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कहानी- राखी का क़र्ज़ (Short Story- Rakhi Ka Karz)


वो सिर्फ़ तुम्हें और तुम्हारे परिवार को ख़ुश और सुखी देखना चाहती थी बेटा. हर रक्षाबंधन पर राखी ख़रीदती और रात तक इंतज़ार करती, ये जानते हुए कि तुम नहीं आओगे, फिर भी इंतज़ार करती और अंत में वो राखी संजोकर रख देती, इस उम्मीद पर कि एक दिन वो तुम्हारी कलाई पर ज़रूर सजाएगी.

Kahaniya

“ये गोरखपुर एक्स्प्रेस कौन-से प्लेटफाॅर्म पर और कितने बजे आएगी?“
आकाश ने रेल्वे स्टेशन पर इंक्वायरी ऑफिसर से पूछा.
“प्लेटफाॅर्म नम्बर चार और वो अपने निर्धारित समय से दो घंटे की देरी से चल रही है.“
“दो घंटे... दो घंटे देरी का क्या मतलब है. आप लोग करते क्या हैं. यहां पर कभी कोई ट्रेन समयानुसार नहीं चलती.“ आवेग में आकर अकस्मात् ही उसके मुख से निकल गया.
“देखिए मिस्टर, मैं यहां इंक्वायरी ऑफिसर हूं. स्टेशन ऑफिसर नहीं. ट्रेन को देर क्यूं होती है, ये मेरा डिपार्ट्मेंट नहीं है. आपको ज़्यादा तकलीफ़ है, तो आप स्टेशन ऑफिसर से मिलिए.“ इंक्वायरी ऑफिसर ने शायद उसका बेचैन चेहरा पढ़ लिया था, इसलिए उसने अत्यंत सयंत होकर उसे उत्तर दिया.
“ओह सॉरी! वो बस.. थैंक यू सो मच.“ कहकर उसके कदम प्लेटफाॅर्म नंबर चार की तरफ़ ख़ुद-ब-ख़ुद ही बढ़ गए.
ये दो घंटों का वक़्त दो युगों के सामान प्रतीत हो रहा था. बेचैनी ने उसे सिर से लेकर पैर तक अपने अंदर समेट रखा था. वो चुपचाप एक बेंच पर बैठ गया. इन दो घंटों में कितनी ट्रेनें उसके सामने से फर्राटी रफ़्तार के साथ निकल गई, बिल्कुल उसके जीवन में उन अवसरों की तरह, जिसमें वो अपनी एकलौती बहन स्नेहा से मिल सकता था. किंतु अपने क्रोध और अहम् को सर्वोपरि मान उन क़ीमती अवसरों को खोता चला गया. उसे सुबह का वो समय याद आ गया, जब गांव से हरिहर काका का फोन आया था.
“हेलो आकाश बेटा! बेटा मैं गांव से हरिहर काका बोल रहा हूं.“
“प्रणाम काका!“
“ख़ुश रहो! बेटा तुम्हारी बहन स्नेहा के पास वक़्त बहुत कम है. उसका अब जीवन में तुम्हारे सिवा कोई नहीं है. बेटा उसकी बड़ी इच्छा है की मृत्यु से पहले वो एक बार तुम्हें देखना चाहती है. तुमसे मिलना चाहती है और इस बार रक्षाबंधन पर तुम्हारी कलाई पर राखी बांधना चाहती है. बेटा हो सके तो अपनी बहन की अंतिम इच्छा पूरी कर देना और ...“
“कौन-सी बहन काका, मेरे लिए तो उसका अस्तित्व उसी दिन ख़त्म हो गया था, जब उसने अपना हिस्सा मांगा था और गांव की ज़मीन को बेचकर सारा पैसा हड़प लिया था. काका, आपको पता है कि मुझे तो इस बात की कानोंकान ख़बर भी नहीं थी. इसका पता तो मुझे बाद में चला. कितनी तकलीफ़ हुई थी मुझे. आख़िर वो मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकती थी. कितनी स्वार्थी हो गई थी वो. उसने एक बार भी मेरे विषय में नहीं सोचा और ऐसी बहन की इच्छा पूरी करने के लिए कह रहे हैं आप...“ उसने काका की बात बीच में काटते हुए कहा.
“माफ़ करना बेटा. वो तो क़तई स्वार्थी नही थी, बल्कि तुम ही सत्य से अनभिज्ञ हो. बेटा सत्य ऐसी चीज़ है, जो अगर वक़्त पर उजागर न हो, तो सैलाब बन कई जीवन ले डूबता है.“
“क्या मतलब काका?“
“बेटा तुम्हारे पिता को व्यापार में कुछ नुक़सान हो गया था. तुम्हारी पढ़ाई बीच में न छूटे, इसलिए उन्होंने कुछ क़र्ज़ा लिया था.ब्याज चढ़ उसकी रक़म भी ज़्यादा हो गई थी. क़र्ज़ा उतारने के पूर्व ही वो बीमार पड़ गए और क़र्ज़दार उनके पीछे पड़ गए. उस समय स्नेहा बिटिया ने अपना हिस्सा इसलिए मांगा था, ताकि अपने हिस्से से वो अपने पिता का लिया क़र्ज़ उतार सके. उसने तुम्हारा हिस्सा तुम्हारे सुनहरे भविष्य के लिए सुरक्षित रखा था. तुम्हारी पढ़ाई अधूरी न रहे, उसमें ख़लल न पड़े और एक बड़ा ऑफिसर  बनने का तुम्हारा सपना न टूटे, इसलिए उसने तुम्हें उस समय सत्य नहीं बताया. बेटा सपने तो उसकी आंखों में भी पल रहे थे. वो भी पढ़-लिख कर कुछ बनकर अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती थी. किंतु उसके भाग्य में तो कुछ और ही लिखा था. माता-पिता और भाई के आगे उसने अपने सपनों का बलिदान दे दिया. वो सब कुछ सहती गई बेटा.

