“कितने माह बीत गए मृदुल को मेरे जीवन से गए. किंतु मैं तो आज भी उसी मोड़ पर खड़ी हूं, जहां वो मुझे छोड़ कर चला गया था. गहरे अवसाद में चली गई थी मैं. पर किसी के जाने से जीवन रुक नहीं जाता जीना तो पड़ता ही है. द शो मस्ट गो ऑन…"
सन्नाटे को चीरती हुई ट्रेन अपनी पूरी गति से भाग रही थी. धीरे-धीरे रात और गहरी स्याह होती जा रही थी. आसमान, पेड़-पौधे, खेत-खलियान सभी कुछ अंधकार के आग़ोश में थे. दूर -दूर तक कोई रोशनी नहीं थी और आवाज़… आवाज़ के नाम पर महज़ ट्रेन की सीटी थी, जो हर थोड़ी देर में बज कर मेरे एकांत में खलल डाल मुझे बेहद तकलीफ़ दे रही थी.
ट्रेन में सभी यात्री बेसुध और बेफ़िक्र सो रहे थे, किंतु मेरी आंखों में तो नींद कोसों दूर थी. मैं और मेरा साथी.. मेरा अंतर्मन, दोनों बाहर के अंधेरे सन्नाटे में वीलीन हो रहे थे. ये घोर काला सन्नाटा मुझे मेरे जीवन जैसा प्रतीत हो रहा था, जिसमें प्रकाश की कोई उम्मीद नहीं थी. ख़्याल बेलगाम घोड़ों की तरह भागते हुए मुझे अपने साथ खसीट रहे थे. मैं उनको जितना सयंत करने की कोशिश करता, उतना ही वो मुझे मीरा की यादों की तरफ़ खींच रहे थे. मुझे इस समय अपना जीवन निरर्थक प्रतीत हो रहा था. मैं एक स्नातक का प्रोफेसर, जिसने सदा विद्यार्थियों को जीवन के रंगों का पाठ पढ़ाया, ख़ुशियों को सहेजना सिखाया, आज ख़ुद बेरंग निराश-हताश सा बैठा है. मीरा की यादें मुझे बेचैन कर रही थीं. क्यों मीरा ने पैसों के ख़ातिर मेरा प्रेम ठुकरा दिया? उसने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? आख़िर क्या कमी रह गई थी मेरे प्रेम में. मैंने तो पूरी निष्ठा के साथ अपना प्रेम निभाया था. अथाह प्रेम करता था मैं उससे. उसके बिना जीवन जीने की कल्पना मात्र से मैं सिहर उठता था. वो अच्छी तरह जानती थी इस बात को, फिर किस अधिकार से उसने मुझसे बिना पूछे एकतरफ़ा निर्णय लिया? मेरी भावनाओं और प्रेम के साथ खिलवाड़ करके क्यों उसने किसी और के साथ विवाह कर जीवन बिताने का निर्णय ले लिया और वो भी मुझे बिना कोई वजह बताए. क्या वो मुझसे प्रेम नहीं करती थी… ये निरुत्तर प्रश्न मुझे परेशान रहे थे.
बावरा सा हुआ जा रहा था मैं. कितने माह बीत गए थे मीरा को मेरे जीवन से गए. किंतु मैं अभी तक उसे अपने जीवन से निकाल नहीं पाया. अपने आपको उससे अलग नहीं कर पाया था मैं. मैं तो अभी तक उसी मोड़ पर खड़ा था, जहां वो मुझे छोड़ गई थी. अथक प्रयासों के पश्चात भी मैं अपना हृदय मीरा की स्मृतियों से मुक्त नहीं कर पा रहा था. उसकी स्मृतियां साए की तरह मेरे साथ-साथ चल रही थीं. मैं इन्हीं ख़्यालों में उलझा हुआ था कि किसी की सिसकियों ने मेरे ख़्यालों की तंद्रा तोड़ी. मेरे बिल्कुल सामनेवाली सीट पर एक लड़की बैठी रो रही थी. वो कौन थी, कहां से आई.. कब आई, मझे पता ही नहीं चला. उस पर से ध्यान हटाने के लिए मैंने अपना चेहरा खिड़की पर सटा कर पूरा ध्यान बाहर की तरफ़ केंद्रित कर दिया. किंतु उसकी सिसकियां मुझे बार-बार उसकी ओर खींच कर मुझे परेशान कर रही थीं.
