"वो कौन-सी छात्रा है, जो मेरा सबसे बढ़िया नकल करती है. उसे तुरंत लेकर आओ." पता चलने पर उस छात्रा को बुलाया गया, पर वो तो डर से कांप रही थी और बहुत घबरा भी रही थी. राशि ने वस्तु स्थिति बताई और समझाया, तो वह अभिनय के लिए तैयार हो गई. फक्कड़-सी उस चौदह साल की बालिका ने प्रभावशाली हावभाव और मज़ेदार संवाद बोलते हुए इतना अच्छा अभिनय किया कि सबने उसकी ख़ूब तारीफ़ की.
शिक्षक की कल्पना का संसार कितना सुंदर और सच्चा होता है कि जल्दी से सच बनकर सामने आ भी जाता है. विद्या के जिस उपवन में अधखिली कली जैसे सलोने विद्यार्थी शिक्षक की देखरेख में संस्कारों और ज्ञान का खाद-पानी पाते हैं, वो कितनी ख़ूबसूरती से खिलकर अपनी महक हर जगह फैला देते हैं. कितनी भव्यता है एक शिक्षक के सपने में कि उसके बोए हुए बीज अंकुरित होकर ख़ूब फलते-फूलते हैं.
सचमुच मिट्टी का खिलौना भी अगर खरा सोना बनना चाहता है, तो उसके लिए सिर्फ़ एक ही विकल्प है शिक्षा और इसका कोई और विकल्प है भी नहीं. यही ईमानदारीवाली मानसिकता लेकर राशि ने अध्यापन को अपना पहला और आख़िरी सपना बनाया. और स्कूल में अध्यापन के पहले दिन ही यह समझ गई थी कि उसका नाम उसके किसी विद्यार्थी ने आज ही 'रायता' रख दिया है. देश के बाकी भावी कर्णाधारों यानी उसके साथियों ने उस नए नाम को तुरंत स्वीकार भी कर लिया है.
अपनी उस पहली नौकरी के पहले दिन राशि जब घर लौट रही थी, तब एकाध बार विचलित ज़रूर हुई, लेकिन कार चलाते हुए रास्ते मे ही उसने ख़ुद को संयत कर लिया. वो जानती थी कि अगर ज़रा-सा भी उदास चेहरा लेकर घर पहुंची, तो मां कहेंगी, "गांव का स्कूल छोड़कर शहर मे पोंस्टिंग करवा लो. तुम कितनी मेहनती हो. हर जगह तुम्हारी ज़रूरत है समझी." यह गांव उसके घर से केवल बारह किलोमीटर की दूरी पर था. राशि को गांव दिलोजान से प्यारा था, इसीलिए भी वो यहां गांव के स्कूल में नौकरी करना चाहती थी.
अगले दिन जब वो स्कूल पहुंची, तो फिर वही हालात थे. बस, एक ही दिन मे काफ़ी बच्चे उसकी जैसी आवाज़ें निकाल रहे थे. राशि ने यह सब नज़रअंदाज़ किया और अपनी ड्यूटी पर ध्यान दिया. वो सामाजिक विषय पढा़ती थी और बिलकुल तन्मय होकर. एक महीने बाद जब पहली अभिभावक शिक्षक बैठक हुई, तो हरेक अभिभावक उससे मिलने ज़रूर आए. सब यही कह रहे थे, "मैडम, आप इतना अच्छा समझाती हैं, इतने आसान ढंग से कि हमारे बच्चे तो उसी समय पूरा पाठ मन में उतार लेते हैं और घर पर हर समय नाम लेते हैं आपका…"
"जी, यही मेरा कर्तव्य है." सुनकर राशि ने आभार व्यक्त करते हुए कहा.
वो यही चाहती थी कि उसका पढ़ाया उसके विद्यार्थियों को आसानी से समझ मे आ जाए, मगर राशि की नकल बनानेवाले… वो उनका करे तो क्या करे? वो शैतान भी तो इसी स्कूल में वहां पर ही थे.