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तुम्हारा लगाया हर इल्ज़ाम, तुम्हारे ताने पर कभी सत्य नहीं बताया. यहां तक कि माता-पिता की मृत्यु के बाद भी उसने अकेले रहना मंज़ूर किया, क्यूंकि वो जानती थी कि अब उसके और तुम्हारे बीच वक़्त और सोच का लम्बा फ़ासला आ गया था. वो एक अशिक्षित भला कैसे तुम्हारे पास रहती. वो सिर्फ़ तुम्हें और तुम्हारे परिवार को ख़ुश और सुखी देखना चाहती थी बेटा. हर रक्षाबंधन पर राखी ख़रीदती और रात तक इंतज़ार करती, ये जानते हुए कि तुम नहीं आओगे, फिर भी इंतज़ार करती और अंत में वो राखी संजोकर रख देती, इस उम्मीद पर कि एक दिन वो तुम्हारी कलाई पर ज़रूर सजाएगी.
बेटा यही सत्य था जो उसने कभी तुमसे नहीं कहा. आकाश बेटा, अज्ञानता में वक़्त निकल जाए तो पछतावा इतनी पीड़ा नहीं देता, किंतु सत्य का ज्ञान होने के पश्चात वक़्त और अवसर निकल जाए, तो पछतावा नासूर बन जाता है. बेटा यही सत्य है और हां.. एक बात और वो जो गांव कि जिस ज़मीन की तुम बात कर रहे हो ना, वो अभी भी तुम्हारी है और वो भी सिर्फ़ तुम्हारे नाम पर है. उसने तो तभी ही उस पर भी क़ानूनन तुम्हारे नाम लिखवा दी थी. बेटा, उस अभागन ने अपना सारा जीवन अपने परिवार पर न्योछावर कर दिया. ख़ैर, हो सके तो उसकी अंतिम इच्छा पूरी करके उसकी तमाम राखियों का क़र्ज़ उतार देना अच्छा रखता हूं."
काका के फोन के बाद आकाश किंकर्तव्यविमूढ हो गया. उसकी सोचने-समझने की शक्ति क्षीण हो गई. जिस बहन से उम्रभर नफ़रत करता रहा, उस बहन ने तो उसे अपनी राखी का क़र्ज़दार बना दिया. सत्य इतना कड़वा और पीड़ादायक होगा, इसकी तो उसने कभी कल्पना भी नही की थी. उसे तो बस जैसी स्थितियां दिखी, उसने उन्हीं को अपनी सोच के अनुरूप सांचे में ढाल लिया. कभी सत्य जानने का प्रयत्न ही नहीं किया. कभी अपनी परवरिश पर भरोसा नहीं रखा.
क्यूं नहीं ये सोचा कि जो बहन बचपन में अपने भाई को हमेशा अपनी पसंदीदा चीज़ें एक क्षण में दे देती थी, वो भला कैसे अपना हिस्सा मांगने का कुकृत्य कर अपने माता-पिता की परवरिश को दाग़दार करेगी. उसकी आंखों से अविरल अश्रु धारा बहने लगी. उसने तुरंत कुछ संकल्प लिया और निकल पड़ा.
“यात्रीगण कृपया ध्यान दे, गोरखपुर जानेवाली गोरखपुर एक्स्प्रेस कुछ ही मिनटों में प्लेटफाॅर्म नम्बर चार पर आने वाली है.“ स्टेशन पर हुई इस घोषणा से वो वापिस अपने यथार्थ में आ गया.
इन्हीं विचारों में उलझे कब दो घंटे बीत गए उसे पता ही नहीं चला.
गोरखपुर तक का कुछ घंटों का समय उसके लिए युगों के समान लग रहा था.