“लीजिए.. थोड़ा-सा पानी पी लीजिए.. आपको चैन मिलेगा.“ आख़िरकर विवश होकर मैं बोला.
उसे शायद ये शिष्टाचार लग रहा हो, पर मेरा तो उसे चुप करवाने का अपना स्वार्थ था.
“नही पीना.“ उसका बेरुखी क्रोधवाला स्वर सुन मैं चुप हो पुन: खिड़की से बाहर देखने लगा. उसकी सिसकियां थमने के स्थान पर तीव्र हो मेरे भीतर खलबली मचा मेरे ख़्यालों में विघ्न डाल रही थी. उसकी सिसकियां मुझे और कुंठित कर कानों में पिघला शीसा घोलने जैसा काम कर रही थीं… मैं क्या करूं… नहीं बर्दाश्त हो रहीं थीं मुझसे. आख़िर मेरी भी तो शांति भंग हो रही थी. मैं अपनी तन्हाइयों के साथ शांति से रहना चाहता था. अतः मैंने पुनः प्रयास किया, “पी लीजिए थोड़ा-सा पानी आपको राहत मिलेगी.“ उसकी सिसकियों को विराम देने के इरादे से मैंने उसके समक्ष पानी की बोतल बढ़ा दी. इस बार आशा के विपरीत उसने मेरे हाथ से बोतल लेकर पानी पी लिया. उसकी सिसकियों को थोड़ा-सा विराम लग गया था. मुझे भी कुछ तसल्ली मिली.
कुछ देर के बाद वो थोड़ा सामान्य हुई, पर पता नहीं क्यूं मेरा ध्यान अब मीरा से बाहर निकल कर थोड़ा उस पर केंद्रित होने लगा था. ये उत्सुकता भी बड़ी विचित्र होती है, एक बार मन में आ जाए, तो अपने सभी ख़्याल दरकिनार कर दूसरे पर केंद्रित हो जाती है. अतः मैंने उसकी सिसकियों के कारण को जानने की उत्सुकतावश उससे बातचीत शुरू करने का प्रयास किया.
“आप कहां जा रहीं हैं?“
“कानपुर“
एक संक्षिप्त-सा उत्तर दिया था उसने. कानपुर… कानपुर जानकर कौतूहल से भरा मेरा मन अब और व्याकुल हो गया. बातचीत करने की व्याकुलता और प्रबल हो गई.
“कानपुर… मैं भी कानपुर जा रहा हूं.“ मेरी हैरानी भरे स्वर सुनते ही उसने बस निगाह उठा कर मुझे देखा. फिर अपने आपको संयत करते हुए कुछ ढूंढने लगी.
“कुछ खो गया है क्या? मैं कुछ मदद करूं?”
उसने फिर वही फीकी सी निगाह मुझ पर डाल ढूंढ़ने में व्यस्त हो गई.
उसकी निगाह एक अनकहा सा इशारा कर कह रही थी कि 'प्लीज़, आप अपने काम से काम रखिए. मुझे आपमें और आपसे बात करने में कोई दिलचस्पी नहीं है.' मैं चुप हो पुनः अंधेरी रात को देखने लगा. कुछ देर हमारे बीच मौन पसर गया. किंतु अब तो मेरा सारा ध्यान मीरा की तरफ़ से हट कर उस अनजान लड़की और उसकी सिसकियों की तरफ़ खिचने लगा. ये प्रकृति ने भी मनुष्यों को विचित्र वरदान दिया है और वो है व्याकुलता और उत्सुकता, जिस बात से उसे दूर होने को कहो, व्याकुलता और उत्सुकता उसे उतना ही उसकी तरफ़ चुंबक की तरह अपनी ओर खींच लेतीं है. अब तो उससे बात करने की व्याकुलता और तीव्र होने लगी. ये रोग ही ऐसा है.
