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कहानी- मन की पीड़ा (Short Story- Mann Ki Pida)

तनु यह सब ऐसे सुन रही थी मानो उसके ख़िलाफ़ कोई झूठा मुक़दमा चलाया जा रहा हो.
मीता धाराप्रवाह बोलती गई, "तनु पता है, तुम जब तक उनके सामने नहीं होती थी, वो ज़िंदगी का आनंद लेते, पर तुम दफ़्तर से आती और वो सकपका से जाते. तुम जैसे कोई तबाही बन गई थी उनके लिए. हम लोग कितना संकेत करते, पर तुम इतनी ज़ोरदार और भारी आवाज़ में हमारी हर बात काट दिया करती थी."

मीता अपने घर से निकली और पूरे रास्ते बैचेन ही रही. दरअसल, वो अपने बचपन की सखी तनु से हमेशा की तरह मिलने और उसका हालचाल पूछने जा रही थी. पर मीता बख़ूबी जानती थी कि वो तनु से मिलने जा तो रही है, पर बातें तो वही होनी हैं, जो पिछले हफ़्ते हुई थीं. और उससे पहले भी हुईं थीं. मीता का चेहरा देखते ही तनु एक सेकंड तक बर्बाद नहीं करेगी और पूरे समय बस इसी बात का ही रोना रोती रहेगी कि हाय रे! ये कैसी ज़िंदगी? आग लगे इस ज़िंदगी को… मैंने सबके लिए ये किया… वो किया… मैंने इसको आगे बढ़ने की सीढ़ी दी, पर आज कोई मदद करनेवाला नहीं… गिनती रहेगी कि ये नहीं, वो नहीं… मीता जानती थी कि यह ज़बर्दस्ती की पीड़ा तनु ने पाल पोसकर अमरबेल जैसी बना दी है.
काश! तनु अपनी आशा और उमंग को खाद-पानी देती, तो आज भी जीवन का हर कष्ट बस कोई हल्की समस्या ही रह जाता और एक प्रयोग की तरह तनु उसके दर्द से भी पार हो जाती. मगर तनु ने तो अपनी सोच को इतना ख़राब कर दिया था कि समय, शरीर और ताक़त सब मंद पड़ रहे थे.
सहेली थी, इसलिए मीता की मजबूरी हो जाती कि उसकी इन बेसिर पैर की बातों को चुपचाप सुनती रहे. आज भी वही सब दुख-दर्द!
मीता ने यह सब सोचकर एक ठंडी आह भरी और उसको तुरंत दो दशक पहलेवाली वो तनु याद आ गई. तब तनु तीस बरस की थी. कैसा संयोग था कि तनु का हर काम आसानी से हो जाता था. अगर उसको लाख रूपए की ज़रूरत भी होती, तो परिचित और दोस्त तुरंत मदद कर देते थे. मीता को याद था कि कैसे तनु रौब से कहती फिरती, "मीता, मेरे भाग्य में सब बढ़िया ही लिखा है. कुछ तो है मेरे व्यक्तित्व ऐसा है कि हर काम बन जाता है और ज़िंदगी मस्त चल रही है." मगर मीता सब जानती थी कि यह पूरा सच नहीं था. असलियत यह थी कि तनु आला दर्जे की चालक हो गई थी. उसने पांच सालों में ऐसे अमीर, बिगडै़ल और इकलौती, वारिस संतानों को ख़ूब दोस्त बनाकर ऐसा अपने मायाजाल में फंसाया था कि वो लोग तनु के घर को ख़ुशी और सुकून का अड्डा मानकर चलने लगे. मीता सब जानती थी कि कैसे प्रपंच करके तनु ने लगभग ऐसे ही धन कुबेर दस-बारह दोस्तों से बहुत रूपए उधार ले लिए थे और शान से कहती थी कि जिनसे पैसा उधार लिया है, वो सब अब देखना कैसे जीवनभर मेरे इर्दगिर्द चक्कर काटते रहेंगे.
मीता जब आश्चर्य करती, तो वो कहती, "तुम तो नादान हो देखती नहीं कि यह सब किस तरह अकेलेपन के मारे हैं बेचारे. ले देकर इनको मेरे ही घर पर आराम मिलता है."
मगर मीता तनु की यह सब दलीलें सुनकर बहुत टोकती, "बस घूमने-फिरने और महंगे शौक पूरे करने का दिखावा बंद करो तनु. आख़िर दोस्त भी कब तक मदद करते रहेंगे?"
