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कहानी- वो बेवफ़ा नहीं थी… (Short Story- Woh Bewafa Nahi Thi…)

जैसा सुना-पढ़ा था, उस आवाज़ से पीछा छुड़ाने को हनुमान चालीसा दोहराने लगा, तो वो आवाज़ भी मेरी बुदबुदाहट में शामिल हो गई. मैं फंस चुका था, बुरी तरह फंस चुका था और इस अदृश्य शक्ति से भागने का कोई रास्ता भी नहीं था.
“घबराओं नहीं, मैं तुम्हें कोई नुक़सान नहीं पहुंचाऊगी…” उस आवाज़ ने मुझे दिलासा देने की कोशिश की, मगर मैं डर कर भागने की कोशिश करने लगा. यकायक मुझे महसूस हुआ कि मेरे कंधे किसी बोझ से भारी हो चले हैं. अब मेरे शरीर पर मेरा बस नहीं था. ना मैं अपनी मर्ज़ी से पैर उठा सकता था, ना ही चीख सकता था.

दिन की तपन कब ढलकर आसमान में कालिख बन बिछ गई, मुझे कुछ होश ना था. मैंने अधबेहोशी की हालत में करवट ली, तो बिस्तर से लटके हाथ से दिन में खाली की गई बोतले ज़मीन पर शोर करते हुए लुढ़कने लगी. मुझे याद करने में थोड़ा वक़्त लगा कि मैं कहां हूं… आज तड़के सबसे छिपते-छिपाते अपना घर, अपना शहर छोड़ यहां नानी के गांव आ गया था. सात साल पहले इस हवेली की आख़िरी सदस्या नानी का इंतकाल हुआ था. तब से उनकी ये पुश्तैनी जर्जर हवेली वीरान पड़ी थी. आज वही मेरी शरणार्थली बनी थी.
पूरा दिन मैंने किसी पियक्कड़ की तरह गुज़ार दिया था. पीते-पीते कब आंख लगी कुछ पता नहीं था.
मैंने बहुत ज़ोर डालकर नशे में डूबी आंखें खोली और कमरे में चारों ओर नज़र दौड़ाई. छत पर, कोनों में बने अनगिनत जालों में न जाने कितनी मकडियों, कितने कीट उलझे पड़े थे. कबूतरों, चूहों से पूरी हवेली आबाद हो रखी थी. नानी के धूल से सने लकड़ी के बड़े से पलंग पर शायद अभी भी वो ही चादर बिछी थी, जो वो जीते-जी बिछी छोड़ गई थी, क्योंकि उनके जाने के बाद यहां कोई नहीं आया था. मां ने हवेली में बड़े-बड़े ताले लगवाकर चाबी अपनी आलमारी में छिपा रखी थी, जिसे मैं चुपके से लेकर भाग निकला था.
दरअसल, मैं घर से नहीं अपने दर्द से भाग रहा था… उस दर्द से जो मेरे घरवाले, यार-दोस्त सवाल पूछ-पूछकर या उपदेश दे-देकर निरंतर बढ़ा रहे थे. लेकिन कुछ दर्द एकांत चाहते हैं, एक ऐसा कोना खोजते हैं, जहां वे सबसे छिपकर बैठ सकें और रिस-रिस कर बह जाएं. मेरे दर्द ने वो कोना यहां खोजा था.

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कमरे में अजीब-सा सन्नाटा पसरा पड़ा था. पता नहीं क्यों मुझे महसूस हुआ जैसे इस कमरे में मैं अकेला नहीं हूं, कोई और भी है… और ये ख़्याल मुझे डरा गया. मैं धीरे से उठा और पलंग के दाई ओर वाली खिड़की के चरमराए लकड़ी के दरवाज़ों की सांकल खोल उन्हें एक-दूसरे से परे धकेल दिया. वे चरचराहट करते हुए एक-दूसरे से दूर जा खड़े हुए. कुछ पल मैं सोचता रहा, क्या हक़ है मुझे सालों से गलबहियां डाले खड़े इन दरवाज़ों को यूं एक-दूसरे से ज़ुदा करने का? क्या इस वक़्त ये भी उसी दर्द को महसूस कर रहे होंगे, जो मैं कर रहा हूं?