“आपके पास क्या आपका मोबाइल फोन है, तो एक मिनट के लिए दीजिए. मेरा फोन नहीं मिल रहा.“ अचानक इस छोटे से प्रश्न से उसने मौन तोड़ा, तो मैंने सहर्ष ही उसे अपना फोन दे दिया. उसने अपना नम्बर डायल किया. उसके फोन की घंटी बजी और समझदारी दिखाते हुए उसने तुरंत मेरे फोन से अपना नम्बर डिलीट भी कर दिया. फोन उसके पर्स में था.
“जी बहुत-बहुत शुक्रिया.“ कह वो गम्भीरता से फोन में कुछ देखने लगी. उसकी आंखें फिर से नम होने लगी.
“आप कहां से आ रही हैं.“ मैंने हिचकते हुए पूछा.
“दिल्ली“ इस बार उसके बिना किसी क्रोध के उत्तर ने मेरा उससे बातचीत करने हौसला और बढ़ा दिया.
“दिल्ली… मैं भी दिल्ली से आ रहा हूं, पर शायद मैंने आपको सामने सीट पर यहां पहले नहीं देखा.“ वार्तालाप को विराम न लगे, इसलिए मैंने उसे ये कह तो दिया, किंतु सत्य तो ये था की अपने ही ख़्यालों की पीड़ा में खोए होने के कारण मुझे स्वयं ही नहीं पता था की वो कब मेरे सामने आई या फिर मेरे आसपास कौन-से यात्री हैं.
“हां, वो मैं स्टेशन पहुंची तो हड़बड़ाहट में दूसरी बोगी में चढ़ गई थी. बाद में अपनी सीट पर आई.“
“ओह… ओके.“
“वैसे आपका कानपुर में कोई रहता है या…” एक क्षण के विराम के बाद मैंने पूछा.
“जी मेरा घर है कानपुर. दिल्ली में तो मैं जॉब करती हूं.“ धीरे-धीरे हम दोनों ही अपने-अपने ख़्यालों के खोल से बाहर निकल कर सामान्य होने लगे थे.
“हाय, मैं निलेश…“ मैंने पूर्णत: दोस्ती के अन्दाज़ में उसको अपना परिचय दिया और उसने इस भाव की गरिमा का मान रखते हुए अपना परिचय दिया.
“हेलो, मानसी.“
कुछ क्षण मौन रहने के बाद मैंने बात आगे बढ़ाने के इरादे से कहा, ”वैसे मैं दिल्ली का रहनेवाला हूं और कानपुर किसी काम से जा रहा हूं… आप दिल्ली में कहां पर जॉब करती हैं?"
“वसंत कुंज“
"मेरे घर से बस थोड़ी दूरी पर ही है वसंत कुंज.“ हमारी बातचीत अब कुछ कुछ सामान्य गति पकड़ रही थी.
कुछ इधर-उधर की फ़ालतू बात करके मैंने उससे कहा, “वैसे कानपुर में जहां मुझे जाना है, उनका पता-ठिकाना तो लाया हूं और फिर आजकल तो गूगल लोकेशन ज़िंदाबाद. किंतु फिर भी अगर कोई समस्या आई, तो आप मेरी मदद कर दीजिएगा. आख़िर आप कानपुरवासी हैं और जो जहां का वासी होता है, वो गूगल मैप लोकेशन को भी फेल कर देता है.“ मेरे इस हल्के से अन्दाज़ से वो मुस्कुराने लगी. हमारे कम्पार्ट्मेंट की मध्यम-सी लैम्प की रोशनी उसके ऊपर पड़ रही थी, जिसमें वो अत्यंत प्यारी लग रही थी और उतनी ही मासूम और मोहक थी उसकी मुस्कुराहट.
