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कहानी- आओ दीये जलाएं… (Story- Aao Diye Jalayen)

अगले दिन, दिन चढ़ने पर रंगोली के रंग एक-दूसरे पर चढ़े हुए कुछ बदरंग से दिखे. दीयों से तेल सूख गया था. उनके किनारे कालिख-सी देख उसने दीये हटा दिए. सावधानी के बावजूद शाम तक रंगोली का पूर्व रूप वह कायम ना रख पाई.
दूसरे दिन अन्विका चली गई और सुदीप्ता घर आ गई. टॉम बॉय चहकती सुदीप्ता के आने से घर का कोना-कोना मुस्कुरा उठा. उत्सव के साथ हंसते-खिलखिलाते उसे देख लगा मानो घर में आज लक्ष्मी का प्रवेश हुआ है.

“भाभीजी, और कोई काम है, तो जल्दी बता दो. आज शाम को नहीं आऊंगी…” कामवाली बाई शन्नो के कहने पर अन्विका उसे डांटते हुई बोली, “आज दिवाली के दिन मदद की ज़रूरत है, तो तुम्हें जल्दी जाना है और शाम को भी छुट्टी ले रही हो…”
“हां तो, मैं त्योहार नहीं मनाऊंगी क्या?” शन्नो दो दिन के लिए आई मेहमान अन्विका के टोकने पर नाराज़ होकर बोली.
बीच-बचावकर उर्मिला ने शन्नो से कुछ और काम करवाकर भेज दिया, तो अन्विका चिढ़कर बोली, “आंटी, आपने इसे बहुत ढील दी है. अभी तो कॉरीडोर में दीये लगाने हैं, डेकोर भी चेंज करना है.”
“छोड़ो न अन्विका, वो सुबह आ गई, यही बहुत है, वरना त्योहार के दिन बिन बताए छुट्टी मारने का भी इनका रिवाज़ है. तुम चिंता मत करो, हम मिलकर कर लेंगे.”
उर्मिला ने अन्विका को समझाया, तो वेदांत ने परिहास किया, “उर्मिला, तुमने अन्विका से काम करवाने के लिए उसे पीजी (पेइंग गेस्ट) से यहां बुलाया है क्या?” यह सुनकर उर्मिला हंसते हुए बोली, “अरे, मैं कहां उसे कुछ करने को कह रही हूं? वो ख़ुद ही सुबह से काम में लगी हुई है. पीजी से इसे  बुलाया था कि त्योहार के दिन अपने घर को मिस न करे. यहां घर का फील मिले, पर इसने ख़ुद ही काम ओढ़ लिए, तो मैं क्या करूं?”
उर्मिला की स्नेहभरी उलाहना सुन फिरनी के लिए ड्राययफ्रूट्स काटती अन्विका बोली, “आंटी, घर जैसा फील लेने के लिए ही काम कर रही हूं. मम्मी होतीं, तो मेरा पूरा इस्तेमाल करतीं. डेकोरेशन से लेकर खाने तक मुझे ही लगना पड़ता. सच कहूं आंटी, ये सब करना मुझे अच्छा भी लगता है. दिवाली में परफेक्शन के साथ कुछ ख़ास करने में ही तो मज़ा है.”
यह सुनकर उर्मिला ने स्नेह से अन्विका के सिर पर हाथ फेरा. अन्विका उसकी प्रिय सहेली अनीता की बेटी है. अनीता आगरा में रहती है और उसकी बेटी अन्विका उर्मिला के शहर जयपुर में पीजी में रहकर एक फर्निशिंग हाउस में इंटीरियर डेकोरेशन कंसल्टेंट का काम कर रही है. इस बार एक बड़ा प्रोजेक्ट हाथ में था, इसलिए वह आगरा नहीं गई. ऐसे में उर्मिला ने उसे दिवाली अपने साथ मनाने का न्योता दिया और वह सहर्ष तैयार हो गई. उर्मिला के घर में उसे घर के सदस्य-सा मान मिलता है.
अन्विका को देख अक्सर उर्मिला के मुंह से निकलता काश! मेरी भी अन्विका जैसी एक बेटी होती. इसके प्रत्युत्तर में उसे यदाकदा सुनने को मिलता, बेटी नहीं है तो क्या हुआ… बहू को बेटी बनाकर बेटी का सुख भोगना… उसकी कल्पना में आनेवाली बहू के रूप में अन्विका फिट बैठने लगी.