पर तनु हंस देती थी और कंधे झटककर कहती, "मीता, मेरी दोस्ती तो ये लोग तोड़ ही नहीं सकते हैं. देखो मैं यहां नगर निगम की कर्मचारी हूं. मेयर तक पहुंच है मेरी. मैं सबके बहुत काम की हूं…" वगैरह वगैरह और फिर यह सुनकर मीता ख़ामोश हो जाती थी.
पर कहते हैं ना समय एक समान नहीं रहता आख़िर समय ने रंग दिखा ही दिया. तनु का अपने पति से अलगाव हो गया और उसकी इकलौती बेटी गहरे अवसाद मे आकर पहले तो बहुत बीमार रही. कहां-कहां नहीं गई तनु. किस-किस अस्पताल के चक्कर नहीं लगाए, पर कोई लाभ नहीं हुआ. एक दिन बेटी कोमा मे चली गई. लेकिन अभी और परीक्षा बाकी थी.
एक दिन तनु का नगर निगम में ऐसा विवाद और क़ानूनी तकरार हुआ कि वो विवाद हफ़्तों और महीनों तक लंबा खिंच गया और उसे महज़ पचास की उम्र में नौकरी से त्यागपत्र देना पड़ा. आज वो बीमार बेटी को संभाल रही थी. पर कोई पुराना मित्र या परिचित उससे मिलना तो दूर उसे मोबाइल फोन पर संदेश तक भी ग़लती से नहीं भेजता था.


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यह सब सोचती-सोचती मीता अब तनु के घर पर पहुंच चुकी थी और वो बाहर गमलों को पानी देती हुई मिल गई. मीता के मुंह से निकल पड़ा, "वाह ख़ूबसूरत फूल…" यह सुन तनु फट बोल पड़ी, "हां, जान-पहचानवालों ने तो मुझको बस कैक्टस और कांटे ही दिए. फिर भी कुछ फूल कहीं मिल ही गए…" और फिर पाइप से बहते पानी से अधिक आंसू उसकी आंखों से बहने लगे. और वो बस बेचारी और कमज़ोर इंसान बनकर हर परिचित को धाराप्रवाह बुरा-भला कहने लगी.
तब मीता ने कहा, "तनु, यह जो दुख है ना हमारी उस याददाश्त की देन है, जो ख़राब बातें ही याद दिलाती है… तुमको यह वर्तमान नहीं, बल्कि अतीत है, जो रूलाकर समय से पहले इतना कमज़ोर किए दे रहा है. बार-बार लोगों को याद करके बुरा-भला मत कहो. अच्छे लोगों की क़ीमत तब तक कोई नहीं जानता, जब तक वो हमारे व्यवहार से आहत होकर दूर जाने न लगे. हमारे जीवन में कुछ सुकून की, जो सांस चल रही होती है, वो इन सदगुणी लोगों के कारण ही होती है. तुम एक बार याद तो करो कि तुमको कितने सहयोगी दोस्त एक के बाद एक मिलते रहे."
तनु कुछ बोली नहीं, बस चुपचाप सुनती रही.
मीता बोलती गई, "तनु कई लोग तो दशकों बिता देते हैं और संयोग से मिल रहे हितैषियों से भरपूर लाभ भी लेते रहते हैं, पर वो लापरवाह भी हो जाते हैं. वह अपनी उस ख़ुशक़िस्मती या उन मित्रों की अहमियत पर कभी ध्यान नहीं देते है, जिनकी वजह से उनकी ख़ुशी और आनंद आज अस्तित्व में है. और सच कहा जाए, तो वो ही उनका सब कुछ है. कैसी विडंबना है कि आदमी इतना संकीर्ण हो जाता है कि वह सबसे पहले उसी अनमोल ख़ज़ाने को बिसरा देता है."
"मैंने सबके लिए कितना किया…" तनु ग़ुस्से और नाराज़गी से बोली.
"रमा को हर हफ़्ते मेयर की पार्टी मे ले जाती थी और सुधा को तो सरकारी ठेके दिलवाए. उस उमा को तो नगर निगम के विज्ञापन दिलाकर उसकी वो हल्की-फुल्की पत्रिका निकलवा दी. सबका काम किया था मैंने, पर आज कोई यहां झांकता तक नहीं."
"नहीं तनु यह निहायत ही एकतरफ़ा सोच है तुम्हारी. यह संकुचित सोच भी किसी अपराध से कम नहीं है. क्योंकि ऐसे नकारात्मक सोचनेवाला अपने दिमाग़ को सच्चाई से बिल्कुल अलग कर लेता है."