मेरी नज़र उसके चेहरे पर टिक गई. एकदम निर्मल, ख़ूबसूरत चेहरा था उसका. उस पर उसे खुले काले केश बार-बार उसके चेहरे से अठखेलियां कर उसे और भी ख़ूबसूरत बना रहे थे. मैं मंत्रमुग्ध-सा उसकी ख़ूबसूरती में खो गया.
तभी ट्रेन की सीटी ने मेरी तंद्रा तोड़ी. हम एक-दूसरे को देखकर मुस्कुराने लगे. कभी बातचीत, तो कभी मौन, यही चल रहा था हम दोनों के बीच. कुछ सहज हो गए थे हम. थोड़ी देर इधर-उधर की बातचीत के बाद हम दोनों एक-दूसरे से दोस्ती के रिश्ते में बंध गए थे. हम अजनबी दोस्त बन गए थे. उससे बात करने के बाद कितने वक़्त के बाद हल्का-हल्का, सुकून-सा महसूस कर रहा था मैं. धीरे धीरे औपचारिकता अब अनौपचारिकता में परिवर्तित हो गई थी. हम बातों में 'आप‘ से ‘तुम‘ पर आ गए थे.
“वैसे अब तो हम दोस्त बन गए हैं, तो अगर एतराज़ ना हो, तो तुमसे एक बात पूछूं.. तुम रो क्यूं रही थी? तुम मुझे बता सकती हो. पीड़ा बताने से सुकून मिलता है और स्वयं को हल्का-सा महसूस होता है.” मैंने उससे अपना सबसे अहम् प्रश्न पूछ लिया. आख़िर इसमें मेरा भी तो स्वार्थ था. मैं भी तो उसे बता कर अपनी वेदना से सुकून चाहता था. अपने दर्द से छुटकारा पाना चाहता था. मैं भी तो भीतर ही भीतर घुट रहा था. मेरा हृदय भी तो पीड़ा से भरा था. मैं भी तो उसके समक्ष अपने हृदय की खिड़कियों को खोलने के लिए व्याकुल था. जीवन में कई बार किसी अपने के समक्ष अपने हृदय खोलकर अपनी पीड़ा से इतना सुकून नहीं मिलता जितना किसी अजनबी के साथ बात करके मिलता है. वो अजनबी निष्पक्ष, निस्वार्थ भाव से आपके भावों का आकलन कर, समझकर आपको सांत्वना का मरहम लगाकर ठंडक भरा एहसास देता है.
मेरा प्रश्न सुनकर उसने मुझे सूनी और नम निगाहों से देखा और बिना कुछ बोले खिड़की के बाहर अंधकार को देखने लगी.
शायद इतना व्यक्तिगत प्रश्न पूछने पर उसे बुरा लग गया… यही सोच मैं चुप हो गया. हमारे बीच मौन पसर गया.
“मृदुल… मृदुल नाम था उसका.” कुछ क्षण बाद उसने मौन तोड़ा.
“एक तेज़ हवा के झोंके की तरह आया वो मेरी ज़िंदगी में और सब कुछ उजाड़ कर चला गया और मैं पागल उस उजड़े चमन में भी प्रेम की बहार तलाशती रही… मैं और मृदुल हम दोनों एक ही कंपनी में जॉब करते थे. अत्यंत गंभीर स्वभाव का किंतु आकर्षक व्यक्तित्व का स्वामी था वो. ऑफिस में कई लड़कियों का कान्हा बन चुका था वो, पर उसे सिर्फ़ अपने काम से प्रेम था. मुझसे भी अतिरिक्त कोई बात न करके सिर्फ़ काम की ही बात करता, पर मैं… मैं उसके व्यक्तित्व की तरफ़ आकर्षित होकर कब उसके मोहपाश में बंध गई मुझे पता ही नहीं चला.