वैसे राशि इस निराशा में ज़्यादा देर रहती नहीं थी. वो तो हर समय अपने विषय मे नयापन लाने के लिए कठिन परिश्रम करती और उसको सरल तरीक़े से बच्चों को कैसे समझाना है इसी पर सोच-विचार करती रहती थी.
यूं भी उसे अपनी तारीफ़ सुनने की कोई इच्छा थी नहीं. समय बीतते-बिताते अब वो सही अर्थों में अपने विद्यार्थियों को उनकी आदतों से जानने लगी थी. उनकी ख़ूबियों पर भी गहरी नज़र रखती वो. कुछ ही समय बाद वो जान गई थी कि एक छात्रा है, जो उसकी बहुत अच्छी नकल उतारती थी. यह बात पानी पिलाते हुए स्कूल की कर्मचारी ने बताई थी. राशि यह सुनकर मन ही मन मुस्कुरा दी.
एक दिन अचानक स्कूल में किसी अधिकारी के आने का कार्यक्रम बना. उस समय संगीत शिक्षिका अपनी टीम लेकर प्रदेश स्तरीय स्पर्धा मे गई थीं. अब क्या प्रस्तुति दी जाए यह समस्या थी. राशि ने तुरंत कर्मचारी को बुलाकर उनसे पूछा, "वो कौन-सी छात्रा है, जो मेरा सबसे बढ़िया नकल करती है. उसे तुरंत लेकर आओ." पता चलने पर उस छात्रा को बुलाया गया, पर वो तो डर से कांप रही थी और बहुत घबरा भी रही थी. राशि ने वस्तु स्थिति बताई और समझाया, तो वह अभिनय के लिए तैयार हो गई. फक्कड़-सी उस चौदह साल की बालिका ने प्रभावशाली हावभाव और मज़ेदार संवाद बोलते हुए इतना अच्छा अभिनय किया कि सबने उसकी ख़ूब तारीफ़ की.
राशि को लगा कि वो ही तो है मंच पर. लगता ही नहीं था कि नाटक का कोई मुलम्मा उस बालिका के किसी भी संवाद में हो. वाह!.. बढ़िया.. लाजवाब.. सब यही कह रहे थे. यह अभिनय बस एकल अभिनय कहकर प्रस्तुत किया गया, इसलिए अधिकारी महोदय को आभास ही नहीं हुआ कि दर्शकों में एक राशि नामक शिक्षिका है, जिसकी नकल उतारी जा रही है.
वाह… वाह… दर्शक दीर्घा में तालियां बजतीं रहीं. हां, कोई चिंगारी थी उस बालिका में यह बात राशि ताड़ गई.
उस दिन प्राचार्या ने इस बात के लिए राशि की खुलकर तारीफ़ की कि राशि ने ना केवल अपनी नकल होते हुए देख, बल्कि स्कूल में एक कार्यक्रम सफलता से होने भी दिया. उसी समय राशि ने यह प्रस्ताव रख दिया कि स्कूल मे एक थियेटर क्लब बना होना चाहिए. प्राचार्याजी तुरंत मान गईं. वहीं पर कमेटी बन गई. नाम रखा गया 'रंगमंच सबके लिए' और अब वो बालिका हर शनिवार को बाल सभा में नए-नए नाटक अभिनीत करने लगी.
कभी साथियों को लेकर समूह में, तो कभी एकल अभिनय. आगे जाकर वो बालिका एक चर्चित रंगमंच कलाकार बनी और उसने एक किताब लिखी, जिसमें उसकी अभिनय की प्रथम गुरू और अभिनय की प्रथम पाठशाला दोनों का एक ही नाम था राशि मैडम.
लेकिन राशि तब भी किसी उपाधि किसी मानपत्र की कामना से रहित बगैर किसी गुमान के बस अपनी साधना मे रमी रही. गांव में बच्चों को सुशिक्षित करने की साधना!
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