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मुझे भी तो अपने पहले प्रेम से इसी तरह दूर कर दिया गया… एक झटके में… और किसी और ने नहीं, ख़ुद मेरी अपनी प्रेमिका ने… वो जो दिन-रात मेरे प्रेम का दम भरती थी, घरवालों की कुछ धमकी से डर गई… इससे ज़्यादा पीड़ादायक कुछ हो सकता था भला? क्यों किया उसने ऐसा… क्यों… क्यों… क्यों? लुटा-पिटा-सा मैं बस यही एक शब्द, यही एक सवाल साथ ले रेल की पटरियों पर जाकर लेट तो गया था, मगर ऐन वक़्त पर मरने से डर गया. फिर यहां भाग आया… अगली कोशिश के लिए कुछ हिम्मत जुटाने…
सांझ होने पर आभास हुआ हवेली में बिजली नहीं है. मैं खिड़की पर खड़ा हुआ सांझ का धुंधलका स्याह अंधेरे में तब्दील होते देखने लगा. मुझे याद आया हवेली की सभी पिछली तरफ़ की खिड़कियों, दरवाज़ों को खोलने की मनाही हुआ करती थी, क्योंकि हवेली के ठीक पीछे की तरफ़ एक पुराना श्मशान था. ये खिड़की भी उन्हीं में से एक थी. ये आज खुली तो यूं लगा जैसे इस हवेली का सन्नाटा खिड़की से कूद कर श्मशान के सन्नाटे से ऐसे जा मिला जैसे कोई मेले में बिछड़ा बच्चा मां से जाकर चिपट जाए. श्मशान में कुछ चिताएं जल रही थी. उन्हें देख मैं सोचने लगा अगर कल पटरियों से उठकर ना भागा होता, तो आज मैं भी किसी चिता पर लेटा होता… मुक्ति मिल जाती सारे दुखों से, सारी अतृप्त इच्छाओं से, सारे झंझटों से…
“नहीं मिलती…” एक खनकती रहस्यमयी ज़नाना आवाज़ जैसे मेरे कानों में फुसफुसाई. मैं चौंक पड़ा. धड़कनें तेज़ हो चली. माथे पर पसीना छलक आया. इस वक़्त ख़ुद को संभालने का बस एक यही तरीक़ा था कि विश्वास कर लूं, ये आवाज़ मात्र मेरा भ्रम है… मेरी कोरी कल्पना, जो बचपन में हवेली में सुनी-सुनाई बातों की वजह से सामने आई है. मस्तिष्क में बचपन की कुछ स्मृतियां उभरने लगी.
नानी रात को इस कमरे में यही खिड़की खोलकर, इसके नीचे बैठ उपलो पर राई के कुछ दाने डाल अजीब-सी धूनी जलाती और आंखें बंदकर कुछ बुदबुदाती.

