पहले करवा चौथ में मां ने उसकी हर भाभी को फलाहार करने की प्रेरणा दी थी. पर एक दिन भूख से आकुल भाभी से रिया ने भूखे रहने का कारण पूछा, तो वे मुस्कुराकर बोलीं, “खाते तो रोज़ हैं. साल में एक दिन भूखे-प्यासे रहकर चांद का इंतज़ार करने में जो ‘थ्रिल’, ‘ऐडवेंचर’ की फीलिंग आती है, उसका मज़ा ही कुछ अलग है. फिर उस दिन तुम्हारे भैया के हाथ से पानी पीना और खाना खाना तभी रोमांटिक एहसास देता है, जब हम भूखे हों.”
समाचारों में दहेज को लेकर हुई प्रताड़नाओं या घरेलू हिंसा के बारे में ख़बरें पढ़कर मेरी लेखनी बहुत आकुल हो जाती. ख़ासकर तब जब वो ये देखती कि सहनेवाली लड़कियां अक्सर आत्मनिर्भर परिवेश की व उन परिवारों की हैं, जिनमें सहनशीलता की परिभाषा अत्याचार सहना कतई नहीं रहा होगा. लेखनी इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ने के लिए घंटों मेरा दिमाग़ खाती आख़िर ये लड़कियां इतना क्यों सहती हैं? कल मेरी ज़िंदगी ने वो पन्ना खोल दिया जिस पर उत्तर लिखा था. पढिए ये लघुकथा.
रिया मां और भाभियों को सजे-धजे पूजा करते देखती और सोचती कि एक दिन मैं भी ये मनोरंजन करूंगी. करवा-चौथ की पारंपरिक मान्यताओं कि इससे पति की उम्र लंबी होती है, का उस शिक्षित परिवार से कोई सारोकार न था. फिर भी ये त्योहार धूमधाम से मनाया जाता, क्योंकि सबको अच्छा लगता था.
रिया ने देखा था कि मां फलाहार कर लेती थीं, क्योंकि उन्होंने देख लिया था कि निर्जल उपवास उनका शरीर बरदाश्त नहीं कर पाता. पहले करवा चौथ में मां ने उसकी हर भाभी को फलाहार करने की प्रेरणा दी थी. पर एक दिन भूख से आकुल भाभी से रिया ने भूखे रहने का कारण पूछा, तो वे मुस्कुराकर बोलीं, “खाते तो रोज़ हैं. साल में एक दिन भूखे-प्यासे रहकर चांद का इंतज़ार करने में जो ‘थ्रिल’, ‘ऐडवेंचर’ की फीलिंग आती है, उसका मज़ा ही कुछ अलग है. फिर उस दिन तुम्हारे भैया के हाथ से पानी पीना और खाना खाना तभी रोमांटिक एहसास देता है, जब हम भूखे हों.”
रिया का शरीर भी उपवास बरदाश्त नहीं कर पाता था. उसने शादी के बाद पहली बार केवल अपनी आत्मशक्ति परखने के लिए निर्जल व्रत रखा. जब सब कुछ ठीक-ठाक गुज़र गया, तो रिया को भी इस आत्मशक्ति परीक्षण में उत्तीर्ण होने पर मिलनेवाले गुमान का चस्का लग गया. बरसों बीत गए.
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पर इस करवा चौथ की बात कुछ और थी. रिया लंबे अरसे तक अस्वस्थ रही थी. अब ठीक थी, लेकिन टॉनिक आदि ले रही थी, जिसमें भूख बढ़ाने का भी टॉनिक था.
सुबह जब पति ने उससे फलाहार करने को कहा, तो एक बार रिया का भी मन हुआ पर तुरंत आत्मशक्ति परीक्षण में उत्तीर्ण होकर ख़ुश होनेवाला गुमान अड़ गया. उसने रिया को ये तर्क देकर शांत कर दिया कि कौन-सा शाम तक के लिए ख़ुद को अन्न-जल विहीन जंगल में बंद कर देना है. अगर स्वास्थ्य बिगड़ने लगे, तो खा लेना. शुरुआत करके तो देखो. बिना लड़े क्यों हार मानना और यही रिया की सबसे बड़ी ग़लती थी.
हर घंटे-दो घंटे पर शरीर चेतावनी देता रहा और गुमान अपने अटपटे तर्कों से उसे चुप कराता रहा. ‘इतना समय तो गुज़र गया’, ‘आधा दिन तो गुज़र ही गया’ ‘अब तो बाकी तैयारियों में ही कट जाएगा’ ‘अरे! अब तो चार घंटे ही बचे हैं’ ‘फिर चांद के इंतज़ार में मज़ा नहीं आएगा’ ‘मैं इतनी भी कमज़ोर नहीं’ ‘कुछ नहीं होगा मुझे’ आदि-आदि.
चांद के इंतज़ार का मज़ा रिया तब भी न ले सकी, क्योंकि उस समय उसे नर्सिंग होम में ग्लूकोज़ चढ़ाया जा रहा था. रिया ने अपने फ़ैसले पर पछताने के साथ पति से वादा किया कि वो अब से ऐसा व्यर्थ का जोख़िम नहीं उठाएगी, पर उसका एक मन ये भी सोच रहा था कि अगर वो पहली बार से ही फलाहार करने लगती, तो उसमें ये आत्मविश्वास कहां से आता कि वो भी निर्जल उपवास कर सकती है.
रिया के उद्धरण से मैंने जाना कि ‘अत्याचार सहने’ और ‘हर ज़िंदगी का ग्लास आधा खाली होता है’ ये सोचकर बातों को उपेक्षित करने के बीच सीमा रेखा खींचना इतना सरल भी नहीं है. स्थिति कितनी बिगड़ सकती है, इसका आकलन अक्सर समय रहते नहीं हो पाता. सब कुछ ठीक हो जाएगा की आस और प्रभावी व्यक्तित्व के ज़रिए हम सब ठीक कर लेंगे का आत्मविश्वास बहुत स्वाभाविक मनोवृत्ति है, जिसके साथ समय कितनी तेज़ी से गुज़र जाता है, पता ही नहीं चलता. शायद इसीलिए मैं सोचती हूं कि ग़लत बात का विरोध पहली बार में करनेवालों के साथ वो लोग भी आदरणीय हैं, जिन्होंने ये बात कुछ देर से समझी.
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