अपनी नारी की गरिमा का मान रखते हुए मैंने कभी पहल नहीं की. वक़्त यूं ही बीत रहा था. उस दिन हमारे ऑफिस में शुक्ला अंकल की सेवानिर्वृत की पार्टी थी. सब अपने में व्यस्त थे, पर उस दिन उसकी निगाहें मुझ पर ही टिकी थीं. मैं थोड़ी असहज हो रही थीं, किंतु सच पूछो तो मुझे अच्छा भी लग रहा था. पार्टी के बाद उसने मुझे घर छोड़ने के लिए कहा, तो मैं सहर्ष तैयार हो गई.
बस, फिर हमारी प्रेम कहानी शुरू हो गई. वो भी मन ही मन मुझे प्रेम करता था, उस दिन मुझे पता चला. मैं और मेरे सपने पंख लगा आसमान में उड़ने लगे. एक दिन उसने मेरे समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा. मुझे तो जैसी मुंह मांगी मुराद मिल गई थी. अगले दिन वो मुझे अपने घरवालों से मिलाने ले जानेवाला था. मैं उसका इंतज़ार करती रही, पर वो नहीं आया. कुछ दिन तो वो ऑफिस भी नहीं आया. मैंने उससे बात करने की, उसके विषय में जानने की हर संभव प्रयास किया, पर कुछ नहीं पता चला. कहीं से भी, किसी से भी उसके विषय में पता नहीं चल पा रहा था. हृदय अनवांछित ख़्यालों से भरने लगा. कितनी पीड़ा हो रही थी मुझे, अनुमान लगाना भी मुमकिन नही था. हार कर मैंने सब कुछ नियति पर छोड़ दिया. दिन उसके इंतज़ार में बीतने लगे. एक दिन अचानक मुझे पता चला कि उसने अपने करियर में आगे बढ़ने के लिए दूसरे शहर की एक बड़ी कम्पनी के मालिक की लड़की के साथ विवाह कर लिया और उन्हीं की कम्पनी जाॅइन करके वहां ख़ुशी से अपना जीवन व्यतीत कर रहा है. जड़वत हो गई थी मैं यह सुनकर. ऐसा लगा कि हृदय की गति रुक गई.
उसकी बेवफ़ाई में बावरी हो गई थी मैं. अथाह प्रेम करती थी मैं उससे. मेरे साथ प्रेम करके विवाह प्रस्ताव मेरे समक्ष रखकर किसी और के साथ कैसे विवाह कर सकता था? दौलत के ख़ातिर उसने विवाह कर लिया पर मुझे किस गुनाह की सज़ा दी थी? क्यूं उसने झूठा प्रेम कर मेरी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया… क्यूं… क्यूं… ये सभी प्रश्न आज भी उत्तर की प्रतीक्षा में है. मैंने तो पूरी निष्ठा के साथ उससे प्रेम किया था. प्रेम तकलीफ़ देता है, ये तो पता था, किंतु अगर वो तकलीफ़ बेक़सूर हो, तो वो नासूर बन रिसने लगता है…” कहते-कहते उसकी सिसकियां पुनः आरंभ हो गई.
“कितने माह बीत गए मृदुल को मेरे जीवन से गए. किंतु मैं तो आज भी उसी मोड़ पर खड़ी हूं, जहां वो मुझे छोड़ कर चला गया था. गहरे अवसाद में चली गई थी मैं. पर किसी के जाने से जीवन रुक नहीं जाता जीना तो पड़ता ही है. द शो मस्ट गो ऑन… मां-पापा ने मुझे वापस कानपुर बुलाया है. कुछ ख़ास काम है.” वो अनवरत बोल रही थी.
कितना विचित्र संयोग था. मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे वो अपनी नहीं मेरी व्यथा सुना रही हो, बिल्कुल एक जैसी. मीरा ने भी तो किसी पैसेवाले से विवाह किया था. मैं अनिमेष दृष्टि से उसे देख रहा था. उसकी आंखें अविरल बह रही थीं. आज वो ही नहीं मैं भी अपने आप को अत्यंत हल्का महसूस कर रहा था. उसकी आंखों से मेरे आंसू बह रहे थे. जो पीड़ा नासूर बन मेरे हृदय में भी रिस रही थी, उस पर अनजाने में मानसी ने मरहम लगा दिया था. मेरी पीड़ा भी मानसी की पीड़ा के साथ बह निकली थी.
