मेहमानों यानी देवरानी, जेठानी, सास, ननदें, भाभियों जिसके लायक जो लगे निकालकर रख दो."
नीलू हतप्रभ थी. इतनी करोड़पति शालू दी और मेहमानों की विदाई रिश्तेदारों के यहां से मिली हुई साड़ियों से? खैर! बड़े लोगों की बड़ी बातें.
नीलू बॉक्स खोलकर साडियां छांटने लगी. अचानक उसके हाथ एक हल्के रंग की शिफॉन की साड़ी आई. यह साड़ी उसे कुछ जानी-पहचानी सी लगी. वह उसे हाथ में लेकर उलट-पुलट कर देखने लगी. फिर तो वह हैरान-सी रह गई. उसे सब कुछ याद आ गया था. वह साड़ी उठाकर सीने से लगा रही थी, तभी शालू दी कमरे में आई.
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उसने थरथराते शब्दों में कहा, "शालू दी, यह साड़ी..." वह अपनी बात पूरी भी नहीं कर पाई थी कि शालू दी बोली, "हां, यह हल्के रंग की साड़ी सुलोचना दीदी के लिए रख दो, वह विधवा हैं, उनके लिए ठीक रहेगा." कहते हुए शालू दी कमरे से निकल गई.
नीलू बेजान-सी होकर साड़ी को सीने से लगाकर बैठ गई. उसकी आंखों के सामने उसकी मां का चेहरा तैर गया और आंखें नम हो गई.
दो साल पहले कैंसर जैसी गंभीर बीमारी की वजह से मां को दोनों बहनों में से किसी एक के पास रहना था, क्योंकि उसका भाई अभी छोटा था. सारी सुख-सुविधाएं देखते हुए मां ने भी शालू दी के पास ही रहने का फ़ैसला लिया था. यह उचित भी था, क्योंकि नीलू के पास न तो इतनी सुख-सुविधाएं थीं और न सरकारी नौकरों का अमला. साथ ही उसके बच्चे भी अभी बहुत छोटे थे.
पर नीलू मां से मिलने आई थी. मिलने आते वक़्त वह एक शिफॉन की साड़ी लाई थी, जो उसकी मां को बहुत पसंद आया था. साड़ी पहनकर वह बहुत ख़ुश भी हुई थीं. मां की ख़ुशी व पसंद देखकर नीलू अपने घर आते ही एक और साड़ी उनके लिए कुरियर कर दी थी. लेकिन कुरियर मिलने के अगले दिन ही मां चल बसी थीं. वह साड़ी पहन भी न सकीं.
मां के गुज़रने के कुछ दिनों बाद नीलू ने रोते-रोते शालू दी से पूछा था, "दीदी,आप उस साड़ी का क्या की? मां तो पहन भी न सकी."
शालू दी का जवाब था, "मां की अंतयेष्टि में मैंने पंडितजी को दान कर दी."
लेकिन नीलू वह साड़ी ज़िंदगी में कभी भूल नहीं सकती, जो उसने अंतिम बार मां के लिए पसंद की थी. यह वही साड़ी थी.
तभी शालू कमरे में आई और एक-एक साड़ी उठाकर ले जाने लगी, मेहमानों की विदाई करने के लिए.
नीलू अपनी मां की साड़ी को सीने से लगाए काफ़ी दयाभरी दृष्टि से शालू दी को देखती हुई सोचने लगी, 'बेचारी शालू दी, न जाने कहां-कहां और कितनी बार अपने जमीर से गरीब हुई हैं, तब जाकर यह अमीरी मिली है.
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