तनु यह सुनकर तमतमाता हुआ चेहरा करके मुंह बनाने लगी, पर मीता निडर होकर बोली, "तुम पूरी बात याद करो. तुम कह रही हो कि रमा को तुम दावतों मे ले जाती थीं. पर उसके एवज में रमा की एक कार हमेशा तुम्हारे पास ही रही. और तुमने रमा की नर्सरी से लाखों के क़ीमती पौधे मुफ़्त मे लिए याद करो." तनु को वो सब याद आ गया और वो अपने होंठ काटती हुई कुछ-कुछ विनम्र हो गई.
"सुधा को तुमने जुगाड़ करके ठेका दिलवाया. हां, पर तुम्हारे घर पर कोई भी आयोजन होता था, तो सुधा की तरफ़ से मुफ़्त कैटरिंग होती थी. बोलो सच है या नहीं."
"ओह हां… हां." कहकर तनु चुप हो गई.
मगर अब मीता बिल्कुल चुप नहीं रही. वो बोली, "उमा की पत्रिका में तुम्हारी बेटी की कविता छापना ज़रूरी था. इतना ही नहीं तुमने उमा की पत्रिका को अपने ही एक प्रिय पार्षद का प्रचार साधन भी बनाया. याद आया कि नहीं ज़रा ठीक से याद करो."
"हां…" कहकर तनु कुछ उदास हो गई थी. मीता को लगा कि उसे कहीं पार्क या किसी खुली जगह में चलने को कहना चाहिए. आख़िर मीता भी इंसान थी और तनु को उदास देखकर उसका मन भी ख़ुश नहीं रह सकता था.
मीता ने उसके जीवन का हर रंग देखा था. तनु और उसने कितना समय साथ गुज़ारा था. मीता ने कहा, "तनु, अभी तो मेड काम कर रही है वो बिटिया को भी देखती रहेगी. चलो हम पासवाले पार्क तक चहलकदमी कर आते हैं."


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तनु के लिए मीता सब कुछ थी बहन, दोस्त, हितैषी सब कुछ. वो तुरंत मान गई और उसके साथ चल दी. घर की चाहरदीवारी से पार होते ही तनु को कुछ अच्छा-सा लग रहा था. वो आसपास की चीज़ों को गौर से देखती जा रही थी. पार्क पहुंचकर दोनों आराम से एक बैंच पर बैठ गईं. तनु वहां पर उड़ रही तितली को यहां-वहां देखने लगी.
मीता को अब लगा कि आज तनु को सब याद दिलाना ही चाहिए, ताकि वो अपनी सोच को सही और संतुलित करके सकारात्मक ढंग से विचार कर सके. और ख़ुद भी किसी पागलपन जैसी बीमारी का शिकार न हो जाए. तनु को उम्र के इस मोड़ पर मानसिक रूप से सेहतमंद होना बहुत ज़रूरी था. मीता यह सोच ही रही थी कि तनु अचानक अपने पति पुष्प का ज़िक्र करते हुए बुरा-भला कहने लगी. उनकी पुरानी ग़लतियां बताकर शिकायतें करने लगी. पर मीता ने उसे बीच मे ही फिर टोक दिया और ज़ोर देकर कहा, "तनु, अगर तुम्हारे पति प्राइवेट स्कूल में शिक्षक न होकर कोई बढ़िया नौकरी कर रहे होते, तो तुम इतना रौब दिखाती उनको. ज़रा ईमानदारी से याद करो तनु.
तुम उनकी सारी तनख्वाह ले लेती और अपने ढंग से कहीं प्लॉट ख़रीद लेती और लोन की किश्तें पुष्पजी के वेतन से चुकाई जाती. वो कुछ कहते, तो तुम अपना रौब-दाब दिखाने लगती थीं. तुमने एक सरल और सच्चे इंसान को हौले-हौले मंद बुद्धि बना दिया. वो तुम्हें ही नहीं यह शहर भी छोडकर चले गए, लेकिन आज वो आनंद से हैं. अकेले हैं, पर समाज की सेवा में बहुत ख़ुश हैं." तनु चुपचाप सुनती रही उससे कोई जवाब देते ही नहीं बन रहा था.