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एक बार उर्मिला के घर में साधिकार अन्विका को कुछ काम करते देखकर उर्मिला की ननद ने कह दिया, “भाभी, जानी-पहचानी लड़की है. करियर के साथ घर के कामकाज में भी दक्ष है. क्यों नहीं इसे ही बहू बनाकर घर ले आती.” ननद की बात वह गंभीरता से लेती, उससे पहले ही बेटे ने सुदीप्ता को जीवनसंगिनी के रूप में अपनाने की पेशकश कर दी.
“उर्मिला, तुम आज सुदीप्ता को फोन कर लेना. वह भी अकेली है. उत्सव बता रहा था, इस बार वह अपने घर नहीं गई.”
वेदांत के कहने पर उर्मिला विचारों के घेरे से बाहर आई. उत्सव अपने पापा से कह रहा था, “पापा, अभी सुदीप्ता को फोन करने का फ़ायदा नहीं है. अभी तो चादर तान के सो रही होगी. 11 बजे के बाद मम्मी से बात करवा दूंगा.”
“इस बार तानकर सोने दे, अगली दिवाली में तुम्हारी मम्मी उसे सोने नहीं देगी. जैसे अन्विका को सुबह से काम में लगाया है, वैसे ही अगले साल सुदीप्ता जुटी होगी.” पिता-पुत्र के संवाद सुनकर उर्मिला का मन विषाद से भर गया. कितना चाव था अन्विका जैसी बहू घर आती, पर टॉम बॉय सुदीप्ता का चुनाव करके उत्सव ने सारे अरमानों पर पानी फेर दिया.
“आंटी, फिरनी और शाही पनीर टेस्ट करिए, बताइए कैसी बनी है?” अन्विका के टोकने पर उर्मिला ने गहरी अर्थपूर्ण नज़र वेदांत और उत्सव की ओर उठाई. उत्सव तो नहीं समझा, पर वेदांत उसकी नज़र में छिपे मंतव्य को भांपते हुए परिहास करते बोले, “वाह उर्मिला! तुम्हारे तो मज़े हैं. फिरनी और शाही पनीर अन्विका से बनवाकर उसे ख़ूब घर-सा माहौल दिया.”
वेदांत की बात पर अन्विका चहककर बोली, “अंकल, आंटी को कुछ मत कहिए. वाकई मुझे आज घर-सा फील मिल रहा है. आंटी, उत्सव से रंगोली कलर्स मंगवा दीजिए. मैं रंगोली बनाकर उसके आसपास दीये लगाऊंगी.” उसके उत्साह पर उर्मिला मुस्कुरा दी.
दोपहर 12 बजे के आसपास अन्विका रंगोली बनाने बैठी, तो उसे देखने उर्मिला भी पास में कुर्सी डालकर बैठ गई. रंगोली के चटख रंगों में डूबी वह उत्सव की आवाज़ पर चौंकी, “मम्मी, सुदीप्ता का फोन है. वह दिवाली की बधाई देना चाह रही है.” उत्सव के कहने पर उर्मिला ने “ओह! सुबह हो गई तुम्हारी सुदीप्ता की…” तंज कसते हुए अनमने भाव से फोन लिया.