गोरखपूर पहुंच बिना एक क्षण गंवाए उसने ऑटोवाले की मुंहमांगी क़ीमत पर ऑटो ले लिया.
गांव की एक-एक गली, एक -एक कोना उसकी और स्नेहा की बचपन की यादों की तस्वीर था. जैसे -जैसे वो रास्ता तय करता जा रहा था, उसका बचपन जिसमें वो और स्नेहा थी, एक चलचित्र के समान उसकी आंखों के समक्ष चलने लगा.
नम आंखों के साथ जैसे ही उसने हवेली की दहलीज़ पार की.
“आ गए भैया!" की प्रेम से भरी मार्मिक आवाज़ ने उसका स्वागत किया. बिना देखे सिर्फ़ आहट से एहसास होना की उसका भाई आ गया, ये उसके प्रेम की पराकाष्ठा थी. कितना निश्छल प्रेम था उसका. यही सोच उसका हृदय आत्मग्लानि से भर उठा.
स्नेहा को देखते ही वो उससे लिपटकर ख़ूब रोया.
वर्षों भरी आत्मग्लानि आज आंसुओं से बह रही
थी.
“मुझे माफ़ कर दो स्नेहा.;अपने इस अभागे भाई को माफ़ कर दो. बहन होते हुए भी मैं वर्षों बहन के प्रेम से वंचित रहा. एक भाई होने का फ़र्ज़ पूरा ना कर सका. तुमने मुझसे जितना प्रेम किया मैंने तुमसे उतनी ही नफ़रत. माफ़ कर दो मुझे और बस एक बार प्रायश्चित का मौक़ा दे दो.“
“भैया इस बार तो राखी बंधवाओगे न अपनी कलाई पर. पता नहीं अगली रक्षाबंधन पर मैं.”
“बंधवाऊंगा स्नेहा, ज़रूर बंधवाऊंगा. किंतु यहां नहीं, दिल्ली में.“ उसने स्नेहा के मुंह पर हाथ रख कर कहा.
“स्नेहा तेरी समस्त राखियों का क़र्ज़ उतारने का वक़्त आ गया मेरी बहन. इतने वर्षों की राखियां आज अपने भाई को अथाह प्रेम के साथ एक नई उम्मीद के साथ देख रही हैं. काका, मैं स्नेहा को दिल्ली ले जा रहा हूं. वहां इसका अच्छे से अच्छा इलाज करवाऊंगा. अब इसे अपने से दूर नहीं जाने दूंगा. मुझे पूर्ण विश्वास है कि ये जल्दी स्वस्थ हो जाएगी.!आपका आभार काका, जो आपने मुझे सत्य से अवगत करवा दिया, अन्यथा अनर्थ हो जाता. काका इस हवेली की धरोहर को सम्भाल कर रखिएगा. चल बहन तेरा परिवार तेरी प्रतीक्षा कर रहा है.“
“ख़ुश रहो मेरे बच्चों.” कहकर काका ने नम आंखों के साथ उन्हें विदा कर दिया.
स्नेहा को गोद में लिटा उसका माथा सहलाकर आज वो अपने आपको कितना हल्का महसूस कर रहा था. उस पर अपार स्नेह बरस रहा था. हृदय एक पिता रूपी वात्सल्य से भर गया था. 'ये रक्षाबंधन उसके जीवन की सबसे ख़ूबसूरत रक्षाबंधन होगी. इस बार उसकी कलाई भी सजेगी.' सोचते-सोचते उसने स्नेहा का माथा चूम लिया.

Kirti Jain

कीर्ति जैन




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Photo Courtesy: freepik

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