मीता आगे बोली, "तनु याद है, बस एक बार तुम उनको अपने मेयर साहब से सिफ़ारिश करके नगर निगम का कोई सम्मान दिलवा लाई थी. जबकि पुष्पजी तो चाहते ही नहीं थे कि उनको कोई मानपत्र दिया जाए, पर तुमने कितना भौंडा प्रदर्शन किया. मुझे तो पुष्पजी का चेहरा याद आता है कि वो तुम्हारे इस दिखावे के शोर-शराबे और प्रदर्शन से कितने आहत हो गए थे.
वो यही सोचते कि एक सरल जीवन जिया जा सकता है, पर तुम तो न जाने किस लत में पड़ गई थीं कि यहां की गोटी वहां फिट कर दो.. इसको आगे करो.. उसको पीछे करो.. इससे इतना रुपया ऐंठ लो… न जाने क्या सनक थी तुमको. तुम ऐसा क्यों करती थी तनु?
कितनी ही बार पुष्पजी कोशिश करते-करते हार गए कि तुम्हारा यह दंभ-अहंकार और झूठे पाखंड किसी तरह कम हो जाएं, पर एक बूंद के बरसने से ज्वालामुखी कहां शांत होता है. तुम तो पूरी महफ़िल में सरेआम न जाने क्या से क्या बोल जाती. तुम हमेशा पुष्पजी के ड्रेसिंग सेंस का मज़ाक उड़ाया करती और उनके पहने हुए लिबास को बदलवाकर दोबारा तैयार होने को कहती थी. वो कितना दुखी हो जाते, पर तुमको तो बस दिखावा ही चाहिए था.
तुम उनके अच्छे कपड़ों पर ऐसे टिप्पणी कर देती थी कि यह देखें मैं ख़रीदकर लाई हूं.. यह मेरी पसंद की जींस है.. बेचारे कितना झेंप जाते थे, पर तुमको कुछ समझ नहीं आता था. पुष्पजी तुम्हारे साथ बहुत असहज होने लगे थे. वो कई बार ऐसे लगते जैसे किसी क़ैदखाने में घुट रहे हैं. बस एक दिन उन्होंने फ़ैसला कर लिया होगा कि चाहे किसी जंगल मे ख़ुशी-ख़ुशी रह लेंगे, पर तुम्हारी इस झूठ से भरी हुई नौटंकीशाला में कतई नहीं.
और तनु तुम्हारी आंखों में तो कितने परदे पड़े थे. तुमको अपनी जुगाड़वाली कूटनीति के चश्मे से यही दिखता था कि पुष्पजी से लेकर सब परिचित बस इक तुम्हारी ही छत्रछाया मे सुकून से हैं."
तनु यह सब ऐसे सुन रही थी मानो उसके ख़िलाफ़ कोई झूठा मुक़दमा चलाया जा रहा हो.
मीता धाराप्रवाह बोलती गई, "तनु पता है, तुम जब तक उनके सामने नहीं होती थी, वो ज़िंदगी का आनंद लेते, पर तुम दफ़्तर से आती और वो सकपका से जाते. तुम जैसे कोई तबाही बन गई थी उनके लिए. हम लोग कितना संकेत करते, पर तुम इतनी ज़ोरदार और भारी आवाज़ में हमारी हर बात काट दिया करती थी."
यह सब कहते-कहते जब मीता ज़रा देर के लिए चुप हो गई, तो तनु बोल पड़ी, " हुंह… मीता तुम तो आज मुझे दोस्त लग ही नहीं रही हो. हद करती हो तुम. पुष्प के परिवार को गोवा तक घुमाने ले गई, वो भी सरकारी ख़र्च पर. ऐसा शाही भ्रमण उनके बस की बात ही नहीं थी मीता."