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मां उनसे झगड़ा करती.
“कितना बार कहा, हमारे यहां रहने तक ये सब ना किया करो, मन्नु छोटा है, क्या असर पड़ेगा उस पर!”
“मैं क्या करूं बेटा, मजबूर हूं, श्मशान से आत्माएं आकर मुझसे मदद मांगती हैं, उन्हें कैसे ठुकराऊं?” नानी बड़ी लाचार होकर कहती, तो मां ग़ुस्से से भरकर वो खिड़की बंद कर देती. धीरे-धीरे मां ने नानी के पास आना बंद कर दिया और उनके गुज़रने के बाद यहां कभी नहीं आई. तब से ये खिड़की और उसके पार का श्मशान मेरे लिए रहस्य बना हुआ था. जब मां से इस बारे में पूछता, तो वो कहती, "भूत-वूत कुछ नहीं होता, ये सब मन का वहम है…" मगर कुछ तो था, जो मैं नानी की आंखों में और इस कमरे में महसूस किया करता था.
सच तो यह था, मैं बेहद डर गया था. इस डर ने मेरे दर्द को भी बौना कर दिया था… उस दर्द को जिससे मुक्ति पाने के लिए मैं आत्महत्या करने तक की सोच रहा था. मैं यहां आने के अपने क्षणिक फ़ैसले पर पछताने लगा. यही जगह मिली थी मरने को… इससे अच्छा तो किसी कुएं-तालाब में कूद जाता…
“फिर वही बात… कहा ना मर कर अपने दुख से नहीं छूट सकते… मैं भी कहां छूट पाई…” इस बार उस आवाज़ से मैं दहल गया. मेरे पैर पत्तों से कांपने लगे. पूरी तरह साफ़ हो चुका था कि ये मेरा भ्रम नहीं था… ये भी कि मां मुझसे झूठ कहा करती थी कि भूत नहीं होते… काश वो सच बोल देती, तो आज मैं यहां आकर इस मुसीबत में ना पड़ता. जैसा सुना-पढ़ा था, उस आवाज़ से पीछा छुड़ाने को हनुमान चालीसा दोहराने लगा, तो वो आवाज़ भी मेरी बुदबुदाहट में शामिल हो गई. मैं फंस चुका था, बुरी तरह फंस चुका था और इस अदृश्य शक्ति से भागने का कोई रास्ता भी नहीं था.
“घबराओं नहीं, मैं तुम्हें कोई नुक़सान नहीं पहुंचाऊगी…” उस आवाज़ ने मुझे दिलासा देने की कोशिश की, मगर मैं डर कर भागने की कोशिश करने लगा. यकायक मुझे महसूस हुआ कि मेरे कंधे किसी बोझ से भारी हो चले हैं. अब मेरे शरीर पर मेरा बस नहीं था. ना मैं अपनी मर्ज़ी से पैर उठा सकता था, ना ही चीख सकता था. मैं किसी अदृश्य बंधन में था और उससे भाग नहीं सकता था. मैं अपनी पूरी ताक़त लगाकर चिल्लाया, “कौन हो तुम, दिखती क्यों नहीं..?”
“क्या फर्क़ पड़ता है, मैं कौन हूं, कैसी हूं..? तुम मेरी जो चाहो छवि गढ़ सकते हो…”
“प्लीज़ मुझे छोड़ दो… माफ़ कर दो… जाने दो मुझे…” मेरे गिड़गिड़ाने पर वो आवाज़ हंसने लगी.
“जाने दूं, ताकि फिर किसी रेल की पटरी पर लेट जाओ… या खुद को शराब में डुबो डालो… देखो, मेरी बात ध्यान से सुनो… तुम्हारी तरह ही मैं भी अपना प्रेम नहीं पा सकी और दर्द में डूब गई. मुझे भी यही लगा था कि मर कर हर पीड़ा से, हर दुख से मुक्त हो जाऊंगी… मगर मैं ग़लत थी… क्योंकि मौत तो बस एक छलावा है और कुछ नहीं… मरकर सिर्फ़ मेरा शरीर छूटा था… असफल प्रेम की पीड़ा, मां-बाप को दुख देने की ग्लानि, तो इस पार भी मेरे साथ ही चली आई, बल्कि ज़्यादा तीव्र, ज़्यादा तीक्ष्ण होकर… कहां मुक्त हो पाई मैं…”


