लता दीदी जितनी आलोक की दीदी थी उतनी मेरी भी. उनसे मुझे सदैव बड़ी बहन का स्नेह मिला, साथ ही डांट-डपट भी. वास्तव में वह हमारी घर से बाहर की अभिभावक थीं. यदि स्कूल का होमवर्क कभी पूरा नहीं हो सका, तो समझ लो हमारी खैर नहीं. गुरुजी तो बाद में डांटते, दीदी की फटकार पूरे रास्ते झेलनी पड़ती थी. मुझे कभी कोई समस्या होती, तो मैं भी दीदी को ही बतलाता और उनके पास हर समस्या का समाधान था.
संयोग से आज दीदी से मुलाक़ात हो गई और वह भी 25 वर्षों बाद. कभी हम दोनों का परिवार एक ही परिसर में ऐसे घुलमिल कर साथ रहता था कि दूसरे लोग हम में भेद भी नहीं कर पाते. हम दोनों के पिता एक ही विभाग में सरकारी मुलाजिम थे. एक बड़े से परिसर में उनका दफ़्तर था और कर्मचारियों के रहने के लिए आवास भी. लता दीदी का छोटा भाई आलोक मेरे साथ पढ़ता और उसी इन्टर कॉलेज में दीदी इन्टर की छात्रा थी. हम तीनों साथ-साथ खेलते, खाते और स्कूल भी जाते. लता दीदी जितनी आलोक की दीदी थी उतनी मेरी भी. उनसे मुझे सदैव बड़ी बहन का स्नेह मिला, साथ ही डांट-डपट भी. वास्तव में वह हमारी घर से बाहर की अभिभावक थीं. यदि स्कूल का होमवर्क कभी पूरा नहीं हो सका, तो समझ लो हमारी खैर नहीं. गुरुजी तो बाद में डांटते, दीदी की फटकार पूरे रास्ते झेलनी पड़ती थी. मुझे कभी कोई समस्या होती, तो मैं भी दीदी को ही बतलाता और उनके पास हर समस्या का समाधान था. मगर समय सदा एक सा रहता कहां है. फिर सरकारी महकमे में तबादले भी तो होते रहते हैं. कुछ दिनों बाद हम अलग-अलग शहर चले गए. कुछ दिनों तक तो हमारा संपर्क बना रहा, फिर उस पर समय की धूल जमती गई. पता चला आलोक इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद अमेरिका चला गया और फिर कभी नहीं लौटा; एक सड़क हादसे में उसकी मृत्यु हो गई. चाचीजी इस सदमे को नहीं झेल सकी और एक माह के अंदर ही उनकी भी मौत हो गई. इस दुर्घटना की जानकारी के बाद हमारे संबंध के तार जुड़े अवश्य मगर वह स्थाई नहीं रह सका.
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कहते हैं न, विपत्ति कभी अकेले नहीं आती, चाचाजी भी कुछ समय बाद स्वर्ग सिधार गए. दीदी अकेली हो गईं. टूटते संयुक्त परिवार ने एक आर्थिक रूप से सम्पन्न पर अल्प-शिक्षित बिगड़े नवाब से उनकी शादी कर अपने कर्तव्य की औपचारिकता पूरी कर ली. और फिर शुरू हुई दीदी के संघर्ष की कहानी. झूठ क्यों बोलूं, मैं भी अपनी ज़िंदगी संवारने में कुछ ऐसे जुटा कि दीदी को धीरे-धीरे भूल गया या कहिए भूला दिया. बिहार के एक कस्बेनुमा शहर के एक इन्टर कॉलेज में मेरी नौकरी लग गई और मैं अपने कुनबे का कांवर ढोने में लग गया; मध्यम वर्ग की शायद यही नियति है. एक दिन स्थानीय समाचार पत्र में एक ख़बर पर नज़र पड़ी, जिसमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के एक पिछड़े गांव की और उसकी महिला प्रधान (मुखिया) की चर्चा थी. गांव की कायाकल्प करनेवाली इस मुखिया को राष्ट्रपति पुरस्कार के लिए नामित किया गया था, नाम था लता रंजन. पता नहीं क्यों दिल ने कहा यह तुम्हारी लता दीदी ही हैं. गांव के नाम ने भी मेरी सोच को बल दिया. फिर क्या था, मैंने उस समाचार को विस्तार से पढ़ा.
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एक छोटी अवधि में ही उस मुखिया (मेरी लता दीदी) ने गांव में पक्की सड़कें, पक्की नालियां, मिडिल स्कूल का नया भवन, सब कुछ बनवा दिया था. इतना ही नहीं, गांव और आसपास के इलाके में कई कुटीर उद्योग भी स्थापित करवा दिए, जिससे क्षेत्र के लोग आर्थिक रूप से संपन्न होने लगे. सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह थी कि उन्हें रोज़गार की तलाश में अन्य प्रदेशों में भटकने से मुक्ति मिल गई. यह सब पढ़कर मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो गया और उसी के साथ दीदी से मिलने की तमन्ना दिल में कुलांचे भरने लगी.
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प्रो. अनिल कुमार
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