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फोन के दूसरी तरफ़ से, “हैप्पी दिवाली.” कहती सुदीप्ता की चहकती आवाज़ पर कुछ ठंडेपन से उर्मिला ने कहा, “और बताओ, दिवाली में क्या ख़ास कर रही हो? मिठाई-रंगोली वगैरह बनाई या नहीं…”
यह सुनकर सुदीप्ता हड़बड़ाकर बोली, “मम्मीजी, रंगोली तो मुझे बनानी नहीं आती, मार्केट से रेडीमेडवाली लाई हूं, वही लगा दूंगी. कल मेड से ढेर सारी मिठाई बनवाई थी.”
“ढेर सारी क्यों…?” उर्मिला के पूछने पर वह उत्साह से बोली, “पार्टी है न आज घर में.”
“ओह! त्योहार के दिन पार्टी… फिर तो तुम्हें यहां आने का समय नहीं मिलेगा… ख़ैर आज त्योहार के दिन कुछ तो अपने हाथ से बनाओगी.” यह सुनकर वह, ‘हां, हां, बिल्कुल बनाऊंगी.’ बोलते हुए यकायक अटकी, फिर बोली, “दरअसल आज अपनी मेड को छुट्टी दी है. दिवाली है न… लेकिन मेरी मकान मालकिन आंटी किचन में मेरी मदद कर रही हैं…”
“क्या बन रहा है किचन में…?”
“आलू की जीरेवाली सब्ज़ी और हलवा अच्छा बना लेती हूं, इसलिए वह मेरे जिम्मे… छोले और पूरी आंटी बनाएंगी.”
सुदीप्ता से बात करके उर्मिला ने फोन उत्सव को पकड़ा दिया. उत्सव टहल-टहलकर मुस्कुराते हुए देर तक बात करता रहा. उर्मिला का मन सहसा वितृष्णा से भरकर रंगोली बनाती अन्विका पर टिका, तो डूबता मन रंगोली के चटख रंगों में यह सोचकर और डूब गया कि काश! उत्सव अन्विका के आगे-पीछे घूमता. काश! अन्विका घर में बहू बनकर आ जाती.
“हैप्पी दिवाली आंटीजी.” बड़ी अदा से अपनी रंगी हुई उंगलियों से रंगोली की ओर संकेत करती अन्विका बड़ी प्यारी लग रही थी. भावुक उर्मिला ने भावातिरेक में उसे गले से लगा लिया.
लंच के बाद अन्विका आराम करने अपने कमरे में चली गई, तो उत्सव बोला, “मम्मी, सुदीप्ता रात को आप सबको खाने पर बुलाना चाह रही थी, पर मैंने मना कर दिया, क्योंकि आज शाम को घर में पूजा होगी और खाना आप ट्रेडीशनल और स्पेशल बनाती हो.”
उत्सव की बात पर उर्मिला तल्ख़ लहज़े में बोली, “अच्छा किया, जो उसे मना कर दिया. अभी मेरे रहते ऐसे दिन नहीं आए हैं, जो शाही पनीर, पूरनपोली, दहीभल्ले, कचौरी, पुलाव, फिरनी जैसे पकवान छोड़कर जीरा-आलू व हलवा खाएं. उसका जीरा आलू व हलवा भई, तुम्हें मुबारक…”
मम्मी के मुंह से सुने रूखे शब्द और सख़्त लहज़े में सुदीप्ता के प्रति उनके मन की भावनाओं को भांपकर अवाक उत्सव संभलकर बोला, “मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि आप अभी भी सुदीप्ता को स्वीकार नहीं कर पाई हो…”


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यह सुनकर उर्मिला गंभीरता से बोली, “अब तुमने पूछ ही लिया है, तो त्योहार के दिन झूठ नहीं बोलूंगी. तेरी दोस्त के रूप में मन भले स्वीकारे, पर बहू के रूप में उसे मन स्वीकारे, ऐसा उसमें कुछ भी नहीं.” उर्मिला की दो टूक पर आहत उत्सव बोला, “तो एक सास के रूप में आपकी नज़रों में आदर्श बहू कौन है? ज़रा मैं भी सुनूं…”
“अब पूछ ही लिया है, तो सुन ले, हर सास ऐसी गुणी बहू पसंद करती है, जिसके होने से घर का कोना-कोना मुस्कुरा दे.”
यह सुनकर उत्सव चिढ़कर ‘मैं सुदीप्ता के पास जा रहा हूं.’ कहते हुए घर से निकल गया. वेदांत उर्मिला पर बरस पड़े.
“ये तुम ठीक नहीं कर रही हो, जो सच है उसे स्वीकारो. उत्सव सुदीप्ता को पसंद करता है, उससे शादी करना चाहता है, यही सच है.
सुदीप्ता को देखने का उसका अपना नज़रिया है. वह तुम्हारी नज़र से अपनी जीवनसंगिनी को नहीं देख सकता, इस सच को तुम नहीं स्वीकारोगी, तो दुख को आमंत्रण दोगी देख लेना…”
पति  की बातों से आहत उर्मिला बोली, “क्या करूं, मां हूं. अपने बेटे के ग़लत निर्णय पर उसे टोकना कैसे छोडूं.”
“तो ठीक है, जैसा मर्ज़ी है करो. अपनी बातों से बेटे को दुखी करो. शायद उससे ही तुम्हें तसल्ली मिले…”
दुखी मन से वेदांत भी चले गए, तो उर्मिला का मन भर आया. त्योहार के दिन पति-बेटे दोनों के मन को दुखा दिया.
रात को पूजा के समय तक उत्सव घर नहीं पहुंचा था. घर में पूजा हो गई. दीये भी लग गए, तो सहसा उर्मिला ने अन्विका को घर का ख़्याल रखने को कहकर वेदांत को सुदीप्ता के पीजी चलने को कहा.
सुदीप्ता से मिलकर वह उत्सव के चेहरे पर मुस्कान देखना चाहती थी. वेदांत को पत्नी के इस सद्प्रयास पर संतुष्टि का अनुभव हुआ. पत्नी की पहल का स्वागत करते हुए वे अपनी होनेवाली बहू से मिलने उसके पीजी पहुंचे. घर के बाहर ही सुदीप्ता और उत्सव कुछ बच्चों के साथ पटाखे जलाते दिखे. उर्मिला और वेदांत को देखकर दोनों उत्साहित हो गए. सुदीप्ता उत्साह से उर्मिला के गले लग गई. जींस और साधारण टी-शर्ट पहनी सुदीप्ता को देख उर्मिला के मन-मस्तिष्क में एक बार फिर सजी-संवरी सलीकेदार अन्विका छा गई. शोरगुल करते बच्चों की ओर इशारा करती सुदीप्ता बोली, “पास की बस्ती से आए ये बच्चे आज हमारे मेहमान हैं."
उत्सव-सुदीप्ता, वेदांत-उर्मिला को लेकर घर के भीतर आए, तो घर का हाल देख उर्मिला विस्मय में पड़ गई.
अस्त-व्यस्त घर में चारों ओर बिखरे सामान के साथ गिफ़्ट रैपर और जूठे बर्तन पड़े थे. घर को अजीब नज़रों से देखती उर्मिला को देख सुदीप्ता कुछ झेंप-सी गई.
बैठने के बाद वेदांत-उर्मिला ने नोटिस किया कि हर थोड़ी देर में घर की कॉलबेल बजती. मेहमान आते दिवाली की शुभकामना के साथ सुदीप्ता को  छोटे-बड़े पैकेट थमाते और वह उन्हें ‘थैंक्यू’ बोलती और फिर वो चले जाते. वेदांत-उर्मिला की आंखों में प्रश्‍न देखकर उत्सव ने बताया.