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मैं वो चेहरा नहीं देख सकता था, मगर उस आवाज़ के दर्द में अपना दर्द महसूस कर पा रहा था, “तो क्या करूं मैं… कैसे मुक्ति मिलेगी इस दर्द से?” मैं टूट गया.
“माफ़ करके… दिल के सारे मलाल मिटाकर उसे माफ़ कर दो… और जो हुआ उसे नियति का खेल मानकर स्वीकार कर लो… बस, यही है मुक्ति का इकलौता उपाय. मुझे ये पहले पता होता, तो मैं आज यूं ना भटक रही होती…तुम्हारी तरह ज़िंदा होती, अपने परिवार के पास…” आवाज़ बेहद संजीदा हो चली थी.
“तुम कर पाई माफ़?”
“हां, कर दिया ख़ुद को भी और अपनों को भी… मगर मैं जो शरीर खो चुकी हूं, वो तो वापस नहीं मिल सकता ना… लेकिन अगर तुम ये काम जीते-जी कर पाए, तो अभी भी मुक्त रहोगे और मर कर भी…”
“कौन हो तुम, क्या तुम मेरी कोई परिचित हो?” अब मैं थोड़ा सहज था, इसलिए पूछ लिया. एक अट्टाहस हवा में तैर गया.
“परिचित हूं तुम्हारी पीड़ा से, तुमसे दर्द का रिश्ता है मेरा… क्या इतना काफ़ी नहीं…” एक लंबे ठहराव के बाद आवाज़ फिर बोली, “बोलो, माफ़ करोगे उसे?”
“हां करूंगा…” जैसे ही मैंने ये कहा, लगा जैसे मेरा शरीर हल्का हो गया… मेरा ख़ुद पर नियंत्रण लौट आया. वो आवाज़ अब वहां नहीं थी……मैं वहां से तेजी से लौट आया. हवेली के अंदर नहीं गया. उसके अहाते में खड़े एक पुराने पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर बैठ रात गुज़ार दी.
बैठे-बैठे पता नहीं कब मेरी झपकी लगी. सुबह आंख खुली, तो देखा मैं चबूतरे पर लेटा हुआ था. देह बुखार में तप रही थी, मगर वो दर्द कहीं नहीं था, जिससे छुटकारा पाने को यहां-वहां भटक रहा था. मां आंखों में आंसू लिए मेरा माथा सहला रही थी, हल्की झिड़कियां देते हुए… उसे देख मैं मुस्कुरा उठा… कांपते होंठों से बोला, “तुम सही कहती थी मां, भूत-वूत कुछ नहीं होता… क्योंकि कभी कुछ गुज़रता ही नहीं… सब रहता है, बस हमें दिखना बंद हो जाता है…” उसका चेहरा बता रहा था कि उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. मां ने मुझे उठाकर गाड़ी में बैठा लिया और हमने घर की ओर रुख कर लिया.

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मैं अभी भी मां के कंधें पर सिर टिकाए आंखें मूंदे था, जिनसे कुछ आंसू रिस रहे थे. मैंने उसे माफ़ कर दिया था… समझने लगा था उसकी मजबूरियों को, उसकी कमज़ोरियों को… हर कोई कहां इतना साहसी होता है, जो प्यार के लिए दुनिया से लड़ सके… और दुनिया के सामने तो तन कर खड़ा भी हो जाए, मगर अपनों के सामने… अपनों के सामने हम कितना कमज़ोर पड़ जाते हैं… मैं भी तो हारकर मरने चला था… तुम जहां रहो, ख़ुश रहो, आबाद रहो… मैं बुदबुदाया.
मां मेरे बालों में हाथ फेरने लगी, फिर धीरे से बोली, "एक बात बतानी थी तुझे… वो… उसकी शादी की रात ज़हर पी लिया था… अस्पताल में तेरा नाम लेते हुए दम तोड़ा… उसके घरवाले अपनी करनी पर ख़ूब रोए, मगर अब क्या फ़ायदा…" मां ने ठंड़ी सांस भरी. मैं चौंक कर बैठ गया. हवेली में सुनी आवाज़ वापस कानों में गूंजने लगी. क्या वही आई थी मुझे संभालने… मुझे मेरे दुखों से उबारने… हां, वही थी… वो… वो बेवफ़ा नहीं थी.

दीप्ति मित्तल

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