“रो लो मानसी… जी भर कर रो लो. आज अपनी पीड़ा इन आंसुओं में सदा के लिए बह जाने दो. आज अपना हृदय इन आंसुओं से निर्मल कर लो, ताकि फिर ये दोबारा आंखों के मेहमान न बने.“
“हम दोनों की एक जैसी ही कहानी है. मीरा भी मेरे जीवन से ऐसे ही चली गई थी जैसे मृदुल.” कुछ क्षण रुक कर मैंने कहा.
कुछ देर के लिए हम मौन हो गए. किंतु हम दोनों के मन बेचैन थे. मौन हमारे बीच वो अनकही बातें कर रहा था, जो शब्द नहीं कर पा रहे थे. मीरा और मृदुल की स्मृतियों से मुक्त होने को इस अवसाद से बाहर आने को हम व्याकुल थे. अत: गहरा सुकून मिल गया था मुझे… संभवतः उसे भी.
“तुमने सच कहा था निलेश. अगर किसी अजनबी के समक्ष अपना हृदय खोल दो, तो अत्यंत सुकून मिलता है. आज कितने माह के बाद कितना सुकून, कितना हल्का महसूस कर रही हूं. ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे मेरा हृदय मृदुल मुक्त हो गया हो."
“मेरा भी मीरा मुक्त“ कह कर हम हंसने लगे.
कितनी उन्मुक्त थी वो हंसी.
“ख़ैर छोड़ो… वैसे तुम कानपुर किस काम से जा रहे हो?“
“लड़की देखने.“
“लड़की देखने अर्थात्…” वो विस्मय और अचंभित भरी निगाहों से मुझे देख रही थी.
“मां की कोई सहेली रहती हैं कानपुर में, उनकी सुपुत्री हैं. मेरी हालत से मां अत्यंत चिंतित हो गई थीं. मेरी ना-नकुर से परेशान हो आख़िर इस बार अपने ब्रह्मास्त्र का इस्तेमाल किया उनकी क़सम और मैं चला आया.”
“क्या नाम है उस लड़की का?”
“पता नहीं… विवाह की इच्छा नहीं थी, अतः न ही नाम पूछा और ना ही उसके विषय में कुछ और. बस उनके घर का पता है सर्वोध्य नगर. “
“सर्वोध्य नगर… कहीं तुम सरला आंटी के बेटे तो नही…” उसने बीच में टोक कर हैरान होकर पूछा.
“हां, पर…” इस बार अचंभित होने की बारी मेरी थी. सुनकर वो हंसने लगी.
“हां, मां ने मुझे बाद में बताया था कि दिल्ली से उनकी सहेली का बेटा आ रहा है.“
“मतलब तुम… अच्छा तो वो लड़की तुम ही हो!“
कुछ देर हम एक-दूसरे को ख़ुशी के मिश्रित भावों से देखकर हंसने लगे फिर से. कितना विचित्र संयोग था हम दोनों का.
सफ़र भी एक और गंतव्य भी एक.
ट्रेन की उस एक सिसकियों वाली रात ने मेरा जीवन ही पूर्ण बदल कर दिया. वो सिसकियों वाली रात मेरे… नहीं.. नहीं, हम दोनों के अंधेरे निराशा भरे जीवन में ऊषा की नई ख़ुशियों भरी किरण लेकर आई थी. एक नई उम्मीद लेकर आई. उस एक रात में हमें मीरा और मृदुल की स्मृतियों से सदा के लिए मुक्ति मिल गई थी और बाहर का घोर अंधकार धीरे-धीरे उजाले की किरण से दूर हो रहा था.
Photo Courtesy: Freepik
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