"नहीं तनु, तुम फिर एकतरफ़ा सोच रही हो. वो परिवार बहुत सादगी पसंद है. तुम्हारी चालें, तुम्हारे दांव-पेंच वो नहीं जान सके कभी. तुम अपनी ननद और ननदोई को ज़िद करके उनकी मर्ज़ी के विरूद्ध गोवा ले गई. उससे पहले ही तुमने इस बात का हर जगह इतना प्रचार कर दिया था कि सुन-सुनकर पुष्पजी शर्मिंदा हो जाते थे. मानो वो कोई फकीर हैं और तुमने उनको और उनके गरीब परिवार को शाही जीवन उपहार मे दिया है. पर तुम्हें यह सब कभी समझ नहीं आया. तुम्हें याद भी नहीं, पर तुम्हारे ननद-ननदोई गोवा जाकर बहुत परेशान हो गए थे. तुमसे कहना चाहते थे, पर तुम तो अपने प्रभाव और अपने रौब के खोल में बंद रहती थी. तुमने एक बार भी उन दोनों का मन नहीं जाना. पर यह बात तुम्हारी ननद ने अपने भाई यानी पुष्पजी से कही कि वहां इतने छिछोरे लोगों के साथ तुमने उनको पल-पल कितना विचलित किया. वो दूसरे दिन लौट जाना चाहते थे, पर तुमने उनको दबाव रखकर पूरा सप्ताह जैसे उनका मानसिक शोषण कर दिया था. तनु वो सरल लोग हैं. इतना छल-कपट, दिखावा उनके बस की बात नहीं है. लेकिन तुम तो गोवा से लौटकर भी अपनी उदारता का बखान करती रहीं कि ननद-ननदोई को घुमा लाई, वगैरह वगैरह…
पर आज देखो तुम्हारे ननद और ननदोई अपने मेहनत के बल पर कितने सफल उद्योग चला रहे हैं. कितनों को रोटी दे रहे हैं. और तुम उन पर ऐसे अपना सिक्का जमाने की कोशिश करती थी.
तनु पुष्पजी हों या उनके बहन-बहनोई वो सब मुझसे बहुत प्रेम रखते हैं, मगर मैं आज भी बस तुम से ही लगाव रखती हूं. स्नेह रखती हूं, क्योंकि एक ज़माने में तुम्हारे पापा ने मेरी एक साल की स्कूल फीस जमा कराई थी. तनु मेरे पास सबकी ख़बर है, पर मेरा मन हमेशा तुमसे ही जुडा रहेगा. मैं सदैव तुम्हारी ही भलाई चाहती हूं."
कहकर मीता चुप हो गई.
तनु यह सुनकर एकदम ख़ामोश हो गई. फिर बोली, "मीता, एक-एक बात सच कह रही हो. मैं जल्दी मालदार बनना चाहती थी और अमीरों की कमज़ोरी भांपकर उनका काम करवाकर रूपया मांग लेती थी. पर आज लगता है कि शायद मेरी यह फ़ितरत सब भांप गए और मुझसे दूर होने लगे. सच मीता, अगर मैं यह प्रपंच वगैरह न करती, तो कम पैसा होता, पर कितनी ख़ुशी होती और कितने अपने मेरे साथ होते. आज बस तुम ही हो, जो मेरा साथ निभा रही हो.
अब तुम देखना मैं वादा करती हूं कि अपनी सोच बदल दूंगी. मैं निस्वार्थ लोगों की मदद करूंगी. बेटी जल्द ठीक हो इसकी कोशिश नए सिरे से करूंगी. कोई मदद मांगने आए, तो गुप्त दान करूंगी." कहते हुए तनु का गला भर आया और वो किसी तरह अपने आंसू रोकने लगी.
"हां तनु, यह ही सही रहेगा. आख़िर ऐसी समुचित मानसिक स्थिति होगी, तो फिर किसी भी हाल में तुम्हारा बुरा कैसे संभव है? अब तुम इसी पल से अपने को बदलकर रख दो. वो मन सुधार लो, जो अपना काम निकालने को परिचय की जोड़-तोड़ करता है. बोलो तनु कुदरत का भी अपना एक अटल क़ानून है. वह अच्छे लोगों से मिलवाती रहती है, मगर जब हम उन सहयोगीजनों को बार-बार नज़रअंदाज़ करते हैं, तो वो हमसे दूर चले जाते हैं. और संसार की कोई भी ताक़त उनको वापस नहीं बुला सकती है. इस मामले में किसी की सिफ़ारिश भी काम नहीं आती. इसमें किसी भी रिश्वत का आदान-प्रदान नहीं होता है. इस अच्छे संबंध को तो आप बाज़ार से नहीं ख़रीद सकते हैं और चाहकर भी इसे आप किसी को नहीं दे सकते हैं. अब यह पूरी तरह से हम सबके ऊपर ही तो निर्भर करता है कि हम जैसा चाहें, इस अच्छी संगति को अंत दे सकते हैं."
"हां मीता सच कहा. इस जीवन को ख़ुशियों से संपन्न करने के लिए मुझको ही यह ज़िंदगी सफल करनी पड़ेगी. इस जीवन के अंदर समझदारी से आगे बढ़ना होगा."
"हां तनु…" कहते हुए मीता की आंखों में तनु की आंखों से टकराती इंद्रधनुषी आभा प्रतिबिंबित होने लगी.

Poonam Pandey
पूनम पांडे

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