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“मम्मी इस बार सुदीप्ता ने एक मुहिम चलाई है, जिसका नाम है ‘आओ दीये जलाएं’. सुख-सुविधा से वंचित लोग दिवाली का त्योहार ख़ुशी-ख़ुशी मना पाएं, इसलिए लोगों से खिलौने, बर्तन, मिठाई, नए कपड़े और खाना इकट्ठे करके हम उन लोगों तक पहुंचा रहे हैं, जिनके लिए दीपावली का त्योहार मनाना एक सपना है.”
सुदीप्ता भी उत्साह से बोल पड़ी, “मम्मीजी, इस बार दिवाली कुछ ख़ास तरी़के से मनाने का मन किया, तो बस यही तरीक़ा सूझा. अभावग्रस्त लोगों के घर अचानक दीये, पटाखे व खाना लेकर पहुंचो, तो उनके चेहरों पर मुस्कान और ख़ुशी देखनेवाली होती है.”
“ये विचार अपने आप में लाना बहुत बड़ी बात है क्यों उर्मिला?…” वेदांत ने सुदीप्ता की सराहना करते हुए उर्मिला की ओर कुछ अच्छा सुनने की उम्मीद से देखा, पर वह चुप रही. अलबत्ता  सुदीप्ता ने बड़ी सरलता से कहा, “अंकल ये सब मैं अकेले नहीं कर पाती, अगर मुझे उत्सव, मेरी मकान मालकिन और कॉलोनी के बाकी लोगों का साथ नहीं मिलता. इस मुहिम की सफलता देखिए, अभी भी लोग इस उम्मीद से सामान ला रहे हैं कि हम उन्हें ज़रूरतमंदों तक पहुंचाएंगे.”
“तुम मुझे बताती, तो मैं भी कुछ ले आती…” उर्मिला के कहने पर वह भावुकता से बोली, “मम्मी, दिवाली के दिन घर छोड़कर आप मुझसे मिलने आईं, ये क्या कम है.”
पूरे उत्साह से वह उर्मिला को बता रही थी, “मम्मी, आज मेरा रियल टेस्ट हुआ. पूरे चार किलो आलू की जीरेवाली सब्ज़ी और तीन किलो आटे की पूरियां बनाईं और साथ में हलवा भी… पर हां, ये सब मैंने अकेले नहीं किया. आंटी, मतलब मेरी मकान मालकिन ने मेरी पूरी मदद की. मम्मी, मेरे हाथ का हलवा खाएंगी…?” जवाब सुने बगैर वह रसोई में चली गई.
उनके आने की ख़बर सुदीप्ता की मकान मालकिन को भी मिल गई थी, सो वो भी चाय, नमकीन और मिठाई लिए चली आईं. बातों-बातों में उन्होंने सुदीप्ता की तारीफ़ करते हुए कहा, “आज ऐसे बच्चे इस घर में मेहमान बनकर आए हैं, जिन्हें हम घर में घुसने नहीं देते, पर सुदीप्ता ने उन्हें खाना खिलाया, गेम खिलाए और तोह़फे दिए… सच बताऊं, तो मुझे भी त्योहार मनाने का ये निराला ढंग बहुत भाया.”
कुछ देर में सुदीप्ता अपने हाथ का बनाया हलवा  माइक्रोवेव में गर्म करके ले आई. जाने क्यों उसका स्वाद उर्मिला को प्रसाद-सा मालूम हुआ, जो हर हाल में स्वादिष्ट लगता है.
घर आए बस्ती के बच्चों की टोली को बहलाती, उनसे बात करती सुदीप्ता का थकान में डूबा पसीने से लथपथ चेहरा जाने क्यों उर्मिला को भला लगा.


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उत्सव उर्मिला को सफ़ाई दे रहा था, “मम्मी, आपको बुरा तो नहीं लगा, जो आज त्योहार के दिन यहां आ गया. मैं तो बस इससे मिलने आया था. यह आसपास की झुग्गी-झोपड़ी के ढेर सारे  बच्चों को बटोरकर खाना खिला रही थी. ढेर सारे गिफ़्ट बांटने के लिए रखे थे. मुझे लगा इसकी मदद कर दूं… तोह़फे बांटने निकल गए. फिर बच्चों के साथ दीये जलाए, तो समय का पता ही नहीं चला… तोह़फे देने का एक्सपीरिएंस तो अमेज़िंग था.
एक सफ़ाईकर्मी तो पटाखे-मिठाई देख रो ही पड़ा… मैंने हाथ जोड़कर कहा, “दादा छोटी-सी चीज़ है इतनी भावुकता क्यों?” यह सुनकर वो बोले, “भइया, चीज़ें छोटी-बड़ी कौन देख रहा है. मैं तो आज देनेवाले के भाव पर बेमोल बिक गया.”
इधर-उधर की बातचीत के बीच सुदीप्ता लाए हुए गिफ़्ट एक बड़े थैले में समेटती रही. फिर उत्सव के पास आकर उसकी आंखों में बड़े प्यार से झांककर बोली, “तुम अब घर जाओ. आंटीजी के साथ बाकी सामान मैं पहुंचा आऊंगी और हां, बिना तुम्हारी मदद के मैं आज कुछ न कर पाती… थैंक्यू…”
प्रत्युत्तर में उत्सव मुस्कुरा दिया. उन दोनों के बीच की केमेस्ट्री देख वेदांत ने उर्मिला की ओर गहरी नज़र से देखा.
उर्मिला, वेदांत व उत्सव घर के लिए निकल चुके थे. आसपास बजते पटाखे और रोशनी की रौनक़ के बीच उत्सव के सुनाए ‘आओ दीये जलाएं’ मुहिम के भावुक अनुभव सुनते-सुनते कब घर आया, पता ही नहीं चला.
घर में अन्विका रंगोली के पास रखे दीयों में मनोयोग से तेल डालती दिखी.
अगले दिन, दिन चढ़ने पर रंगोली के रंग एक-दूसरे पर चढ़े हुए कुछ बदरंग से दिखे. दीयों से तेल सूख गया था. उनके किनारे कालिख-सी देख उसने दीये हटा दिए. सावधानी के बावजूद शाम तक रंगोली का पूर्व रूप वह कायम ना रख पाई.
दूसरे दिन अन्विका चली गई और सुदीप्ता घर आ गई. टॉम बॉय चहकती सुदीप्ता के आने से घर का कोना-कोना मुस्कुरा उठा. उत्सव के साथ हंसते-खिलखिलाते उसे देख लगा मानो घर में आज लक्ष्मी का प्रवेश हुआ है.
बनाव-सिंगार न होने के बावजूद सुदीप्ता के दीप्त चेहरे की कोमलता और सहज मुस्कान आज जाने क्यों उर्मिला का ध्यान कुछ ऐसे खींच रही थी जैसे वह उसे पहली बार देख रही हो. उसे अपने भीतर कुछ बदला-बदला-सा लगा, तो वह समझ गई कि सुदीप्ता वही है, बस उसे देखने-परखने का नज़रिया बदल चुका है.

 

Meenu Tripathi
   मीनू त्रिपाठी

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